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जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ प्रक्षिप्त भी मान लिया जाय तो भी अपनी भाषा-शैली और विषय-वस्तु उल्लिखित इसके दस अध्यायों की चर्चा होती रही है। हो सकता है की दृष्टि से इसका वर्तमान स्वरूप ईसा की ३-४ शती से पहले का कि इसकी माथुरी वाचना में ये दस अध्ययन रहे होंगे। नहीं है। हो सकता है उसके कुछ अंश प्राचीन हों, लेकिन आज उन्हें बहुत कुछ यही स्थिति अनुत्तरौपपातिकदशा की है। स्थानाङ्गसूत्र खोज पाना अति कठिन कार्य है। जहाँ तक भगवतीसूत्र का प्रश्न है, की सूचना के अनुसार इसमें निम्न दस अध्ययन कहे गये हैंविद्वानों के अनुसार इससे अनेक स्तर हैं। इसमें कुछ स्तर अवश्य १. ऋषिदास, २. धन्य, ३. सुनक्षत्र, ४. कार्तिक, ५. संस्थान, ही ई.पू. के हैं, किन्तु समवायाङ्ग की भाँति भगवती में भी पर्याप्त ६.शालिभद्र, ७. आनन्द, ८. तेतली, ९. दशार्णभद्र, १०. अतिमुक्ति। प्रक्षेप हुआ है। भगवतीसूत्र में अनेक स्थलों पर जीवाजीवाभिगम, उपलब्ध अनुत्तरौपपातिकदशा में तीन वर्ग हैं, उसमें द्वितीय वर्ग में प्रज्ञापना, अनुयोगद्वार, नन्दी आदि परवर्ती आगमों का निर्देश हुआ ऋषिदास, धन्य और सुनक्षत्र ऐसे तीन अध्ययन मिलते हैं इनमें भी है। इनके उल्लेख होने से यह स्पष्ट है कि इसके सम्पादन के समय धन्य का अध्ययन ही विस्तृत है। सुनक्षत्र और ऋषिदास के विवरण इसमें ये और इसी प्रकार की अन्य सूचनायें दे दी गयी हैं। इससे अत्यन्त संक्षेप में ही हैं। स्थानाङ्ग में उल्लिखित शेष सात अध्याय यह प्रतिफलित होता है कि वल्लभी वाचना में इसमें पर्याप्त रूप से वर्तमान अनुत्तरौपपातिकसूत्र में उपलब्ध नहीं होते। इससे यह प्रतीत परिवर्धन और संशोधन अवश्य हुआ है, फिर भी इसके कुछ शतकों होता है कि यह ग्रन्थ वलभी वाचना के समय ही अपने वर्तमान स्वरूप की प्राचीनता निर्विवाद है। कुछ पाश्चात्य एवं भारतीय विद्वान् इसके में आया होगा। प्राचीन एवं परवर्ती स्तरों के पृथक्करण का कार्य कर रहे हैं। उनके जहाँ तक प्रश्नव्याकरणदशा का प्रश्न है इतना निश्चित है कि वर्तमान निष्कर्ष प्राप्त होने पर ही इसका रचनाकाल निश्चित किया जा प्रश्नव्याकरण की विषय-वस्तु न केवल स्थानाङ्ग में उल्लिखित सकता है।
विषय-वस्तु से भिन्न है, अपितु नन्दी और समवायाङ्ग की उल्लिखित उपासकदशा आगम-साहित्य में श्रावकाचार का वर्णन करने वाला। विषय-वस्तु से भी भिन्न है। प्रश्रव्याकरण की वर्तमान आस्रव और प्रथम ग्रन्थ है। स्थानाङ्गसूत्र में उल्लिखित इसके दस अध्ययनों और संवर द्वार वाली विषय-वस्तु का सर्वप्रथम निर्देश नन्दीचूर्णि में मिलता उनकी विषय-वस्तु में किसी प्रकार के परिवर्तन होने के सङ्केत नहीं है। इससे यह फलित होता है कि वर्तमान प्रश्नव्याकरणसूत्र नन्दी के मिलते हैं। अत: मैं समझता हूँ कि यह ग्रन्थ भी अपने वर्तमान स्वरूप पश्चात् ई.सन् की पाँचवीं-छठी शती के मध्य ही कभी निर्मित हुआ में ई.पू. की ही रचना है और इसके किसी भी अध्ययन का विलोप है। इतना तो निश्चित है कि नन्दी के रचयिता देववाचक के सामने नहीं हुआ है। श्रावकव्रतों को अणुव्रत और शिक्षाव्रत के रूप में वर्गीकृत यह ग्रन्थ अपने वर्तमान स्वरूप में नहीं था। किन्तु ज्ञाताधर्मकथा, करने के सम्बन्ध में तत्त्वार्थसूत्र में स्पष्टत: इसका अनुसरण देखा जाता अन्तकृद्दशा और अनुत्तरौपपातिकदशा में जो परिवर्तन हुए थे, वे है। अत: यह तत्त्वार्थ से अर्थात् ईसा की तीसरी शती से परवर्ती नहीं नन्दीसूत्रकार के पूर्व हो चुके थे, क्योंकि वे उनके इस परिवर्तित स्वरूप हो सकता है। ज्ञातव्य है कि अनुत्तरौपपातिक में उपलब्ध वर्गीकरण का विवरण देते हैं। इस सम्बन्ध में विस्तृत चर्चा मैंने अपने एक स्वतन्त्र परवर्ती है, क्योंकि उसमें गुणव्रत की अवधारणा आ गयी है। लेख में की है जो 'जैन आगम-साहित्य', सम्पादक डॉ. के.आर.चन्द्रा, ___अङ्ग आगम साहित्य में अन्तकृद्दशा की विषय-वस्तु का उल्लेख अहमदाबाद, में प्रकाशित है।* हमें स्थानाङ्ग सूत्र में मिलता है। इसमें इसके निम्न दस अध्याय उल्लिखित इसी प्रकार जब हम उपाङ्ग साहित्य की ओर आते हैं तो उसमें हैं- नमि, मातङ्ग, सोमिल, रामपुत्त, सुदर्शन, जमालि, भगालि, रायपसेणियसुत्त में राजा पसेणीय द्वारा आत्मा के अस्तित्व के सम्बन्ध किंकिम, पल्लतेतिय, फाल अम्बडपुत्र। इनमें से सुदर्शन सम्बन्धी कुछ में जो प्रश्न उठाये गये हैं उनका विवरण हमें पालित्रिपिटक में भी उपलब्ध अंश को छोड़कर वर्तमान अन्तकृद्दशासूत्र में ये कोई भी अध्ययन नहीं होता है। इससे यह फलित होता है कि औपपातिक का यह अंश मिलते हैं। किन्तु समवायाङ्ग और नन्दीसूत्र में क्रमश: इसके सात और कम से कम पालित्रिपिटक जितना प्राचीन तो है ही। जीवाजीवाभिगम आठ वर्गों के उल्लेख मिलते हैं। इससे यह प्रतिफलित होता है कि के रचनाकाल को निश्चित रूप से बता पाना तो कठिन है, किन्तु इसकी स्थानाङ्ग में उल्लिखित अन्तकृद्दशा का प्राचीन अंश विलुप्त हो गया विषय-वस्तु के आधार पर हम यह कह सकते हैं कि वह ग्रन्थ ई.पू. है। यद्यपि समवायाङ्ग और नन्दी में क्रमश: इसके सात एवं आठ वर्गों की रचना होनी चाहिये। उपाङ्ग साहित्य में प्रज्ञापनासूत्र को तो स्पष्टत: का उल्लेख होने से इतना तय है कि वर्तमान अन्तकृद्दशा समवायाङ्ग । आर्य श्याम की रचना माना जाता है। आर्य श्याम का आचार्यकाल
और नन्दी की रचना के समय अस्तित्व में आ गया था। अत: इसका वी.नि.सं. ३३५-३७६ के मध्य माना जाता है। अत: इसका रचनाकाल वर्तमान स्वरूप ईसा की चौथी-पाँचवीं शती का है। उसके प्राचीन दस ई.पू. द्वितीय शताब्दी के लगभग निश्चित होता है। अध्यायों के जो उल्लेख हमें स्थानाङ्ग में मिलते हैं, उन्हीं दस अध्ययनों इसी प्रकार उपाङ्ग वर्ग के अन्तर्गत वर्णित चन्द्रप्रज्ञप्ति, सूर्यप्रज्ञप्ति के उल्लेख दिगम्बर एवं यापनीय परम्परा के ग्रन्थों में यथा अकलङ्क और जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति- ये तीन प्रज्ञप्तियाँ भी प्राचीन ही हैं। वर्तमान के राजवार्तिक, धवला, अङ्गप्रज्ञप्ति आदि में भी मिलते हैं। इससे यह में चन्द्रप्रज्ञप्ति और सूर्यप्रज्ञप्ति में कोई भेद नहीं दिखाई देता है। किन्तु फलित होता है कि इस अङ्ग आगम के प्राचीन स्वरूप के विलुप्त सूर्यप्रज्ञपित में ज्योतिष सम्बन्धी जो चर्चा है वह वेदाङ्ग ज्योतिष के हो जाने के पश्चात् भी माथुरी वाचना की अनश्रति से स्थानाङ्ग में :
१. इस ग्रन्थ में भी यह लेख प्रकाशित है।
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