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श्रीमद्भगवद्गीता ____ अनुवाद। हे भरतर्षभ ! अब त्रिविध सुख का विषय मुझसे सुनो, अभ्यासके फल करके जिससे परमानन्द लाभ होता है तथा दुःखके अन्तकी प्राप्ति होती है ॥ ३६॥
व्याख्या। भगवान अब अर्जुनको सुखका विषय कहते हैं कि, सुख भी सत्त्वादि गुणभेद करके तीन प्रकारका है। सुख चीज क्या है? –सोई कहते हैं, कि जिसमें अभ्यासके फलसे परमानन्द लाभ होता है और दुःखका अवसान होता है, वही सुख है। अब विचार करके समझ लेना चाहिये कि अभ्यास और दुःख किसको कहते हैं। "तत्र स्थितौ यत्नोऽभ्यासः”-चित्तको स्थिर रखनेके लिये यत्नको अभ्यास कहते हैं। क्लेशका नाम दुःख है। यह तीन प्रकारका है, आध्यात्मिक, आधिदैविक, और आधिभौतिक। परमात्मसंग न पानेसे जो क्लेश होता है वही आध्यात्मिक दुःख है ( यह मानसिक है ); दैवप्रतिकूलतासे अर्थात् पूर्वकृत सञ्चित कर्मफलकी प्रतिबन्धकता के कारण कर्ममें सिद्धि न पानेसे वा विघ्न होनेसे जो क्लेश होता है वहो आधिदैविक दुःख है (यह शारीरिक और मानसिक है ); और वात पित्त कफादिके प्रकोपसे जो क्लेश होता है वह आधिभौतिक है ( यह शारीरिक है )। भगवान कहते हैं, इन सब दुःखोंका अन्त होकर जिससे परमानन्द लाभ होता है, वही सुख है; परन्तु सुख भी गुणभेद करके कैसे तीन प्रकारका भाकार धारण करता है, सो कहता हुँ, सुनो ॥ ३६॥
यत्तदने विषमिव परिणामेऽमृतोपमम् ।
तत्सुखं सात्त्विकं प्रोक्तमात्मबुद्धिप्रसादजम् ॥ ३ ॥ अन्वयः। यत् तत् ( किमपि ) अग्रे (प्रथमं ) विषमिव ( दुःखावहमिव ) परिगामे तु अमृतोपमं ( अमृतसदृशं ) आत्मबुद्धिप्रसादजम् ( आत्मविषया बुद्धिरात्मबुद्धिः, तस्या प्रसादो रजस्तमोमयत्यागेन स्वच्छ तयावस्थानं ततोजातं), तत् सात्त्विकं सुखं ॥ ३७॥