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श्रीमद्भगवद्गीता अखण्ड “मैं” होनेसे ममत्व-प्रसूति जो अहं भाव है, वह भी उड़ जावेगा। सुतरी नानात्वमें ( नाना रूप सर्वमें ) भ्रमण और "तुम" से “मैं” को मिलानेका घोर परिश्रम जो अश्रेष्ठ कर्मयोग है उसके विश्रामसे कृतान्त सिद्धान्त जो नैष्कर्म्य सिद्धि (दुःखका अत्यन्त निवृत्ति ) मुक्ति है, उसे वह अखण्ड "मैं" तुमको देवे ही करेगा। तुम्हारे शोक करनेका और कोई कारण नहीं है ॥ ६६ ।।
इदं ते नातपस्काय नाभक्ताय कदाचन ।
न चाशुश्रूषवे वाच्यं न च मां योऽभ्यसूयति ॥ ६ ॥ अन्वयः। इदं ( गीतार्थतत्त्वं ) ते ( त्वया ) अतपस्काय ( तपोरहिताय धर्मानुष्ठानहीनाय ) न वाच्यं, न च अभक्ताय ( गुराधीश्वरे च भक्तिशून्याय ) कदाचन ( कदाचिदपि ) वाच्यं, न च अशुश्रषवे ( परिचर्यामकुर्वते ) वाच्यं, मां (वासुदेवं परमेश्वरं ) यः अभ्यसूयति ( मनुष्यदृष्ट्या दोषारोपेण निन्दति ) ( तस्मै ) च न वाच्यं ॥ ६॥ ___ अनुवाद। इस गीतार्थतत्त्वको तपोरहित मनुष्योंसे तुम न कहना, अभक्तसे कदाच न कहना, शुश्रु षाविहीन व्यक्तिसे भी न कहना, और मुझको जो असूय करता है उससे भी न कहना ॥ ६७ ॥
व्याख्या। १७ अध्यायका १४ श्लोकोक्त शारीर तपः, १५ श्लोलोक्त वाङमय तपः, और १६ श्लोकोक्त मानस तपः जिसमें नहीं है अर्थात् इन सबसे जो घृणा करता है उसको अतपस्क कहते हैं; गुरुवाक्यमें और ईश्वरमें जिसका विश्वास नहीं है, उसको प्रभक्त कहते हैं; उपासनाके लिये, सेवा के लिये, श्रवणके लिये अनिच्छुकको अशुश्रूषु कहते हैं; और "मां” अर्थात मुझ “मैं” को जो द्वष करता है, ( मेरे कहनेसे जिस किसीको समझा जाता है उनमेंसे किसीके ऊपर अनुराग करनेसे ही "मैं" से द्वष करना होता है ) वह हमारा अभ्यसूयाकारी है। यह गीतार्थत स्व जिसे मैंने तुमको कहा है, उन लोगों को न कहना कहना नहीं चाहिये ॥ ६७ ॥