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डॉ सागरमल जैन : व्यक्तित्व एवं कृतित्व
७५ पुस्तक का समापन वैदिक परम्परा के ऋणत्रय की अवधारणा से होता है । ऋणत्रय की अवधारणा वैदिक परम्परा को जो शीर्षस्थ स्थान विश्व चिंतन में देता है, वह सर्वथा अप्रतिम है । पितृऋण-से तब तक उद्धार नहीं जब तक अपनी तरह स्वस्थ सम्मुन्नत सन्तति-धारा हम आगे नहीं बढ़ाते । ऋषि ऋण से तब तक उद्धार नहीं जब तक ऋषियों से प्राप्त सारे ज्ञान-विज्ञान की धारा को हम आगे नहीं बढ़ाते । देवऋण से तब तक उद्धार नहीं जब तक देवों की प्रदत्त प्रकृति-की शस्यश्यामला नदी-पर्वत, पशु, पक्षी, वनौषधियों का हम विस्तार नहीं करते-परस्परं भावस्ततः। जब तक प्रकृति के कण-कण में हम अपनी छबि नहीं देखते तब तक हमारा उद्धार नहीं । आज विश्व बाजारीकरण एवं प्राकृतिक संसाधनों के दोहन के फलस्वरूप पर्यावरण के दूषण से मनुष्य के अस्तित्व का जो संकट उत्पन्न हुआ है- वह न होता । ऋण भय का चिन्तन हमें 'सत्यं, शिवम् सुंदरम्' के साक्षात्कार के प्रति आकृष्ट करता है। विज्ञान, तकनीकी एवं वैश्वीकरण से उत्पन्न विसंगतियों से त्राण पाने की दिशा में मानवमात्र के लिए डॉ० सागरमल जैन की यह 'लघुमञ्जूषा' सर्वथा सामयिक कृति है। उन्हें पुन: बधाई ।
अध्यक्ष - धर्म एवं दर्शन विभाग, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी ।
ऋषिभाषित : एक अध्ययन*
... एक अभिमत म० विनयसागर
ऋषिभाषित जैन वाङ्मय के प्राचीनतम ग्रन्थों में से एक है तथा इसे सर्वप्रथम प्रकाश में लाने का श्रेय जर्मन विद्वानों को है। यह भारतीय संस्कृति में रही समन्वय तथा सर्व-धर्म-समभाव की भावना का प्रतिनिधि ग्रन्थ है। संघबद्धता में जब कट्टरता प्रवेश करने लगती है तब समन्वयात्मकता धीरे-धीरे कम होती जाती है। संभवत: यही कारण है कि परवर्ती अनेक जैन मान्यताओं में इस ग्रन्थ को स्थान नहीं मिला।
प्राकृत भारती ने जब इस ग्रन्थ को हिन्दी तथा अंग्रेजी अनुवादों सहित प्रकाशित करने का निर्णय किया तब प्रश्न उठा कि इस ग्रन्थ की भूमिका कौन लिखे? परम्परा के आग्रह से बंधे व्यक्ति के लिए यह कार्य दुष्कर होगा अत: स्वतन्त्र व तटस्थ दृष्टिकोण वाले विद्वानों के नामों पर विचार हुआ। अपने निराग्रह चिन्तन तथा तुलनात्मक शैली के कारण डॉ० सागरमलजी का नाम चुना गया तथा उन्होंने अपनी सभी व्यस्तताओं के बीच यह कष्टसाध्य कार्य पूर्ण किया। मूल ग्रन्थ की भावना के प्रति न्याय करते हुए उन्होंने इसके दार्शनिक पक्ष को ही नहीं ऐतिहासिक पक्ष को भी भली-भाँति प्रस्तुत किया है। ऋषिभाषित में चर्चित ऋषि केवल श्रमण परम्परा के नहीं हैं। समस्त भारतीय वाङ्मय में संभवत: यह प्रथम ग्रन्थ है जिसमें वैदिक, बौद्ध तथा जैन तीनों परम्पराओं के प्रतिनिधि ऋषियों को समान स्तर पर रखकर उनके दार्शनिक प्रतिपादनों की चर्चा की
डॉ० सागरमलजी की यह विस्तृत तथा शोधपूर्ण भूमिका ऋषिभाषित के अविभाज्य अंग की तरह बन गई है। इसे पढ़ें तो ऋषिभाषित पढ़ना पड़ेगा और ऋषिभाषित पढ़ें तो इसे पढ़ना आवश्यक हो जाएगा। इस अविभाज्यता के साथ ही यह भूमिका अपने आप में एक स्वतंत्र पुस्तक के सभी मापदण्डों को पूरा करती थी, इसी कारण इसे वह रूप भी दिया गया। इसकी उपयोगिता मूल ग्रन्थ के समान ही बहुआयामी और समयातीत है। इसी उपयोगिता को देखते हए इसका अंग्रेजी अनुवाद भी साथ ही प्रकाशित कर दिया गया था । विद्वज्जनों ने दोनों संस्करणों को ही सराहा है।
निदेशक-प्राकृत भारती अकादमी, जयपुर ।
*प्रकाशक- राजस्थान प्राकृत भारती संस्थान जयपुर, १९८८ मूल्य - रु- ३०
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