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पञ्चदश अध्याय
१६७ अन्वयः। तस्य (संसारवृक्षस्य ) शाखाः (शाखास्थानीयाः हिरण्यगर्भादयः जीबाः ) अधश्चोवं प्रसृताः ( जीवानां मध्ये ये दुष्कृतिनः ते अधः पश्वादियोनिषु विस्तारं गताः सुकृतिनश्चोध्वं देवादियोनिषु प्रसृताः ), गुणप्रवृद्धाः ( उपादानभूतः सत्त्वरजस्तमोभिः गुणः स्थूलीकृताः ), विषयप्रवालाः (विषयाः रूपादयः प्रवाला: पल्लवस्थानीया याषां ताः) मूलानि अधश्च (च शब्दादूध्वं च ) अनुसन्ततानि ( विरूढानि, मुख्यं मूलमीश्वरे एव इमानि त्वन्तरालानि मूलानि तत्तद्भोगवासनालक्षणानि ), मनुष्यलोके कर्मानुबन्धीनि ( कर्म एच अनुबन्धी उत्तरभावी येषां तानि)॥२॥
अनुवाद। उसी संसार-वृक्ष की शाखा समूह अधो और ऊर्ध्व दिशामें विस्तृत हैं, गुणत्रय द्वारा प्रवद्वित तथा विषयरूप पल्लव-संयुक्त हैं, मूल सब अधोदिशामें भी विरूढ़ और मनुष्यलोकमें कर्मानुबन्धी (धर्माधर्मलक्षण कम के उत्पादक ) हैं ॥२॥
व्याख्या। वह जो अधाशाखा हाथ और पग इत्यादि पूर्व श्लोक में कही गयी हैं, यह सबही कर्मकरी शक्तिको लक्ष्य करके कही हुई । हैं। यह कर्म दो प्रकारके हैं, भला और बुरा। भला सब ऊध्वगति
और बुरा सब अधोगति लिये। भली गति जो लोग लिये, वह लोग मूलाधारसे क्रम अनुसार इस जगतकी सृष्टिकरी शक्तिको अपने कब्जे में लाकर अबाध-आज्ञा पाके ब्रह्मा सज बठे। साधन ही इसका मूल है। और जो लोग अधोगति लिये, वे सब आज्ञाचक्रसे प्रारम्भ करके नीचे दिशामें मनुष्यसे स्थावर पर्यन्त हुए। यह जो होना है, सब सत्त्व रजः तमः तीन गुणकी महिमासे है। वासना समूह इसका मूल है। जिस प्रकार गुणकी वृद्धि, उसी प्रकार विषयका ग्रहण होता है। साधक ! बाहरमेंजो यह शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्धको भोग करते हो, वह सब भी विषय हैं। फिर सुषुम्नाके भीतर ब्रह्मनाडीका आश्रय करके जब तुम सहस्रारमें श्रीगुरुपदमें मिलनेके लिये जाते हो, उस ब्रह्मनाडोके भीतर भी तुमको शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्ध भोग करके जाना होता है। ब्रह्मनाडीके विषय समूह ब्रह्मज्ञान दे करके ब्रह्म में मिला देता है, और बाहरके सब (विषय ) जिसमें कर्मबन्धन