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अर्धमागधी आगम साहित्य : एक विमर्श वीरनिर्वाण सम्वत् ६०९ के पूर्व अर्थात् ईस्वी सन् की प्रथम शताब्दी आगमों का रचनाकाल ई.सन् की पाँचवीं शताब्दी नहीं माना जा सकता। का उत्तरार्ध या द्वितीय शताब्दी का पूर्वार्ध सिद्ध होती है। इसी प्रकार डॉ. हर्मन याकोबी ने यह निश्चित किया है कि आगमों का प्राचीन आचाराङ्ग के प्रथम श्रुतस्कन्ध की विषय-वस्तु एवं भाषा-शैली आचाराङ्ग अंश ई.पू. चौथी शताब्दी के उत्तरार्द्ध से लेकर ई.पू. तीसरी शताब्दी के रचनाकाल को अर्धमागधी आगम-साहित्य में सबसे प्राचीन सिद्ध के पूर्वार्द्ध के बीच का है। न केवल अङ्ग आगम अपितु दशाश्रुतस्कन्ध, करती है। अर्धमागधी आगम के काल-निर्धारण में इन सभी पक्षों पर बृहत्कल्प और व्यवहार भी, जिन्हें आचार्य भद्रबाहु की रचना माना विचार अपेक्षित है।
जाता है याकोबी और शुबिंग के अनुसार ई.पू. चतुर्थ शती के उत्तरार्द्ध इस प्रकार न तो हमारे कुछ दिगम्बर विद्वानों की यह दृष्टि समुचित से ई.पू. तीसरी शती के पूर्वार्द्ध में निर्मित हैं। पं. दलसुखभाई आदि है कि अर्धमागधी आगम देवर्द्धिगणि की वाचना के समय अर्थात् ईसा की मान्यता है कि आगमों का रचनाकाल प्रत्येक ग्रन्थ की भाषा, की पाँचवीं शताब्दी में अस्तित्व में आये और न कुछ श्वेताम्बर आचार्यों छन्दयोजना, विषय-वस्तु और उपलब्ध आन्तरिक और बाह्य साक्ष्यों का यह कहना ही समुचित है कि सभी अङ्ग आगम अपने वर्तमान के आधार पर ही निश्चित किया जा सकता है। आचाराङ्ग का प्रथम स्वरूप में गणधरों की रचना है और उनमें किसी भी प्रकार का परिवर्तन, श्रुतस्कन्ध अपनी भाषा-शैली, विषय-वस्तु, छन्दयोजना आदि की दृष्टि परिवर्धन, प्रक्षेप या विलोप नहीं हुआ है। किन्तु इतना निश्चित है कि से महावीर की वाणी के सर्वाधिक निकट प्रतीत होता है। उसकी कुछ प्रक्षेपों को छोड़कर अर्धमागधी आगम-साहित्य शौरसेनी आगम औपनिषदिक शैली भी यही बताती है कि वह एक प्राचीन ग्रन्थ है। साहित्य से प्राचीन है। शौरसेनी आगम-साहित्य का प्राचीनतम ग्रन्थ उसका काल किसी भी स्थिति में ई.पू. चतुर्थ शती के बाद का नहीं कसायपाहुडसुत्त भी ईस्वी सन् की तीसरी-चौथी शताब्दी से प्राचीन हो सकता। उसके द्वितीय श्रुतस्कन्ध के रूप में जो 'आयारचूला' जोड़ी नहीं है। उसके पश्चात् षट्खण्डागम, मूलाचार, भगवतीआराधाना, गयी है, वह भी ई.पू. दूसरी या प्रथम शती से परवर्ती नहीं है। सूत्रकृताङ्ग तिलोयपण्णत्ति, पिण्डछेदशास्त्र, आवश्यक (प्रतिकमणसूत्र) आदि का भी एक प्राचीन आगम है उसकी भाषा, छन्दयोजना एवं उसमें विभिन्न क्रम आता है, किन्तु पिण्डछेदशास्त्र और आवश्यक (प्रतिक्रमण) के दार्शनिक परम्पराओं तथा ऋषियों के जो उल्लेख मिले हैं उनके आधार
अतिरिक्त इन सभी ग्रन्थों में गुणस्थान सिद्धान्त आदि की उपस्थिति पर यह कहा जा सकता है कि वह भी ई.पू. चौथी-तीसरी शती से से यह फलित होता है कि ये सभी ग्रन्थ पाँचवीं शती के पश्चात् के बाद का नहीं हो सकता, क्योंकि उसके बाद विकसित दार्शनिक हैं। दिगम्बर आवश्यक (प्रतिक्रमण) एवं पिण्डछेदशास्त्र का आधार मान्यताओं का उसमें कही कोई उल्लेख नहीं है। उसमें उपलब्ध वीरस्तुति भी क्रमश: श्वेताम्बर मान्य आवश्यक और कल्प-व्यवहार, निशीथ आदि में भी अतिरञ्जनाओं का प्राय: अभाव ही है। अङ्ग आगमों में तीसरा छेदसूत्र ही रहे हैं। उनके प्रतिक्रमण सूत्र में भी वर्तमान सूत्रकृताङ्ग क्रम स्थानाङ्ग का आता है। स्थानाङ्ग, बौद्ध आगम अङ्गुत्तरनिकाय की के तेईस एवं ज्ञाताधर्मकथा के उन्नीस अध्ययनों का विवरण है तथा शैली का ग्रन्थ है। ग्रन्थ-लेखन की यह शैली भी प्राचीन रही है। स्थानाङ्ग पिण्डछेदशास्त्र में जीतकल्प के आधार पर प्रायश्चित्त देने का निर्देश में नौ गणों और सात निह्नवों के उल्लेख को छोड़कर अन्य ऐसा है। ये यही सिद्ध करते हैं कि प्राकृत आगम-साहित्य में अर्धमागधी कुछ भी नहीं है जिससे उसे परवर्ती कहा जा सके। हो सकता है कि आगम ही प्राचीनतम है चाहे उनकी अन्तिम वाचना पाँचवीं शती के जैनधर्म के इतिहास की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण होने के कारण ये उल्लेख उत्तरार्ध (ई.सन् ४५३) में ही सम्पन्न क्यों न हुई हो?
उसमें अन्तिम वाचना के समय प्रक्षिप्त किये गये हों। उसमें जो दस इस प्रकार जहाँ तक आगमों के रचनाकाल का प्रश्न है उसे ई.पू. दशाओं और उसमें प्रत्येक के अध्यायों के नामों का उल्लेख है, वह पाँचवीं शताब्दी से ईसा की पाँचवीं शताब्दी तक लगभग एक हजार भी उन आगमों की प्राचीन विषय-वस्तु का निर्देश करता है। यदि वर्ष की सुदीर्घ अवधि में व्याप्त माना जा सकता है क्योंकि उपलब्ध वह वलभी के वाचनाकाल में निर्मित हुआ होता तो उसमें दस दशाओं आगमों में सभी एक काल की रचना नहीं हैं। आगमों के सन्दर्भ में की जो विषय-वस्तु वर्णित है वह भिन्न होती। अत: उसकी प्राचीनता और विशेष रूप से अङ्ग आगमों के सम्बन्ध में परम्परागत मान्यता में सन्देह नहीं किया जा सकता। समवायाङ्ग, स्थानाङ्ग की अपेक्षा एक तो यही है कि वे गणधरों द्वारा रचित होने के कारण ई.पू. पाँचवीं परवर्ती ग्रन्थ है। इसके प्रारम्भ में द्वादश अङ्गों का स्पष्ट उल्लेख है। शताब्दी की रचना हैं। किन्तु दूसरी ओर कुछ विद्वान् उन्हें वलभी में साथ ही इसमें उत्तराध्ययन के ३६, ऋषिभाषित के ४४, सूत्रकृताङ्ग सङ्कलित एवं सम्पादित किये जाने के कारण ईसा की पाँचवीं शती के २३, सूत्रकृताङ्ग प्रथम श्रुतस्कन्ध के १६, आचाराङ्ग के चूलिका की रचना मान लेते हैं। मेरी दृष्टि में ये दोनों ही मत समीचीन नहीं सहित २५ अध्ययन, दशा, कल्प, व्यवहार के २६ अध्ययन आदि हैं। देवर्धि के सङ्कलन, सम्पादन एवं ताडपत्रों पर लेखन काल को का उल्लेख होने से इतना तो निश्चित है कि यह ग्रन्थ इसमें निर्दिष्ट उनका रचनाकाल नहीं माना जा सकता। अङ्ग आगम तो प्राचीन ही आगमों के स्वरूप के निर्धारित होने के पश्चात् ही बना होगा। पुन: है। ईसा पूर्व चौथी शती में पाटलीपुत्र की वाचना में जिन द्वादश अङ्गों इसमें चतुर्दश गुणस्थानों का जीवस्थान के रूप में स्पष्ट उल्लेख मिलता की वाचना हुई थी, वे निश्चित रूप से उसके पूर्व ही बने होंगे। यह है। यह निश्चित है कि गुणस्थान का यह सिद्धान्त उमास्वाति के पश्चात् सत्य है कि आगमों में देवर्धि की वाचना के समय अथवा उसके बाद अर्थात् ईसा की चतुर्थ शती के बाद ही अस्तित्व में आया है। यदि भी कुछ प्रक्षेप हुए हों, किन्तु उन प्रक्षेपों के आधार पर सभी अङ्ग इसमें जीवठाण के रूप में चौदह गुणस्थानों के उल्लेख को बाद में
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