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डॉ सागरमल जैन : व्यक्तित्व एवं कृतित्व
८७ समय 'सूरिमंत्र' एवं 'अंगन्यास' क्रियायें आज भी प्रचलित हैं।
लेखक का यह मत सही प्रतीत होता है कि जैनसंघ में तंत्र-साधना का रुझान दो कारणों से बढा (१) संघीय जीवन की प्रधानता, सुरक्षा तथा श्रावकों का भौतिक कल्याण (२) वर्धमान तांत्रिक प्रभाव से श्रावकों को परिरक्षित करना
जैन इतिहास पर विहंगम दृष्टि डालने पर ज्ञात होता है कि जैन परंपरा में प्रवृत्ति मार्गी तांत्रिक साधनाओं का प्रारंभ वज्रस्वामी (प्रथमसदी) के समय से मिलने लगता है । कल्पसूत्र आदि में विद्याधर मुनि, जंघाचारी श्रमणों का उल्लेख है । मथुरा के शिलांकन में भी आकाशगामीश्रमण चित्रित हैं। श्रमणों के चैत्यवास के प्रारंभ से तो जैनों में मंत्र-तंत्र स्वीकृत होते ही गये । लेखक ने प्रथम सदी से लेकर तेरहवीं सदी के बीच दो दर्जन से अधिक जैनाचार्यों के नाम दिये हैं जिन्होंने तंत्र-विद्या के माध्यम से ही धर्म प्रभावना और संघ-रक्षा की। अन्य पंरपराओं से तंत्र की प्रभावकता देखते हुए उन्होंने जैन देव-मंडल में शासन-रक्षक, यक्ष-यक्षी, विद्यादेवी, दिक्पाल, लोकपाल, क्षेत्रपाल तथा नवग्रह आदि का समाहरण किया। अनेक विधि-विधानों का भी जैनीकरण पूर्वक समाहरण हुआ। यद्यपि जैनों में समाहरण चौथी-पांचवीं सदी से धीरे धीरे प्रारंभ हुए पर आठवीं-नवमीं सदी और उसके बाद तो ये साधना और पूजा के अनिवार्य अंग बन गये । इससे जैन उपासकों की निष्ठा अपने धर्म में बनी रही और धर्म की प्रभावना बढ़ी।
अपने गहन तुलनात्मक अध्ययन से लेखक ने यह मत व्यक्त किया है कि वर्तमान में जैनों के अनेक विधि-विधान, पूजा, मंत्र-यंत्र प्रतिष्ठा आदि के प्रचलन में तंत्र परंपरा का पर्याप्त योगदान है। ध्यान की प्रक्रिया को छोड़कर प्राय: सभी कर्मकांडों के लिए तंत्र-परंपरा ही आधार बनी है जिसमें जैनीकरण मात्र हुआ है।
द्वितीय अध्याय में जैन देव-कुल के विकास का विवरण है । सामान्यत: भक्तिवादी साधना में लौकिक एवं आध्यात्मिक उद्देश्यों के लिए अनेक देवी-देवताओं की अनेक माध्यमों से उपासना की जाती है । प्रारंभ में जैनों में २४ तीर्थंकर ही उपासक बने । उत्तरवर्तीकाल में भूत और भावी तीर्थकर तथा विदेह आदि के तीर्थंकरों का भी उपास्य के रूप में समाहरण हुआ पर उनकी वीतारागता और कर्मवाद के सिद्धांत ने मानव को मनोवैज्ञानिवतः शांत नहीं किया। वे हमारा न आध्यात्मिक और न ही भौतिक कल्याण कर सकते हैं ? अपने भौतिक कल्याण हेतु सर्वप्रथम महापुरुषों की ओर ध्यान गया। ६३ शलाका पुरुषों और बाद में कामदेव (२४) रुद्र (११), नारद (९), कुलकर (१४), और तीर्थंकरों के मातापिता (९८) इस प्रकार कुल मिलाकर १६९, (त्रिलोकप्रज्ञप्ति) का परिगणन हुआ। पर वे भी उपास्य न बन सके । फलत: ऐहिक जीवन के कल्याण हेतु अन्य परंपराओं से प्रभावित होकर तीर्थंकर-उपासक, संसारी जीवों के लिए हितकारी एवं संसारी यक्ष-यक्षी (४८) महाविद्या देवी (१६), दिक्पाल (१०), ग्रह (९), योगिनी (६४) वीर (५२) तथा अनेक क्षेत्रपालों (भैरवों) के समान देवी-देवताओं के कुल की कल्पना की गई । इनमें से अनेक उल्लेख आगमों एवं मथुरा के शिल्पांकनों में मिलते हैं। लेकिन उनका उपास्य के रूप में स्वीकरण तो पांचवीं-छठी सदी (त्रिलोकप्रज्ञप्ति) से लेकर १०-११वीं सदी के बीच विकसित होता रहा है । लेखक के मन से यह समाहरण तंत्र-साधनाओं से प्रभावित रहा है क्योंकि (१) यक्ष-यक्षियों आदि के नाम प्राय: परम्परानुसार हैं और (२) उनके प्रतिमा लक्षण भी इसी परंपरा से पर्याप्त प्रभावित हैं । दसवीं सदी के बाद से ही इस जैन देव-कुल से संबंधित साहित्य का भी बहुमात्रा में सृजन प्रारंभ हुआ। यही नहीं, जैनों ने देवकुल को विस्तारित भी किया है- विद्याओं की अधिष्ठायिका देवियां और लोकांतिक देवों की धारणा इसके प्रमाण हैं।
लेखक ने बताया है कि इस देव-कुल की उपास्यता की जैन-मान्यता उनके स्वयं के कारण नहीं, अपितु उनके तीर्थंकर उपासक होने के कारण है । यह संपूर्ण देवकल ऋद्धि-सिद्धि संपन्न होता है और ऐहिक कामनाओं की पूर्ति में सहायक होता है। इनकी उपास्यता तांत्रिक देवदेवी/शक्ति उपासना का जैनीकृत रूप है । यह देवकुल जैन कर्मकांड के लिये क्रमश: मान्य होता गया । इस पुस्तक में इस समाहरित देवकुल का संक्षिप्त पर सामान्यजन के लिए ज्ञानवर्धक विवरण, अनेक सारणियों के माध्यम से दिया गया है।
तीसरे और छठे अध्याय में पूजा-विधान, नामस्मरण एवं जपों के समान कर्मकांडों का विवरण है। वस्तुत: प्रवृत्तिमार्गी तांत्रिक साधना कर्मकांड से ही प्रारंभ होती है चाहे उसका उद्देश्य कुछ भी हो। इसके विपर्यास में, आध्यात्मिक तंत्रों में तप, स्वाध्याय एवं ध्यान समाहित होते हैं। जैनों में इनकी प्रतिष्ठा ही अधिक रही है । जैनों के प्रारंभिक ग्रन्थों में, इसीलिये, अन्य परंपराओं के उपरोक्त कर्मकाण्डों को आध्यात्मिकत: परिभाषित किया गया है और वे भौतिक कर्मकाण्ड के विरोधी रहे हैं। फिर भी, यदि आहार-विहार आदि को कर्मकांड माना जाय, तो उसका उल्लेख साधुओं के षडावश्यक तथा गृहस्थों के प्रोषध (आहार-संयमन) के रूप में प्रारम्भ से ही मिलता है । आगमों में यक्षपूजा एवं जिन-पूजा के उल्लेख मिलते है पर पूजा-विधि का समग्रवर्णन नहीं मिलता। राजप्रश्नीय में अवश्य पूजन, स्तवन, गान, नृत्य, नाटक आदि के उल्लेख हैं पर वे परवर्ती या सामयिक प्रतीत होते हैं, कुंदकुद के रयणसार में गृहस्थों के लिए पूजा और दान के उल्लेख हैं । लेखक का यह मत समुचित ही प्रतीत होता है कि इन उल्लेखों के कारण ही गृहस्थों में ये प्रवृत्तियां प्रमुख हुई हैं और व्रतपालन द्वितीयक हो गया । उत्तरकाल में पूजा को
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