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डॉ सागरमल जैन : व्यक्तित्व एवं कृतित्व
प्रोफेसर सागरमल जैन ने अपने कथन की पुष्टि के लिये 'सुमंगल विलासिनी अट्ठकथा' से लम्बा मूल गद्यखण्ड भी उद्धत किया है, जिससे उनके द्वारा बौद्ध धर्म-दर्शन के मूल ग्रन्थों, उनकी टीकाओं और अट्ठकथाओं के अध्ययन की भी जानकारी मिलती है। यहाँ यह भी ज्ञातव्य है कि प्रोफेसर जैन ने अट्ठकथाकार की भूल को भी इङ्गित किया है और उसकी पुष्टि में जैनागमों से प्रामाणिक उद्धरण प्रस्तुत किये है। क्योंकि राहुल जी का अनुवाद अट्ठकथा पर आधारित है ।
प्रोफेसर जैन ने अपने इस निबन्ध संकलन में सम्पादन के मापदण्डों को आधार बनाकर पाठ संशोधन का भी सुझाव दिया है, जिससे उनका पाठ संशोधन-सम्पादन कला के प्रति समर्पणभाव प्रकट होता है।
प्रोफेसर जैन का अध्ययन केवल जैन-बौद्ध धर्म-दर्शन के ग्रन्थों तक ही सीमित नहीं है, अपितु उन्होंने वैदिक ग्रन्थों का भी गहराई से अध्ययन किया है और सम्प्रदाय विशेष से बाहर निकालने का प्रयास किया है। वस्तुतः भारतीय संस्कृति के उन्नायक और प्राचीन आद्य ग्रन्थ ऋग्वेद आदि किसी सम्प्रदाय विशेष की निधि हो भी नहीं सकते हैं। हाँ ! यह बात अलग है कि इन ग्रन्थों की रक्षा वैदिक संस्कृति के उपासकों ने की है और उसी संस्कृति के प्रतीकों को आधार बनाकर ऋचाओं की व्याख्या भी की है। किन्तु जब उन्हीं ऋचाओं की व्याख्या अन्य सम्प्रदायों के प्रतीकों से मेल खाती है और उनकी व्याख्या तत् तत् सम्प्रदाय अपने प्रतीकों का समावेश करके करते हैं तो उन ऋचाओं की सार्वजनीनता की पुष्टि होती है । इसी दृष्टि को ध्यान में रखते हुये प्रोफेसर जैन ने जैन प्रतीकों को आधार बनाकर वैदिक ऋचाओं की जैन दृष्टि से जो सूक्ष्म व्याख्या की है वह चिन्तन के लिये एक अवसर प्रदान करती है । बहुप्रसिद्ध एक वैदिक ऋचा है
चत्वारि शृङ्गा त्रयो अस्य पादा द्वे शीर्षे सप्तहस्तासो अस्य ।
त्रिधा बद्धो वृषभो रोखीति महो देवो मर्त्यां आ विवेश ।। (४.५८.३ )
इस ऋचा की जैन प्रतीकों के आधार पर प्रोफेसर जैन द्वारा की गई व्याख्या इस प्रकार है- "तीन योगों अर्थात् मन, वचन व काय से बद्ध या युक्त ऋषभदेव ने यह उद्घोषणा की कि महादेव अर्थात् परमात्मा मृत्यों में ही निवास करता है, उसके अनन्त चतुष्टय रूप अर्थात् अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्तसुख व अनन्तवीर्य - ऐसे चार शृङ्ग हैं और सम्यग्दर्शन, ज्ञान व चारित्र रूप तीन पाद हैं। उस परमात्मा के ज्ञानउपयोग व दर्शन-उपयोग-ऐसे दो शीर्ष हैं तथा पाँच इन्द्रियाँ, मन व बुद्धि-ऐसे सात हाथ हैं। शृङ्ग आत्मा के सर्वोत्तम दशा के सूचक हैं जो साध की पूर्णता पर अनन्त चतुष्टय के रूप में प्रकट होते हैं और पाद उस साधना मार्ग के सूचक है जिसके माध्यम से उस सर्वोत्तम आत्मा-अवस्था को प्राप्त किया जा सकता है। सप्त हस्त ज्ञान प्राप्ति के सात साधनों को सूचित करते हैं। ऋषभ को त्रिभाबद्ध कहने का तात्पर्य यह है कि वह मन, वचन एवं काययोगों की उपस्थिति के कारण ही संसार में है। बद्ध का अर्थ संयत या नियन्त्रित करने पर मन, वचन व काय से संयत ऐसा अर्थ भी किया जा सकता है।"
प्रोफेसर जैन द्वारा उक्त ऋचा की यह व्याख्या स्वागतेय है। साथ ही इसी प्रकार की अन्य अनेक ऋचाओं की जैन दृष्टिपरक व्याख्या एक नवीन दृष्टि देती है और विद्वानों को चिन्तन करने के लिये मजबूर करती है। किसी भी विचार का प्रवर्तन यदि विद्वज्जनों के हृदय को झकझोर दे तो उसकी सार्थकता स्वतः सिद्ध हो जाती है और यही हुआ है प्रोफेसर जैन की उक्त जैनदृष्टि परक व्याख्या से ।
-प्रोफेसर जैन ने 'निर्युक्ति साहित्य : एक पुनर्चिन्तन' में यद्यपि मुनि पुण्यविजय जी के लेख को उपजीव्य बनाया है, किन्तु उन्होंने अपने इस लेख में अन्य अनेक नवीन स्थापनायें भी प्रस्तुत की हैं और अपने निष्कर्षो को भी वे अन्तिम सत्य नहीं मानते हैं, जिससे शोध खोज के क्षेत्र में प्रोफेसर जैन की अनाग्रही दृष्टि प्रकट होती है।
जैन-बौद्ध दर्शन के पारिभाषिक शब्दों के अर्थ निर्धारण एवं उनके अनुवाद की जो समस्यायें सम्प्रति विद्वानों के सम्मुख उपस्थित हैं उन पर विचार करते हुये प्रोफेसर जैन ने अर्थ निर्धारण के लिये शास्त्रों में ही निवद्ध नियमों का पुनरुद्घाटन किया है, जिन्हें कुछ तथाकथित विद्वानों
ने
अछूत की तरह अलग-थलग कर दिया है। वस्तुतः शब्दों / पदों का अर्थ कैसे निश्चित किया जाये ? इसकी जानकारी शास्त्र स्वयं देते हैं । हमें तो केवल इतना ध्यान रखना है कि उन शब्दों अथवा पदों के प्रयोग में शास्त्रकार की मुख्य विवक्षा क्या है ?
सम्पादन के नाम पर दिगम्बर और श्वेताम्बर जैनागमों का भाषिक स्वरूप परिवर्तित कर अनेक विद्वानों ने अपने-अपने पक्ष की जो पुष्टि की है उससे प्रोफेसर जैन चिन्तित हैं। अतः आगम सम्पादन के लिये उन्होंने जिन वैज्ञानिक एवं शोधपरक मापदण्डों को प्रस्तावित किया है वे निश्चित ही मननीय है। श्रद्धा के अतिरेक में बहकर आगम सम्पादन का विरोध करने वालों के प्रति प्रोफेसर जैन का निम्न कथन युक्ति संगत ही है कि "क्या अर्धमागधी आगम अपने वर्तमान स्वरूप में सर्वज्ञ की वाणी है? क्या उनमें किसी प्रकार का विलोपन, प्रक्षेप या परिवर्तन नहीं हुआ है ? यदि ऐसा है तो उनमें अनेक स्थलों पर अन्तर्विरोध क्यों है? कहीं लौकान्तिक देवों की संख्या आठ है तो कहीं नौ क्यों है ? कहीं चार स्थावर और दो त्रस है, कहीं तीन त्रस और तीन स्थावर कहे गये तो कहीं पाँच स्थावर और एक त्रस यदि आगम शब्दश: महावीर
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