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श्रीमद्भगवद्गीता
जिनको सम्यक् लीन हो चुके, उन्हींको मुनि कहते हैं । इस अवस्था के आसे साधक कपिलवर्ग मण्डलके भीतर आत्मदर्शन करते हैं । कपिलदेव पूर्व जन्म में साधनाका अंग, सब समाप्त करके शरीर त्याग कर दिया था इससे उनका फल भोग केवल मात्र बाकी रहा । पुनजन्म प्राप्तिमात्र ही उन समस्त साधना के फल उसमें उपस्थित हुए थे; इसलिये उसको जन्मसिद्ध कहते हैं । मेरा जन्म भी नहीं; साधनाका साङ्गोपाङ्ग समस्त सिद्धि भी हममें निरन्तर विद्यमान है, इसलिये मैं सिद्धोंके भीतर " कपिलमुनि" हूँ ॥ २६ ॥
उच्चैःश्रवसमश्वानां विद्धि माममृतोद्भवम् ।
ऐरावतं गजेन्द्राणां नराणाञ्च नराधिपम् ॥ २७ ॥
अन्वयः । मी अश्वानां (मध्ये ) अमृतोद्भवं उच्चैःश्रवसं, गजेन्द्राणां ऐरावतं, नराणां च नराधिपं विद्धि ॥ २७ ॥
अनुवाद | अश्वोंके भीतर अमृतोद्भव उच्चः श्रवा कह करके मुझको जानना, गजेन्द्रों के भीतर ऐरावत और मनुष्योंके भीतर नरपति कहकर जानना ॥। २७ ॥
व्याख्या । जब साधक सुषुम्नाके भीतर ब्रह्मनाड़ीसे होकर ( उस ब्रह्म को ही क्षीरसमुद्र कहते हैं ) यथोपदिष्ट मत में आवागमन करते हैं उसीको समुद्रमथन कहते हैं । क्रिया करते करते प्रवह, संवह, विवह, उद्वह, श्रावह, परिवह, और परावह इन सात प्रधान वायुका उदय होता है। इनके भीतर संवहके परिवार भुक्त अपान; विवहका समान, उद्वहका व्यान, आवहका उदान और परिवहका प्राण है । प्राणका कार्य शरीर के भीतर रहकर शरीरकी रक्षा करना, और पान का कार्य शरीर के भीतरसे प्राणको बाहर ला फेकना है । प्रति निश्वास-प्रश्वास में ही इन दो वायुओं का संघर्ष चल रहा है । परन्तु क्रिया - कालके संघर्ष में थोड़ीसी विशेषता है । प्रत्येक कमलके प्रत्येक दल में शक्तिरूप से एक एक वायु रहते हैं। वह जो एक एक वायु है, उन