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अर्धमागधी आगम साहित्य : एक विमर्श है। उसमें मात्र “इमानि च सूत्राणि अचेलतां दर्शयन्ति" कहकर इन्हें अर्धमागधी की रचना है। इससे ऐसा लगता है कि यापनीयों ने अपने उद्धृत किया गया है। आदरणीय पंडितजी को यह भ्रान्ति कैसे हो समय के अविभक्त परम्परा के आगमों को मान्य करते हुए भी उन्हें गई, हम नहीं जानते। पुन: ये गाथाएँ भी चाहे शब्दश: उत्तराध्ययन शौरसेनी प्राकृत में रूपान्तरित करने का प्रयास किया था, अन्यथा में न हों, किन्तु भावरूप से तो दोनों ही गाथाएँ और शब्द-रूप से अपराजित की टीका में मूल आगमों के उद्धरणों का शौरसेनी रूप इनके आठ चरणों में से चार चरण तो उपलब्ध ही हैं। उपर्युक्त उद्धृत न मिलकर अर्धमागधी रूप ही मिलता। इस सम्बन्ध में पं० नाथूरामजी गाथाओं से तुलना के लिए उत्तराध्ययन की ये गाथाएँ प्रस्तुत हैं- प्रेमी (जैन साहित्य और इतिहास, पृ० ६०) का निम्न वक्तव्य विचार"परिजुण्णेहि पत्थेहि होक्खामि त्ति अचेलए।
णीय हैअदुवा "सचेलए होक्खं" इदं भिक्खू न चिन्तए।।
"श्वेताम्बर सम्प्रदाय मान्य जो आगम ग्रन्थ हैं, यापनीय संघ शायद "एगया अचेलए होई सचेले यावि एगया।"
उन सभी को मानता था, परन्तु ऐसा जान पड़ता है कि दोनों के आगमों एयं धम्महियं नच्चा नाणी नो परिदेवए।।
में कुछ पाठभेद था और उसका कारण यह हो कि उपलब्ध वल्लभी - उत्तराध्ययन, २/१२-१३ वाचना के पहले की कोई वाचना (संभवत: माथुरी वाचना) यापनीय जिस प्रकार श्वेताम्बर परम्परा में ही चूर्णि में आगत पाठों और संघ के पास थी, क्योकि विजयोदया टीका में आगमों के जो उद्धरण शीलांक या अभयदेव की टीका में आगत पाठों में अर्धमागधी और हैं वे श्वेताम्बर आगमों में बिल्कुल ज्यों के त्यों नहीं बल्कि कुछ पाठभेद के महाराष्ट्री प्राकृत की दृष्टि से पाठभेद रहा है, उसी प्रकार यापनीय परम्परा साथ मिलते हैं। यापनीय के पास स्कंदिल की माथुरी वाचना के आगम के आगम के पाठ माथुरी वाचना के होने के कारण शौरसेनी प्राकृत थे यह मानने में एक बाधा आती है, वह यह कि स्कंदिल की वाचना से युक्त रहे होंगे। किन्तु यहाँ यह भी स्मरण रखना आवश्यक है कि का काल वीरनिर्वाण ८२७-८४० अर्थात् ईसा की तृतीय शती का प्राचीन स्तर के सभी आगम ग्रन्थ मूलत: अर्धमागधी के रहे हैं। उनमें अन्त और चतुर्थ शती का प्रारम्भ है, जबकि संघभेद उसके लगभग २०० जो महाराष्ट्री या शौरसेनी के शब्द-रूप उपलब्ध होते हैं, वे परवर्ती वर्ष पहले ही घटित हो चुका था।" किन्तु पं० नाथूरामजी की यह हैं। विजयोदया में आचारांग आदि के सभी आगमिक सन्दर्भो को देखने शंका इस आधार पर निरस्त हो जाती है कि वास्तविक सम्प्रदाय-भेद ईस्वी से यह स्पष्ट हो जाता है कि वे पूर्णत: शौरसेनी प्रभाव से युक्त हैं। सन् की द्वितीय शताब्दी में न होकर पाँचवीं शती में हुआ। यद्यपि मूलत: आचारांग, उत्तराध्ययन आदि आगम तो निश्चित ही अर्धमागधी यह माना जाता है कि फल्गुमित्र की परम्परा की कोई वाचना थी, किन्तु में रहे हैं। यहाँ दो सम्भावनाएँ हो सकती हैं, प्रथम यही है कि इस वाचना के सम्बन्ध में स्पष्ट निर्देश कहीं भी उपलब्ध नहीं है। माथुरी वाचना के समय उन पर शौरसेनी का प्रभाव आया हो और निष्कर्ष यह है कि यापनीय आगम वही थे, जो उन नामों से यापनीयों ने उसे मान्य रखा हो। दूसरे यह है कि यापनीयों द्वारा उन आज श्वेताम्बर परम्परा में उपलब्ध हैं। मात्र उनमें किंचित् पाठभेद था आगमों का शौरसेनीकरण करते समय श्वेताम्बर परम्परा में मान्य आचारांग तथा भाषा की दृष्टि से शौरसेनी का प्रभाव अधिक था। यापनीय ग्रन्थों आदि से उनमें पाठभेद हो गया हो, किन्तु इस आधार पर भी यह में आगमों के जो उद्धरण मिलते हैं उनमें कुछ तो वर्तमान श्वेताम्बर कहना उचित नहीं होगा कि यापनीय और श्वेताम्बर परम्परा के आगम परम्परा के आगमों में अनुपलब्ध हैं, कुछ पाठान्तर के साथ उपलब्ध भिन्न थे। ऐसा पाठभेद तो एक ही परम्परा के आगमों में भी उपलब्ध हैं। जो अनुपलब्ध हैं, उनके सम्बन्ध में दो विकल्प हैं-प्रथम यह है। स्वयं पं० कैलाशचन्द्रजी ने अपने ग्रन्थ जैन साहित्य का इतिहास- कि मूलागमों के वे अंश बाद के श्वेताम्बर आचार्यों ने अगली वाचना पूर्वपीठिका में अपराजितसूरि की भगवती आराधना की टीका से में निकाल दिये और दूसरा यह कि वे अंश यापनीय मान्यता के प्रक्षिप्त आचारांग का जो उपर्युक्त पाठ दिया है, उसमें और स्वयं उनके द्वारा अंश हों। किन्तु प्रथम विकल्प में इसलिए विश्वास नहीं होता कि सम्पादित भगवती आराधना की अपराजितसूरि की टीका में उद्धृत यदि परवर्ती वाचनाओं में वे सब बातें, जो उस युग के आचार्यों को पाठ में ही अन्तर है--एक में “थीण" पाठ है--दूसरे में “थीरांग' मान्य नहीं थीं या उनकी परम्परा के विरूद्ध थीं, निकाल दी गई होती पाठ है, जिससे अर्थ-भेद भी होता है। एक ही लेखक और सम्पादक तो वर्तमान श्वेताम्बर आगमों में अचेलता के समर्थक सभी अंश निकाल की कृति में भी पाठभेद हो तो भिन्न परम्पराओं में किंचित् पाठभेद दिये जाने चाहिए थे। मुझे ऐसा लगता है कि आगमों की वाचनाओं होना स्वाभाविक है, किन्तु उससे उनकी पूर्ण भिन्नता की कल्पना नहीं (संकलन) के समय केवल वे ही अंश नहीं आ पाये थे जो विस्मृत की जा सकती है। पुनः यापनीय परम्परा द्वारा उद्धृत आचारांग, हो गये थे अथवा पुनरावृत्ति से बचने के लिए "जाव" पाठ देकर उत्तराध्ययन आदि के उपर्युक्त पाठों की अचेलकत्व की अवधारणा का वहाँ से हटा दिये गये थे। मान्यता भेद के कारण कुछ अंश जानबूझकर प्रश्न है, वह श्वेताबम्बर परम्परा के आगमों में आज भी उपलब्ध है। निकाले गये हों, ऐसा कोई भी विश्वसनीय प्रमाण हमें नहीं मिलता
इसी प्रसंग में उत्तराध्ययन की जो अन्य गाथाएँ उद्धृत की गई है। किन्तु यह हो सकता है कि वे अंश किसी अन्य गण की वाचना हैं, वे आज भी उत्तराध्ययन के २३वें अध्ययन में कुछ पाठभेद के के रहे हों, जिनके प्रतिनिधि उस वाचना में सम्मिलित नहीं थे। कुछ साथ उपलब्ध हैं। आराधना की टीका में उद्धृत इन गाथाओं पर भी ऐसे प्रमाण उपलब्ध हैं कि विभिन्न गणों में वाचना-भेद या पाठभेद शौरसेनी का स्पष्ट प्रभाव है। यह भी स्पष्ट है कि मूल उत्तराध्ययन होता था।
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