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जैन विद्या के आयाम खण्ड ६
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के उल्लेख मिलते हैं। आर्य शाकटायन ने अपनी स्त्री निर्वाण प्रकरण एवं अपने व्याकरण की स्वोपज्ञटीका में न केवल मथुरा आगम का उल्लेख किया है, अपितु उनकी अनेक मान्यताओं का निर्देश भी किया है तथा अनेक अवतरण भी दिये हैं। इसी प्रकार भगवती आराधना पर अपराजित की टीका में भी आचाराङ्ग, उत्तराध्ययन, निशीथ के अवतरण भी पाये जाते हैं, यह हम पूर्व में कह चुके हैं।
आर्य स्कंदिल की माथुरी वाचना वस्तुतः उत्तर भारत के निर्धन्य संघ के सचेल अचेल दोनों पक्षों के लिये मान्य थी और उसमें दोनों ही पक्षों के सम्पोषक साक्ष्य उपस्थित थे। यहाँ यह प्रश्न स्वाभाविक रूप से उठता है कि यदि माथुरी वाचना उभय पक्षों को मान्य थी तो फिर उसी समय नागार्जुन की अध्यक्षता में वल्लभी में वाचना करने की क्या आवश्यकता थी मेरी मान्यता है कि अनेक प्रश्नों पर स्कंदिल और नागार्जुन में मतभेद रहा होगा। इसी कारण से नागार्जुन को स्वतन्त्र वाचना करने की आवश्यकता पड़ी।
इस समस्त चर्चा से पं. कैलाशचन्द्रजी के इस प्रश्न का उत्तर भी मिल जाता है कि वल्लभी की दूसरी वाचना में क्या किया गया ? एक ओर मुनि श्री कल्याणविजयजी की मान्यता यह है कि वल्लभी में आगमों को मात्र पुस्तकारुढ़ किया गया तो दूसरी ओर पं. कैलाशचन्द्रजी यह मानते हैं कि वल्लभी में आगमों को नये सिरे से लिखा गया, किन्तु ये दोनों ही मत मुझे एकाङ्गी प्रतीत होते हैं। यह सत्य है कि वल्लभी में न केवल आगमों को पुस्तकारूढ़ किया गया, अपितु उन्हें सङ्कलित एवं सम्पादित भी किया गया किन्तु यह सङ्कलन एवं सम्पादन निराधार नहीं था। न तो दिगम्बर परम्परा का यह कहना उचित है कि वल्लभी में श्वेताम्बरों ने अपनी मान्यता के अनुरूप आगमों को नये सिरे से रच डाला और न यह कहना ही समुचित होगा कि वल्लभी में जो आगम सङ्कलित किये गये वे अक्षुण्ण रूप से वैसे ही थे जैसे— पाटलीपुत्र आदि की पूर्व वाचनाओं में उन्हें सङ्कलित किया गया था। यह सत्य है कि आगमों की विषय-वस्तु के साथ-साथ अनेक आगम ग्रन्थ भी कालक्रम में विलुप्त हुए हैं। वर्तमान आगमों का यदि सम्यक् प्रकार से विश्लेषण किया जाय तो इस तथ्य की पुष्टि हो जाती है। आज आचाराङ्गका सातवाँ अध्ययन विलुप्त है। इसी प्रकार अन्तकृद्दशा, अनुतरौपपातिक व विपाकदशा के भी अनेक अध्याय आज अनुपलब्ध हैं। नन्दीसूत्र की सूची के अनेक आगम ग्रन्थ आज अनुपलब्ध हैं। इस सम्बन्ध में विस्तृत चर्चा हमने आगमों के विच्छेद की चर्चा के प्रसङ्ग में की है। ज्ञातव्य है कि देवर्धि की वल्लभी वाचना में न केवल आगमों को पुस्तकारुढ़ किया गया है, अपितु उन्हें सम्पादित भी किया गया है। इस सम्पादन के कार्य में उन्होंने आगमों की अवशिष्ट उपलब्ध विषय-वस्तु को अपने ढङ्ग से पुनः वर्गीकृत भी किया था और परम्परा या अनुश्रुति से प्राप्त आगमों के वे अंश जो उनके पूर्व की वाचनाओं में समाहित नहीं थे, उन्हें समाहित भी किया। उदाहरण के रूप में ज्ञाताधर्मकथा में सम्पूर्ण द्वितीय श्रुतस्कन्ध के दस वर्ग और अध्ययन इसी वाचना में समाहित किये गये हैं, क्योंकि श्वेताम्बर, यापनीय एवं दिगम्बर परम्परा के प्रतिक्रमणसूत्र एवं अन्यत्र उसके उन्नीस अध्ययनों
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काही उल्लेख मिलता है। प्राचीन ग्रन्थों में द्वितीय श्रुतस्कन्ध के दस वर्गों का कहीं कोई निर्देश नहीं है।
इसी प्रकार अन्तकृद्दशा, अनुत्तरौपपातिकदशा और विपाकदशा के सन्दर्भ में स्थानान में जो दस-दस अध्ययन होने की सूचना है। उसके स्थान पर इनमें भी जो वर्गों की व्यवस्था की गई वह देवर्धि की ही देन है। उन्होंने इनके विलुप्त अध्यायों के स्थान पर अनुश्रुति से प्राप्त सामग्री जोड़कर इन ग्रन्थों को नये सिरे से व्यवस्थित किया था।
यह एक सुनिश्चित सत्य है कि आज प्रश्नव्याकरण की आस्रव संवर द्वार सम्बन्धी जो विषय-वस्तु उपलब्ध है वह किसके द्वारा सङ्कलित व सम्पादित है यह निर्णय करना कठिन कार्य है, किन्तु यदि हम यह मानते हैं कि नन्दीसूत्र के रचयिता देवर्धि न होकर देव वाचक हैं, जो देवर्धि से पूर्व के हैं तो यह कल्पना भी की जा सकती है कि देवधिं ने आस्रव व संवर द्वार सम्बन्धी विषय-वस्तु को लेकर प्रश्नव्याकरण की प्राचीन विषय-वस्तु का जो विच्छेद हो गया था, उसकी पूर्ति की होगी । इस प्रकार ज्ञाताधर्म से लेकर विपाकसूत्र तक के छः अङ्ग आगमों में जो आंशिक या सम्पूर्ण परिवर्तन हुए हैं, वे देवर्धि के द्वारा ही किये हुए माने जा सकते हैं। यद्यपि यह परिवर्तन उन्होंने किसी पूर्व परम्परा या अनुश्रुति के आधार पर ही किया होगा यह विश्वास किया जा सकता है। इसके अतिरिक्त देवर्धि ने एक यह महत्त्वपूर्ण कार्य भी किया कि जहाँ अनेक आगमों में एक ही विषय-वस्तु का विस्तृत विवरण था वहाँ उन्होंने एक स्थल पर विस्तृत विवरण रखकर अन्यत्र उस प्रन्थ का निर्देश कर दिया। हम देखते है कि भगवती आदि कुछ प्राचीन स्तरों के आगमों में भी उन्होंने प्रज्ञापना, नन्दी, अनुयोगद्वार जैसे परवर्ती आगमों का निर्देश करके आगमों में विषय-वस्तु के पुनरावर्तन को कम किया। इसी प्रकार जब एक ही आगम में कोई विवरण बार-बार आ रहा था तो उस विवरण के प्रथम शब्द के बाद 'जाव' शब्द रखकर अन्तिम शब्द का उल्लेख कर उसे संक्षिप्त बना दिया। इसके साथ ही उन्होंने कुछ महत्त्वपूर्ण सूचनाएँ जो यद्यपि परवर्तीकाल की थीं, उन्हें भी आगमों में दे दिया जैसे स्थानाङ्गसूत्र में सात निह्नवों और सात गणों का उल्लेख। इस प्रकार वल्लभी की वाचना में न केवल आगमों को पुस्तकारुढ़ किया गया, अपितु उनकी विषय-वस्तु को सुव्यवस्थित और सम्पादित भी किया गया। सम्भव है कि इस सन्दर्भ में प्रक्षेप और विलोपन भी हुआ होगा, किन्तु यह सभी अनुश्रुति या परम्परा के आधार पर किया गया था अन्यथा आगमों को मान्यता न मिलती।
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सामान्यतया यह माना जाता है कि वाचनाओं में केवल अनुश्रुति से प्राप्त आगमों को ही सङ्कलित किया जाता था, किन्तु मेरी दृष्टि में वाचनाओं में न केवल आगम पाठों को सम्पादित एवं सङ्कलित किया जाता था, अपितु उनमें नवनिर्मित ग्रन्थों को मान्यता भी प्रदान की जाती थी और जो आचार और विचार सम्बन्धी मतभेद होते थे उन्हें समन्वित या निराकृत भी किया जाता था। इसके अतिरिक्त इन वाचनाओं में वाचना स्थलों की अपेक्षा से आगमों के भाषिक स्वरूप में भी परिवर्तन हुआ है।
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