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माहात्म्यम् सम्यक श्रुत्वा च गीतार्थ पुस्तकं यः प्रदापयेत्। तस्मै प्रीतः श्रीभगवान् ददाति मानसेप्सितम् ॥ ६६ ॥ देहं मानुषमाश्रित्य चातुर्वर्णेषु भारत। न शृणोति न पठति गीताममृतरूपिणीम् ॥ हस्तात्त्यक्त्वामृतं प्राप्तं स नरो विषमश्नुते ॥ ७० ॥ जनः संसारदुःखातों गीताज्ञानं समालभेत्। पीत्वा गीतामृतं लोके लब्ध्वा भक्ति सुखी भवेत् ॥ ७१ ॥ गीतामाश्रित्य बहवो भूभुजो जनकादयः। निधूतकल्मषा लोके गतास्ते परमं पदम् ॥ ७२ ।।* गीतासु न विशेषोऽस्ति जनेषूच्चारकेषु च । ज्ञानेष्वेव समप्रेषु समा ब्रह्मस्वरूपिणी ॥ ७३ ॥
गीवार्थ सम्यक श्रवण करके जो पुस्तक दान करते हैं, श्रीभगवान् प्रसन्न होके उनको मानसेप्सित ( वांछितार्थ) फल देते हैं ॥ ६ ॥
हे भारत ! चातुर्वर्णके भीतर मनुष्य देह धारण करके जो लोग अमृतरूपिणी गीता श्रवण नहीं करते हैं पाठ भी नहीं करते हैं, वे प्राप्त अमृत हाथसे फेंकके विषभोजन करते हैं ॥ ७० ॥
संसार दुःखसे पीड़ित जनको सम्यक् रूपसे गीता ज्ञान लाम करना उचित है, इससे वह गीतामृतं पानकर भक्ति लाभ करके जगत् में सुखी होंगे ॥ ७१॥ ___ मनकादि बहु राजा लोग गीताका आश्रय करके जगत्में निष्पाप हुए थे, वे लोग परमपदको प्राप्त हुए हैं ॥ ७२ ।।
गीता उच्चारण करनेमें मनुष्यके भीतर कोई भेदाभेद नहीं है; कारण कि समग्र ज्ञानमें गीता ही समा है, गीता ब्रह्मस्वरूपिणी है ॥ ३ ॥ . * गीतामाश्रित्य बहवो भूभुजो जनकादयः।
निधु तकल्मषा लोके गीता याताः परं पदम् ॥ २० ॥