Book Title: Pranav Gita Part 02
Author(s): Gyanendranath Mukhopadhyaya
Publisher: Ramendranath Mukhopadhyaya
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रणव गीता श्री ज्ञानेन्द्रनाथ मुखोपाध्याय Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रणव गीता श्रीमत् स्वामी प्रणवानन्द गिरि परमहंस कृत् अनुभवाभाष भाषा श्रीभट् भद्भगवद्गीता १० म प्रः-१८ श प्रः प्रणवानन्द स्वामीजी का क्रियायोगी शिष्य : श्री ज्ञानेन्द्रनाथ मुखोपाध्याय, बि.ए., बि.एल. कतृक सम्पादित एवं प्रकाशित १९१७ Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशक : श्री रामेन्द्रनाथ मुखोपाध्याय, ट्राष्टि JNANENDRA NATH MUKHOPADHYA PROPERTY TRUST प्रणव गीता भवन ५०, राजा बसन्त राय रोड, कलकत्ता- ७०० ०२६ द्वितीय संस्करण - १६६८ सर्वाधिकार सुरक्षित प्रधान विक्रेता : (१) महेश लाईब्रेरी कालेज स्क्वायर, कलकत्ता- ७३ (२) सर्वोदय बुक सदन हावड़ा स्टेशन मुद्रक : दक्षिणेश्वरी प्रेस १२/५० गोआबागान स्ट्रीट, कलकत्ता - ७०० ००६ Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री ज्ञानेन्द्रनाथ मुखोपाध्याय Page #5 --------------------------------------------------------------------------  Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीमद् भगवद् गीता १०म अः-१८श श्रः गीताका एकके बाद एक अध्याय साधनाका ही एक-एक क्रम है। १०म अा-सर्व विभूति ज्ञान । ११श अः -परमेश्वरके विभूति मालूम होते ही मनके उदार हो जाने से विश्वरूप दर्शन । १२श श्रः-विश्वरूपमें आत्माका अनन्तरूप दर्शन करके साधकको भक्ति वा श्रात्मैकानुरक्तिका चरम विकाश स्वरूप आत्म ज्ञान लाभ। १३श :-आत्मज्ञान लाभ होनेसे ही ययाक्रम-प्रकृति-पुरुषको पृथकता। १४श श्रः -गुणक्रयकी पृथकता। १५श अः -क्षर. अक्षर और पुरुषोत्तम की पृथकता। १६श श्रः -दैवासुर सम्पदकी पृथकता। १७श अः - श्रद्धात्रयकी पृथकता। १८श मा -सन्यासका तत्व अवगत होकर साधक सर्वधर्म परित्याग. ___करके मोक्ष लाभ करते हैं । अन्तिम अध्याय हो गीताका ज्ञानकाण्ड है। इससे मालूम . होता है कि क्रियावान साधक अब अच्छी तरह समझ सकते हैं कि योगानुष्ठान करनेमें यही गीता उनका एकमात्र अवलम्बन है। Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीमद् भगवद् गीता १म -६ष्ट प्रः १मा - साधक मायाके वशमें "अहं ममेति” संसार मोहमें मोहित रहनेके लिये पहले ही वैराग्य द्वारा संसार बासनाको नाश करनेमें उद्यत होते ही विषादग्रस्त होते हैं। रय - गुरुकृपासे सांख्यज्ञानसे सत् और असत्की पृथकता समझते हैं। ३य मा - कर्मानुष्ठानमें प्रवृत्त होते हैं। ४ श्रः - कर्ममें अभिज्ञता लाभ करते हैं। .. ५ म अः – प्राणापानकी समता साधन पूर्वक शुद्धचित्त होके कम का वेग नाश करते हैं। ६ ष्ट श्रः -- स्थिर धीर अवस्था प्राप्त होकर ध्यान में प्रवृत्त होते हैं । यही छ। अध्याय है गीताका कर्मकाण्ड । ....... ७ म अः - ध्यानके फलसे क्रमानुसार ज्येय वस्तुके सामिप्य ब्रह्म होकर साधक ज्ञान-विज्ञानविद् होते हैं। ८ ममः - तारक ब्रह्मयोग । अपुनरावृत्ति गति प्राप्ति । हम श्रः - सर्व विभूति लाभ। Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ স্বপক্ষে Page #9 --------------------------------------------------------------------------  Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीगणेशाय नमः। भीमद्भगवद्रीता योगशास्त्रीय आध्यात्मिक व्याख्या । दशमोऽध्यायः श्रीभगवानुवाच । भूय एव महाबाहो शृणु मे परमं वचः। यत्तेऽहं प्रीयमाणाय वक्ष्यामि हितकाम्यया ॥१॥ अन्वयः। श्रीभगवान् उवाच । हे महाबाहो! प्रीयमाणाय ( मद्वचनामृतेनैव प्रोति प्राप्नुवते) ते (तुभ्यं ) अहं हितकाम्यया ( हितेच्छया ) भूयः एव (पुनरपि ) यत् परमं ( परमात्मनिष्ठं ) वचः वक्ष्यामि, मे ( तत् बचः ) शृणु ॥१॥ अनुवाद। श्रीमगवान् कहते हैं। हे महाबाहो। तुम हमारी कथामें प्रीति अनुभव करते हो, अतएष मैं हित कामना के लिये तुमको फिर जो परमात्मनिष्ठ वाक्य कहुँगा, हमारा उस वाक्यको श्रवण करो ॥१॥ व्याख्या। भगवान सप्तम अध्यानके प्रथम लोकमें अर्जुन को"जिस प्रकारसे असंशय होकर समप्र भावसे मुझको जान सकोगे. उसे सुनो"-यह बात कह करके अपना विभूति-बल-शक्ति-ऐश्वर्यादि गुण कहना प्रारम्भ किया। सप्तममें "रसोऽहमप्सु कौन्तेय" इत्यादित ८ममें "अधियज्ञोऽहमेवात्र” इत्यादि, और नवममें "अहूं ऋतुरह यज्ञः” इत्यादि वचन समूहसे अति संक्षेप करके प्रात्मस्वरूप वर्णन किये, और नवमके शेष श्लोकमें, उस आत्मस्वरूप लाभ करनेके लिये प्रकरण भी दिखाय दिये। शिष्य अर्जुन उसीमें प्रीति लाभ किया। Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीमद्भगद्गीता परन्तु अति संक्षेपसे वर्णन किया हुआ है इस कारण यदि सर्व संशय दूर न हो, इसलिये भगवान् अपने भक्त अर्जुन के हितार्थ पुनराय परमात्मनिष्ठ वाक्य कहते हैं ॥ १ ॥ न मे विदुः सुरगणाः प्रभवं न महर्षयः । श्रहमादिहिं देवानां महर्षीणाञ्च सर्वशः ॥ २ ॥ अन्वयः । सुरगणाः मे प्रभवं (उत्पति ) न विदुः ( जानन्ति ), महर्षयः अपि न ( बिदुः ); हि ( यतः ) अहं देवानां महर्षीणां च सर्वशः ( सर्वप्रकारैः ) श्रादिः ( कारणं ) ।। २ ।। अनुवाद | सुरगण हमारी उत्पत्ति नहीं जानते, महर्षिगण भी नहीं जानते; क्योंकि सर्व प्रकार से ही देवतागण के और महर्षिगणके आदि हूँ ॥ २ ॥ व्याख्या । वह जो विवस्वान के ऊपर पीठके "मैं" है, उनको देवता लोग नहीं जानते, क्योंकि, वे लोग कर्मफलके भोक्ता हैं, कम्म नहीं हैं। जो लोग त्रिकालज्ञ, जगत प्रपञ्चके वेत्ता हैं, उनको महर्षि कहते हैं, वह लोग भी हमारी उस "मैं" अवस्थाको नहीं जानते । क्यों नहीं जानते, अब उसे तुम देखो। कालत्रय और संखार-विचार | लेकर रहनेसे तुमको चित्तधर्मका धम्र्मी होकर रहने होवेगा, ऊपरमें उठ नहीं सकोगे। ऊपर में उठ जानेसे कम्मफल- भोग और विचारशक्ति आदि चित्त क्षेत्र में पड़े रहते हैं। जब तुम "मैं" से मायाकी अपसारण, "मैं" और मायाके बीच विच्छेद-भूमिमें विवस्वानके प्रकाश, और विवस्वानसे चित्त में विम्बपात, - यह सब अनुभव किये हो, तब चित्त-धर्म में वह सब जो नहीं रहता सो तुम समझे हो । क्योंकि यह सब चित्तकी बहुत ऊंचेवाली बात है । पुनः असल “मैं” इन सबसे भी ऊंचे में है। तुम कम्मी हो, इसलिये तुम्हारे कम्म (क्रिया) से यह सब अनुभव में आये थे; परन्तु महर्षिलोग सर्वदा • जगत् के कल्याण तत्पर रहनेसे मेरे ऊपरवाले उस "मैं" अवस्थाको Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशम अध्याय ग्रहण नहीं करते। परन्तु उन लोगोंकी उस अवस्थाकी ग्रहण करनेवाली शक्ति नहीं है, ऐसा नहीं। इसलिये “मैं” महर्षि और देवतों का भी आदि हूँ॥२॥ यो मामजमनादिव्च वेत्ति लोकमहेश्वरम् । असंमूढः स मत्त्येषु सर्वपापैः प्रमुच्यते ॥३॥ अन्वयः। यः माम् अनादि अजं लोकमहेश्वरं ( लोकानां महान्तं ईश्वरं ) च वेत्ति, सः मय॑षु ( मनुष्येषु ) असंमूढः ( संमोहरहितः सन् ) सर्वपापैः प्रमुच्यते ॥३॥ अनुवाद। मुझको जन्मसे रहित अनादि और सर्वलोक-महेश्वर रूपसे जो लोग जानते हैं, मर्त्यलोकमें वह लोग मोहवजित होकरके सर्व प्रकार पापसे विमुक्त होते हैं ॥३॥. व्याख्या। इस भादि-अन्त विशिष्ट जगतमें कोई भी अनादि नहीं है, एकमात्र “मैं” ही अनादि-मूल कारण हूँ। कर्म करते करते कमीका जैसे जैसे कर्मक्षय होता जाता है, तैसे तैसे कम्मी इस "मैं के निकट आता रहता है। कमी जब 'मैं' को अपनेसे अभिन्न अनादि कह करके समझ लिया, तत्क्षणात मूढत्व (कामनाके वश जो, वही मृढ़ है) परित्याग करके “मैं” में मिलकर मर्त्यधर्मको छोड़ अपनेको जगत्का महान ईश्वर कह करके निश्चय कर लेता है। इसलिये उसमें परिवर्तनशील चन्चलता (पाप ) नहीं रहता। क्योंकि "मैं” अज-जन्म रहित हूँ, जन्म लेनेसे ही पाप होता है; "मेरा" जन्म भी नहीं है, पाप भी नहीं है ॥३॥ बुद्धिानमसंमोहः क्षमा सत्यं दमः शमः । सुखं दुखं भवोऽभावो भयच्चामयमेव च ॥४॥ अहिंसा समता तुष्टिस्तपोदानं यशोऽयशः । भवन्ति भावा भूतानां मत्त एव पृथग्विधाः ॥५॥ अन्वयः। बुद्धिः ज्ञानं असंमोहः क्षमा सत्यं दमः शमः सुखं दुःखं भवः Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीमद्भगवद्गीता (उत्पत्तिः) अमावः (नाशः ) भयं च अभयं एव च अहिंसा समता तुष्टिः तपः दानं यशः अयशः भूतानां ( एते ) पृथविधाः भावः मत्तः एव भवन्ति ॥ ४॥५॥ अनुवाद। बुद्धि, ज्ञान, असंमोह, क्षमा, सत्य, दम, शम, सुख, दुःख, उत्पत्ति, नाश, भय, अभय, अहिंसा, समता, तुष्टि, तपः, दान, यश, अयश, प्रभृति, प्राणियों के लिये नानाविध भाव हमहीसे उत्पन्न होता है ॥ ४ ॥५॥ ___ व्याख्या। "बुद्धि" अन्तःकरणकी उस शक्तिको कहते हैं जिससे सत. असत्का विचार करके सूक्ष्म पदार्थको समझा जा सकता है, अर्थात् निश्चयात्मिका वृत्ति है। "ज्ञान" =(हम अ० १म श्लोक ) विचारपूर्वक बुद्धिसे जो निश्चय किया हुआ है, उसमें प्रवृत्तिका नाम ज्ञान है। "असंमोह"-"अ" = नास्त्यर्थ + "सं” = सम्यक् + “मोह” = अविद्या-वृत्ति। अविद्या वृत्ति जिस अवस्थामें सम्यक् मिट जाता है, उसी अवस्थाको असमोह अवस्था कहते हैं। . ... "क्षमा" =दूसरेसे पूजित या तिरस्कृत हो करके प्रतिकार करनेवाली शक्ति रहने पर भी जो उपेक्षा करण शक्ति है वही क्षमा है। निम्कपट हो करके पराया हित करनेका नाम 'सत्य' है। "दम" - बायेन्द्रिय निग्रह। "शम".-अन्तःकरणके निग्रह। .. . "सुख”–सुसुन्दर, खं = शून्य, अर्थात् उद्वगराहित्य । "दुःख"-तद्विपरीत। "भव”–जन्म, "अभाव =मरण ।। "भय" = मृत्यु-आशङ्का करके उद्वग। "अभय” तद्विपरीत। "अहिंसा" = प्राणी-पीड़नाभाव। "समता" =रागद्वषादि-राहित्य । "तुष्टि" =सन्तोष। "तप" =माया-विकार को ज्ञानाग्निसे भश्म करनेवाली चेष्टा । Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशम अध्याय "दान” = न्यायार्जित सम्पत्तिको यथाशक्ति सत् पात्रमें देना। साधक ! तुम देखो, ब्रह्म बिना तुम और कुछ भी नहीं हो; तथापि तुम मायाको आश्रय करके अहंकार सज लेकरके शब्द-स्पर्श-रूप-रमगन्धको ले लिये, यही सब तुम्हारा न्यायार्जित धन है। “धन”धळधारणा, न=नास्ति; धारणा शून्यताका नाम धन है। इन शब्दादि विषयोंमें मनकी धारणा नहीं होती, चञ्चलता ही रहती है। इसलिये इन सभोंका नाम धन है। यह जो तुम्हारा धन है, सब असत् है, क्योंकि परिणामी है। इन सभोंको सत् पात्र में अर्थात् नित्य, अपरिणामी, परब्रह्ममें समर्पण करनेका नाम दान (५म अ० १०म श्लोक "ब्रह्मण्याधाय” देखो) है; अर्थात् वासना त्यागपूर्वक ब्रह्मज्यानसे उनके पृथक् अस्तित्व भूल जाकर सबमें ही ब्रह्मदृष्टि स्थापन करनेका नाम दान है। "यश' =धर्म निमित्त कोति। "अयश" = अधर्म निमित्त यह सब भूत-बाजारमें अर्थात् अन्तःकरणके धम्मियोंमें रहता है। इसलिये इस संभोंको भूतभाव कहते हैं। यह सब भाव "मैं" से उत्पन्न होनेसे भी पृथकविध हैं अर्थात् भिन्न भिन्न प्रकारके हैं । “मैं" का भाव वा श्रात्ममाव जो है, उसमें पृथक् विधत्व नहीं है, वह एक अद्वितीय है। इसलिये भूतभाव समूह आत्मभाबसे सम्पूर्ण विपरीत हैं॥४॥५॥ महर्षयः सप्त पूर्वे चत्वारो मनवस्तथा । मद्भावा मानसा जाता येषां लोक इमाः प्रजाः।।६।। अन्वयः। महर्षयः सप्त ( भृग्वादयः ) पूर्व ( अतीतकालसम्बन्धिनः) चत्वारः ( सनकादयः) तथा मनवः ( स्वायम्भुवादयः ) मद्भावाः (मत्सामयेनोपेताः ) मानसाः ( मनसैघोत्पादिता मया ), लोके येषां ( मनूनां महर्षीणां च ) इमा ( स्थावरजंगमलक्षणाः ) प्रजाः ( सन्ततयः) जाताः ( उत्पन्नाः ) ॥६॥ Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .40 श्रीमद्भगवद्गीता अनुवाद। मृगुप्रमृति सात जन, और सनक प्रमृति पहलेवाले चार जन महर्षि तथा स्वायम्भुव प्रमृति मनुलोग हमारी ही शक्ति सम्पन्न और मानससे उत्पन्न हैजिन लोगोंसे जगत्में यह सब प्रजा सृष्टि हुई है ॥ ६ ॥ व्याख्या। मायामें उपहित चैतन्यको अर्थात् ईश्वरको महत् कहते हैं। साधन-बलसे जो पुरुष इस महत् पदको लाभ किये हैं, उन्हींको महर्षि कहते हैं। इस वर्तमान वैवस्वत मन्वन्तर में उस पद को सात जन पा चुके हैं, उन सबके नाम मरीचि, अत्रि, अगिरा, पुलस्त, पुलह, ऋतु, वशिष्ठ है। पुनः कहों कहीं कश्यप, अत्रि, वशिष्ठ, विश्वामित्र, गौतम, जमदग्नि और भरद्वाजको भी वैवस्वतका महर्षि कहते हैं। और पहले वाले चार जन हैं-सनक, सनन्दन, सनत्कुमार, और सनातन। मनु चौदह हैं; यथा-स्वायम्भुव, स्वरोचिष, उत्तम, तामस, रैवत, चाक्षुष, वैवस्वत ( यह वैवस्वत मन्वन्तर अब चल रहा है ), सावर्णि, दक्षसावणि, ब्रह्मसावर्णि, धर्मसावर्णि, रुद्रसावणि, देवसावर्णि। यह सब हमारे मन-आवेगके कल्पना-प्रसूत हैं; अर्थात् मेरी भावावस्थामें मानस * नाम करके जो वृत्ति-विशेष उत्पन्न होती है, उसी मानसमेंसे इन सबकी उत्पत्ति हुई है। ये लोग मद्भावविशिष्ट अर्थात् मेरे वैष्णवी (विश्वव्यापी) सामर्थ्य युक्त हैं। यह सब प्रजापति हैं। इन्हींसे इस जगत्में दृश्यमान प्रजा समूहका विस्तार हुआ है ॥ ६ ॥ एता विभूति योगच मम यो वेत्ति तत्वतः। सोऽविकम्पेन योगेन युज्यते नात्र संशयः ॥७॥ अन्वयः। यः मम एतां विभूति ( विस्तारं ) योगं च ( योगैश्वर्य्यसामर्थ्य ) तत्त्वतः वेत्ति, सः अधिकम्पेन ( निःसंशयेन ) योगेन ( सन्यग्दर्शनेन ) युज्यते ( युक्तो भवति ); अत्र संशयः न ( अस्ति ) ॥ ७॥ * मानस= मान लो वही; कोई कुछ मान लेना ही मानस-इच्छाशक्ति Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशम अध्याय अनुवाद | मेरे यह सब विभूति और योग ( योगैश्वर्य्य सामर्थ्य ) को जो लोग तत्त्वतः अवगत होते हैं, वे अविचलित योग में युक्त होते हैं; इसमें संशय नहीं #11011 व्याख्या । यह जो हमारी सृष्टिकरी वृत्ति, प्रलयकरी वृत्ति, ( संयोग और वियोग ), तथा सृष्टिके पहले और प्रलयके पश्चात् कैवल्य स्थिति है, इन तीनोंको ले करके मेरा विभूतियोग है । विभूति = विशेष प्रकार की उत्पत्ति है; बृहब्रह्माण्डमें कोटि कोटि क्षुद्रब्रह्माण्ड-स्वरूप प्राणीका विस्तार हो विशेषत्व है, और उस विभूतिको समेट ले आकर पुनः "मैं" में मिल जाना ही योग है। जो पुरुष तत्वमें रह करके इन दोनों को देखते हैं; अर्थात् साधन-शक्ति से प्रलय होनेके पहले जब प्रकृतिवशी अवस्था आती है, उसी अवस्थामें रह करके इस सृष्टि और उसकी लीलाको जो देखते हैं, उनको प्रलयप्रारम्भ समय में अर्थात् 'मैं' में मिल जाने के समय में पुनः और भोगलालसावृत्ति लेकर नाचनेकी रुचि नहीं होती । इस कारण करके "मैं" में पड़कर (मिलकर ) जो केवलत्व प्राप्त होता है, उसमें और हिलना डोलना नहीं होता । यह बात एक बारगी संशय शून्य है ॥ ७ ॥ अहं सर्वस्य प्रभवो मत्तः सर्वं प्रवर्त्तते । इति मत्वा भजन्ते मां बुधा भावसमन्विताः ॥ ८ ॥ अन्वयः । अहं सर्वस्य प्रभवः ( उत्पत्तिहेतुः ), मत्तः सर्व (जगत् ) प्रबत्त' ते, इति मत्वा बुधाः ( विवेकिनः ) भावसमन्विताः ( प्रीतियुक्ताः सन्तः ) मां भजन्ते ॥ ८ ॥ अनुवाद | मैं ही सबके उत्पत्तिका कारण तथा मुझसे ही सकल प्रबत्तित होता है, इसे जान करके बुधगण भावसमन्वित होकर के मुम्फको भजते रहते हैं ॥ ८ ॥ व्याख्या। “अहं”= मैं, परमात्मा; "सर्व" = सृष्टिकी रचनामाला, ब्रह्मादि स्थावरान्त पर्य्यन्त जो कुछ भी है, वह सब । " बुध" = Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीमद्भगवद्गीता ८ जो ग्रह सबसे अधिक सूर्य्यके निकट ( भिड़ा ) सर्वदा रहता है, वही बुध है; अर्थात् महा प्रकाशके पास सर्वदा जो रहता है । इसलिये बुध सूर्य ज्योति ( महा प्रकाश ) सर्वदा अधिक से अधिक पड़ता है। तैसे जिन्होंने विवेक ज्ञानसे सर्वदा परमात्म-सन करते हैं वह भी बुध - विवेकी हैं। इस विवेकी पद प्राप्त होनेसे साधक प्रत्यक्ष अवगत होते हैं कि, मैं ही सबका प्रभव - उत्पत्तिका हेतु हूँ, और सर्वभूत में बुद्धि, ज्ञान, असंमोह इत्यादि जो कुछ भाव प्रवतित होता है, वह सब इस "मैं" से ही होता है; मैं ही सबके एकमात्र आश्रय और चालक हूँ । इस प्रकारकी समझ ( ज्ञान ) होनेसे ही ( साधक ) आत्मभाव में युक्त होते हैं और एकमात्र मैका ही भजन करते हैं, अर्थात् उस “मैं” बिना और किसीको श्राश्रय करनेकी इच्छा नहीं करते, केवल मन-प्राणके साथ उसी मैं में मिल जानेकी चेष्टा करते हैं ॥ ८ ॥ मच्चित्ता मगतप्राणा बोधयन्तः परस्परम् । कथयन्तश्च मां नित्यं तुष्यन्ति च रमन्ति च ॥ ६ ॥ अन्वयः । मच्चिताः मगतप्राणा: ( ते बुधाः ) परस्परं (अन्योन्यं ) बोधयन्तः नित्यं मां कथमन्तः च तुष्यन्ति च रमन्ति च ॥ ९ ॥ अनुवाद | ( वह बुधगण ) मचित्त और मद्रतप्राण होकर के परस्परको मेरे विषय समझा देकरके और नित्य मेरे विषयकी बात कह करके सन्तोष तथा सुख लाभ करते हैं ॥ ९ ॥ व्याख्या । प्रलयकालमें मायामें चितृत्व नहीं रहता, हम ('मैं' ) मैं आ पड़ता है; इसलिये जगत्-जीवन जो प्राण है, वह भी उख चित्-त्वके साथ हम ( मैं ) आ पड़ता है, क्योंकि, तब और मायाकी क्रिया शक्ति नहीं रहती । इस कारण करके परस्पर रूप द्वैतभाव मिट जाता है। यदि तब कोई कहनेको रहे, और वह कहे, तो अकेले है Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशम अध्याय कह करके 'मैं ही मैं कहेगा। यह मैं ही नित्य है। सब प्राप्तिको प्राप्त हो चुका कह करके ('क्योंकि, सब मैं में आकर मिल चुके ), प्राप्तिकी आकांक्षा नहीं है। तोष ही तोष भोग हो रहा है। पुरुष-प्रकृतिके एकरस हो जानेका नाम ही रमण है; यहां होता भी वही है ॥६॥ तेषां सततयुक्तानां भजतां प्रीतिपूर्वकम् । ददामि बुद्धियोग तं येन मामुपयान्ति ते ॥१०॥ अन्वयः। सततयुक्तानां ( मय्यासक्तचित्तानां ) प्रीतिपूर्वकं भजतां तेषां तं बुद्धियोगं ( ज्ञानं ) ददामि, येन ते मां उपयान्ति प्राप्नुवन्ति ) ॥ १० ॥ अनुवाद। जो लोग सतत योगयुक्त होकर प्रौतिपूर्वक मेरा भजन करते है, उन सबको, मैं वही बुद्धियोग ( ज्ञान ) देता हूं, जिससे वह लोग मुम्सको प्राप्त होते हैं ॥ १०॥ व्याख्या। उस प्रकार ब्रह्मानन्द-सुख ओ लोग सर्वदा भोग करते हैं, उनकी बुद्धि प्रेमके वशसे मुझ ( "मैं" ) को छोड़ने नहीं चाहता, भजता रहता है। इसलिये उनकी बुद्धिको मैं “मैं” में मिलाय लेकर "मैं” कर लेता हूँ, जिससे वह लोग मैं हो जाते हैं ॥१०॥ तेषामेवानुकम्पार्थमहमज्ञानजं तमः। नाशयाम्यात्मभावस्थो ज्ञानदीपेन भास्वता ॥११॥ अन्वयः। तेषां एव अनुकम्पार्थ अहं आत्मभावस्थः ( सन् ) भास्वता ज्ञानदीपेन अज्ञानजं तमः नाशयामि ॥ ११॥ अनुवाद । जो लोग उक्त प्रकारसे भजन करते हैं; केवल उन्हीं सबके अनुकम्पार्य में उन सबके अन्तःकरण में रह करके उज्ज्वल ज्ञान-दीप द्वारा अज्ञानज अंधियाराको नष्ट करता रहता हूँ ॥ ११ ॥ व्याख्या। इस प्रकार साधनशीलोंके अज्ञानजात मायाविकार "मैं" के कृपासे नाश पाता है। क्योंकि, उनके आत्मभावमें स्थित Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० श्रीमद्भगद्गीता होनेके सबब से आत्मावस्थाकी ज्योति (प्रकाश) से उन सबके अन्तःकरण छाय जाता है ॥ ११ ॥ अर्जुन उवाच । परं ब्रह्म परं धाम पवित्रं परमं भवान् । पुरुषं शाश्वतं दिव्यमादिदेवमजं विभुम् ॥ १२ ॥ आहुस्त्वामृषयः सर्वे देवर्षिर्नारदस्तथा । सितो देवलो व्यास स्वयचैव ब्रवीषि मे ॥ १३ ॥ अन्वयः । अर्जुनः उवाच ! भगवान् परं ब्रह्म, परं धाम परमं पवित्रं च ( यतः ) सर्वे ऋषयः, देवर्षिः नारदः, तथा असितः, देवलः व्यासः च त्वां शाश्वतं दिव्यं पुरुषं आदिदेवं अजं विभुं आहुः, (त्वं) स्वयं च एव मे त्रवीषि ॥ १२ ॥ १३ ॥ अनुवाद | अर्जुन कहते हैं, तुम परमब्रह्म, परमधाम, और परम पवित्र हो; (जिस हेतु ) भृगु प्रभृति ऋषिगण; देवऋषि नारद, असित, देवल, और व्यास सब ही तुमको शाश्वत दिव्य पुरुष आदिदेव, अज, और विभु कह करके कहते हैं; स्वयं तुम मुझको इस प्रकार कहते हो ।। १२ ।। १३ ॥ व्याख्या । ( १२ से १८ पर्य्यन्त ७ श्लोकों में अर्जुन भगवान्‌को स्तव करके उनका विभूति-तत्व विस्तार रूपसे जानने के लिये प्रश्न करते हैं) । जो विद्या परपार में ले जाती है, उसीको परं कहते हैं । " ब्रह्मविदाप्नोति पर" अर्थात् जो ब्रह्मविद् है वही इस परंमें आय पड़कर समझ सकेंगे, यह किस प्रकार अवस्था है । अवधि - रहित महानको ब्रह्म कहते हैं, यह भी एक अवस्था है। क्योंकि, अवस्था न कहने से इन सभको समझानेमें तथा समझने में सुभीता नहीं होता । जो विद्या पारपार ले जाती है, उसी विद्याके विश्राम स्थानको "परं धाम" कहते हैं; अर्थात् - ब्रह्मानन्द भोगावस्था है । "पवित्र" = ग्लानि शून्यं, यह भी एक अवस्था है । "परमं" कहते हैं ब्रह्माजीके श्रायुष्कालके शेषमें ( कल्पक्षय में ) विश्राम स्थानको; यह भी अवस्था विशेष ह । “पुरुषं " Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशम अध्याय मायामय पुरमें जो सोते रहते हैं, वही पुरुष हैं। "शाश्वत" - अविनाशी। "दिव्यं" श्राकाश सदृश स्वरूपको कहते हैं। आकाश जैसे धारणामें नहीं आता, तैसे तुम्हारा उस तुम-अवस्थाको भी पकड़ा जा नहीं सकता; इसलिये तुम "दिव्यं” हो। "आदिदेव”–जहाँसे प्रथम प्रारम्भ होता है वही श्रादि है। इस जगतका प्रारम्भ भी तुमसे होता है, इसलिये तुम आदिदेव हो। "प्रज" कहते हैं जो कभी जन्मता नहीं। वह भी तुम हो। "विभु" कहते हैं सर्वमूर्त-संयोगीको, अर्थात् जो सर्वव्यापी है, वह भी तुम हो। ___ यह समस्त अवस्था तुमही में प्रतिष्ठित है, इसलिये तुम "भवान्" हो। अर्थात् यह समस्त ही जो तुम हो, उसे मैं उसी अवस्थामें जान सकता हूँ जिस अवस्थामें कारण, मूत्ति और अर्थके साथ प्रत्येक शब्दका परिज्ञान होता है; वही ऋषि-अवस्था है। सर्वेसर्व ऋषिगण। . "देवर्षि नारद”। नार शब्दमें विष्णु, द शब्दमें दान करना है । जो विष्णुको मिलाय देते हैं, उन्हींको नारद कहते हैं ( १०म मा २६वां लोक देखो)। "असित”-अनास्ति, सित - बद्ध; जो बद्ध नहीं है, उन्हींको असित कहते हैं । अर्थात् मुक्त प्रवत्या ही असित अवस्था है। - "देवल" - देव-देवता, और लं= पृथिवीका बीज है। जिस अवस्थामें अन्तःकरण पार्थिव जगत्का देवता लेकर खेलता रहता है (साकार उपासनामें व्याप्त रहता है) उसीको “देवल" अवस्था कहते हैं। "व्यास” =भेदज्ञान; अर्थात् वेद रूप ज्ञानसिन्धुको जीवजगत्के. कल्याणके लिये जो ( साम, ऋक् , यजु और अथर्व नामसे ) विभाग Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीमद्भगवद्गीता करके अल्पबुद्धियोंके लिये साकार-उपासनामय पुराणादि सृष्टि करके मुक्तिमार्गको सुलभ कर दिये हैं, वही व्यास (अवस्था ) है। . .. और "स्वयं" ? वही क्रियाकी परावस्था है । जिस अवस्थामें पड़के भोग-पश्चात् उतर पाके मैं "मैं" को "तुम" रूपसे समझ करके जान सकता हूँ कि, यह अपनी अनुभवनीय अवस्था समूह जिन्हें मैं भोग किया हूँ, पुनः नीचे उतर आकर मैं अपने मनही मनमें जानता हूँ कि, जब मेरी ऋषि-अवस्था, नारद-अवस्था, असित-अवस्था, देवलअवस्था, व्यास-अवस्था और स्वयं-अवस्था हुई थी, तब वह ऊपर वाला मैं ही जो परमब्रह्म, परमधाम, पवित्र, परमपुरुष, शाश्वत, दिव्य, आदिदेव, अज और विभु हूँ, उसे मैं देखा हूँ, अनुभव किया हूँ और समझा हूँ। यह जैसे तुमही मुझको कहते हो ॥ १२ ॥ १३॥ सर्वमेतदृतं मन्ये यन्मां वदसि केशव। ... न हि ते भगवन् व्यक्ति विदुईवा न दानवाः ॥ १४ ॥ अन्वयः। हे केशव ! यत् मां वदसि, एतत् सर्व ऋतं ( सत्यं ) मन्ये; हि ( यस्मात् ) हे भगवन् ! ते ( तब ) व्यक्ति ( प्रभवं ) देवाः न विदुः, दानवाः ( च ) न (विदुः ) ॥ १४ ॥ अनुवाद। हे केशव ! तुम मुझको जो कहते हैं, वह समस्त ही सत्य कह करके मैं मानता हूँ; क्योंकि, हे भगवन् ! देवता भी तुम्हारा प्रभब (आविर्भाव कारण ) नहीं जानते, दानव भी नहीं जानते ॥ १४ ॥ व्याख्या। "केशव"-"क" = ब्रह्मा, सृष्टिकर्ता + "ईश" == संह + "व" =शून्य; यह सृष्टिकरण शक्ति और संहरण शक्ति जब शून्य होकर मिल जाकर एक होता है अर्थात् सृष्टि-संहार शून्य निस्तरंग स्थिति-अवस्था आती है, उसी अवस्थाको "केशव" कहते हैं। इस अवस्थाको जब मैं भोग करके उतर आया, तब ऊपरमें जो जो कहे हैं वह सब मुझको मना दिये। वह जो केशव अवस्था है, Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशम अध्याय उसे कमी ( क्रियाशील ) बिना कर्मके फल भोक्ता जो देव-अवस्था है, अथवा कामातुर मूढ़ दानव-अवस्थामें जाना जा नहीं सकता। और वह समस्त अवस्थारूप ऐश्वर्य समूहमें ही प्रतिष्ठित रहनेसे तुम भगबान हो ॥ १४ ॥ स्वयमेवात्मनात्मानं वेत्थ त्वं पुरुषोत्तम । भूतभावन भूतेश देवदेब जगत्पते ॥ १५ ॥ अन्वयः। हे पुरुषोत्तम ! भूतभावन ! भूतेश ! देवदेव । जगत्पते ! त्वं स्वयं एव आत्मना आत्मानं वेत्थ (जानासि ) ॥ १५॥ . मनुवाद। हे पुरुषोत्तम ! हे भूतभावन ! हे भूतेश । हे देवदेष ! हे जगत्पते । तुम आपही अपनेसे अपने को जानते हो ॥ १५ ॥ व्याख्या। "भूतभावन" =भूतोके भरण करनेवाला, "भूतेश” = भूतोंके नियन्ता, "देवदेव” - देवतोंके देवता, "जगत्पति" =जगत्के स्वामी, "पुरुषोत्तम" प्राकृतिक आवरण ही पुर है, प्राकृतिक आवरण युक्त अवस्थायोंके भीतर जो सबसे ऊंची अवस्था है, जिसके ऊपर और अवस्था नहीं है, वही पुरुषोत्तम है। ऐसा पुरुष ! यह सब ही तुम हो। हरि ! हरि ! ऐसे तुमही “मैं” हूँ ! इसलिये कहता हूँ कि, आपही ज्ञाता, पापही झेय और आपही ज्ञान हो ॥१५॥ वक्तुमहस्यशेषेण दिव्याह्यात्मविभूतयः। यामिविभूतिभिर्लोकानिमास्त्वं व्याप्य तिष्ठसि ॥ १६ ॥ अन्वयः। त्वं इमान् लोकान् याभिः विभूतिभिः व्याप्य तिष्ठसि, ( ताः) दिव्याः ( अद्भु ताः ) आत्मविभूतयः हि अशेषेण वक्त अर्हसि ॥ १६॥ अनुबाई । तुम इन ( दृश्य जो कुछ ) सब लोक को जिन विभूतियांसे भीतर बाहर प्रेरे रहे हो, उन दिव्य आत्मविभूति समूह अशेष रूपसे मुझको कहो ॥ १६ ॥ - व्याख्या। वह जो ऊपरवाले कैवल्य भाव, वह जो सर्वभूतात्मभूतात्मा विश्वव्यापक भाव है, नीचेमें उतर आकर उसे कहा नहीं जा Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीमद्भगवद्गीता सकता; अथच उस मैं-भावका विभोरताका नशा भी कटता (टूटता) नहीं। ऐसी अवस्थामें असीममें ससीमता मिलानेमें भूल जाकर ( पुर्वजात संस्कारके बलसे ) श्रापही श्राप कैसे (अनजान भावसे ) मैं में 'तुम' बन जाता है। जिसमें साधकको बाध्य हो करके कहने पड़ता है कि, वह जो तुम्हारा आकाश-व्यापी विभूति है, जिस विभूतिसे तुम इस जगतके सब कुछ को "तुम" सजा लेकर व्यापमान हो रहे हो, उन सबको अशेष प्रकारसे मुझसे कहो, एक को भी बाकी मत छोड़ो। अर्थात् प्रत्येक वस्तुकी प्रत्येक अवस्थाको साधक अपने भीतरके अवस्थाके साथ मिला लेकर संशयच्छेद करनेके लिये प्रस्तुत होता है ॥ १६ ॥ कथं विद्यामहं योगिस्त्वां सदा परिचिन्तन् । केषु केषु च भावेष चिन्त्योऽसि भगवन्मया ॥ १७ ॥ अन्वयः। हे योगिन् । सदा कथं (कैविभूतिभेदैः) परिचिन्तयन् ( अहं ) त्वां विद्या ( जानीयां ); हे भगवन् ! त्वं केषु केषु भावेषु च ( वस्तुषु ) मया (चिन्तनीयः ) असि ? ।। १७ ॥ ... अनुवाद। हे योगिन् ! सर्वदा में किस प्रकार भावसे चिन्ता करके तुमको जान सकूगा? हे भगवन् ! किस किस भावमें ( वस्तुमें ) तुम हमारे चिन्तनीय होचोगे ? ॥ १७॥ व्याख्या। किस प्रकारसे सर्वदा चिन्ता करके मैं तुम्हारा उस योगीभावको जान सकूगा ? साधनामें देखा जाता है कि जबतक चित्त-धर्म रहता है, तबतक वह योगी-भाव नहीं आता। भाव शब्द के अर्थ में भी तो वह योगी-अवस्थाही प्रकाश पाता है। परन्तु हे भगवन् ! कैसे करके, किस प्रकारसे, भावके साथ मैं चिन्ताको मिलाऊंगा? भावके पास चिन्ता तो पहुँच ही नहीं सकती। तब तुम किस किस भाबमें मेरे चिन्ताका विषय होगे?॥१७॥ Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशम अध्याय विस्तरेणात्मनो योगं विभूतिव्च जनाईन । भूयः कथय तृप्तिर्हि शृण्वतो नास्ति मेऽमृतम् ॥ १८ ॥ अन्वयः। हे जनाईन ! भूयः प्रात्मनः योगं ( योगैश्वर्य) विभूति व विस्तरेण कथय, हि ( यतः ) अमृतं ( त्वन्मुखनिःसृतवाक्यरूपं ) शृण्वतः मे तृप्तिः म अस्ति ।। १८॥ अनुवाद। हे जनाईन ! फिर तुम अपना योगैश्वर्य्य और विभूतिको विस्तारित रूप करके मुझसे कहो, क्योंकि तुम्हारा मुख निःसृत अमृतमय वाक्य श्रवण करके मैं तृप्तिलाभ कर सकता नहीं ॥ १८॥ .. व्याख्या। वह जो आत्मा, वह जो शुद्ध, वह जो स्वयं-ज्योति, वह जो निराकृति थोगावस्था है, हे जन्ममरणवारि! अपना उस ऐश्वर्य और विभूतिको अशेष प्रकारसे मुझसे फिर कहो, फिर समझावो। उस अवस्थाको भोग करके मेरी तृप्ति होती ही नहीं ॥१८॥ . . श्रीभगवानुवाच । .. हन्त ते कथयिष्यामि दिव्याह्यात्मविभूतयः । प्राधान्यतः कुरुश्रेष्ठ नास्त्यन्तो विस्तरस्य मे ॥ १६ ॥ अन्वयः। श्रीभगवान् उवाच । हन्त कुरुश्रेष्ठ! ते दिव्याः ( दिवि भवाः ) प्रात्मविभूतयः प्राधान्यतः ( प्राधान्येन) कथयिष्यामि हि (यस्मात् ) विस्तरस्य (विभूतिविस्तरस्य ) मे ( विभूतीनां ) अन्तः न अस्ति ॥ १९॥ . अनुवाद । श्रीभगवान् अनुकम्पा प्रदर्शन पूर्वक कहते हैं-हे कुरुश्रेष्ठ। मैं अपने प्रधान प्रधान दिव्य विभूतियोंको तुमसे कहता हूँ। क्योंकि, हमारे विभूति विस्तर (विभूति ) का अन्त नहीं है ॥ १९ ॥ व्याख्या। पुनः निजबोध ज्ञानसे पूर्व कथित प्रश्नकी मीमांसा होती है; अर्थात् साधक आपही आप अपने प्रश्नका उत्तर करते हैं। __"कुरुश्रेष्ठ"। कुरु शब्दके अर्थ किसी काम करनेके लिये कहना है। उद्देश्य, एक कोई काम करे और दूसरा उसका फलभागी हो; Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - श्रीमद्भगवद्गीता यहां भी वही बात है। काम करती है प्रकृति, बन्धनमें आ गया "मैं" ( जीव ); क्योंकि मैं कुरुक्षेत्र में हूँ। मणिपुरसे मूलाधार पर्यन्त साधन-मार्गका कुरुक्षेत्रांश है ( ३य अः १४।१५वा श्लोककी व्याख्या देखो ); जिस साधकका मणिपुरसे मूलाधार पर्य्यन्त काम, क्रोध और लोभको लेकरके खेल चल रहा है वही “कुरु" शब्द वाच्य है; उनके भीतर आज्ञा चक्रके ऊपर भी जिनको अधिकार मिला, अर्थात् काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सरताको भी छोड़ नहीं सकते, इस पर भी आत्मावारे (आत्मलक्ष्यमें ) दर्शन-श्रवण-मनन-निदिध्यासन लेकरके भी है, वही श्रेष्ठ है; इसलिये ऐसे अवस्थापन्नको कुरुश्रेष्ठ कहा गया। वह जो हमारा दिव्य आत्म-ऐश्वर्य अर्थात् जलमें अनन्त तरंग फेन-बुबुद् सदश विश्वसाजमें आत्म विकाश है, उसका अन्त नहीं है क्योंकि मैं अनन्त हूँ, हममें जिसका बोधन होगा वह भी अनन्त विस्तर है। उनके भीतर जो बड़े बड़े हैं उनमेंसे थोड़े अब मैं तुमसे कहता हूँ ॥ १६ ॥ अहमात्मा गुड़ाकेश सर्वभूताशयस्थितः । अहमादिश्च मध्यच्च भूतानामन्त एव च ।। २०॥ अन्वयः। हे गुड़ाकेश। अहं सर्वभूताशयस्थितः ( सर्वेषां भूतानां प्राशयेषु. अन्तःकरणेषु स्थितः) प्रात्मा, अहं भूतानां प्रादि च मध्यं च अन्तः एव च ॥ २० ॥ अनुवाद। हे गुड़ाकेश ! मैं सर्वभूतोंके अन्तर स्थित भात्मा हूँ। मैं ही. भूत समूहके आदि अर्थात् स्रष्टा, मध्य अर्थात् पालनकत्ता, और अन्त अर्थात् संहत्ता हूँ॥२०॥ व्याख्या। "गुडाकेश गुड़ाका = निद्रा, ईश=नियन्ता; निद्राजयी। निद्रा जिस साधकको आक्रमण नहीं कर सकती, जो साधक सदाकाल जागरूक है, वही गुड़ाकेश है। "अह" = मैं, आत्मा=सर्व । Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशम अध्याय भूतोंका अधिपति । अर्थात् अहंकारसे तन्मात्रा, तन्मात्रासे आकाशादि उत्पन्न हुए हैं। इसलिये सर्वभूतोंके आशय वा अधिपतिका नाम “आत्मा” है। आशथ कहते हैं स्थान को; जहां जो रहता है उसका आशय वही है, जैसे जलका आशय समुद्र है; तैसे भूतका आशय “मैं” हूँ। हमसे ही भूतोकी उत्पत्ति है; पुनः हममें ही भूतों का अन्त है। पुनः इस उत्पत्ति और अन्तके बीच में जो स्थित है वह भी हममें है। इस कारण इस जगत्के उत्पत्ति-स्थिति-प्रलय मेरे ऊपर “मैं” से “मैं” में ही होता है ॥ २० ॥ भादित्यानामहं विष्णुर्योतिषां रविरंशुमान् । मरीचिमरुतामस्मि नक्षत्राणामहं शशी ॥२१॥ अन्वयः। अहं श्रादित्यानां (द्वादशादित्यानां मध्ये ) विष्णुः, ज्योतिष (प्रकाशकानां मध्ये ) अंशुमान् ( रश्मिमान् ) रविः, मरुतां ( वायुनां मध्ये ) मरीचिः अस्मि; नक्षत्राणां ( मध्ये ) अह शशी ( चन्द्रमा अस्मि ) ॥ २१ ॥ अनुवाद। आदित्योंके भीतर विष्णु, ज्योतिः समूहके भीतर अंशुमाली सूर्य्य, मरुद्गणके भीतर मरीचि और नक्षत्रोंके भीतर चन्द्रमा मैं हूँ ॥ २१॥ . व्याख्या। "आदित्य"-जिससे अभावका पूरण होता है, वही आदित्य है; महत् और अव्यक्तके संक्रम-स्थलमें जो प्रतिफलित चैतन्यज्योति प्रकाश पाता है, वही प्रथम माया विकाश है, इसलिये उसको आदित्य कहा जाता है। इस आदित्यको शाम्भवीका प्रयोग करनेसे द्वादश अंशमें देखा जाता है; यथा-भग, अंश, अर्यमा, मित्र, वरुण, सविता, धाता, विवस्वान् , त्वष्टा, पुषा, इन्द्र और विष्णु । इन द्वादश के भीतर विष्णु हो "सवितृमण्डलमध्यवत्तीर्नारायणः हिरण्मयवपुः” है। उस अन्तरादित्यके हृदयमें अर्थात् ठीक बीचमें तारक नक्षत्र फट जा करके जो अष्टदल कमल खिल उठता है, उसी कमलके ऊपर में वह हिरण्मय पुरुष दर्शनमें आता है। गले हुए सोनेका घुमते Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीमद्भगवद्गीता समय जिस प्रकार रंग देखनेमें आता है, उस पुरुषका रंग ठीक उसी प्रकार है; इसलिये हिरण्मय है । यह पुरुष हिरण्यश्मश्रु और हिरण्यकेश है; इसके नखाग्रसे केशाग्र पय्यन्त समुदय सनेका वरण है; * यही पुरुष विष्णु है। वह विष्णु ही “मैं” अर्थात् पुराणी महामायाके प्रथम आकारधारी विकार हूं। - ज्योतिष्क गणके भीतर जो अंशुमाली रवि है ( "र" = प्रकाशे, "इ" = शक्ति, "व" = शून्य । शून्यमय प्रकाश शक्ति ); सो भी 'मैं' हूँ। मरुत् ( मृ= मरना+ उत् ) अर्थात् जो कुपित होनेसे मृत्युको मिलाय देते हैं। इन मरुतोंके भीतर मरीचि अर्थात् प्राण मैं हूँ। "नक्षत्र" =जिसका कमी क्षय नहीं है अर्थात् अमृत । यह अमृत शशीमें ही प्रतिष्ठित है इसलिये मैं शशी हूं ॥ २१ ॥ बेदानां सामवेदोऽस्मि देवानामस्मि वासवः । इन्द्रियाणां मनश्चास्मि भूवानामस्मि चेतना ॥ २२ ॥ अन्वयः। (अहं ) वेदानां सामवेदः अस्मि, देवानां वासवः अस्मि, इन्द्रियाणां मनः च अस्मि, भूतानां चेतना अस्मि ॥ २२ ॥ अनुवाद। वेदोंके भीतर सामवेद मैं हूं, और देवतोंके भीतर वासव, इन्द्रियोंके भौतर मन और भूतोंके भीतर चेतना रूपसे अवस्थित मैं हूँ ॥ २२ ॥ व्याख्या। वेद-शान, जाननेका विषय जो कुछ है, वही वेद है। वेदोंके भीतर साम सन्धि-माया-ब्रह्मका संयोग है। इसका स्थान आज्ञाचक्र है (२य अ:४५वां श्लोककी व्याख्या)। यहां पूर्ण ___ * "अथ यदेव तदादित्यस्य शुक्लं भाः संव साथन्नीलं परः कृष्णं तदमस्तत् सामाथ यः एषोऽन्तरादित्ये हिरण्मयः पुरुषो दृश्यते हिरण्य श्मश्रु हिरण्यकेश आप्रणखात् सर्व एव सुवर्णः।" छान्दोग्योपनिषत् १म प्रपाठकः ।। Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशम अध्याय १६ सत्यप्रकाशके भीतर स्थिरता व चपलताका समावेश है; यही ज्ञानका पूर्ण विकाश है। इसलिये वेदोंके भीतर सामवेद ही ___ "वासव"-वस+अव, अर्थात् जो स्वर्गमें वास करता है, वही बासव है। स्वर्ग कहते हैं स्तरको । जगत्में दो प्रकारका स्तर है। एक प्रकार बद्ध और एक प्रकार मुक्त। इन दोनोंके बीच में चित्त नाम करके एक आलबाल है। चित्तके नोचे स्तर में त्रिगुणकी प्रवलतासे बद्ध जीवत्व है और ऊपर स्तरमें ज्ञानकी प्रवलता हेतु करके मुक्तत्व । चित्तकी नीची दिशामें जो जितना परिमाण चित्तावरणके निकट अग्रसर होता है; वह उतना परिमाण जीवत्व छोड़कर मुक्तत्व भोग करता है। चित्तके ऊपर भी पुनः दो स्तर हैं । चित्त और विवस्वान् के बीचमें एक स्तर, और विवस्वान्के ऊपर एक। चित्तके ऊपरवाले स्तरमें वशी लोगोंका निवास है। कोई चित्तवशी, कोई प्रकृतिवशी, कोई मायावशी, ऐसे ऐसे हैं । यह सब लोग चित्तके ऊपर नीचे दोनों स्तरमें ही समान रूपसे अपनी इच्छाशक्तिका प्रयोग करनेमें सक्षम हैं परन्तु जीवके सदृश बद्ध नहीं होते; किन्तु विवस्वान्के ऊपरवाले स्तरका अधिकार नहीं रखते। और चित्तके नीचे जो लोग हैं, उनके भीतर अहंकार-बुद्धि-मन-इन्द्रिय-विषयादि स्तरके अधिष्ठातृयोंको भी स्वर्गवासी कहते हैं-जैसे विषयमें विषयी, मनमें मुनि, बुद्धिमें बौद्ध, अहंकारमें अहंकारी ( सोऽहं वादी) इत्यादि। इन लोगों के भीतर जो पुनः चित्तमें हैं, अथच चित्तके ऊपर उठनेवाली शक्ति भी पाकरके थोडासा श्रेष्ठ भी हुए हैं, उन्हींको इन्द्र वा "वासव" कहते हैं । आज्ञा के ऊपरमें कमविहीन फलभोग अवस्था ही देव-अवस्था है। "मैंके" जितने प्रकार देव-अवस्था है उनके भीतर वह बासव-अवस्था ही प्रधान है; देव-अवस्थाके भीतर वासवमें हो "मैंकी" ( मेरी) पूर्ण विकाश है। इसलिये कहा गया देवतोंके भीतर मैं वासव हूँ। Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीमद्भगवद्गाता " इन्द्रियाणां मनश्वास्मि ” - इन्द्रिय समूहके भीतर मनही मैं हूँ । इन्द्रिय ग्यारह हैं, पांच ज्ञानेन्द्रिय; यह सब बाहरवाले शब्द - स्पर्श-रूपरस-गन्धादिका ज्ञान “मैं” के पास लाता है । पाँच कर्मेन्द्रियः यह सब रूपरसादि - विषय - चावल "मैं" को बाहर दिशामें कर्म्म करनेके लिये दौड़ाता है । इनको छोड़ दूसरा एक जो इन्द्रिय है उसको "मन" कहते हैं । वह मन "मैं को" विषय अनुभव भी कराता है, पुनः कर्म भी कराता है; अर्थात् भीतर में इच्छा अनुभूति चिन्ता - इन सब क्रियाओंको कराकर बाहर के कार्य में भी दौड़ाता है । इस उभयात्मक इन्द्रियका स्वरूप जो है वही प्रकृत मन है, वही "मैं" हूँ । २० मन – म = मैं + न = नहीं अर्थात् मैं नहीं । इन्द्रिय समूहके भीतर जो मैं है, वही भूल मैं है । परन्तु इन सबके भीतर "मैं नहीं" रूप जो मन है वही प्रकृत "मैं" है । अब देखना चाहिये कि इन्द्रिय समूह के भीतर "मैं नहीं" वा मन कौन है ? इन्द्रिय: [= इ + न्द्र+इ+य । इ = शक्ति, न्द्र = अग्नि, इ = शक्ति, य = स्वरूप | इन्द्रिय के भीतर शक्ति अग्नि और शक्ति-स्वरूप मिल गये । शक्ति अग्निका धर्म्म यह है कि जो कुछ अग्निमें पड़े उसीको अग्नि अपने रूप और गुणमें परिवर्तित कर देता है। जिसमें ही अग्नि लगे, अग्नि उसको पहले आलोकित करती है, तत्पश्चात् को उत्तप्त करती है, अन्त में उसका परिणाम कृष्ण चिह्न और भश्म होता है । इन्द्रियकी शक्ति-अग्नि में भी जो विषय आ पड़ता है, पहले वह अन्तरमें प्रकाशित होता है, पश्चात् एक ताप वा चलन अनुभूत होता है, तत्पश्चात् उसी विषयका एक संस्कार मात्र अवशिष्ट (बाकी) रहता है । इन्द्रियके भीतर एक अंश "इन्द्र" वा शक्ति अग्निका कार्य्य दिखा गया है । इन्द्रियका दूसरा अंश " इ + य" वा शक्ति-स्वरूपका का अब देखना चाहिये । Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशम अध्याय प्रति इन्द्रियके कार्यमें मैं करता हूँ, मैं देखता हूँ, ऐसे ऐसे जो व्यापार हैं, उसमें जो "मैं" है, वहो यह भूल मैं है। यह अनादि संस्कार-विशिष्ट है। सुख-दुःख, आदि-व्याधि, जरा-मरण भोग यही करता है। यही दर्शन-श्रवण आदि के भीतर पड़ करके निरन्तर परिवद्धित तथा परिपुष्ट हो करके सुखी, दुःखी बनता है। परन्तु शक्ति-अग्निके साथ जो शक्ति-स्वरूप है अर्थात् “इ+ य" युक्त है, उसका कुछ परिवर्तन नहीं है। वह किसीको ग्रहण भी नहीं करता त्याग भी नहीं करता। यह शक्ति-स्वरूप सदाकाल शान्त और स्थिर भावमें विरा-जती है। यह शक्ति-स्वरूप ''मैं" नहीं है वरंच इसमें मैं-ज्ञापक कुछ भी नहीं रहने से इसको "मैं नहीं" वा मन कहा जाता है । इस शक्ति-स्वरूपको "मैं-नहीं" वा मन कहनेका प्रति कारण यही है कि, जो शक्ति-अग्नि वा भूल मैं चञ्चलताके साथ रह करके सर्वदा चञ्चल होकर दौड़ता रहता है, उसकी जड़में यदि शक्ति-स्वरूप वा स्थिर मैं न रहता,-प्रत्येक जलनको जड़में यदि एक अचचल न रहे, तो तरंग माला टूटता तैरता किसके ऊपर ? उसी प्रकार "मैं-नहीं" रूप शक्ति-स्वरूपके ऊपरमें ही भूल मैं रूप अनादि-प्रवाह संस्कार पुञ्जका बनाना व बिगाड़ना रूप खेल चल रहा है। जो कुछ सुख दुःख वह इसीमें है। परन्तु जड़में "मैं-नहीं" रूप प्रकृत मैं स्थिर शान्ति शक्ति-स्वरूप ही है। लोग जिसको "मैं मैं” करके शोक मोहमें आच्छन्न होता है, वही भूल मैं है। इसलिये कहा हुआ है कि इन्द्रियके भीतर मन वा "मैं-नहीं" ही प्रकृत में है। इ=ह्रस्व शक्ति । ह्रस्व शक्ति कहनेका विशेष कारण यह है कि, व्यष्टिके भीतर विभूतिकी बात कहते हैं; समष्टिके भीतर विभूति दिखाने होता तो दीर्घशक्ति ही कहा जाता। __ "भूमानामस्मि चेतना"। भूत समूहके भीतर "मैं" चेतना हूँ। भूत =जो जाता है। जगत् प्रपञ्चके भीतर जो देखा जाय, सुना Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ श्रीमद्भगवद्गीता जाय, किया जाय, अनुभव किया जाय, वह सबही जाता है, कुछ भी नहीं रहता। वह सबही भूत, सबही प्रकृति और सबही जड़ है। इनके भीतर मैं चेतना हूँ। "चेतना"-चेत्+अ+ना। चेत् अर्थमें यदि अर्थात् अनिश्चित । अनिश्चित क्या ? ना-"अ"। "अ" अर्थमें असत् , अर्थात् अस्ति, जायते, बर्द्धते, विपरिणमते, अपक्षीयते, विनश्यति, इन षट्विकार युक्त जो वही। और 'ना' अर्थमें नहीं। अतएव चेतना शब्दमें अनिश्चित षट्विकार युक्त नहीं जो वही, अर्थात् निधित। वही निश्चित हो "मैं" हूं ॥ २२ ॥ रुद्राणां शङ्करश्वास्मि वित्तशो यक्षरक्षसाम् । वसूनां पावकश्चास्मि मेरुः शिखरिणामहम् ॥ २३ ॥ अन्धयः। अहं रुद्राणां (मध्ये ) शंकरः, यक्षरक्षसां च ( मध्ये) वित्तशः ( कुवेरः) अस्मि; वसूनां पावकः (अग्निः ), शिखरिणां च ( मध्ये ) मेरुः अस्मि ॥ २३॥ अनुवाद। रुद्रगणके भीतर "मैं" शंकर; यक्षरक्षगणके भीतर कुवेर, वसुगणके भौतर अग्नि, और पर्वतोंके भीतर सुमेरु हूँ ॥ २३ ॥ व्याख्या। "रुद्राणां शङ्करश्चास्मि"। मैं रुद्रगणके भीतर शङ्कर हूँ। रुद्र ग्यारह हैं; यथा,-अज, एकपाद, अहिबध्न, पिनाकी, ऋत, पितृरूप, त्र्यम्बक, वृषाकपि, शम्भू , हवन और ईश्वर । षटपद्ममें साधकका जब वर्ण परिचय होता है, तब साधक 'द' 'य' 'प' और 'ख' इन चार योनि अर्थात् स्थिति के स्थानको दर्शन करते हैं। 'द' का स्थान मूलाधार और स्वाधिष्ठानके बीच वाले जगह कामपुरमें है। 'ब' का स्थान अनाहत चक्रमें है। 'प' का स्थान विशुद्धके ऊपर और आज्ञाके नीचे गर्दन और मस्तकके सन्धिमें है। और 'उ' का स्थान सहस्रारमें है। Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशम अध्याय २३ रुद्र-र +उ++र। र=अग्निबाज; उसहस्रार-स्थितिका स्थान, क्षमा; द= कामपुरमें योनि; र= अग्निबीज; तब ही हुआ, जिसमें ( जिस आधारमें ) कामाग्नि और क्षमाग्नि पूर्णभावसे प्रकाशित है, वही 'रुद्र' है। इन रुद्रोंके भीतर मैं शंकर (शं अर्थात् जो मङ्गल करता है ) अर्थात् जो केवल मङ्गल स्वरूप; वही मैं हूँ। __"वित्तेशो यक्षरक्षसाम्"। वित्त कहते हैं पालिनी-शक्ति को। यह चार अंशों में विभक्त हो करके प्रथमांश पृथिवीमें, द्वितीयांश जलमें, तृतीयांश अनलमें और चतुर्थाश साधु पुरुषमें मिलकर प्रकाशिता है । इसीका नाम पद्मा, लक्ष्मी, भूति, श्री, श्रद्धा, मेधा, सन्नति, विजिति, स्थिति, धृति, सिद्धि, स्वाहा, स्वधा, नियति और स्मृति है। इस जगत्में भला व बुरा जिस चीजको तुम देखोगे वही तुमको मोहित करेगी। यह जो मोहिनी शक्ति है, वही विष्णुमाया है। सबके भीतर रह करके, सबको प्रकाश करके, स्वयं प्रकाश होती है इसलिये इसका आना जाना किसीके समझमें या देखने में नहीं आता। इसलिये इसको 'अलकापुर' की अधिष्ठात्री देवी कहते हैं, अर्थात् परमाणु से लेकर माया पर्य्यन्त जितने पुर हैं, यह सत्त्वगुणा महाशक्ति उन सब पुरकीही भूषण स्वरूपा है, (अ भूषित करना)। दिक्पाल (दिक अर्थात् जिसको पा जिन सबको निर्णयमें लाया जा सकता है, उन सबका पालनकर्ता ) कुवेर इस देवीका रक्षक है। यह देवी कुवेर की सम्पत्ति स्वरूप है। इसलिये कुवेरका नाम वित्तेश है। मायाके इस खेलकी अवस्था भी मेरी ही मीतर होती है, इसलिये वित्तेश भी मैं हूं। ___ “वसूनां पावकश्चास्मि"। "वसु” कहते हैं प्रकाशकको, अर्थात् जो अपने तेजसे दूसरेको तेजस्वी करते हैं। यह वसु ८ हैं; यथाभव, ध्रुव, सोम, विष्णु, अनल, अनिल, प्रत्युष और प्रभव। पावक Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीमद्भगवद्गीता अर्थमें अग्नि, जो पवित्र करता है। हममें आकरके सब कोई पवित्र होता है, इसलिये मैं पावक हूँ। "मेरुः शिखरिणामहम्"। शिखरी कहते हैं पर्वत अर्थात् ऊंचे स्थानको। तिसके भीतर पूनः मेरु सबसे ऊंचा है। अब साधक देखो, भीतरमें मायाके अंशमें, विवस्वान्के ऊपरमें ही "मैं" हूं ॥ २३ ॥ पुरोधसाब्च मुख्यं मां विद्धि पार्थ बृहस्पतिम् । सेनानीनामहं स्कन्दः सरसामस्मि सागरः॥ २४ ॥ अन्वयः। हे पार्थ ! मां पुरोधसां मुख्यं बृहस्पतिं विद्धि अहं सेनानीनां स्कन्दः, सरसा च सागरः अस्मि ।। २४ ।। अनुवाद। हे पार्थ ! पुरोहित्गणका प्रधान बृहस्पति कह करके मुझको जानो, सेनानीगणके भीतर कार्तिक भी मैं और जलाशयोंके भीतर समुद्र भी मैं हूँ ॥ २४ ॥ व्याख्या। "पुरोधस्” शब्दका अर्थ पुरोहित है अर्थात् पहलेसे जो धारण कर रहे हैं। ( केवल क्षत्रिय-बलसे कार्य सिद्धि नहीं होती। क्षत्रिय-बलके साथ ब्रह्म-बलका प्रयोजन है। इसलिये राजाओंका रक्षाकर्ता अर्थात् धारयिता पुरोहित ही है। अतएव पुरोधस् शब्दमें "आगेसे जो धारण कर रहे हैं" वही समझा जाता है । क्योंकि, राजाका अग्निहोत्रादि रक्षा पुरोहित हो करते हैं )। जो धारण कर रहे हैं, वह मायाको ही धारण कर रहे हैं। यह माया ही 'बृहत् है। इस बृहत्के पति "बृहस्पति" है। राजर्षि जनकको ब्रह्मज्ञानका उदय होनेसे जनकने इस प्रकार कहा था, "अहो! मैं क्या आश्चर्य हूँ ! मैं अपने आपको नमस्कार करता हूँ; मेरे सदृश कृती और कोई भी नहीं, क्योंकि इस शरीरके साथ छूआ छूत न रख करके भी मैं शरीर रूप विश्वको चिरकाल धारण कर रहा हूँ" *। इसलिये * अहो अहं नमो मां दक्षो नास्ति हि मत्समः। असंस्पृश्य शरीरेण येन विश्वं चिरं धृतम् ॥ Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशम अध्याय पुरोहितोंके भीतर प्रधान बृहस्पति ( बृहताम् पतिः बृहस्पतिः ) ही मुझको जानो । यहाँ जीव, ईश्वर और "मैं" इन तीनोंके भीतर मैं ही प्रधान हूं * । “सेनानीनामहस्कन्दः” - सेना कहते हैं जन समूहको अर्थात् जो लोग जनम ले चुके; वह लोग सब कोई "मैं" और "मेरे" इन दोनो को लेकर लड़ाई कर रहे हैं; इस लड़ाईका परिचालक वासना है । वास होता है योनिमें अर्थात् स्थितिके स्थानमें; जिसका स्थितिका स्थान भी नहीं है ऐसी अलीक जो, वही वासना है; यह वासना ही सेनानी है । स्कन्दः =स्+क+न्+द+: ( स ) यह हलन्त स युक्त हो करके अर्द्धस्फुरण दिखाता है । स = सूक्ष्मश्वास, क = मस्तक, न = नास्ति, द = योनि; तबही हुआ सूक्ष्मश्वास भी अति सूक्ष्मत्व लेकर मस्तक में शून्ययोनि हो करके मुक्तिभाक् मात्र रहता है जिस समय, अर्थात् वासना नीचे दिशामें नाना भावसे परिचालित न हो करके सकल प्रकार कम्पनको त्याग करके जब एकाग्र भावसे मुक्ति के ऊपर लक्ष्य करके चलता रहता है, तब जो अवस्था होती है, उसीका नाम स्कन्दः है । इस अवस्था में और "मैं" में घनिष्ठ संक्रम है, इसलिये : विसर्ग युक्त है । अतएव मैं स्कन्दः हूं ( ८म अः ३ श्लोक में 'विसर्गः' देखो ) । " सरसामस्मि सागरः" । सरसां - स+र+स+श्रां । स = सूक्ष्मस्वास, र = प्रकाश, स= सूक्ष्मश्वास, आं= आसक्ति; सूक्ष्मश्वास का प्रकाश होनेसे सूक्ष्मश्वास में आसक्ति होती है । साधक ! तुम देखो, वही आसक्ति सागरमें परिणत होती है; ( सागर - सा = सूक्ष्मश्वास में आसक्ति, गर = 'विष' ), अर्थात् बही आसक्ति विषके सदृश विस्तार गति लेती है। निःश्वास और प्रश्वासके ऊपर लक्ष्य * साधक ! तुम देखो, जीव भी पुरोधस्, चित्त - प्रतिविम्ब भी पुरोधस्, फिर मैं भी पुरोधस् इन तीनोंके भीतर "मैं" ही प्रधान हूँ ॥ २४ ॥ Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___ श्रीमद्भगवद्गीता करनेसे ही धीरे धीरे निश्वास-प्रश्वास छोटी होते होते निरोध अवस्थाकी प्राप्ति कराती है, तब वह सीमाबद्ध सूक्ष्मत्व धीरे धीरे उड़ (मिट) कर अपरिसीम सूक्ष्म होकर खड़ा होता है। वह अपरिसीम. सूक्ष्म ही "अस्मि” अर्थात् “मैं” हूँ। यह भीतरकी बात हुई। फिर बाहरमें जहां जितना जल रहता हैं, ताल, तलैया, नाला, तडाग. नद, नदी, जो कुछ, समस्त जल ही समुद्रका है। और वह छोटे छोटे आकार भी सब समुद्रका ही अंश-विकाश; परन्तु सीमाबद्ध है । समुद्र असीम और अनन्त है। इसलिये जलाधार रूपसे समुद्रमें ही "मैं" की विभूतिका पूर्ण विकाश है ॥२४॥ · महर्षीणां भृगुरहं गिरामस्म्येकंमक्षरम् । यज्ञानां जपयज्ञोऽस्मि स्थावराणां हिमालयः ॥२५॥ अन्वयः। अहं महर्षीणां ( मध्ये ) भृगुः, गिरा ( मध्ये ) एकं अक्षरं अस्मि,. यज्ञानां ( मध्ये ) जपयज्ञः अस्मि, स्थावराणां ( मध्ये) हिमालयः (अस्मि) ॥ २५॥ अनुवाद। मैं महर्षिगणों के भीतर भृगु, वाक्यके भीतर एकाक्षर, जपके भीतर जपयज्ञ, और स्थावरोंके भीतर हिमालय हूँ ॥ २५ ॥ व्याख्या। महर्षि ( १०म अः ६ष्ठ श्लोक ) उनको कहते हैं, जो लोग साधन-बलसे ऐसी शक्ति समुदयको अपने आयत्त कर चुके हैं। उनके भीतर मैं 'भृगु हूँ। 'भृ' = भरण करना और "गु" = अन्धकार। अन्धकारमें किसी वस्तुका परिज्ञान नहीं होता, इसलिये साधु लोग अज्ञानताको भी अन्धकार कह करके निर्देश किये हैं। भृगु भी अज्ञानी असुरोंको पालन करते हैं। ब्रह्मज्ञानके पास कर्मकाण्ड ही अज्ञानता है, तबही हुआ, साधन-बलसे समुदय ऐसी शक्तिको प्राप्त हो करके भी जो पुरुष कर्मकाण्ड लेकर चलते फिरते हैं, उन्हीं की आख्या "भृगु" है। परन्तु कर्मकाण्ड लेकर खेल करते रहनेसे भी "भृगु” कभी ब्रह्मज्ञानसे विच्छिन्न नहीं होता। अविच्छिन्न ब्रह्मज्ञानमें Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७ दशम अध्याय जो मतवारा रहता है, वही पुरुष ही "मैं” है। भृगुमें कर्मकाण्ड और ज्ञानकाण्ड दोनों ही अविच्छेद वर्तमान रहनेसे महर्षियोंके भीतर मैं "भृगु” हूँ। "गिरा” कहते हैं वाक्यको। समुदय वाक्यके भीतर एकाक्षर प्रणव ही मेरा वाचक है। इसलिये वाक्यके भीतर एकाक्षर प्रणव ही __ “यज्ञानां जपयज्ञोऽस्मि"-यज्ञके भीतर अजपाजपरूप यज्ञ मैं हूँ। क्योंकि, इसीसे ही ब्राह्मीस्थिति लाभ होती है। अग्निमें साकल्यके आहुतिका नाम यज्ञ है। (तिल, यव, ब्रीहि, और गव्य घृत इकट्ठा मिलानेसे साकल्य होता है ।। भूरि भोजनमें आदान-प्रदानको भी यज्ञ कहते हैं। निश्वास और प्रश्वासके त्याग-ग्रहणको भी यज्ञ कहते हैं। संसारमें नाना प्रकारके यज्ञ हैं, उनके भीतर अजपारूप जपयज्ञ "मैं" हूँ। जप उसको कहते हैं जो अभ्यासके जापकको, अभीष्ट देवके साथ मिलाकर एक कर देवे। यह भीतरको बात है। साधकमें और “मैं” में बाहर बाहर जो विच्छिन्न भाव है, इस विच्छिन्नताको ( गुरूपदिष्ट ) क्रियासे मिटाकर जो "स्वयमेवात्मनात्मान" अवस्था करा दे, उसीको जपयज्ञ कहते हैं। अतएव वहो “मैं” हूं। "स्थावराणां हिमालयः”-स्थावर कहते हैं तीन कालमें जो हिलता डोलता नहीं। "स्था” शब्दमें स्थिति, "वर" शब्दमें श्रेष्ठ, अर्थात् जितने प्रकारका श्रेष्ठ स्थिति ( साधकका विश्राम ) है, उन सबके भीतर “मैं” हिमालय हूं। हिम कहते हैं शीतलको (जिसमें उष्णतामात्रका प्रभाव; उष्णतामें ही चचलता); ालय कहते हैं घर-मुकामको अर्थात् जहां रहनेसे उत्कण्ठा रहती नहीं । आ-शून्य, लय परिणाम, जो अचल, अटल, स्थिर, शान्त, शीतल, परिणमनता शून्य है, उसीको ही हिमालय कहते हैं । और तादृश ( सोई ) हिमालय ही 'मैं हूँ ॥२५॥ Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीमद्भगवद्गीता अश्वत्थः सर्ववृक्षाणां देवर्षीणाञ्च नारदः। गन्धर्वाणां चित्ररथः सिद्धानां कपिलो मुनिः॥ अन्वयः। ( अहं ) सर्ववृक्षाणां (मध्ये) अश्वत्थः, देवर्षीणां च नारदः, गन्वर्वाणां चित्ररथः, सिद्धानां कपिलः मुनिः ( अस्मि ) ।। २६ ।। अनुवाद। मैं वृक्ष समूहके भीतर अश्वत्थ, देवषियोंके भीतर नारद, गन्धर्वो के भीतर चित्ररथ और सिद्धपुरुषों के भीतर कपिलमुनि हुँ ।। २६ ॥ व्याख्या। अश्वत्थः-अ+श्व+त्+थ। 'अ' =नास्ति + "श्व" = दूसरे रोजके प्रभात काल; अतएव 'अश्व' अर्थमें समझाया जिसमें दूसरे रोज नहीं है, जो चिरन्तन अनादि है। 'त' =तरण वा पार होना, “थ” = पञ्चप्राण, पञ्चदेव, त्रिशक्ति और त्रिविन्दु युक्त कुण्डली शक्ति-माया। तभी हुआ माया पारमें जो चिरन्तन अनादि, वही अश्वत्थ है। वृक्ष-वृक्ष = वेष्टन करना, और अनास्ति; जिसको कोई वेष्टन कर नहीं सकते, जिससे कोई बड़ा नहीं, जो सबसे बड़ा, वही वृक्ष शब्द वाच्य है। यह जो पृथिवी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, ये सब भी महानसे महान हैं। इन सबको ही "सर्व" कहते हैं। ये सब भी 'वृक्ष" हैं। क्योंकि, इन सबको भी वेष्टन करना सहज नहीं है। परन्तु बह धातु मन् प्रत्ययमें जो अर्थ संग्रह होता है, जिसको ब्रह्म कहते हैं; भूत प्रपञ्च उस ब्रह्मके तुलनामें नगण्य गिनतीमें आता ही नहीं, अस्थायी और सीमाबद्ध है। वह ब्रह्म “मैं” बिना और कोई नहीं है, और वह प्राकृतिक पदार्थ जितना बड़ा ही हो, कोई भी मुझ ( मैं ) को वेष्टन कर नहीं सकता; इस कारणसे सब वृक्षों के भीतर मैं "अश्वत्थ" हूँ। अश्वत्थ क्षणविश्वंसी अर्थात् जहां क्षणका भी उदय नहीं होता। "देवर्षि" एक अवस्था विशेष है। जिस अवस्थामें कारण मूर्ति और अर्थके साथ प्रत्येक वर्णका परिज्ञान होता है उसीको ऋषि Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ दशम अध्याय अवस्था कहते हैं। देवतोंके भीतर जो लोग इस अवस्थापन्न हैं, वह समस्त ही "देवर्षि' हैं; उन सबके भीतर मैं नारद हूं। "नार" शब्द में विष्णु, "द” शब्दमें दान; विष्णुको जो मिला दे वही 'नारद” हैं। "विष्णु" कहते हैं व्यापक-चैतन्य आत्माको। व्यापक-चैतन्य ही ब्रह्म है; इस ब्रह्मका जो उपदेष्टा है, वही ब्रह्मविद् है। वह ब्रह्मविद् ही नारद है। "ब्रह्मविद् ब्रह्म व भवति”, इस कारणसे नारद भी मैं हूँ। "गन्धर्वाणां चित्ररथः”। गन्धर्व-(गन्ध अर्थमें हिंसा, अर्व अर्थ में गमन करना ) अर्थात् युद्धकालमें जो लोग हिंसाके लिये गमन करते हैं, अर्थात् क्रिया लेनेके बाद समयसे ही मायिक विषयामात्रके ऊपर जिन सबका तीब्र अनास्था रहे। गन्धर्वगण मार्ग ( ऊपरवाले ), और देशवाली ( जातीय ) दो प्रकार संगीत जानते हैं और शिक्षा देने में भी क्षमवान् हैं; परन्तु संगीत शास्त्रमें भी उन सबका सम्यक् संस्कार नहीं है। यहां भी साधकका सप्तसुरा नाद उठा है, मतवारा कर देता है, साधक उनमेंसे बहुतोंको समझता है, नहाँ भी समझता है। कोई सिखे तो इतनी दूर तक उसको शिक्षा भी दे सकता है; ऐसे अवस्थापन्न साधकोंको गन्धर्व कहते हैं। इन सभोंके भीतर "चित्ररथ"चित्र अथमें नाना रंगके अंकन, और रथ कहते हैं विश्रामवाले अति उच्च स्थानको (इच्छानुरूप जिसका चालन और स्तम्भन किया जा सकता है )। साधकमात्रको यह स्थान मालूम है। इस स्थानमें उठ के बैठनेसे मायाकी घोर नहीं रहती। जहां मायाकी घोर नहीं है वहां जो रहते हैं उन्होंको "चित्ररथ" कहते हैं। मैं भी मायाकी घोर में नहीं रहता इसलिये मैं "चित्ररथ" हूँ। "सिद्ध"-जो सब साधक साधना समाप्त कर चुके, और करनेका कुछ भा बाकी नहीं, केवल साधनाका फलभोग मात्र अवशिष्ट है, वही सब सिद्ध हैं। इस अवस्थामें अन्तःकरणकी वृत्तिमात्र भी रहता नहीं; इस कारणसे मुनि हैं। "मुनि संलोनमानसः”—मानस-च्यापार Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३० श्रीमद्भगवद्गीता जिनको सम्यक् लीन हो चुके, उन्हींको मुनि कहते हैं । इस अवस्था के आसे साधक कपिलवर्ग मण्डलके भीतर आत्मदर्शन करते हैं । कपिलदेव पूर्व जन्म में साधनाका अंग, सब समाप्त करके शरीर त्याग कर दिया था इससे उनका फल भोग केवल मात्र बाकी रहा । पुनजन्म प्राप्तिमात्र ही उन समस्त साधना के फल उसमें उपस्थित हुए थे; इसलिये उसको जन्मसिद्ध कहते हैं । मेरा जन्म भी नहीं; साधनाका साङ्गोपाङ्ग समस्त सिद्धि भी हममें निरन्तर विद्यमान है, इसलिये मैं सिद्धोंके भीतर " कपिलमुनि" हूँ ॥ २६ ॥ उच्चैःश्रवसमश्वानां विद्धि माममृतोद्भवम् । ऐरावतं गजेन्द्राणां नराणाञ्च नराधिपम् ॥ २७ ॥ अन्वयः । मी अश्वानां (मध्ये ) अमृतोद्भवं उच्चैःश्रवसं, गजेन्द्राणां ऐरावतं, नराणां च नराधिपं विद्धि ॥ २७ ॥ अनुवाद | अश्वोंके भीतर अमृतोद्भव उच्चः श्रवा कह करके मुझको जानना, गजेन्द्रों के भीतर ऐरावत और मनुष्योंके भीतर नरपति कहकर जानना ॥। २७ ॥ व्याख्या । जब साधक सुषुम्नाके भीतर ब्रह्मनाड़ीसे होकर ( उस ब्रह्म को ही क्षीरसमुद्र कहते हैं ) यथोपदिष्ट मत में आवागमन करते हैं उसीको समुद्रमथन कहते हैं । क्रिया करते करते प्रवह, संवह, विवह, उद्वह, श्रावह, परिवह, और परावह इन सात प्रधान वायुका उदय होता है। इनके भीतर संवहके परिवार भुक्त अपान; विवहका समान, उद्वहका व्यान, आवहका उदान और परिवहका प्राण है । प्राणका कार्य शरीर के भीतर रहकर शरीरकी रक्षा करना, और पान का कार्य शरीर के भीतरसे प्राणको बाहर ला फेकना है । प्रति निश्वास-प्रश्वास में ही इन दो वायुओं का संघर्ष चल रहा है । परन्तु क्रिया - कालके संघर्ष में थोड़ीसी विशेषता है । प्रत्येक कमलके प्रत्येक दल में शक्तिरूप से एक एक वायु रहते हैं। वह जो एक एक वायु है, उन Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशम अध्याय सबकी सामजस्य रखने के लिये मूलाधारसे सहस्रार पर्य्यन्त प्रति कमलमें यथाक्रम अनुसार, कात्ति, श्री, वाक् , स्मृति, मेधा, धृति, और क्षमा नामसे सात मातृका शक्ति हैं। क्रियाकालमें जब बहिराकाशकी वायु शरीरमें प्रवेश करती है, तब मूलाधारसे कीत्ति उठती है और सहस्रार से क्षमा उतरती है, इन दोनों शेष शक्तिके आवागमनमें समुदय मध्य शक्तिकी अवस्थान्तर प्राप्ति होती है। क्षमाके स्थानमें कीर्ति जब उठ बैठी, तत्क्षणात् कीर्तिकी कृतीत्व लोप हो गया, और क्षमा कीर्तिके स्थानको अधिकार करते ही वहां क्षमात्वका विस्तार कर देता है। बीच वाली शक्तियां जिस प्रकार प्रारम्भिक अवस्थामें क्रिया करती थीं (जो सृष्टि-पालिनी थी), अब उनके क्रिया विपरीत हो गई, अर्थात् ब्रह्ममुखी हो गई। इसलिये षट्पद्मके प्रतिपत्रके वायुकी विपरीत गति हुई, अर्थात् संसार-मुखमें जो जो कार्य करती थीं, सो सब समेटकर असंसार-मुखमें अपनी अपनी शक्ति फेकने लगीं। इन समस्त समष्टि शक्तिसे चौदह प्रकारके स्वरका आविर्भाव हुआ। ये समस्त शब्द विच्छेद शून्य निरन्तर और ऊँची दिशामें सुना जाता है; इसलिये "उच्चैःश्रासं" नाम रक्खा गया और यह अविच्छेद • निरन्तरत्व हममें ही प्रतिष्ठित रहनेसे मैं ही उच्चैःश्रवा हूं। उच्चैःश्रवा अश्वके भीतर प्रधान है। अश्व क्या है ? अश्व कहते हैं दूसरेको जो अपनी पीठपर लादकर घुमे अर्थात् भारवाही पशु। शरीरके भीतर जो सब बायु निश्वासरूपसे मनको पीठ पर धरकर बाहर लाके शब्दस्पर्श-रूप-रस-गन्धको संग्रह कराकर फिर प्रश्वास रूपसे भीतर मनोमय कोषमें ले जाकर उन सबको भोग करावे, वही निश्वास और प्रश्वास रूप दोनों प्रकारकी वायुको अश्व कहते हैं। इनमेंसे मनको जो नाद के भीतर ले जाकर तद्विष्णुका परमपद साक्षात् करा देता है, वही उच्चैःश्रवस है, जैसा ऊपर कहा गया है। _ विच्छेद ही मृत्यु है और अविच्छेद अमृत। इस अविच्छेदके ध्वनिसे इस अवस्थाका परिज्ञान होता है इसलिये उच्चैःश्रवसको Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२ श्रीमद्भगवद्गीता क्योंकि, इस अवस्था अमृतसे उत्पन्न ( "अमृतोद्भव" ) कहा गया है। में साधकका सहस्रारसे क्षरित सुधा अविश्रान्त मूलाधार स्थित क्षमा को अभिषेक करता रहता है; और उसी अमृतकी गति पलट जाने के सबब से उसमें और अपक्षय नहीं होता । इस अपक्षय शून्य अवस्था में ही वह स्वर श्रवण में आता है । इस अवस्था में शक्ति अग्निकी क्रिया होती है (बहिर्मुखी वृत्ति नहीं रहती), इसलिये उच्चैःश्रवाको इन्द्र वाहन कहते हैं । 1 "ऐरावतं गजेन्द्राणां” । ऐरावत - ( इरा = जल, और वत् = सदृश) जलके सदृश, परन्तु जल नहीं, तृष्णा निवारण-क्षम तृप्ति विशेष । "गज" कहते हैं जो स्पश-मुखसे गल जाता है, जो स्पर्श-सुख से श्रात्महारा होता है । और इन्द्र कहते हैं श्रेष्ठको । अर्थात् जो केवल स्पर्शसुखसे आत्महारा होकर जगत् के समस्त विषयोंका तृष्णा निवारणक्षम तृप्ति भोग करे उसको 'गजेन्द्र' ( ऐरावत ) कहते हैं। अब साधक ! तुम अपने में इसे मिला लो । जब तुम मणिपुर से अष्टधा वलयाकारा स्थान भेद करके अनाहत ( मोहके स्थान ) भेद करने चलो, उस समय तुम स्पर्श- सुखसे इतना मोहित इतना आत्महारा होते हो जिसमें, तुम्हारे शरीर के सब रोम खड़े हो जाते हैं; तुम्हारे सारे शरीर में कम्पन आ जाता है, - शीत नहीं, ठण्ढा नहीं परन्तु कम्पन; ऐसा कम्पन जिसका किसी प्रकार निवारण किया जा नहीं सकता, तुम्हारे पगसे मस्तक पर्यन्त भीतर बाहर कम्पायमान करा देता है । उस समय तुम्हारे हृदय में और मस्तक में ऐसी सुरसुराहट ठण्डी ठण्डी स्पर्शशक्तिकी अनुभूति होगी, जो तुमको जगत्के समस्त भोगी तृप्ति मिला देती है। कोई विषय नहीं, कोई भोग नहीं, किसीकी प्राप्ति भी नहीं, परन्तु समस्त प्राप्तिकी प्राप्ति पाते पाते ऊपर उठकर तुम विलीन हो जाते हो। तब तुम्हें क्या बाहर, क्या भीतर (अभ्यन्तर ) किसी प्रकारका बोध नहीं रहता । इस अवस्था में Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशम अध्याय कूटस्थमें पूर्व दिशामें श्वेत हस्तीका दर्शन होता है । यह अवस्था हम ( मैं ) से भिन्न नहीं है, इसलिये गजेन्द्रों के भीतर मैं ऐरावत हूँ। _ "नराणां च नराधिपम्”-नर समूह के भीतर मैं नराधिप हुँ। नर-'नृ' शब्द के अर्थ लेना पाना है; "अ"-नास्ति वाचक शब्द है। जिस अवस्थामें लेना पाना नहीं रहता, वही "नर" अवस्था है । लेना पाना जो कुछ है वह विषयमें ही है; विशुद्ध कमल पर्यन्त विषय हैं। विषयके ऊपर (आज्ञाचक्रमें ) उठनेसे ही श्रात्मोन्नतिका अधिकार आता है। जिसने आत्मोन्नतिका अधिकार प्राप्त किया है, उसीको नर कहते हैं। फिर आज्ञाचक्रके ऊपर उठ कर न उतरनेसे ही अधिप ( राजा ) होता है। क्योंकि यहाँसे आत्मोन्नति भी होती है और अनासक्त-भावमें रहनेके लिये विषयादिको भी पालन किया जा सकता है। इस स्थानमें रह कर उत्तम पुरुष विष्णुका दर्शन करके तदाकारत्व प्राप्ति होती है । पालन जो करे वही राजा है। भगवान् विष्णु इस जगत्को (विषयादि भोगके स्थानको ) पालन करते हैं, तथा निलिप्त-भावसे रहते हैं, इस कारण वह योगेश्वर हैं। इसलिये कहता हूँ कि नर समूहके भीतर नरश्रेष्ठ राजा ही विष्णु हैं। और वही विष्णु “मैं” हूँ ॥२७॥ आयुधानामहं वन धेनूनामस्मि कामधुक् । प्रजनश्वास्मि कन्दर्पः सर्पाणामस्मि वासुकिः ॥ २८ ॥ . अन्वयः। अहं आयुधानां वज्र (अस्मि ), धेनूना कामधुक् अस्मि; (अहं) प्रजनः कन्दर्पः अस्मि, सर्पाणां च ( मध्ये ) वासुकिः अस्मि ॥ २८ ।। अनुवाद। मैं आयुध ( अस्त्र ) समूहके भीतर वज्र, धेनुओंके भीतर कामधेनु, प्रजागणों के उत्पत्तिका कारण स्वरूप कन्दर्प, और सपा के भीतर मैं वासुकि हूं ॥२८॥ व्याख्या। "आयुधानां अहं वन"-आयुधोंके भीतर मैं वन हूँ। आ+युध् +अ, जिससे युद्ध किया जाता है। अस्त्र, शस्त्र प्रभृति Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४ श्रीमद्भगवद्गीता प्रहार-साधन द्रव्योंको आयुध वा प्रहरण कहते हैं। प्रहरण-प्र= प्रकृष्ट +ह-हरण करना+अनट , जो प्रकृष्ट पूर्वक हरण करते हैं। जिसके ऊपर प्रयोग किया जाय, उसीका अस्तित्व हरण करते हैं इससे इसका नाम प्रहरण है। इस शरीरके भीतर प्रहरण स्वरूप वायु ही एक मात्र आयुध है। फिर वायुने शरीरके नाना स्थानोंमें रहकर नाना प्रकारके नाम धारण किये हैं। उन सबके भीतर वज्र ( वज्= गमन करना, रं=अग्निबीज; अग्नि स्वयंप्रकाश और पर प्रकाशक है) स्वयं भाश्वर, गतिविशिष्ट और जिसके ऊपर पड़ते हैं, उसीका अस्तित्व हरण करने की शक्ति रखते हैं, ऐसा जो हैं उसीको वज्र कहते हैं। जिस महा वायुकी क्रियासे शरीरका अस्तित्व सम्पादन होता है, वही परमाराध्य, परम पूजनीय, प्राणेश्वर प्राण ही को वज्र कहते हैं। अवसर मत उस महाशक्तिको जिस पक्षसे ही प्रयोग किया जाय उस पक्ष को ही (प्रयोग कर्ताको ) वह जय देते हैं (साधकको यह जानी हुई बात है )। जय चिरकालसे हममें ही प्रतिष्ठित है । इसलिये आयुधों के भीतर जयशील वन मैं ही हूँ। - "धेनूनामस्मि कामधुक्"। कष्टशून्य पेट भरने वाला भोग (पानीय ) जिनसे मिलता है उन्होंको धेनु कहते हैं। इस शरीरके भीतर जिस अमृतका क्षरण होता है, उस अमृतको पान करके अमर पदमें जानेके समय ऐसी एक अवस्थामें पहुंचना होता है कि वहाँ जिस चीजकी चाहना होती है वह मिल जाती है। इसलिये उस अवस्थाको “कामधुक" कहते हैं। मेरी वह अवस्था “मैं” के अति निकट और प्रायः आकर “मैं” में मिला हुआ है। इस कारण "धेनुओं के” भीतर मैं “कामधु” ( कामधेनु हूँ )। धेनु-"धे” शब्दमें पानीय, और "नु" शब्द कर्ताको समझाता है। अर्थात् जो पानीयभोग दान करते हैं उन्हींको धेनु (दुग्धवाली गाभी ) कहते हैं। जितने प्रकारके भोग हैं, उनके भीतर पानीय कष्टशन्य उदरपूरक है। यह Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशम अध्याय भोग धेनुसे मिलता है; इन धेनुके भीतर फिर कामधुक् से इच्छा मात्र ही परम सुखसे वह भोग मिल जाता है। "काम” कहते हैं इच्छाको, "धु" कहते हैं कम्पन को, और "क" कहते हैं आत्माको। कामधुक् शब्दका अनुभूति समझना हो तो भोगेच्छामें जो अविरोधि आत्मकम्पन है उसीको समझना होगा। यह सबसे कष्ट-शून्य श्रेष्ठ भोग है। अब साधक तुम देखो! ठीक तुम्हारे उस प्रकृतिपुरुष-विवेक ज्ञानके पश्चात् मायासे आत्मत्व लेनेके लिये आत्माकी दिशामें जो झुकाव है, जो निषादके ( सप्तस्वरके शेष स्वर जो 'नि' उस 'नि' का भी सर्वोच्च अन्तिम स्वरकम्पनके ) सदृश; सुर (को) छू छू करके छूने नहीं पाकर घुम आना फिर छूनेकी लालसामें छूते जाना, यह जो अविश्रान्त आना जाना है, यही कामधुक अवस्था है। इस अवस्थामें तुम्हारा “मैं” बिना दूसरा लक्ष्य नहीं रहता परन्तु "मैं" में गिरते गिरते भी गिरनेका अक्सर नहीं ले सकते । यह जो आवागमन रूप कम्पन है, वह कम्पन होनेसे मी "मैं" में मिला हुआ कह करके "मैं" बिना और कुछ नहीं है। इस अवस्थामें स्थित साधकका अन्तःकरण जो कुछ चाहता है उसे वह पाता है। इसलिये धेनुओंके भीतर मैं "कांमधुक” हूँ। "प्रजनश्वास्मि कन्दपः”। –'प्र' शब्दसे ख्याति अर्थात् नाम: घोषणा, 'जन' शब्दसे जन्माना, और 'अ' शब्दसे कर्त्ताका बोध होता है। जनमते मात्र जिसका नाम घोषणा होय अर्थात् नाम पड़े (संसारमें जो कुछ दर्शनीय है ) वही "प्रजन” है। "कन्दर्प”। कं-सृष्टिकर्ता ब्रह्मा+हप् = सन्दीपन करना+अ ( अन् ) कर्तवाचक शब्द। अर्थात् जन्म लेते मात्र सृष्टिकर्ता ब्रह्मा को (जो जिसकी सृष्टि करता है, वह उसीका ब्रह्मा ) जो सन्दीपित (मोहित ) करता है वही कन्दर्प है। अब साधक ! एक बार मेरा दर्शन करो; जनम लेनेके पहले मेरा कोई नाम नहीं था जनम लेनेके Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६ श्रीमद्भगवद्गीता पश्चात् नामका संयोग हुआ था। फिर जिससे जनम लिया, उसी सष्टिकर्ताको "मैं" मेरेमें मतवाला कर रक्खा । इस कारणसे "प्रजन" और "कन्दर्प" इन दोनों शब्दोंका ही प्रयोग स्थल “मैं” हूँ। __“सर्पाणामस्मि वासुकिः” सर्प कहते हैं जिन सब साँपके फण है (विषधर )। फणाधारी सर्पोके भीतर मैं वासुकि हूँ। वासुकि = वसु+क। वसु कहते हैं स्वप्रकाश मणि रत्नको,-जैसे हीरा, चुन्नी इत्यादि; और कमस्तक । फणाधारी सप (सर्प सब विषधर हैं) मस्तकमें स्वप्रकाश मणिरत्न रहेगा, ऐसा जो श्रेष्ठ सर्प है वही वासुकि है। स्वप्रकाश मैं बिना और कोई नहीं; इस कारण मायाकी जो कोई अवस्था मेरे साथ मिली रहे वही अवस्था श्रेष्ठ वा राजा शब्द वाच्य है। इसलिये मणिभूषित श्रेष्ठ सर्पो के भीतर मैं वासुकि हूँ। मेरी अपनी कोई अवस्था नहीं है। माया नामसे कोई चीज भी आजतक पैदा नहीं हुई। केवल मान लेनेके लिये अन्तःकरणके धर्ममें जिसका स्फुरण होता है वही मायाका प्रकाश है (मा=नास्ति वाचक शब्द, या=अस्ति वाचक शब्द )। वह अन्तकरणके धर्म जब मुझको लेकर खेल करे, वही मायाकी श्रेष्ठ अवस्था है। गुरूपदेश अनुसार क्रिया करते करते साधक कूटस्थमें फणाधारी ज्योतिर्मय मणिभूषितमस्तक जिस सर्पका दर्शन करते हैं, वही सर्प वासुकिकी प्रतिकृति है ॥२८॥ अनन्तश्चास्मि नागानां वरुणो यादसामहम् । पितृणामयंमा चास्मि यमः संयमतामहम् ॥ २६ ॥ अन्वयः। अहं नागानां (निविषाणां राजा ) अनन्तः ( शेषः)। यादसां च ( अब्देवतानां च राजा) वरुणः अस्मि; अहं पितृणां अर्यमा च ( तथा ) संयमता यमः अस्मि ॥ २९॥ अनुवाद। मैं नागगणोंके भीतर अनन्त, और जलदेवताओं के भीतर वरुण हुँ; मैं पितृलोगोंके भीतर अय्यमा, और नियन्तृगणों के भीतर यम हूँ ।। २९ ।। Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशम अध्याय व्याख्या। "अनन्त' उसको कहते हैं जिसका कूल किनारा नहीं है। 'नाग' =न+अग; न=नास्ति, अग=सर्प, अर्थात् जो सर्प नहीं परन्तु सर्पके सदृश है। सांपमें विष रहता है, इसमें विष नहीं। सर्प में महीन मोटे आकारसे आदि अन्तका बोध कराता है, इसमें फण न रहनेसे केवल लम्बा ही लम्बा (कूटस्थमें देखने में आता है ); इस नागराजको ही अनन्त कहते हैं। यही क्षीर-सागरमें विष्णुकी शय्या है; वही विष्णु 'मैं' हूँ। हममें सर्वदा तन्मयत्व हेतु अनन्त 'मैं' रूपसे अवस्थित है; इसलिये नागोंके भीतर 'मैं' अनन्त हूं। __“वरुणो यादसामहम्" । 'वरुण'-वृ=वेष्टन करना, और उनन् शब्दमें संज्ञा;-अर्थात् जो वेष्टन करके रहते हैं। समुद्र वा रसतत्त्व पृथिवी को वेष्टन किये हुए हैं। "यादः" = जलदेवता, जैसे कूप, ह्रद, तड़ाग, नदी, नद प्रभृति। प्रत्येक ये सब जगत् की जीवनी शक्ति हैं। इन सबके भीतर रस अर्थात् पुष्टिकरण शक्ति रूपसे मैं विराजता हूँ। इन छोटी शक्तिओंका आश्रयस्थल समष्टिशक्ति अनन्तदेव सागर स्वरूप वरुण ही 'मैं' हूँ। __"पितणामयंमा चास्मि"। "अर्यमा”-अर्य्य (ऋगमन करना )+मन् + कनिन् ; कनिन् अर्थमें दीप्ति पाना। तबही हुआ शरीर त्यागके पश्चात् जो पितृलोकमें गमन करके उत्तमता और दीप्ति को प्राप्त होते हैं; उन्हें अर्यमा कहते हैं। __ साधक ! तुम देखो, क्रिया विशेषसे जब तुम चित्राणीके भीतर ब्रह्मनाड़ीमें अति सूक्ष्मरूपसे रहते हो, तब तुम्हारा स्थूलशरीरमें रहना नहीं होता। ऐसा कि तुम्हारा स्थूलदेह है कि नहीं तुम्हें इसकी भी होश नहीं रहती ( स्थूलदेहको छोड़कर जो लोग रहते हैं, वही पितृलोक हैं )। इस अवस्थामें तेजोराशीके भीतर कूटस्थमें जो मूर्ति (आत्मस्वरूप ) का दर्शन होता है वही पितृदेव अर्यमा है। साधक को उत्साह देनेके लिये यह पूजनीय देवता उपयोगी समयमें उपस्थित Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८ श्रीमद्भगवद्गीता होकर आशीर्वाद करते हैं । स्थूलदेहसे अलग ज्योतिर्मय स्वस्वरूपका दर्शन कूटस्थमें होता है इससे वह अर्यमा भी 'मैं' हूँ। .... 'यमः संयमतामहम्'। 'यम' कहते हैं संयमनी-पुरके अधिपति को। यम् - निवृत्ति करवाना + अन्=संज्ञा; अर्थात् जो निवृत्ति करवाते हैं वही यम हैं। निवृत्ति कहते हैं अन्तःकरण की वृत्तिशन्य अवस्थाको। प्रत्याहारके बाद धारणा, ध्यान, समाधिके एकत्र समावेश अवस्थाका नाम संयम है। जिस अवस्थामें हिंसा नहीं रहती, सत्य ('सत्यं परहितं प्रोक्तं' ) अचौर्या, ब्रह्मचर्या और अपरिग्रह प्रतिष्ठित रहता है, उसीको 'यम' अवस्था कहते हैं। जीवित रह करके भी जिस अवस्थामें 'मैं' मुर्दा सदृश रहता हूँ, ( मृत्यु नहीं, निद्रा नहीं, मूर्छा नहीं, अज्ञानता भी नहीं, तथापि एक प्रकार कष्टशून्य होकर रहनेके सदृश रहना), जब यह अवस्था अति दीर्घकाल तक स्थायी होती है ( ऐसा कि जब धारणा ध्यान, समाधि भंगकी आशंका तक भी नहीं रहती ), तबही यम अवस्था होती है। संयम छोटा और यम बड़ी अवस्था है। ये दोनों ही हमारी अवस्थायें हैं। इसलिये संयमके भीतर मैं 'यम' हूँ। इस शरीरको ही प्रेतपुर कहते हैं ॥ २६ ॥ प्रह्लादश्चास्मि दत्यानां कालः कलयतामहम् । मृगाणाश्च मृगेन्द्रोऽहं वैनतेयश्च पक्षिणाम् ॥ ३० ॥ अन्वयः। अहं दैत्यानां ( मध्ये ) प्रह्लादः कलयतां ( वशीकुर्वतां ) च मध्ये कालः अस्मि, अहं मृगाणां च ( मध्ये ) मृगेन्द्रः ( सिंहः ) पक्षिणां च ( मध्ये ) वैनतेयः (गरुड़ः अस्मि ) ॥ ३०॥ । अनुवाद। मैं दैत्यगणोंमें प्रह्लाद, वशीकारियों के भीतर काल, मृगगों के भीतर मृगेन्द्र ( सिंह ), और पक्षियों के भीतर गरुड़ हूँ ॥ ३० ॥ Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशम अध्याय व्याख्या। "प्रह्लादश्चास्मि दैत्यानां"। प्रह्लाद-(प्र- ख्याति + हाद=श्रालादित होना+अन् ) जो आह्लाद ( खुसियाली) के लिये ख्यातिमान् है, वही 'प्रह्लाद' है। ___ दैत्य-दितिसे जिस वंशकी उत्पत्ति है । दिति पुत्र-कामनाके लिये अनार्य-समयमें कश्यपके पास जाती थी; इसलिये उनसे असत् वंशकी उत्पत्ति हुई। असत्का अस्तित्व नहीं है, इसलिये यह वंश मरधी है। किसी समय में इस वंशके किसी एक पुरुषने सज्जन (नारद ) की कृपासे असत्का 'अ' लोप कर दिया था; तब उसमें सत् मात्र विद्यमान था। सत्में क्षयोदय नहीं है। विष्णुहो सत् शब्दका वाच्य वा बोधक है। 'हाद' विष्णुमें ही प्रतिष्ठित है। दितिके वंशमें उस हाद रूप विष्णुका अधिष्ठान जिस पुरुषमें हुआ था, उन्हींको 'प्रह्लाद' कहते हैं। वही प्रह्लाद 'मैं' हूँ। 'कश्यप'-कश्य अर्थमें मद्य है, जो मतवाला करादे; और 'प' पान करनेको कहते हैं । साधक ! तुम अपने भीतर प्रवेश करके मिला लो। जब सुधाधारा विलोम गति लेकर तुमको मतवाला करती है, तब तुम्हारे अन्तःकरणमें किसी क्रियाका भी स्फुरण नहीं रहता, अथच तुम निष्क्रिय भी नहीं होते। तुम अपनी इस अवस्थाको ही कश्यपअवस्था जानो। इस निष्कलंक अवस्था में पूर्वकृत विषय भोगके संस्कारका उदय होनेसे कभी कभी तुम्हारे उस स्थिरत्वमें जो कम्पन आता है, वही तुम्हारी दिति-अवस्था है। इस समय तुम्हें थोडासा बाह्य दिशामें होश रहता है, और अपरूप सुवर्णमय भीषण न्योति तुमको ग्रास कर ढांक लेता है; तुम्हारी यह अवस्था ही हिरण्यकशिपुअवस्था है। हिरण्य शब्दमें सुवर्ण, और कशिपु प्रास-आच्छादनको कहते हैं। तुमको अधीन करनेके लिये प्रकृतिकी यह मनोहारिणी चेष्टा भी जब विफल हो जाती है, उस विफलताको अनुभव करके तुममें जो अपूर्व हर्षोत्पत्ति होती है, वह हर्ष ही 'प्रह्लाद' है। Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीमद्भगवद्गीता ___'कालः कलयतामहम्। 'कलयता' =वशीकरियों में । मणि मन्त्र महौषधिसे भी वशीकरण होता है। जितने प्रकारकी वशीकरी शक्ति हैं, उन सबके भीतर मैं सर्ववशी 'काल' हूँ। __ काल-'क' शब्दसे ब्रह्मलोकका बोध होता है, 'श्रा' शब्दसे अन्तरीक्ष, 'ल' शब्दसे पृथ्वी । ये तीनों मिलकर भूवनकोष हैं। इसके भीतर जो कुछ पदार्थ हैं सो सब इस कोषके वशीभूत हैं, अर्थात् उत्पत्ति, स्थिति, लप इसी कोषके भीतर होती है। जो जहाँ है सो उसी स्थानमें ही काम करता है, अपना स्थान छोड़कर हटनेका अधिकार किसीको नहीं। फिर यह कोष भी हममें ही प्रतिष्ठित है। अतएव वशीकरियोंके भीतर काल रूपसे 'मैं' ही विद्यमान हूं। 'मृगाणां च मृगेन्द्रोऽह' । मृग कहते हैं पशुको। पशुओंके भीतर मृगराज सिंह मैं हूँ,-(जो कूटस्थमें देखा जाता है) अन्तर्लक्ष्य करके -मृगशब्दमें याचना; याचना समूह के भीतर श्रेष्ठ है मुमुक्षुता। __-'वैनतेयश्च पक्षिणाम्' । वैनतेय-विन ताके गर्भजात अण्डज गरुड़। विनता का अर्थ विशेष नम्रशील है। साधक ! तुम देखो, क्रिया करते करते तुम्हारी दो अवस्था होती हैं। एक अधः, दूसरी ऊर्ध्व। जब फच कम्र्मेन्द्रिय पच ज्ञानेन्द्रिय और पञ्च प्राण लेकर मन बहिमुखी वृत्तिमें विषय भोग करनेके लिये पाचभौतिक स्थूलशरीरका आश्रय लेता है उसे ही कृष्ण गति; अर्थात् अविनता अवस्था कहते हैं। और जब तुम बहिर्वृत्ति समेट कर ऊर्ध्वमुखमें शुक्लगति लेते हो, तब तुम इन पन्च ज्ञानेन्द्रिय, पन्च कर्मेन्द्रिय और पञ्च प्राणको लेकर (तुम्हारे स्थूलशरीरके साथ जाग्रतावस्थाको परित्याग करके ) सूक्ष्म शरीर में क्रिया करते हो; वही तुम्हारी विनता अवस्था है। इस समय तुम एक प्रकार स्वप्नवत् अवस्थामें रहकर कूटस्थका अण्डाकार स्थानमें सुन्दर पर वाले सोनेके रंगका जिस पक्षी को देखते हो, वही गरुड़ है; विषय रूप विषको यही नाश करता है, Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशम अध्याय इसलिये इसका नाम गरुड़ है ( गर+ उड़ ); 'गर' शब्दका अर्थ विष, 'उड़' शब्दका अर्थ उड़ा देना है। जो विषको उड़ा देते हैं, उन्हींका नाम गरुड़ है। इस अवस्थामें मन विषय-शून्य होकर चिदाकाशमें रहता है। हममें भी विषय नहीं है। और इस शुक्ल और कृष्णको पक्ष कहते हैं । जिन सबका पक्ष है आकाशमें घूमते हैं, वही सब पक्षी हैं। इसलिये पक्षियों के भीतर गरुड़ 'मैं हूँ ॥ ३०॥ पवनः पवतामस्मि रामः शस्त्रभृतामहम् । झषाणां मकरश्चास्मि स्रोतसामस्मि जाह्नवी ॥ ३१ ॥ अन्वयः। अहं पवतां (पापयितृणां वेगवतां वा मध्ये ) पधमः, ( तथा ) शस्त्रभृता रामः ( दाशरथिः ) अस्मि । ( अहं ) झषाणां ( मत्स्यादीनां मध्ये ) मकरः च अस्मि, स्रोतसां ( मध्ये ) जाह्नवी ( गङ्गा ) अस्मि ॥ ३१॥ ___ अनुवाद। पवित्र करनेवाले पदार्थों के भीतर मैं पवन हूँ, शस्त्रधारियोंके भीतर मैं राम, मत्स्योंके भीतर मैं मकर, और स्रोतस्विनी नदियोंके भीतर मैं जाह्नवी (गङ्गा ) हूँ॥३१॥ व्याख्या। “पवनः पवतामस्मि”। जितने प्रकारके शुद्धि करनेवाले पदार्थ हैं, उन सबके भीतर सर्वशुद्धिकर वायु मैं हूँ। ( साधकोंके लिये उज्ज्वल दृष्टान्त प्राणायाम है)। पवन–'पव' शब्द शुद्धि करने को कहते हैं +'अन्' कर्तृवाचक शब्द; अर्थात् जो शुद्ध करता है। मिथ्या ही अशुद्ध (विकार ) है। माया-विकार हममें आकर पावन होता है इसलिये, 'मैं' सर्वशुद्धकरी 'पवन' हूँ। 'रामः शस्त्रभृतामहम्'। 'राम' ( परमात्मा) इस शरीरमें जो आत्माके साथ रमण करते हैं वही शस्त्रभृत् हैं। शस्-वध करना वा शासन करना। वायु ही शरीरका शास्ता वा शासक है, इसलिये इसे शस्त्र कहते हैं। मेरुदण्डरूप धनुमें वायुरूप वाण योजना करके, प्रयोगमें सर्वजयी जो 'मैं' वही आत्माराम है। इस शरीररूपी रथमें Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीमद्भगवद्गीता दश इन्द्रियां दश दिशामें धावमान हैं; उन सबकी गतिको जो धारण कर लिया; वही दशरथ है । दशरथ-अवस्थासे आत्मा और परमात्मा को रमणोत्पत्ति होती है, इसलिये उस रमण-अवस्थाका नाम दाशरथी राम है। और दश इन्द्रियोंके यह निस्तब्ध अवस्थामें शरीरके मेरुदण्ड मध्यमें सुषुम्ना-पथमें वायु चालित होनेसे आत्मा और परमात्माका मिलनरूप रमणकार्य होता है इसलिये रामको शस्त्रभृत और दाशरथी कहते हैं। ... "रामः"-रा=विश्व+म=ईश्वर; इस विश्वका जो ईश्वर है, उसको 'राम' कहते हैं। शस्त्र कहते हैं जिसको हाथमें पकड़ रखके किसीको मारा जाय-जैसे खङ्ग, परशु इत्यादि। और अस्त्र कहते हैं जिसको छोड़कर मारना होता है-जैसे तीर, गुलेल, बन्दूक की गोली इत्यादि। शस्त्रके प्रयोग करने वालेको 'शस्त्रभृत्' कहते हैं। विष्णुका तीन अवतार हैं। परशुराम, दाशरथी राम, और बलराम। दाशरथी रामने परशुरामको जय किया था इसलिये दाशरथी का प्राधान्य खुला था। फिर कृष्णगत प्राणके लिये बलराममें प्राधान्य नहीं खुलके कृष्णमें खुला था। विभूतिके भीतर भी सर्वप्रधान विभूति असंगत्व है। यह असंगत्व दाशरथी राममें निरन्तर विद्यमान रहनेसे, दाशरथी रामको ही शस्त्रभृत् सिद्ध किया गया है। अब बात यह है कि अस्त्र कहो चाहे शस्त्र कहो, ये दोनों चीज ही प्राकृतिक हैं । "मयाध्यक्षेण प्रकृतिः सूयते सचराचरम्"। इस विश्वरूपा प्रकृति अस्त्र को धारण किया है, तथापि जिसमें असंगत्वका विच्छेद नहीं हैं, ऐसा जो राम, वही शस्त्रभृत् राम है। वह राम 'मैं' बिना और कोई नहीं हैं। (साधक ! तुम अपने मैं-अवस्थाको लक्ष्य करो, करनेसे ही अर्थके साथ तुमको तारक ब्रह्म राम-अवस्थाका परिज्ञान होगा)। "झषाणां मकरश्चास्मि"। मत्स्योंके भीतर मैं मकर हूँ। झष'झ' शब्द नेपथ्य, और 'ष' शब्द श्रेष्ठको कहते हैं । अन्तरालमें जितने Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशम अध्याय . प्रकारके श्रेष्ठत्व विराजित हैं (जैसे 'सोऽहं, मत्स'-वही मैं हूँ ; 'सोऽहं ब्रह्मास्मि' मैं वही ब्रह्म हूँ। 'अहं ब्रह्मास्मि'-मैं ही ब्रह्म हूँ; इत्याकार जितना प्रकार साधन-संग्रामी शब्द हैं, अर्थात् जिनका साधन करनेसे ब्रह्ममय कराय देते हैं, वह सब अति ऊचे ऊंचे विभूति से सुभूषित हैं। इन सभोंके भीतर 'मकर'। ___("म" श्चन्द्र च शिवे विष्णौ ब्रह्मणि च यमेऽपि च । . विषे च बन्धने मन्त्रे समयेऽपि प्रकीर्तितः॥ "क" स्याद् ब्रह्मणि विष्णौ च महेश्वरे समीरणे । ____ अर्काग्नियमदक्षेषु पार्थिवे च पतत्रिणि ॥ कामे काले मयूरे च कलेवरेऽपि चात्मनि । शब्दे दीप्तौ धने रोगे सुखशीर्षजलेषु च ॥ "र:” पावके तथा तीक्ष्णे भूमौ कामनले धने । ___ इन्द्रिये धनरोधे च रामेऽनिले तथैव च ॥) जिसमें यमका नियामकत्व, कामका कामानल, चन्द्रकी पुष्टि, शिवकी स्थिति, विष्णुको व्याप्ति, ब्रह्माका कृतित्व, विषका संहारकत्व, पवनकी जीवनी, बन्धनकी कठोरता, मन्त्रकी सिद्धि, समयका अखण्डत्व, सूर्याग्निकी दीप्ति, दक्षका प्रजापतित्व है; जो ग्रहण करना जानते हैं, त्याग करना नहीं जानते, (जिसको ग्रहण करते हैं उसको छोड़ते नहीं, जैसे अस्तोन्मुख सूर्य-किरण-फलित छाया और सूर्य) उन्हींको ‘मकर' कहते हैं। मकर पतित-पावनी गङ्गाका वाहन है । जो महाशक्ति पतितको पावन करती है, वह महाशक्ति भी मेरे ही आश्रित है; इसलिये मैं झषोंके ( मत्स्योंके ) भीतर मकर हूँ। "स्रोतसामस्मि जाहवी'। स्रोतस्वती वा प्रवाहिणी नदियोंके भीतर मैं जाह्नवी (गङ्गा) हूँ। आदि अन्त रहनेसे प्रवाहिणी नहीं होती। जिस प्रवाहका आदि, अन्त निर्देश नहीं किया जा सकता उसीको प्रवाहिणी कहते हैं, जैसे निर्मल ज्ञानका प्रवाह है। इस Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४ श्रीमद्भगवद्गीता निर्मल ज्ञान प्रवाहका आदि अन्त न रहनेसे गङ्गा कहते हैं । "गच्छतीती गङ्गा"; जिनकी अविच्छेद-गति ही गति है उसीको गङ्गा कहते हैं, वही जाह्नवी है। जहु मुनिने गङ्गाको पान करने के पश्चात् अपने जानुदेशको चीर कर (गङ्गाको ) बाहर निकाला था इस करके गङ्गा का नाम जाहवी है। जानु कहते हैं उरुसन्धिको, अर्थात् जो स्थान गतिकी उत्पत्ति करवाता है। जह्व-हा के स्थानमें जह +नु कत्त्वे । हा शब्दका अर्थ त्याग करना है, 'जह्नु'-जो सर्वत्यागी है। जह, राजर्षि है । ऋषियों के भीतर जिसमें रजोगुण प्रधान हो, वही राजर्षि है। यह रजोगुण ही संकल्प और विल्कपकी लीलाभूमि है, इसलिये इस क्षेत्रमें विमल ज्ञानका प्रवाह अभिभूत रहता है। यही जळु का गङ्गा को पान करना है। संकल्प-विकल्प मनोमय कोषका खेल है। इस अवस्थामें रहनेसे वाक्यादिका स्फुरण नहीं होता इस करके इन्हें बाहर के लोग मुनि कहते हैं । फिर जब मौनी-अवस्थाको नष्ट करके ऋषिवाक्यका ( उपदेश प्रवाहका ) प्रकाश पाता है, तत्क्षणात् अभिभूत ज्ञान-प्रवाहके अभिभक्-श्रावरण खुलकर प्रवाह ही प्रवाह दिखाई पड़ता है; वही "जाह्नवी" है। वह निर्मल ज्ञान-प्रवाह ही हमारा स्वरूप है। 'ज्ञानप्रवाहा विमलेति गङ्गा'; इसलिये मैं' स्रोतस्वतीयोंके भीतर गङ्गा-'जाह्नवी' हूं ॥३१॥ . सर्गाणामादिरन्तश्च मध्यचैवाहमर्जुन । अध्यात्मविद्या विद्यानां वादः प्रवदतामहम् ॥ ३२॥ 'अन्वयः। हे अर्जुन। सर्माणां ( सृष्टीनां ) आदिः अन्तः मध्यं च अहं एव; (अहं ) विद्याता ( मध्ये ) अध्यात्मविद्या ( आत्मविद्या ); प्रपदता ( वादिना ) अहं वादः ॥ ३२॥ अनुवाद। हे अर्जुन ! सृष्टिका आदि, अन्त और मध्यमें मैं हूँ, विद्याके भोतर मैं अध्यात्मविद्या, और वादिगणों में ( वाद, जल्प, वितण्डा प्रभृतिके भीतर ) मैं पाद हूँ ॥ ३२॥ Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ __४५ दशम अध्याय व्याख्या। 'सर्ग' कहते हैं स्तरको, अर्थात्. जिसका आदि अन्त मध्य है। यह विश्वभी श्रादि-अन्त-मध्य विशिष्ट है । हे अर्जुन ! हे. साधक ! मैं ही यह विश्वरूप स्तर हो करके तुम्हारे सामने विद्यमान हूँ। आकाशमें बांध देकर खण्ड करने जाश्रो तो, स्थूल दृष्टिकी भ्रान्तिसे आकाशका खण्ड होना प्रतीत होने पर भी, सचमुच आकाश जैसा खण्ड नहीं होता, और उसी खण्डके आदि अन्त मध्य में आकाशके विद्यमानताका अभाव भी जैसे नहीं होता; वैसे ही अखण्ड ब्रह्ममें मायाकी दीवाल देकर कल्पनाकी जोरसे एक 'मैं' को बहुधा विभक्त करनेसे भी ( उनके विद्यमानता मायानेत्रसे प्रत्यक्ष करा देने पर भी), ब्रह्म अखण्ड ही रहते हैं। इसलिये कहता हूँ, हे साधक ! तुम प्रत्यक्ष देखो, पृथिवीसे लेकर माया पर्य्यन्त जितने प्रकारकी स्तर ( सृष्टि ) तुममें रही हैं, उन सबके आदि-अन्त-मध्यमें अखण्ड रूपसे एक मैं ही मैं रहा हूँ। तुम्हारा किया हुआ स्तर, सूत्रमें मणिगणके सदृश तुम्हारी आंखकी दृष्टिसे मेरे ऊपर भासमान रहनेसे भी वास्तवमें वह नहीं है। ____ 'अध्यात्मविद्या विद्यानां'। 'विद्या'-(विद् =जानना+य+श्रा) : जिससे वस्तुका स्वरूप जाना जाता है। इस जगत्का जो कुछ है वह सब ही मिथ्या है। और उसी मिथ्याको जो विद्या सत्य साबित करादे, वही अविद्या है। अध्यात्मविद्या उसको कहते हैं, जो बुद्धिको लाकर प्रात्माके साथ मिला देती है (८म अः २य श्लोककी 'अध्यात्म' व्याख्या देखो)। इसलिये कहता हूँ कि, जितने प्रकारके ज्ञान हैं, उन सबके भीतर आत्म ज्ञान ही 'मैं' हूँ। साधक ! तुम देखो, पृथिवी से सबको छोड़कर जब तुम मैं में पड़कर 'मैं' हो जाले हो, तब तुम्हारा सब छूटता है, परन्तु वही 'मैं' नहीं छूटता। जिसका कालत्रयमें विच्छेद नहीं होता, वही नित्य है। वह अध्यात्मविद्या भी नित्य है, इसलिये 'मैं हूँ। Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीमद्भगवद्गीता 'वादः प्रवदतामहम्' । प्रवदन् कहते हैं यह, वह, सो प्रभृति बहुभाषण ( बकवाद ) रूप वाणीको। और जिगीषाशून्य हो करके सत्यनिर्धारण करनेके लिये जो विचार है, उसीको 'वाद' कहते हैं। सत्य 'मैं विना और कोई नहीं। अतएव मैं प्रवदन के भीतर 'वाद' हूं ॥३२॥ अक्षराणामकारोऽस्मि द्वन्द्वः सामासिकस्य च । अहमेवाक्षयः कालो धाताहं विश्वतोमुखः ॥ ३३ ॥ अन्बयः। अहं अक्षराणां ( वर्णानां मध्ये ) अकारः अस्मि, सामासिकस्य ( समाससमूहस्य ) च द्वन्द्वः ( अस्मि ), अक्षयः कालः, अहं एव, अहं विश्वतोमुखः धाता ( सकर्मविधाता ) ॥ ३३ ॥ ___ अनुवाद। वर्गों के भीतर मैं अकार, समासोंके भीतर द्वन्द्व हूँ, मैं ही अक्षय काल हूँ और सर्व कर्मफलविधाता भी मैं हूं ॥ ३३ ॥ . व्याख्या। स्वर और व्यजनके प्रत्येक वर्ण ही एक एक अक्षर हैं। जो अक्षर दूसरे किसी अक्षरके सहायता बिना आप ही आप उच्चारित होते हैं, उन्हें स्वर कहते हैं; जैसे-अ, इ, उ, इत्यादि । और जो अक्षर स्वरके सहायता बिना उच्चारित हो नहीं सकते, उन्हें व्य ञ्जन कहते हैं; जैसे-क, ख, ग, इत्यादि। इन अक्षर समूहके भीतर "मैं" अकार हूं। क्योंकि, प्रत्येक अक्षरोंके आदि-अन्त-मध्य में ही 'अ' है । सूईसे शतपत्र भेद होनेके सदृश तत्क्षणात् अनुभवनीय न होनेसे भी 'अ' को छोड़ कर अक्षर नहीं है। परन्तु 'अ' आपही आप अपनेसे उच्चारित होता है। जो स्वतः उच्चारित हो, वही 'मैं हूँ। _ 'द्वन्द्वः सामासिकस्य च'। जगत्का जो कुछ देखते हो, इसमें कोई भी बड़ा नहीं;-इसलिये परस्परको दबाकर अपनेको बड़ा .. दिखानेके लिये सब ही व्यस्त हैं। परन्तु जो बड़ा है, उसकी बड़ाई Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशम अध्याय ४७ स्वतःसिद्ध होनेसे दिखलानेका प्रयोजन नहीं होता। बड़ोंके साथ जो मिलता है, वह भी बड़ा होता है। साधक ! जब तुम मायाके घेरमें थे, उस अवस्थाको और इस ब्रह्ममें स्थिति-अवस्थाको मिला देखो। तुम्हारी उस मायासे घेरी हुई अवस्थामें इस अवस्थाका परिज्ञान नहीं था, केवल मायाका प्राधान्य खिल रहा था, ऐसा जो ब्रह्मत्व, यह भी तब बुझाया हुआ था। इसलिये 'द्वन्द्व' सजा नहीं। तब भी ब्रह्मको छोड़कर माया नहीं थी; परन्तु उस समय अपनेको प्रधान बनाकर ब्रह्मको दाब रक्खी थी। और अब ? अब ब्रह्म और माया दोनों तुम्हारे पास समान रूपसे विद्यमान हैं। किसीकी प्राधान्यताका ह्रास वा वृद्धि नहीं है । यह जो दो मिलकर एक होना, इसीको समास कहते हैं। और उसी प्रकार सबका प्राधान्य तैयार रख कर परस्परका जो एकता भाव है उसीको “द्वन्द्व" समास कहते हैं। "मैं" क्रिया विहीन होनेसे भी क्रियाशाली मायावियों (मायाविशिष्टों) हममें रह करके जो अपना अपना प्राधान्य दिखाते हैं, तथापि हमसे उन सबको पृथक नहीं होने पड़ता। मैं बड़ा हो करके मी उन सबके प्राधाम्यमें कोई विघ्न नहीं करता हूं, सबके साथ मिला रहनेके सदृश रहता हूं, जैसे उन सबको खिलनेसे (प्रस्फुटित होनेसे ) मैं खिल रहा हूँ, यही द्वन्द्व समास है। इस अवस्थामें ही ज्ञान पूर्ण विकशित होता है। इसीलिये मैं समासके भीतर द्वन्द्व समास हूं। "अहमेवाक्षयः कालः”। यह जो काल अखण्ड दण्डायमान है, ज्योतिर्विद् लोग इसको कला, काष्ठा, क्षण, लव आदिसे खण्ड विखण्ड करके संख्यामें लानेसे भी जैसे खण्डत्वका कुछ भी कलंक इसके अखण्डत्वमें नहीं पड़ता; वैसे ही "मैं” कहनेसे भूत, भविष्यत् दे करके "मैं” के वर्तमानताके अभाव भी कोई कर नहीं सकता। इसलिये क्षय परिशून्य इस पर भी क्षयोदयका विश्रामस्थल काल भी मैं हूँ। Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८ श्रीमद्भगवद्गीता ( साधक ! संसारी तुम और अपनी ब्राह्मीस्थिति, मिलाकर . देख लो)। ___ "धाताहं विश्वतोमुखः”। धाता कहते हैं धारण करनेवालेको। और अहं शब्दमें "मैं"। मैं इस जगत्को धारण कर रहा हूँ, इसलिये मैं 'धाता' हूँ। 'मैं' कह करके अहंकार जब न रहेगा, तब ही यह जगत् उड़ जावेगा। इसलिये मैं जगतका नियामक, नियन्ता वा चाळक हूँ। जो सीमाबद्ध और शीर्ण होय, उसीको शरीर कहते हैं। इस शरीरके ऊपर इस 'मैं' का अभिमान आरोप करनेसे ही विश्व होता है। विश्व-वि=विशेष, श्व-दूसरे दिनका प्रभातकाल। यह दूसरे दिनका प्रभातकालके पहले बीचमें रात्रि रूप एक अव्यक्त वा मृत्युअवस्था है। जैसे दिनमानके बाद रात्रिमें निद्रारूप अज्ञानता होती है, वैसेही जीवनके पश्चात् और पुनःजन्मके पहले मृत्युरूप अव्यक्त अवस्था है। रात्रि प्रभात होनेके पश्चात् जैसे पुनरुत्थान होती है, वैसे ही मृत्युके पश्चात् भी पुनः जन्म ग्रहण करना होता है। इन दोनों को ही पर दिनका प्रभात काल कहते हैं। यह व्यक्त और अव्यक्त परिणाम ( जन्ममृत्यु ) जिसमें बारम्बार होता है, उसीको विश्व कहते हैं। 'मुख' कहते हैं प्रवेश और निष्काशनके दरवाजेको। यह विश्व प्रलयमें हमहीमें प्रवेश करता है, और कल्पादिमें हमसेही निकल आता है, इस कारण मैं विश्वतो ( सर्वतो) मुख हूं। जैसे वृक्ष में फूल फल होते हैं । साधक ! और तुमको समझानेमें परिश्रम नहीं है। तुम अपने सच्चे “मैं” में बैठकर जगत्को देखनेसे ही समस्त तुम्हारे प्रत्यक्ष हो जावेगा, देखो ॥ ३३ ॥ मृत्युः सर्वहरश्वाहमुद्भवश्च भविष्यताम् । कीतिः श्रीर्वाक्च नारीणा स्मृतिर्मेधा धृतिः क्षमा ॥३४॥ अन्वयः। सर्वहरः (प्राणहरः ) मृत्युः च अहं, भविष्यताम् ( भाविकल्पानां प्राणिनां ) उद्भवः च ( अहं ), नारीणां क्रोत्ति: श्रीः वाक् स्मृतिः मेधा धृतिः क्षमा च ( अहं एव)॥ ३४ ॥ Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४ दशम अध्याय अनुवाद। सर्वहर मृत्यु भी मैं हूँ, भाविकल्प प्राणीगणोंकी उत्पत्तिका हेतु भी मैं हूँ। नारोगों के भीतर कीत्ति, श्री, वाक् , स्मृति मेधा, धृति और क्षमा भी व्याख्या। "मृत्युः सर्वहरश्वाह"। ब्रह्माजीको आदि लेकर स्थावरान्त पर्य्यन्त जो कुछ है उन सबको ही "सर्व" कहते हैं। जिस महाशक्तिके प्रभावसे इस सर्वका हरण होता है, अर्थात् रूपान्तर, अवस्थान्तर, वा स्थानान्तर होता है, उसीको मृत्यु कहते हैं। इस मृत्युके हाथसे किसीकी अव्याहति नहीं; भूवन-कोषके समस्त पदार्थ ही इसके आयत्ताधीन हैं। इसीके वशमें परा और अपरा प्रकृतिद्वय के संयोग निरन्तर हरण (विच्छिन्न ) होता है। प्रलय-कालमें यह संहरण-क्रिया प्रबल होकर समुदयको एक काल में ( समयमें ) संहार करती है। इसलिये ही मृत्यु सर्वहर वा सर्वहारक है। यही भगवान् की नाशिनी शक्ति–तमोगुणकी क्रिया है; अतएव यह भगवत् विभूति है। इसलिये कहा गया 'सर्वहर मृत्यु मैं हूँ। ___ "उद्भवश्च भविष्यताम्"। उस सर्वहर मृत्युरूपा नाशिनी शक्तिसे प्रलयकालमें सर्वसंहार होनेके पश्चात् फिर जिस महाशक्ति द्वारा सृष्टि-क्रिया प्रारम्भ होता है, उसी महाशक्तिका नाम उद्भवकारिणी वा सृष्टिकारिणी शक्ति-रजोगुणकी क्रिया है। इसलिये वह भगवत् विभूति है; इसलिये प्रलयके बाद जीवके भावी उद्भव भी मैं हूँ। - "कीर्तिः श्रीर्वाक चेति”। भगवानकी यह जो सृष्टि और संहार रूप क्रिया हैं, इसके भीतर उनकी एक स्थिति सम्पादनकारिणी शक्ति वर्तमान है; वही उनका पालिनी शक्ति-सत्त्वगुणकी क्रिया है। उनकी यह पालिनी शक्ति सात सत्त्वगुणाधिष्ठात्री महाशक्ति रूपसे विश्वजगत्को पालन करती है। वह सात शक्ति यथा,-कीर्ति, श्री, वाक , स्मृति, मेधा, धृति और क्षमा हैं। Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . श्रीमद्भगवद्गीता _ "कीति” कहते हैं मरे हुए लोगोंकी ख्यातिको। स्वाधिष्ठानके नीचे कामपुरसे मूलाधार पर्य्यन्त इस महाशक्तिका अधिकार है । संसारमें जितनी कुछ कामना हैं, यह शक्ति उन्हीं समुदयके पालन करनेवाली है। मनुष्य कामनाके वशसे जो कुछ भला वा बुरा काम करता है, शरीरान्तमें वह सब रह जाता है ( जसे वंश परम्परामें वंश रक्षा ); उसीको कीर्ति कहते हैं । 'श्री' कहते हैं जिनकी सब कोई सेवा करे। देवता, गुरु गुरुस्थान, क्षेत्र, क्षेत्राधिदेवता, सिद्ध, सिद्धाधिकारके पहले ही जिसके स्थान है, वेसी परमाराध्य देवाको "श्री" कहते हैं। यह देवी सत्त्वगुणकी सर्वश्रेष्ठ अधिष्ठात्री देवी है; इसलिये सौन्दर्य्य वा दीप्तिको 'श्री' कहते हैं। सुषुम्ना-संलग्न स्वाधिष्ठान इसकी लीला भूमि है, जहां रहती है उन सबकी वृद्धि करना इसकी क्रिया है। ___ "बा" कहते हैं भावव्यंजक शब्दको। शब्दविन्यास तेज सहायतासे उच्चारित होता है। इसलिये यह शब्दाधिष्ठात्री वाग्देवी तेजस्थान मणिपुर चक्रमें रहने वाली है। _ "स्मृति” कहते हैं पूर्वकृत कर्मके स्मरणको। यह महाशक्ति चारों अन्तःकरणमें ही ( मन, बुद्धि, अहंकार और चित्तमें ) विहार करनेवाली है। इसकी लीला-स्थान अनाहत चक्रके मनोमय कोषमें है। "मेधा”-जिसमें बहुश्रुत सङ्ग समूह विषयके सदृश (शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्ध, ) छापा रहे, उसीको मेधा वा स्मरणशक्ति कहते हैं । इसके कार्य के लिये प्रशस्त स्थानके प्रयोजन हेतु यह विशुद्ध चक्र (आकाशस्थान ) में रहती है। "धृति'-धारणावती शक्ति । इसका स्थान प्राज्ञाचक्र है। 'क्षमा-सहिष्णुता शक्ति। 'वाह्य वाध्यात्मिके चैव दुखे चौतपातिके क्वचित् । न कुप्यति न वा हन्ति सा क्षमा परिकीर्तिता।' यह देवी सहस्रारवासिनी है। Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशम अध्याय ये सात महाशक्ति मातृकारूपसे जीवके शरीरमें सामञ्जस्य रक्षा करती हैं इसलिये ये सब स्त्री ( नारी) संज्ञाके भीतर महिमामयी हैं। महिमा हममें ही प्रतिष्ठित है, अतएव ये सब मेरी विभूति हैं इसलिये ये समस्त भी 'मैं हूँ ॥ ३४ ॥ बृहत्साम तथा साम्नां गायत्री छन्दसामहम् । मासानां मार्गशीर्षोऽहमृतूनां कुसुमाकरः॥ ३५ ॥ अन्वयः। अहं साम्नां ( मध्ये ) बृहत् साम, तथा छन्दसां (छन्दोविशिष्टाणां मन्त्राणां मध्ये ) गायत्री ( गायत्रीमन्त्रः अस्मि )। अहं मासानां ( मध्ये) मार्गशोषः, ऋतूनां ( मध्ये ) कुसुमाकरः ( वसन्त अस्मि ) ॥ ३५ ॥ अनुवाद। मैं सामवेदके भीतर बृहत् साम, छन्दोंके भीतर गायत्री, मासोंक भीतर मार्गशीर्ष ( अगहन ), और ऋतुओंके भीतर वसन्त हूँ ॥ ३५ ॥ व्याख्या। “साम", कहते हैं चार वेदोंके भीतर एक वेदको * । प्रत्येक वेदमें ही तीन तीन अंश हैं, कर्म, भक्ति, और ज्ञान । सामवेदके भीतर मोक्ष प्रतिपादक जो अंश है, उसी अंशका नाम बृहत्साम है। मैं ही मोक्ष स्वरूप हूं। मेरे ही प्रतिपादन हेतु बृहत् साम मैं हूँ। "गायत्री"-(गायन्तं त्रायते इति गायत्री ) जिसको गान करनेसे इस भवसागरका आना जाना छूट जाता है। यह गायत्री चौबीस • वेदके अन्तर्गत गान ( गीत ) का नाम साम है। भगवान वेदव्यासने वेदको विभाग करनेके समय गान (गीत ) समूहको एकत्र करके अलग अलग क्रम अनुसार सजा कर एक अंश किया था, उसीका नाम सामवेद है, जिससे सामवेद गान ( गीत ) प्रधान है। साम गानमें मन क्रम अनुसार लय होते होते अनन्तविस्तृत होता है तत्पश्चात् शब्दब्रह्मको अतिक्रम करता है। इसलिये प्रवाद है-“गानात् परतरः न हि"। वेदके अनुकरणसे ही ग्रीक और लाटीन भाषामें भी ईश्वर सम्बन्धीय गानको साम कहते हैं ।। ३५॥ Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीमद्भगवद्गीता अक्षरों में लघुगुरु वर्ण करके सजाई हुई है, इसलिये इसको छन्द कहते हैं। जितने प्रकारके छन्द हैं, गायत्री उन सबके भीतर प्रधान है । क्योंकि इस छन्दका ऐसा ही प्रभाव है कि, गायत्रीमन्त्रका गान करने से सर्ववेदवित होकरके ब्रह्मस्वरूप लाभ होता है; और किसी छन्दसे ऐसा नहीं होता। इसलिये मैं गायत्री हूँ। . मासोंके भीतर 'मार्गशीर्ष' मैं हूँ। मृगशिरा नक्षत्रमें सूर्यके भोगकालको मार्गशीर्ष मास कहते हैं । जब लोक-जगत में प्रथम काल का बोधक ब्योतिषका प्रकाश हुआ अर्थात् जब अतीत अनागतादि रूपसे काल मनुष्योंके बोधगम्य हुआ, तबही दिन, सप्ताह, पक्ष, मास, वर्ष प्रभृति श्रेणी विभाग हुए। उस समय प्रथम वर्ष जिस माससे गिनना शुरू (प्रारम्भ ) हुआ था, उसीको 'अग्रहायण' कहते हैं । 'अन' शब्दमें प्रथम हायन शब्दमें वर्ष है। मैं ज्ञानस्वरूप हूँ'; वही ज्ञान इस अगहन वा मार्गशीर्ष महीनेसे प्रथम प्रकाश हुआ था इसलिये जितने मास हैं उनमें मार्गशीर्ष मैं हूं। 'ऋतूनां कुसुमाकरः'। कुसुम है वृक्षका सूक्ष्मतम अंश; वृक्षके तुलनामें मनुष्योंका कुसुम ज्ञान है। नाति-शीत नाति-उष्ण होनेके लिये वसन्त ऋतुमें वृक्ष राजि सरस होनेसे उन सबमें इस सूक्ष्मांशका विकाश होता है; उससे उनकी सौन्दर्य वृद्धि होती है, प्रकृतिकी भी शोभा बढ़ जाती है, फिर मनुष्योंमें भी शारीरिक स्फूर्ति वृद्धिके साथ ज्ञान-कुसुमका विकाश होता है, अर्थात् इस समय मस्तिष्क स्वभावतः पुष्ट और स्निग्ध होनेसे दूसरे ऋतुओंसे साधनामें अन्तर्लक्ष्य सुगम हो जाता है। इसलिये वसन्त ऋतुको कुसुमाकर कहते हैं, और इसीलिये वसन्तको ऋतुराज कहते हैं। पदार्थों का सूक्ष्मतम अंश ही आत्मचैतन्यका अंश-विकाश वा विभूति है। वही अंश-विकाश इस वसन्त ऋतुमें प्रस्फुटित होता है इसलिये वसन्त ऋतु ही भगवानकी विभूति है। यह तो बाहरकी बातें हुई। अब भीतरमें साधनामें Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३ दशम अध्याय साधक जब प्राणायामके फलसे कूटस्थमें स्थिरता लाभ करते हैं, तब अन्तर-प्रदेश मनोरम आकार धारण करता है, उस समय मन प्रफुल्लित होकर अव्यक्त आनन्दमें मतवाला हो जाता है, वही साधकके साधनका वसन्त ऋतु है; उसी समय उनको आत्मज्ञानरूप कुसुमका विकाश होता है; उसो कुसुमसे ही आत्मसाक्षात्कार रूप फलोत्पन्न होता है । इन सब कारणसे ही अन्तर, बाहरमें वसन्त ऋतुकी प्राधान्यता है। इसलिये कहा हुआ है कि, ऋतुओंके भीतर मैं कुसुमाकर वसन्त हूँ॥ ३५॥ घ तं छलयतामस्मि तेजस्तेजस्विनामहम्। जयोऽस्मि व्यवसायोऽस्मि सत्वं सत्त्ववतामहम् ॥३६॥ अन्वयः। अहं छलयता (अन्योऽन्यवञ्चनपराणां सम्बन्धि ) धूतं, ( तथा ) तेजस्विनां तेजः ( प्रभावः ) अस्मि; अहं (जेतृणां ) जयः अस्मि, ( व्यवसायिनां) व्यवसायः ( उद्यमः ) अस्मि, सत्त्ववता ( सात्त्विकानां ) सत्त्वं अहं ।। ३६ ॥ अनुवाद। छल करनेवालोंके भो तर में मैं य त-क्रीड़ा, तेजस्वियोंका तेज मैं हूँ, में जयस्वरूप, में व्यवसाय स्वरूप, और सत्त्ववानोंका सत्त्ववानोंका सत्त्व स्वरूप व्याख्या। प्रकचनाके भीतर मैं 'द्य त' हूँ। पण रख करके प्रतिद्वन्द्रियोंके साथ जिस काममें प्रवृत्त हुआ जाय उसका नाम 'ध त' ___ * यही वसुदेवकी पुत्रोत्पत्ति है। जबतक ज्ञान पूर्णविकशित नहीं होता, तबतक आत्मसाक्षात्कार अचिरस्थायी होता है अर्थात् मायाके आकर्षणमें क्षणकालके बाद विनष्ट होता है। यही वसुदेवके छः पुत्र विनष्ट होनेका तात्पर्य है। ये सब षट्चक्रके भीतर साधनाको उन्नतिके क्रममें भङ्ग-समाधिको क्रिया हैं। पश्चात् षट - चक्र पार होकर सप्तम भूमि शहस्रारमें ठठने के बाद ज्ञान पूर्णविकशित होनेसे माया पुन: साधकको लक्ष्य-भ्रष्ट करवाने नहीं सकतो; इसलिये आत्मसाक्षात्कार स्थिर और चिरस्थायी होता है। यही वसुदेवके सप्तम और अष्टम पुत्रके विनष्ट न होनेका तात्पर्य है ॥ ३५॥ Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीमद्भगवद्गीता है। यह घ त-क्रिया क्षत्रिय * राजाओंका खेल है, जिसके पणसे एक जन सर्वस्वान्त होता है, और एककी जय होती है। जितनी प्रकारकी प्रकचना हैं, उनके भीतर सर्वस्वान्तकर होनेसे, यह चूत क्रीड़ाही मैं हूं। साधक ! तुम देखो, अप्राणीके खेलका नाम द्य त है। जब तक प्राणकी चञ्चलता रहती है, अर्थात् चला फिरा रहती है तबतक 'सर्व' रहता है। जबही तुम्हारा प्राण स्थिर हो जाता है उसके साथही साथ तुम सर्वस्वान्त होते हो। जब तुम सर्वस्वान्त हो गये ( वही तुम्हारा सर्वसे वञ्चित होना है), और साथही साथ तुम भी 'मैं' हो जाते हो। __ "तेजस्तेजस्विनामहम्”-तेजस्वियोंका नेज मैं हूं। साधक ! और एक बार तुम विवस्वान्में उठो। देखो, यह जो चन्द्रसूर्याग्नि और नक्षत्रादि ज्योतिष्क मण्डल हैं इनके प्रकाश, और मायाका प्रकाश भी हमहीसे होता है, इसलिये मैं तेजका भी तेज हूँ। ___ "जयोऽस्मि"-जय कहते हैं जहां सब हारे हैं। जितने प्रकारकी क्रिया हैं; सबकी विश्राम भूलि 'मैं हूँ। मैं निष्क्रिय हूँ, इस कारण कोई क्रिया मुझको नहीं हरा सकती; इसलिये मैं "जय" हूँ। . "व्यवसायोऽस्मि” व्यवसाय कहते हैं आदान-प्रदानको । माया प्रकृति सज करके हमसे कुछ लेती है (यह लेना ही संसार है ), फिर मुझको कुछ देतो है (यही प्रलय है ); ये जो मायाकी सृष्टि और प्रलय हैं, यह मुझको लेकरके ही होता है; इसलिये व्यवसाय भी "सत्वं सश्ववतामह'। जो सब साधक सत्त्वगुण लेकर खेल (साधन ) करते हैं, उन सभोंकी आठ प्रकारको अवस्था होती है, ____ * क्षतात् त्रायते इति क्षत्रिय। क्षत असम्पूर्णता है। असम्पूर्णतासे जो त्राण करते हैं वही क्षत्रिय हैं ।। ३६ ॥ Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशम अध्याय स्वेद, स्तम्भ, रोमाञ्च, स्वरभंगा, वेपथु, वैवर्ण, अश्रु, और प्रलय । साधक ! जिस दिन तुम प्रथम आसन पर जाकर बैठे, उसी दिनसे अपनी साधनाकी अलग अलग अवस्था समूहको स्मरण करते जानो। देखो, पहले ही तुम्हारा स्वेद (धर्म वा पसीना) बाहर हुआ था, जिससे शरीर स्निग्ध होकर भीतरवाले उद्वेग नष्ट हो जाने से तुम्हारा शरीर स्तम्भवत् दृढ़ और अटल हुआ था, तुमने स्थिर भावसे बैठे रहनेकी शक्ति पाई थी; तत्पश्चात् तुम्हें रोमारूच हुआ था, अर्थात् शरीरकी रोमावली कण्टक सदृश खड़ी हो गई थी; तत्पश्चात् तुम्हारा स्वरभंग हुआ था, अर्थात् साधनके पहले जिस प्रकार निश्वास प्रश्वासकी गति-विधि थी, वह भंग होकर और एक प्रकारके निश्वास प्रश्वासका प्रवाह तुममें वर्तमान था अर्थात् दोनों ही समान थे, जितना निश्वास, उतना ही प्रश्वास होकर विषमता मिट गई थी; उसके बाद वेपथु ( कम्पन ) आया, अर्थात् प्राणायामसे प्राणप्रवाह अतीव सूक्ष्म होकर सुषुम्नाके भीतर प्रवेश करके कर श्लेष्मा द्वारा बाधा प्राप्त होनेसे जबतक वह श्लेष्मा ऊर्ध्वाधः प्राण प्रवाहसे विशुष्क न हुये थे, तबतक वायुकी प्रतिहत गतिके धक्केसे शरीरकी स्नायुमण्डली कम्पित हुई थी। उसके बाद ही शरीरमें वैवर्ण उपस्थित हुआ था, अर्थात् क्रूर श्लेष्मा विशुष्क होकर सुषुम्ना-पथ परिष्कार होनेसे प्राणवायु सूक्ष्म सरल और अप्रतिहत गतिसे प्रवाहित होकर सुप्तशक्ति समूहको प्रबुद्ध किया था, जिससे शरीरकी लावण्य वृद्धि हो करके कोमलता आई थी, भीतरवाले अनजान प्यार रस करके तुम्हारी दोनों आंखें भर आई थों और उनमें ऐसा एक निर्मल ज्योतिप्रकाश पाया था, जिसको देखने से ही जीवमात्र को तुमसे प्रेम करने की इच्छा होती है; तुम्हारे शरीरमें पहिले जो वर्ण रहा, सो बदल गया था। साधनमें इस अवस्थाके बाद ही अश्रु अवस्था है; जगतमें भला व बुरा जो कुछ है वह सबही जसे हमारे प्रेमवाले और प्राणकी चीज Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीमद्भगवद्गीता कह करके हृदयमें कैसा एक आनन्दमय कम्पनका अनुभव होता है जिससे प्राण हर्षके मारे मतवाला होकर तुम्हारे अांखसे पानी फेकवा देता है ( परन्तु रोना नहीं)। तत्पश्चात् ही प्रलय अर्थात् समाधिस्थिति है। इन सब अवस्थाओंका जो आश्रय ले चुके हैं, उन्हींको सस्ववान् कहते हैं। सत्त्ववानोंके भीतर वह सत्त्व 'मैं' हूँ। क्योंकि ईदृश प्रकाश होनेसे ही भ्रमनाश होकर साधक हमसे मिल करके 'मैं' हो जाते हैं ॥३६॥ वृष्णीणां वासुदेवोऽस्मि पाण्डवानां धनञ्जयः । मुनीनामप्यहं व्यासः कवीनामुशना कविः ॥३७॥ अन्वयः। अहं वृष्णीणां बासुदेवः, पाण्डवानां धनञ्जयः, मुनीनां अपि व्यासः, ( तथा ) कवीनां उशना कविः (शुक्रः अस्मि ) ॥ ३७॥ ___ अनुवाद। वृष्णि वंशके भीतर में वासुदेव, पाण्डवों के भीतर में धनञ्जय, मुनिगणोंके भीतर में व्यास और कवियोंके भीतर मैं उशना कवि ( शुक्राचार्य ) हूँ ॥३७॥ व्याख्या। "वृष्णि"-वृष्=वर्षण करना + निः=कर्तृवाचक शब्द, अर्थात् जो लोग वर्षण * करते हैं, जैसे मेघादि; उन सबके भीतर मैं वासुदेव हूं ** ; जिसमें सर्वभूत वास करते हैं, और उस सर्वको जो वर्षण करते हैं, ऐसे योग्य पुरुष "वासुदेव” हैं। वृष्णि वंशमें उत्पत्ति हेतु वृष्णियोंके भीतर कहा गया। और मर्वको धारण वर्षण संकोचन करनेवाली (खुष्टि-स्थिति-प्रलयक्षम) शक्तिकी आवासभूमि 'मैं हूँ, इसलिये मैं वासुदेव हूँ। * जरासन्ध कुरुवंशको भीष्मके लिये जय नहीं कर सका। वृष्णिवंशको नीतिके लिये जय नहीं कर सका। वृष्णि लोग नीतिका वर्षणकर्ता है ।। ३७॥ ** "सर्वाणि तत्र भूतानि वसन्ति परमात्मनि। भूतेष्वपि च सर्षात्मा वासुदेवस्ततः स्मृता" ॥ Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशम अध्याय "पाण्डवानां धनञ्जयः”–पाण्डु राजाका क्षेत्रज पुत्रोंके भीतर "धनञ्जय”। जिसने धनपति कुवेरको जय करके सोनेकी चम्पा लाकर कुन्तीसे शिवपूजा कराई थी, शिवजीने उन्होंको धनञ्जय नाम दिया था। (पाण्डव-१म अ. १म श्लोक देखो)। पाण्डव शब्दसे तीक्ष्ण बुद्धिशाली ज्ञानीको समझाता है। उस ज्ञानीके भीतर 'मैं' धनञ्जय हूँ। जीवके धन छः हैं, जन्म, मृत्यु, सुख, दुःख, क्षुधा, तृष्णा । जो पुरुष इन धनोंको जय करता है, वही धनञ्जय है। अर्जुन नर ऋषि है, तपस्यासे उन छोंको जय किये हैं; जो जिसको जय करे वह उसका नियामक है। अतएव अर्जुन इन छोंके नियन्ता है। नियन्ता भी फिर मेरे बिना और कोई नहीं है ; इसलिये धनब्जय भी 'मैं हूँ। __"मुनीनामप्यहं व्यासः'। मुनियोंके भीतर मैं 'व्यास' हूँ। व्यास-विभागकर्ता । ' चित्तके निम्नस्तरमें अहंकार है, इस अहंकारसे ही विभागकी उत्पत्ति होती है, अर्थात् अहं ममत्वका प्रचार होता है। इसलिये मैं 'व्यास' हूँ (१० अः १३वा श्लोकमें व्यास शब्द की व्याख्या देखो)। अहं शब्दसे मैं बिना और किसीको नहीं समझाता। कार्य्यतः व्यास भी 'मैं हूँ। "मुनिः संलोनमानसः” मनोवृत्ति जब सम्यक लीन हो रहती हैं (जैसे चीनी घुली हुई इक्षुरस'), तब मुनि शब्दका अर्थ प्रकाश होता है। यही परिपूर्ण अवस्था है। इस अवस्थामें जब वृत्तिका प्रारम्भ होता है, तबही परिपूर्णत्वमें ग्लानि अर्थात् नानात्व जनित विभाग आता है। यह जो विभागका ज्ञान है, उसी ज्ञानको व्यास कहते हैं। और उस ज्ञानकी उत्पत्तिके पहले वह जो परिपूर्ण अवस्था है, वही मैं अवस्था; और उस 'मैं' में ही वह भेदज्ञान रहता है, 'मैं' को छोड़कर अलग रह नहीं सकता, इस कारण वह भी 'मैं हूँ। इसलिये मैं मुनि-अवस्थाके भीतर व्यासअवस्था हूँ। Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीमद्भगद्गीता ___ "कवीनामुशना कवि"। हर बातमें जो नया बोलता है, वही कवि है। उशनस्–वश् = इच्छा करना+ अनस कत्तु ( संज्ञार्थे ) अर्थात् जो इच्छा करता है। इच्छासे ही कवित्वका प्रारम्भ होता है ( "कविं पुराणम्” ८म अ हवा श्लोकमें कवि शब्दकी व्याख्या - देखो)। मैं इच्छाको आश्रय भूमि हूँ; उशना भी इच्छाकर्ता है, इसलिये 'मैं' कवियों के भीतर "उशना” हूँ। सृष्टि और प्रलय, ये दोनों ही इच्छाके अधीन हैं। सृष्टिसे प्रलय जैसे आपही आप होता है, इसमें कवित्व अनुभव किया नहीं जा सकता। परन्तु प्रलयसे जो सृष्टि, उसीमें कवित्व है। यह कवित्व (शुक्राचार्य) में मृतसञ्जीवनीशक्ति रूपसे रहनेसे उशना मृतकको भी प्राणदान देते हैं। यह शक्ति भी हममें प्रतिष्ठित है, फिर मृतसब्जीवनीमें ही नूतनत्व है। अब साधक ! तुम देखो, शुक्रशब्दसे श्वेत, तेज, निम्मलको समझा जाता है। फिर यह शुक्र एकचक्षु-विशिष्ट है । · साधक जब निर्मल अवस्था पा करके तेजोराशिके भीतरसे उठकर मृत्युको जय कर लेता है, तब वह मरजगत्की आदि अन्त लीला और अमरत्वका जो कुछ ज्ञान है, उसे समझकर प्रतिक्षण में ही अपने में नूतनत्वका अनुभव करता है। इस अवस्थामें साधककी चमचक्षुकी दृष्टि नहीं रहती। एकमात्र ज्ञानचक्षु ही खुला रहता है। प्रकृतिके वशमें न रह करके प्रकृतिवशी होनेसे यह अवस्था प्राप्त होती है। 'मैं' प्रकृतिवशी हूँ; उशना में भी प्रकृतिवशीत्व है, इसलिये कवियों के भीतर उशना श्रेष्ठ है वही मैं हूँ। अतएव उशना भी मैं हूँ ॥ ३७॥ दण्डो दमयतामस्मि नीतिरस्मि जिगीषताम् । मौनं चैवास्मि गुह्यानां ज्ञानं ज्ञानवतामहम् ॥ ३८ ॥ अन्वयः। अहं दमयतां ( दमनकर्त, गां) दण्ड: अस्मि, जिगीषतां ( जेतुमिच्छता ) नीतिः ( सामाा पायः ) अस्मि, गुह्यानां मौनं ( अस्मि ) ज्ञानवता ज्ञानं च अहं एव ॥ ३८॥ Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशम अध्याय ५६ अनुवाद। दमन करने वालोंके भीतर में दण्ड, जयेच्छुकोंके भीतर मैं नीति, गुल्यों के भीतर में मौन और ज्ञानवानों के भीतर में ज्ञान हूँ ॥ ३८ ।। व्याख्या। 'दण्डो दमयतामस्मि'। दुन्तिोंको शासन करनेके लिये जितने प्रकारके उपाय हैं, उनके भीतर 'दण्ड' ही मैं हूँ । साधक ! तुम देखो, तुम्हारे शरीरमें इन्द्रिय, इन्द्रियग्राह्य विषय, काम क्रोधादि जो कुछ अन्तःकरण वृत्ति हैं, ये समस्त ही दुर्दान्त हैं। इन सबको शासनमें लानेका उपाय एकमात्र प्राणायाम है। अतएव जितने प्रकारके शासन-उपाय हैं, उनके भीतर प्राणायाम रूप दण्ड ही 'मैं' हूँ, जिसके बलसे समस्त स्थिर होती है, कैवल्यस्थितिकी प्राप्ति भी होती है। "नीतिरस्मि जिगीषता"। जयेच्छुकोंके भीतर 'नीति' मैं हूँ। परको (दुसरेको ) जिससे प्रायत्त किया जाय, उखीको नीति कहते हैं। कर्मके कौशलका नाम नीति है। यह कर्म ही (गुरूपदिष्ट ) चित्त-पथमें प्राणका परिचालन है। इसीमें अहंत्व प्रतिष्ठित है। "जिगीषु” उसको कहते हैं, जो मायाको जय करनेकी इच्छा करें। __'मौनं चैवास्मि गुह्यानां'। जगत्में जितने प्रकारके गोपनीय पद हैं, उनके भीतर ब्रह्म-विलास रूप जो तुष्टि है, उसीको “मौन” कहते हैं। अतएव वह मौन 'मैं' हूँ। "ज्ञानं ज्ञानवतामह' । ज्ञानियोंके आत्मज्ञान ही 'मैं' हूँ ॥ ३८ ॥ यञ्चापि सर्वभूतानां बीजं तदहमर्जुन । न तदस्ति विना यत् स्यान्मया भूत चराचरम् ॥ ३९ ॥ अन्वयः। हे अर्जुन ! यत् च सर्वभूतानां अपि बीजं ( प्ररोहकारणं ) तत् अहं ( यतः) मया विना यत् स्यात् ( भवेत् ), तत् चराचरं भूतं न अस्ति ॥ ३९ ।। . अनुवाद। हे अर्जुन ! सर्वभूतोंके जो बीज ( प्ररोहकारण ) है, सो मैं हूँ, ( जिस हेतु ) चर किम्बा अचर ऐसा कोई भूत नहीं, जो मेरे बिना हो सके ॥३९॥ Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीमद्भगवद्गीता व्याख्या। हे साधक ! इस स्थावर जंगमात्मक विश्वमें जो कुछ तुम देखते हो, सो सब 'मैं' से ही होता है, सबही 'मैं' है । 'मैं बिना 'तुम' कह करके कुछ भी देखने न पाओगे। 'मैं' छोड़कर किसीका पृथक् सत्ता नहीं है ॥ ३६॥ नान्तोऽस्ति मम दिव्यानां विभूतीनां परन्तप । एष तूहेशतः प्रोक्तो विभूतेविस्तरो मया ॥४०॥४०॥ अन्वयः। हे परन्तप ! मम दिव्यानां विभूतीनां अन्तः न अस्ति; एष तु विभूतेः 'विस्तरः मया उद्देशतः ( संक्षेपतः ) प्रोक्तः ॥ ४० ॥ अनुवाद। हे परन्तपः ! मेरे दिव्य विभूतियोंका अन्त नहीं है। इसलिये इस विभूति-विस्तारको संक्षेपसे कहा है ॥ ४०॥ व्याख्या। 'परन्तप' अर्थमें जो पराए बल वा शक्तिको पीड़न करनेकी शक्ति रखते हैं। ये मायामय जितनी विभूति हैं, मायाको दाब करके 'मैं'-प्रतिपादन न कर सकनेसे इन सबका अन्त नहीं किया जा सकता। ('मामेव ये प्रपद्यन्ते' देखो)। इस विभूतिका कूल किनारा नहीं है । तब भी प्रधान प्रधान थोड़ासा कहा है । 'उद्देशतः'उद्देश करके, अर्थात् प्रधानका नाम करनेसे तज्जातीय समुदयको ही उद्देश्य किया जाता है। इसलिये विभूति अनन्त होनेसे भी संक्षेपसे सब ही कहा गया है ॥ ४०॥ यद् यद् विभूतिमत सत्त्वं श्रीमदूजितमेव वा। तदेवावगच्छ त्वं मम तेजोऽशसम्भवम् ॥४१॥ अन्वयः। विभूतिमत् ( ऐश्वर्ययुक्त) श्रीमत् ( सम्पत्तियुक्त) अज्जितं (केनापि प्रभावबलादिना गुणेन अतिशयितं ) यत् यत् सत्त्वं ( वस्तुजातं ) तत् तत् एव मम तेजोऽशसम्भवं ( भम प्रभावस्य अंशेन सम्भूतं ) अवगच्छ ॥ ४१॥ ___ अनुवाद। जो कुछ विभूतिमत् श्रीमत् और तेजयुक्त वस्तु देखोगे उसे हमारे ही तेजका अंश सम्भूत जानना ॥ ४१॥ Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशम अध्याय व्याख्या। गुण, बल, प्रभाव, ऐश्वर्य, सम्पत्तिसे सजाया हुआ भुवनकोषमें जो कुछ है, उसे हमारे ही तेजके अंशसे प्रकाशित जानना ॥४१॥ अथवा बहुनैतेन किं ज्ञातेन तवार्जुन । विष्टभ्याहमिदं कृत्स्नमेकांशेन स्थितो जगत् ॥४२॥ अन्वयः। अथवा हे अर्जुन ! तव एतेन बहुना ज्ञातेन किं (प्रयोजनं ) ? ( यस्मात् ) अहं इदं कृत्स्नं जगत् एकांशेन विष्टभ्य ( धृत्वा ) स्थितः ॥ ४२ ।। अनुवाद। अथवा हे अर्जुन ! इस प्रकार बहुज्ञानसे तुम्हें प्रयोजन क्या है ? (जिस हेतु ) में इस समग्र जगतको एकांशसे धारण कर रहा हूँ ॥ ४२ ॥ व्याख्या। हे साधक ! इस अनादि अनन्तको सादि सान्तसे और समझनेका कोई प्रयोजन नहीं। दृढ़ करके मान लो, यह विश्व कोष महत्तत्वसे उत्पन्न है। भसीम ब्रह्म महत्तत्वमें ठीक जैसे गोष्पद का जलमें प्रतिविम्वित आकाश-छाया है, तैसेही तुम, हम प्रभृति नाना भूतोंमें भी वही ब्रह्म प्रभासित है। जैसे आकाशके गर्म में सागरान्त पृथिवो अपार जलका (जलमय) बेडसे यह द्वीप, वह द्वीप नाम लेकर रहनेसे भी नीचे नीचेमें जलके भीतर जलसे जल सबके साथ सब मिलकर एक हो रहा है, तथापि ( अज्ञानतासे ) एक समझने न देकर नानात्वका धोखा लगाकर सबको बुद्धिहीन बनाता है, असल में जैसे एकही एक है, वैसे भाई ! असीम ब्रह्मके एकांशमें मायाकी बेड़का फटा जगत् टूटा सरीखे धरा रहा है। ___ जबतक ज्ञान-दृष्टिका विकाश नहीं होता, तबतक ही पृथक् भाव से भगवतूसत्ता समझना होता है, तबतक ही बहुज्ञान रहता है; ज्ञानदृष्टिके विकाश होनेसे और पृथक् दृष्टि नहीं रहती, बहुज्ञान भी नहीं रहता, उस समय एकदृष्टि वा समदृष्टि आती है; तब इस अखिल जगत्को एक भगवत् अंश कह करके ही प्रत्यक्ष होता है। जैसे Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२ श्रीमद्भगवद्गीता मानवोंको एक अवएवमें भिन्न भिन्न अंग प्रत्यंग और लक्ष लक्ष रोम-. कूप विद्यमान हैं, वैसेही एक भगवत् अवयवमें कोटि कोटि ब्रह्माण्ड वर्तमान हैं। भगवान् विश्वरूपी हैं; बिना भगवान्के दृश्यादृश्यके भीतर बाहरमें कुछ नहीं है। इसलिये श्रुति कहती है-पादोऽस्य विश्वा भूतानि'। अर्जुन ( साधक ) अब उपासनाफाण्डमें उन्नति लाभ करके दिव्य चक्षु प्राप्त होनेके उपयुक्त हुए हैं। इसलिये भगवान् (गुरुदेव ) ने इस श्लोकमें उनको बहुज्ञान त्याग करके एकज्ञान अवलम्बन करनेका आभास दिया है। यहाँसे ही विश्वरूप दर्शनकी सूचना होती है ॥४२॥ इति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुन संघादे विभूतियोगो नाम दशमोऽध्यायः। Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकादशोऽध्यायः अर्जुन उवाच । मदनुग्रहाय परमं गुह्यमध्यात्मसंज्ञितम् । यत्त्वयोक्तं वचस्तेन मोहोऽयं विगतो मम ॥ १॥ अन्धयः। अर्जुनः उवाच । मदननुग्रहाय ( ममानुग्रहाय शोकनिवृत्तये ) परमं (निरतिशयं ) गुह्य (गोप्यं ) अध्यात्मसंज्ञितं ( आत्मानात्मविवेकविषयं) यत् वचः त्वया उक्त, तेन मम अयं मोहः ( अह हन्ता एते हन्यन्ते इत्यादिलक्षणभ्रमः विगतः ( विनष्टः ) ॥१॥ अनुवाद। अर्जुन कहते हैं, मुझको अनुग्रह करनेके लिये तुम जो परम गुत्य अध्यात्मसंज्ञित (आत्म-अनात्मविवेकविषयक ) वाक्य कहे हो, उससे हमारा यह मोह विनष्ट हो चुका ॥ १॥ व्याख्या। [ भगवानने पूर्व अध्यायके अन्तमें 'मैं इन समस्त जगलको एकांशसे धारण कर रहा हूँ' यह बात कहा, उससे वह जो विश्वरूपी है, वही भाव व्यक्त हुआ। अर्जुन भगवानका उस विश्वरूप प्रत्यक्ष करनेके लिये आनन्द भरा हुआ मानसमें एकके बाद एक करके चार श्लोकोक्त वाक्य समूह कहते हैं । "मैं" के वह जो अणुके ग्रहण करनेके निमित्तस्वरूप परम गुह्य वाक्य है, जिसे कोई कभी बाहर लाकर प्रकाश नहीं कर सकते, जो अध्यात्मसंज्ञित अर्थात् आत्मविषय और अनात्मविषयोंके ज्ञापक हैं, जिसे त्वं न सज करके अहंमें रहनेसे कहा नहीं जा सकता, ( यह जो पूर्व पूर्व अध्यायमें प्रत्यक्ष किया-सुना हूँ ), उससे मायाका मोह तो मेरा कट गया ।।१॥ Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीमद्भगवद्गीता भवाप्ययौ हि भूतानां श्रुतौ विस्तरशो मया। त्वत्तः कमलपत्राक्ष माहात्म्यमपि चाव्ययम् ॥२॥ अन्वयः। हे कमलपत्राक्ष ! त्वत्तः ( स्वत् सकाशात् ) भूतानां भवाप्ययो हि ( सृष्टिप्रलयौ ) मया विस्तरशः श्रुतो, अव्ययं माहात्म्यं अपि च ( श्रुतम् ) ॥ २॥ अनुवाद। हे कमलपत्राक्ष ! तुमसे भूतोंकी सृष्टि और प्रलयकी कथा मैंने सविस्तर सुनी, अव्यय माहात्मय भी सुना है ॥ २॥ व्याख्या। हे कमलपत्राक्ष ! कमल पत्तीके जलमें रहनेवाला पीठ के ऊपर ताकनेसे उसके सर्व स्थानमें ही जसे शिरा खचित चक्षुका आकार देखा जाता है, वेसे जगत्के प्रत्येक अणु परमाणुओंमें द्रष्टा स्वरूपसे तुम हो; कहाँ ऐसा कुछ नहीं, जो तुम्हारी हक्शक्तिकी अन्तरालमें रह सके। भूत समूहके भव अर्थात् उत्त्पत्तिका विषय, अप्यय अर्थात् प्रलयका विषय, और “मैं” का ( मेरे) माहात्म्यका विषय तुम्हारे निकट (अर्थात् जब मैं "मैं” के भावमें था, उसी भावमें रह करके ) विस्तार रूपसे मैंने सुना है-प्रत्यक्ष किया है और समझा है ॥२॥ एवमेतद् यथात्थ त्वमात्मानं परमेश्वर । . द्रष्टुमिच्छामि ते रूपमैश्वर पुरुषोत्तम ॥ ३ ॥ अन्धयः। हे परमेश्वर ! त्वं आत्मानं यथा आस्थ ( "विष्टभ्याहमिदं कृत्स्नमेकांशेन स्थितो जगत्" इत्येवं कथयसि ) एतत् एवं ( न अन्यथा इत्यर्थः); हे पुरुषो. त्तम! ते ऐश्वरं ( ज्ञानेश्वय्यशक्तिवलवीय्यंतेजोभिः सम्पन्नं ) रूपं द्रष्टुं इच्छामि ॥ ३॥ अनुवाद । हे परमेश्वर ! आत्मविषयमें तुमने जिस प्रकार कहा है वह ऐसा हो है। हे पुरुषोत्तम ! तुम्हारा (वही ) ऐश्वरिक रूप देखनेकी मैं इच्छा करता हूँ ॥३॥ Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५ एकादश अध्याय __ व्याख्या। ऐसा “मैं”, जिसे त्वं-ज्ञानमें पहुंचकर समझना होता है, जिसके विषयमें तुमने कहा है, वह वैसा ही है। इससे अन्यथा नहीं । तुम परमेश्वर अर्थात् ज्ञान ऐश्वर्या शक्ति बल वीर्य्य तेज सम्पन्न हो। हे पुरुषोत्तम ! हे त्वं ज्ञानके प्राणसखा ! तुम्हारे उसी ऐश्वरिक रूप देखनेकी हमें बड़ी अभिलाषा है। आपके उपदेशानुसार हमारे अन्तष्करणमें जो जो अनुभवादि हुए हैं, उनमें अब किसी प्रकारका संशय नहीं; परन्तु मैं बाहर आकर जो यह वह सो पृथक् विचार कर गोलमाल (गड़बड़ ) कर देता हूँ, अब तुम उन्हीं सबकी मीमांसा कर दो-किस प्रकारसे एक अवयवमें -एक अंशमें इस विश्व जगत्को धारण किये हो, उसीको देखनेकी मेरी वासना है ॥३॥ मन्यसे यदि तच्छक्यं मया द्रष्टुमिति प्रभो। योगेश्वर ततो मे त्वं दर्शयात्मानमव्ययम् ॥४॥ अन्वयः। हे प्रभो ! यदि तत् ( ऐश्वरं रूपं ) मया द्रष्टुं शक्यं इति मन्यसे, ततः ( तहिं ) हे योगेश्वर ! त्वं मे ( मह्य) अव्ययं आत्मानं दर्शय ॥ ४ ॥ अनुवाद। हे प्रभो! यदि मैं वह रूप देखने में समर्थ होऊ ऐसा आप समझे तो हे योगेश्वर ! आप मुझको अपना वही अव्यय आत्म-स्वरूप दिखाइये ॥ ४॥ व्याख्या। हे प्रभो! हे दीनबन्धो ! योगेश्वर ! (योगेश्वर उसे कहते हैं जो अहं अथवा त्वं भावमें चाहे जिसमें रहे, परन्तु उसमें योगावस्थाका अभाव कभी न हो) यदि मैं इस त्वं ज्ञानमें रह करके तुम्हारे उस अहं भावको देखनेके लायक होऊं तो तुम मुझको भीतर बाहर मिला कर अपना अव्यय आत्म-भाव दिखलाओ॥४॥ श्रीभगवानुवाच । पश्य मे पार्थ रूपाणि शतशोऽथ सहस्रशः। नानाविधानि दिव्यानि नानावर्णाकृतीनि च ॥५॥ अन्वयः। श्रीभगवान् उवाच । हे पार्थ! मे नानाविधानि दिव्यानि ( अलौ Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . श्रीमद्भगवद्गीता किकानि ) नानावर्णाकृतीनि च ( नानाविधैः वर्णैः आकृतिभिश्च युक्तानि च ) शतशः अथ सहस्रशः रूपाणि पश्य ॥५॥ ___ अनुषाद। श्रीभगवान् कहते हैं,-हे पार्थ । मेरे नानाविध, दिव्य ( अलौकिक ) नाना वर्ण और आकृतियुक्त शत शत और सहस्र सहस्र रूप देखो ॥५॥ व्याख्या। [ पूर्वोक्त चार श्लोकमें साधक जीवभावमें जो आकांक्षा करता है, इन चार श्लोकोंमें आत्मभावसे वह पूर्ण होता है,-दिव्यदृष्टिके विकाशसे विश्वरूप प्रत्यक्ष होता है।] हे पार्थ! (पृथ् क्षेपणे; अविच्छिन्न रूपसे आत्मज्ञानमें जो नहीं रह सकते उन्होंकी संज्ञा पार्थ है ) देखो, “मैं” का रूप देखो; शत शत, सहस्र सहस्र, अन्तशून्य अनन्त कैसा है, सो देखो। मैं एक हो करके भी कसे बहुश्रात्मक हूँ, फिर बहु होकरके कैसे एक हूँ, उसे देखो। सबही आकाशके कार्य हैं; स्याही, कूचा, फूस ( खर ), मट्टी कुछ भी नहीं है। नाना प्रकार के रंग, सब आकाशके हैं, आकाशसे गढ़ा हुआ नाना प्राकृति आकाशमें लटकाई हुई हैं, अोट पोट कुछ नहीं। निराश्रयमें आपही आप अपना अपना मूर्तियोंका प्रकाश, जैसे आप ही श्राप करते हैं। परस्पर किसीके कोई सहारे नहीं, सबके सब स्वतन्त्र हैं ॥५॥ पश्यादित्यान् वसून रुद्रानश्विनौ मरुतस्तथा । बह न्यदृष्टपूर्वाणि पश्याश्चर्याणि भारत ॥ ६ ॥ अन्वयः। हे भारत ! आदित्यान् वसून रुद्रान् अश्विनी महतः ( एकोनपञ्चाशदेवताविशेषान् ) पश्य, तथा बहूनि अदृष्टपूर्वाणि आश्चर्याणि पश्य ॥ ६ ॥ अनुवाद। हे भारत ! आदित्य गोंको वसुगणोंको, रुद्रगणोंको अश्विनीकुमारद्वयको तथा मरुद्गणको देखो; और भो बहु अदृष्टपूर्व सब आश्चर्य देखो ॥ ६॥ Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७ एकादश अध्याय व्याख्या। देखो! आकाश मय ज्योतिसमष्टि द्वादश सूर्यके तेज एकत्र देखो। इस ज्योतिकी सीमा नहीं, परन्तु आँस चमकती या दर्द नहीं करती। क्या आश्चर्य है ! फिर वह देखो! उस तेजके परिवर्तनसे ही “वसु” (१०म अः २३वा श्लोक देखो)-महज्योति की खण्डाशके व्यष्टि भाव है। __"रुद्रान्” (१०म अः २३वां श्लोक देखो )-अभावनीय परिवर्तन . (संहरण)। एक दृष्टिसे ताकते रहनेसे भी परिवर्तनका आदि अन्त मालूम नहीं होता। "अश्विनौ”---फिर रूपकी प्रभा देखो। एक खिल करके फिर दूसरेको खिलाती है, वह भी खिल करके फिर खिलानेवालेको भी खिलाती है। मनोमोहकरी अपरूप रूप देखो। "मरुतः"-फिर वह देखो, वे सब भंग होकर, झिलमिल मिलमिल सागर तरंग-ज्योतिकी लहर; जैसे एकोनपञ्चाशत् पवन अनन्त सागरके अनन्त वक्षमें चन्द्र, सूर्य, अग्नि, विद्यु तके घोलमेल से मतवाला होकर होली खेलता है; केवल इतना ही नहीं परन्तु और भी कितना अदृष्टपूर्व, जिसे असाधक अवस्थामें कभी कोई देखने नहीं पाते, उसे भी देखो! अहो क्या आश्चर्य है ! हे भारतचिज्ज्योतिनिविष्टचित्त साधक ! देखो, देखो, कितना आश्चर्य व्यापार है देखो !! ॥ ६ ॥ इहैकस्थं जगत कृत्स्नं पश्यांद्य सचराचरम् । मम देहे गुड़ाकेश यच्चान्यद् द्रष्टुमिच्छसि ॥७॥ अन्वयः। हे गुड़ाकेश ! अद्य सचराचरं कृत्स्नं जगत् अन्यत् च यत् द्रष्टु इच्छसि ( तत् ) इह ( अस्मिन् ) मम देहे एकस्थं (अवयवरूपेण एकत्र स्थितं ) पश्य ।। ७॥ Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीमद्भगवद्गीता अनुवाद। हे गुड़ाकेश ! मेरे इस देहमें प्राज सचराचर समग्र जगत् और भी दूसरा जो कुछ तुम्हें देखनेकी इच्छा हो, ( उन समस्तको अवयव रूपसे ) एकत्र अवस्थित है, देखो ॥ ७॥ - व्याख्या। हे गुड़ाकेश ! ( गुडाका = निद्रा, ईशनियन्ता; (हम अः २३वां श्लोक देखो) यह जो सचराचर जगत् है, (चरजो घरते फिरते रहते हैं, जीव समूह; और अचर =स्थावर, जो चल नहीं सकते, जैसे वृक्ष, पत्थर प्रभृति ) ये समस्त ही मेरे शरीरके भीतर इकट्ठ कैसे रहते हैं देखो। और भी देखो भूत-भविष्यत्-वर्तमान कालकी घटनावलि, (तुम्हारे साधन समरकी जय-पराजय, संशयछेदनादि ) जो तुम्हारी इच्छा हो, वही देखो ! ॥७॥ न तु मां शक्यसे द्रष्टुमनेनैव स्वचक्षुषा । . दिव्यं ददामि ते चक्षुः पश्य मे योगमैश्वरम् ॥८॥ अन्वयः। तु ( किन्तु ) अनेन एव स्वचक्षुषा मां द्रष्टुं न शक्यसे; अतः ते ( तुभ्यं ) दिव्यं चक्षुः ददामि; मे ऐश्वरं ( असाधारणं ) योग ( अघटनघटनसामर्थ्य ) पश्य ॥ ८॥ अनुवाद। परन्तु तुम इन दोनों चक्षुसे मुझको देखनेमें असमर्थ हो, अतएव तुमको में दिव्य चक्षु देता हूँ; उससे मेरे असाधारण योगबलको देखो ॥ ८॥ व्याख्या। ये जो तुम्हारे दो चक्षु हैं, इनसे तुम केवल बाहरवाली चीजें (प्राकृतिक स्थूल पदार्थ) देख सकते हो; उनसे 'मैं' ( मुझको ) देख नहीं सकते। 'मैं' का योग ( हममें माया कैसे मिल जाती है, तथा उत्पन्न होती है, खेल करती है ) देखना हो तो, इन दोनों चर्म चक्षुकी दृष्टिसे काम नहीं चलेगा। तुमको मैं ऐसा एक भाकाश सदृश चक्षु देता हूँ (८म अः ३य श्लोकके तद्ब्रह्म Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकादश अध्याय देखो ), जिससे तुम मेरे योग और ऐश्वर्याको देखने पाओगे, देखो! * ॥ ८॥ सञ्जय उवाच । एवमुक्त्वा ततो राजन् महायोगेश्वरो हरिः। दर्शयामास पार्थाय परमं रूपमैश्वरम् ॥६॥ अन्वयः। सजयः उवाच । हे राजन् ! महायोगेश्वरः हरिः एवं उक्त्वा ततः ( अनन्तरं ) पार्थाय परमं ऐश्वरं रूपं दर्शयामास ॥ ९॥ अनुवाद। संजय कहते हैं, हे राजन् ! महायोगेश्वर हरिने इस प्रकार कह कर पार्थको परम ऐश्वरिक रूप दिखलाया ॥ ९॥ व्याख्या। सं+ जय - सब्जय। अर्थात् भूतप्रपचको कारण, कार्य, गुण और अर्थके साथ परिज्ञात हो करके जो स्थिति है, वही सञ्जय अवस्था है। साधक जब आज्ञा चक्रमें रहकर निम्नदृष्टिसे भूतजगत्की लीला देखते हैं, तबही उनका विषय मात्रमें सम्पूर्ण अनासक्ति भाव रहता है; वह अनासक्ति दृष्टि ही दिव्य दृष्टि है; और वही साधककी सब्जय अवस्था है। इस अवस्थामें रह करके उस दिव्य दृष्टिसे जो कुछ अनुभव प्रत्यक्ष होता है, उसे ही "सब्जय उवाच" कह करके व्यक्त किया है। ये सब मनही मन की बात है। इस अवस्थामें मनही वक्ता, तथा मनही श्रोता है; वक्ता अवस्थामें सब्जय और श्रोता अवस्थामें धृतराष्ट्र--देहराज्यके सुख दुःखका भोक्ता होनेसे राजा है। * ८ अ8 में दोक्षाका समस्त उपदेश करनेसे भी प्रकृत दीक्षा-ज्ञानचक्षुकी उन्मीलन क्रिया यहां ही हुई, क्योंकि दाक्षाका अर्थफल प्रत्यक्षीकरण यहाँसे ही प्रारम्भ हुआ है। दीक्षाका इस अर्थ फलको लक्ष्य करके ही गुरुदेवको-'चक्षुरुन्मीलितं येन तस्मै श्री गुरवे नमः' यह कह कर प्रणाम किया जाता है ॥८॥ Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीमद्भगवद्गीता - __ प्रधानसे भी महान् योगेश्वर हरिने (जो सर्वको हरण करते हैं ) अर्जुनको दिव्य चक्षु देकरके "परम" जो ईश्वरतत्व है, उसे ही दिखलाया ॥ अनेकवक्तूनयनमनेका तदर्शनम् । अनेकदिव्याभरणं दिव्यानेकोद्यतायुधम् ॥ १० ॥ दिव्यमाल्याम्बरधरं दिव्यगन्धानुलेपनम् । सर्वाश्चर्यमयं देवमनन्तं विश्वतोमुखम् ॥ ११ ॥ अन्वयः। (तत् रू एवंभूत )-अनेकवक्त नयनं, अनेकाद्भुतदशनं अनेकदिव्याभरणं दिव्यानेकोद्यतायुधन् , दिव्यमाल्याम्बरधर, . दिव्यगन्धानुलेपनं, सांश्चर्य्यमयं, देव ( द्योतनात्मक ), अनन्तं ( अपरिच्छिन्नं ), विश्वतोमुख ( सर्वतः मुखविशिष्ट ) ॥ १० ॥ ११ ॥ __ अनुवाद। (वह रूप ) अनेक मुख और नयन विशिष्ट, अनेक अद्भ तदर्शन विशिष्ट, अनेक दिव्य आभरण विशिष्ट, अनेक उद्यत दिव्य अस्त्र विशिष्ट, दिव्य माल्य और वस्त्रधारी, दिव्य गन्धानुलेपित, सर्वांश्चर्य्यमय, दीप्तिमय, अनन्त, और सर्वत्र मुख विशिष्ठ है ॥ १०॥ ११ ॥ व्याख्या। अनेक मुख, अनेक नयन, अनेक अद्भुत दर्शन . (जिसका साधनावस्थाके पूर्व में और कभी दर्शन न हुआ हो), अनेक आभरण, अनेक अस्त्र शस्त्र (१०म : ३१वां श्लोक) धारण कर रहे हैं, वह समस्त ही आकाशसे गढ़ा ( बनाया ) हुआ है। आकाशीयफूलकी माला, आकाशीय वस्त्र, रूपकी ज्योतिसे खिल पड़ा है। आकाशमें कुंकुम-कस्तुरी-चन्दनका अनुलेपन, समस्त ही आश्चर्य्यजनक है। छायाहीन ज्योतिर्मय मूर्ति है। एक आध नहीं, अनेक, असंख्य; विश्वकोषमें जो कुछ ज्ञात वा अज्ञात है, वह सब प्रगट हो गया। (१०म अः ३५वां श्लोकमें "विश्वतोमुख" देखो)॥१०॥११॥ Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकादश अध्याय दिवि सूर्यसहस्रस्य भवेद्य गपदुत्थिता। यदि भाः सहशी सा स्याद्भासस्तस्य महात्मनः ॥ १२॥ अन्धयः। यदि दिवि ( आकाशे ) सूर्यसहस्रस्य भाः (प्रभाः) युगपत् उत्थिता भवेत् , ( तहिं ) सा (प्रभा) तस्य महात्मनः (विश्वरूपस्य ) भासः ( प्रभायाः) सदृशी स्यात् ॥ १२॥ अनुवाद। यदि आकाशमें सहस्र सूर्यको प्रभा एकही काल में उदित हो, ( ऐसा होनेसे ) वह प्रभा उप महात्माको प्रभाके सदृश हो सकती है ।। १२॥ व्याख्या। विश्वरूपकी इतनी ज्योति, इतना तेज है कि, उसकी सीमा नहीं हो सकती। कदाचित् एकही कालमें एकही साथ अनन्त सूर्यका उदय हो, उस सूर्य्य समूहकी ज्योति श्राकाशमें जिस प्रकार प्रभा विस्तार करेगी, वह भी इस प्रभाके आगे कदापि नहीं ठहर सकती। उसकी उपमा नहीं ! तुलना भी नहीं ! ॥ १२ ॥ तत्रकस्थं जगत् कृत्स्नं प्रविभक्तमनेकधा । अपश्यदेवदेवस्य शरीरे पाण्डवस्तदा ॥ १३ ॥ अन्वयः। तदा पाण्डवः ( अर्जुनः ) तत्र देवदेवस्य शरीरे अनेकधा प्रविभक्त ( नानाविभागेनावस्थितं ) कृत्स्नं जगत् एकस्थं अपश्यत् ।। १३।। अनुवाद। तब अर्जुनने उस देवाधिदेवके शरीर में नाना प्रकारसे विभक्त समग्र जगत्को एकत्र स्थित अवलोकन किये ।। १३ ॥ व्याख्या। उस वासुदेवके शरीरमें स्थावर जंगमात्मक ( एक पार्थिव अणुसे शिवादि कृमि पर्यन्त ) विश्वकोषमें जितने प्रकारके दृश्य हो सकें, सब एकटे स्थित हैं। साधनसिद्ध अनुभवसे साधक ( अर्जुन ) उसे प्रत्यक्ष करना प्रारम्भ करते हैं ॥ १३ ॥ Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२ श्रीमद्भगद्गीता ततः स विस्मयाविष्टो हृष्टरोमा धनब्जयः । प्रणम्य शिरसा देवं कृताञ्जलिरभाषत ॥ १४ ॥ अन्वयः। ततः ( दर्शनान्तरं ) स: धनञ्जयः विस्मयाविष्टः हुष्टरोमा ( रोमाश्चितः सन् ) देवं शिरसा प्रणम्य कृताञ्जलिः ( भुत्वा ) अभाषत ( उक्तवान् ) ॥ १४ ॥ अनुवाद। तत्पश्चात् अर्जुन विस्मयापन्न और रोमाञ्चित होकर उस देवको मस्तकसे प्रणाम करके कृताश्चलि होकर कहने लगे ॥ १४ ॥ व्याख्या। साधक ! तुम देखो। जब तुम्हारी इस प्रकार अवस्था आती है, तब तुम्हारे शरीरके रोएँ कण्टकाकारसे खड़े हो जाते हैं। चर्म-चक्षुके अतीत पदार्थ जिन्हें कभी नहीं देखे थे, उन समस्तको देखकर आश्चर्यान्वित होते हो इसीसे "विस्मयाविष्ट" कहा गया है। और इस अवस्थामें तुम जन्म, मृत्यु, सुख, दुःख, क्षुधा, तृष्णा प्रभृतिका उत्पादक कोई किसीके साथ संस्रव न रख कर, उसी परम कार्यके कारणमें विभोर हो जानेसे तब "धनब्जय” होते हो; उस समय तुम्हारे प्राण और अपानकी क्रिया इतनी सूक्ष्मरूपसे सम्पन्न होती है कि उसे तुम धारणामें भी नहीं ला सकते, और उस समय तुम सहस्रार-मूल-त्रिकोणमें उठ कर उसी अपूर्व चिदाकाशमें मिलकर आकाश सदृश रह जाते हो। वह जो प्राण और अपान की क्रिया है, उसीको प्रणाम कहा है। एक बार नीचे झुकना और एक बार ऊपर उठनेको प्रणाम कहते हैं। और वह जो तुम्हारी अवस्थिति है, वही अनिर्वचनीय है। यदि तुम उसके विषयमें कहना चाहो तो तुम्हें उस अवस्थासे उतर कर कहना पड़ता है। उस समय तुम्हारी समस्त क्रिया स्थिर रहती हैं, फिर निष्क्रियत्व भी नहीं होता, अथच इन दोनोंकी सन्धि-वाम और दक्ष उभयका संयोजन है; वाम विपथ और दहिना सपथ है; इन दोनोंके संयोगको ही सन्धि कहते हैं, और इसी सन्धिको ही कृताञ्जलि कहा गया है। वह अचिन्त्य, Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकादश अध्याय अव्यक्त, निर्गुण पुनः गुणात्मक अवस्था ही इस जगतका आधार स्वरूप है, परन्तु वह भी तुमसे भिन्न नहीं है, पुनः भिन्नबोधके भ्रमके कारण "देव” शब्द दिया गया है । और "प्रभाषत" १-तुम जो इस प्रकार आत्मसमर्पण करके स्तुति किये बिना रह नहीं सकते, वह स्तुति ही तुम्हारा "प्रभाषण" है ॥ १४ ।। अर्जुन उवाच पश्यामि देवास्तव देव देहे सर्वास्तथा भूतविशेषसंघान् । ब्रह्माणमीशं कमलासनस्थ मृषीश्च सर्वानुरगांश्च दिव्यान् ।। १५ ।। अन्वयः। अर्जुन: उवाच । हे देव ! तब देहे सर्वान् देवान् ( आदित्यादीन् ) तथा भूतविशेषसंघान् ( जरायुजाण्डजादीनां संघान् ) दिव्यान् ऋषीन् च (पशिष्ठादोन ), सर्वान् उरगान् च ( वासुकिप्रभतीन् , कमलासनस्थं ( पृथिवीपद्ममध्ये मेरुकणिकासनस्थं ) ईशं ( प्रजानां ईशितारं ब्रह्माणं पश्यामि ॥ १५ ॥ अनुवाद। अर्जुन कहते हैं, हे देव ! तुम्हारे देहमें समुदय देवोको, जरायुजादि नानाविध भूतसमूहको, दिव्य ऋषियोंको समुदय उरगोंको और कमलासनस्थित प्रजापति ब्रह्माको देखता हूँ ॥ १५ ॥ व्याख्या। अब साधक ब्रह्ममुखी वृत्तिसे अपने देहके भीतर चित्तपथमें चित्तपटमें विश्वरूप देखते हैं। द्रष्टा न होनेसे दृश्यका दर्शन नहीं होता, इसलिये साधक अहंरूपसे अपनेको द्रष्टा मानकर विश्वको त्वं-रूपसे दृश्य बनाकर अपने आपको भूलकर विश्वरूपमें मतवाले हो जाते हैं, और कहते हैं-हे देव! तुम्हारे दिव्य देहमें सबही आकाशकी लीला है, पृथिवीका गन्ध, जलका रस, तेजका रूप, वायुका स्पर्श और आकाशका शब्द लेकर शून्य ही में पत्रीकरण होता है; सत्त्व, रज और तमोगुणके त्रिकरणके मिश्रण हेतु यह Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४ । श्रीमद्भगवद्गीता अद्भुत व्यापार प्रकाश होता है; प्रकृतिके जितने कृतित्व हैं, सब एक स्थानमें इन्द्रजालके सदृश खिलते हुये बाहर निकल आते हैं। सृष्टि की सीमा नहीं है। यथास्थानमें कमलासन पर सृष्टिके ईश्वर ब्रह्मा, देवतासमूह, ऋषिकुल, सर्पकुल, अवस्थित हैं, ये सबही आकाशके आकारधारी विकार हैं। (साधक ! होशियार हो करके अपने कूटस्थके दृश्य समुदयसे इसे मिला लो ) ॥ १५ ॥ अनेकबाहूदरवक्त्रनेत्रं पश्यामि त्वां सर्वतोऽनन्तरूपम् । नान्तं न मध्यं न पुनस्लवादि पश्यामि विश्वेश्वर विश्वरूप ॥ १६ ॥ अन्वयः। हे विश्वेश्वर ! हे विश्वरूप ! अनेकबाहूदरवक्त नेत्रं अनन्तरूपं त्या सर्वतः ( सर्वत्र ) पश्यामि तव पुनः न अन्तं न मध्यं न आदि पश्यामि ॥१६॥ - अनुवाद। हे विश्वेश्वर । हे विश्वरूप ! अनेक बाहु उदर मुख नयन युक्त और अनन्त रूप सम्पन्न तुमको सर्वत्र देखता हूँ; पुनः तुम्हारा न अन्त न मध्य न आदि देखता हूँ॥ १६ ॥ - व्याख्या। कितनेही उदर, कितनेही हाथ, कितनेही मुख कितने ही चक्षु देखता हूँ, उनका और अन्त नहीं है। दशो दिशामें देखता हूँ; किसी दिशामें भी आदि, अन्त, मध्य ठीक नहीं कर सकता हूं। हे विश्वेश्वर ! यह क्या तुम्हारा विश्वरूप है ! ॥ १६ ॥ . किरीटिनं गदिनं चक्रिणच . तेजोराशिं सर्वतो दोप्तिमन्तम् । पश्यामि त्वां दुनिरीक्ष्यं समन्ता दीप्तानलार्का तिमप्रमेयम् ॥ १७ ॥ अन्वयः। किरीटिनं ( मुकुटवन्तं ), मदिनं ( गदावन्तं ), चक्रिणं च ( चक्रवन्तं च ), सर्वतः दीप्तिमन्तं तेजोराशि ( तेजपुखरूपं ), दुनिरीक्ष्यं ( द्रष्टुमशक्यं ), Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकादश अध्याय दीप्तानलार्का ति ( प्रदीप्ताग्निसूर्य्यसमप्रभाविशिष्टं ) अप्रमेयं त्वां समन्तात् ( सर्वत्र ) पश्यामि ॥ १७ ॥ अनुवाद। मुकुटवान् , गदाचक्रधारी, सर्वत्र दीप्तिमान् तेजःपुञ्ज स्वरूप, दुनिरोक्ष्य प्राप्त अग्निसूर्यवत् प्रभाविशिष्ट और अप्रमेय तुमको सर्वत्र देखता हूं ॥१॥ व्याख्या। कोई किरीटधारी (चूड़ा लगाई हुई मणि-मोतीपन्ना-हीरा लटकाई हुई, सुवर्णसे गढ़ी हुई टोपीको किरीट कहते हैं ), कोई गदाधारी और कोई चक्रधर है। सब अपने अपने तेजोराशि स्वरूपसे युक्त हैं इसलिये महान् ज्योतिसे कशक्ति हार जाती है, ठहर नहीं सकती (परन्तु देखने में कष्ट भी नहीं है )। मैं यह कौन दृश्य देखता हूँ ! तुम्हारे ज्वलन्त रूपके ऊपर मैं अपनी दृकशक्तिको स्थिर रख नहीं सकता हूँ। तुलनाके अतीत है, मानो जैसे सूर्य्य, विद्युत् और अग्नि इत्यादिको मिला करके तेज बनाया हुआ है ॥१०॥ त्वमक्षरं परमं वेदितव्यं त्वमस्य विश्वस्य परं निधानम् । त्वमव्ययः शाश्वतधर्मगोप्ता सनातनस्त्वं पुरुषो मतो मे ॥१८॥ अन्वयः। त्वं परमं अक्षरं ( परं ब्रह्म) वेदितव्यं ( मुमुक्षुभिः ज्ञातव्यं ); त्वं अस्य विश्वस्य ( समस्तस्य जगतः) परं निधानं ( परमाश्रयः ); त्वं अव्ययः शाश्वतधर्मगोप्ता (नित्यस्य धर्मस्य पालकः ); त्वं सनातनः (चिरन्तनः) पुरुषः मे मतः ॥ १८॥ . ___ अनुवाद। तुम परम अक्षर, (तुमही ) ज्ञातव्य; तुम इस विश्वके परम आश्रय; तुम अव्यय और शाश्वत धम्मको पालने वाले; तुमही सनातन पुरुष हो ( यही) हमारा मत ( स्थिर विश्वास ) है ॥ १८॥ व्याख्या। "त्वमक्षरं" = तुम अक्षर हो-जो कभी नष्ट नहीं होते (८म अः ३य श्लोक देखो); परमं ब्रह्म; वेदितव्यं जाननेकी Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . श्रीमद्भगवद्गीता बस्तु तुम हो; निधानं = तुम इस विश्वके शेष प्राश्रय हो; तुम अव्यय = अपरिणामी हो; शाश्वत = चिरस्थायी तुम हो; धर्मगोप्ता=यह विश्वही तुम हो, परन्तु तुम इस विश्वको जसे धारण कर रहे हो,तुम्हारा यह जो आवरण है, यही तुम को आत्मगोपन करनेवाला बनाया है। सनातन=अनादिसिद्ध चिरन्तन पुरुष तुम हो, पुरुष= सर्व शब्दके अर्थ के अन्तरात्मा तुम हो;-यही मैं समझता हूँ॥ १८ ॥ अनादिमध्यान्तमनन्तवीर्य मनन्तबाहुँ शशिसूर्य्यनेत्रम् । पश्यामि त्वां दीप्तहुताशवक्त्रं स्वतेजसा विश्वमिदं तपन्तम् ॥ १६ ॥ अन्वयः। त्वां अनादिमध्यान्तं ( उत्पत्तिस्थितिलयरहितं ) अनन्तवोयें अनन्तबाहुँ शशिसूर्यनेत्रं दीप्तहुताशवक्त्रं ( प्रज्ज्वलिताग्निमुख) स्वतेजसा इदं विश्वं तपन्तं ( सन्तापयन्तं ) पश्यामि ॥ १९॥ . अनुवाद। तुमको आदिमध्यान्तरहित, अनन्तवीर्यशालो, अनन्त बाहुयुक्त, शशिसूर्यनेत्र, प्रदीप्ताभिमुख और स्वतेजसे इस विश्वके सन्तापक स्वरूप में देखता हूँ॥१९॥ व्याख्या। तुम्हारा श्रादि, अन्त और मध्य नहीं, तुम अनन्त हो। तुम्हारे शौर्य, प्रताप, गौरव तथा सामर्थ्यका अन्त नहीं, तुम अनन्त हो। तुम्हारी क्रिया-शक्ति सर्वत्र समान रूपसे वर्तमान है, तुम अनन्त हो। तुम उग्रसे भी उग्र और सौम्यसे भी सौम्य स्वरूप से द्रष्टा हो। तुम्हारा मुख प्रज्वलित अग्निशिखामय है। तुम्हारे महान् तेजसे इस जगत्को तपायमान देखता हूँ ( इस तेजसे तपित यह ह्माण्ड कहीं गल न जाय, मुझे इसी सन्देह है )॥ १६ ॥ Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकादश अध्याय द्यावापृथिव्योरिदमन्तरं हि ___ व्याप्तं त्वयकेन दिशश्च सर्वाः। दृष्ट्वाद्भुतं रूपमुन तवेदं लोकत्रयं प्रव्यथितं महात्मन् ॥ २० ॥ अन्वयः। हे महात्मन् ! द्यावापृथिव्योः इदं अन्तरं ( अन्तरीक्ष ) त्वया एकेन हि ( विश्वरूपेण ) व्याप्त सर्वाः दिशश्च ( व्याप्ताः); तव इदं अद्भ तं ( अष्टपूर्व) उग्र ( घोरं ) रूपं दृष्ट्रा लोकत्रयं प्रव्यथितं ( अतिभीतं पश्यामि ) ।। २० ।। अनुवाद। हे महात्मन् ! स्वर्ग और पृथिवीके अन्तर ( अन्तरीक्ष ) तथा समुदय दिक् समूह एक मात्र तुमसे ही व्याप्त हो रहा है; तुम्हारी इस अद्भ त उग्र मूत्ति का दर्शन करके लोकत्रय अतीव व्यथित ( भीत ) होते हैं, देखता हूँ ॥ २० ॥ व्याख्या। देवगण जहां निवास करते हैं अर्थात् साधन-समय में साधक जिस स्थानमें छायाहीन तेजस मूर्तिका दर्शन करते हैं, उसीको स्वर्ग कहते हैं। मृ'शब्द करनेको कहते हैं ( स्वर ), और ग=गान करना है । प्राणवायुको ( गुरूपदिष्ट रीतिसे ) चलानेमें जिम स्थानसे सप्त स्वरका उत्थान होता है (प्रकाश पाता है ), वही स्थान स्वर्ग है ( साधनसे मालूम होता है)। और कर्म-स्थान अर्थात् स्थूलशरीरधारियोंके आवास भूमिको पृथिवी कहते हैं। इन दोनोंके बीचमें जो अवकाश अर्थात् शून्य भूमिका है, उसीको अन्तरीक्ष कहते हैं। अन्तर कहते हैं भीतरको अर्थात् मध्य स्थानको, और ईक्ष कहते हैं दर्शन करनेको; अर्थात् भीतर भीतर दोनों स्थानके बीचमें जो देखता हूँ, वही अन्तरीक्ष है। हरि ! हरि !! इन तीनों स्थानके दश दिशामें तुमही एक हो करके व्याप्त हो रहे हो! ऐसा स्थान कोई नहीं जहां तुम नहीं,- ऐसी वस्तु भी कोई नहीं जो तुम नहीं हो । हे महात्मन् ! तुम्हारे इस अद्भुत (जिसे पूर्व में मैंने कभी नहीं देखा था) उग्र ( भयावह ) रूपसे तीनों लोकको अत्यन्त भीत देखता हूँ ॥ २० ॥ Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीमद्भगवद्गीता अमी हि त्वां सुरसंघा विशन्ति केचिद्भीताः प्राब्जलयो गृणन्ति । स्वस्तीत्युक्त्वा महर्षिसिद्धसंघाः स्तुवन्ति त्वां स्तुतिभिः पुष्कलाभिः ॥ २१ ॥ अन्वयः। अमो सुरसंवाः त्वां हि विशन्ति ( शरणं प्रविशन्ति ), केचित् भीताः (दूरत एव स्थित्वा ) प्राञ्जलयः ( कृतसम्पुटकरयुगला सन्तः ) गृहन्ति ( जय जय रक्ष रक्षेति प्रार्थयन्ते ); भहर्षिसिद्धसंघाः स्वस्ति इति उक्तवा त्वां पुष्कलाभिः ( सम्पूर्णाभिः ) स्तुभिः स्तुवन्ति ॥ २१ ॥ __अनुवाद। वह सब सुरसमूह तुममें ही ( शरणार्थ ) प्रवेश करते हैं, कोई कोई. भयभीत, कृताञ्जलि हो करके (दूरसे ही रक्षा करो रक्षा करो कहते हुए ) प्रार्थना करते हैं; और सिद्धगण "स्वस्ति" यह वचन कह करके तुमको पुष्कल ( सुसम्पन्न ) स्तुति समूहसे स्तव करते हैं ॥ २१ ॥ व्याख्या। 'अम्' = रोगग्रस्त, और 'इन्' = रहना; रुग्न हो करके रहनेका नाम 'अमी' है। 'हि' =निश्चय । 'सुरसंघा' = देवतासमूह; त्वा-तुममें, 'विशन्ति' =प्रवेश करते हैं । वे तेजवान् देवता भी तुम्हारे तेजकी प्रभासे रोगग्रस्त ज्योतिहीनोंके सदृश तुममें ही प्रवेश करते हैं, कोई कोई पुनः भयसे विभोर होकर हाथ जोड़ करके रक्षा करो रक्षा करो कहते हैं। और सिद्ध महर्षि समूह 'स्वस्ति' इस आशीर्वचनोंसे जगतको आशीर्वाद कर रहे हैं, क्योंकि जगत् यदि न रहता तो यह अरूपका रूप हम सब किस तरहसे देखते. इत्यादि कहते हुये तुम्हारी उत्कृष्ट स्तुतिसे स्तव करते हैं। अर्थात् विश्वरूपमें मतवाला हो करके कहते हैं,-भो! भो! यही तो तुम्हारा अरूपका रूप है ! ऋत, सत्य, नित्य, परं! अहो ! जय जगदीश हरे ! “हरे मुरारे मधुकैटभारे गोपाल गोविन्द मुकुन्द शौरे। यज्ञेश नारायण कृष्ण विष्णो निराश्रयं मां जगदीश रक्ष” ॥ २१॥ Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकादश अध्याय रुद्रादित्या वसवो ये च साध्या विश्वेऽश्विनौ मरुतश्वीष्मपाश्च । गन्धर्वयक्षासुरसिद्धसंघाः वीक्षन्ते त्वां विस्मिताश्चैव सर्वे ॥२२॥ अन्वयः। रुद्रादित्याः वसवः ये च साध्याः ( साध्यनाम देवताः ) विश्वे ( देवा ) अश्विनौ ( देवौ ) मरुतश्च ( मरुद्रग्गाश्च ) उष्मपाश्च ( पितरः) गन्धर्वयक्षासुरसिद्धसंघाः सर्वे एव च विस्मिताः ( सन्तः ) त्वां वीक्षन्ते ।। २२॥ अनुवाद। रुद्रगण, आदित्यगण, वसुगण, साध्य नामक देवगण, विश्वदेवगण, अश्विनीकुमारद्वय मरुदगण, पितृगण, गन्धर्व-यक्ष-असुर-सिद्धसमूह सब विस्मित हो करके तुम्हारां दर्शन करते हैं ।। २२ ॥ व्याख्या। एकादश रुद्र (१०म अ. २३वां श्लोक), अष्ट वसु ( १०म अः २३वां श्लोक देखो), साध्यगण, (मनः, मन्ता, प्राण, सर, पान, वीर्य्यवान, विनिर्भय, लय, दंश, नारायण, वृष और प्रभु ये बारह प्रकारके देवता लोग ), विश्वदेवगण (वसु, सत्य, ऋतु, वक्ष, काल, काम, धृति, कुरु, पुरुरवा और मद्रव ये दश प्रकारके गणदेवता), अश्विनीकुमार दोनों, मरुद्गण, (मृ=मरण, उतू-मिला देना, अर्थात् जिसके वा जिनके क्रुद्ध होनेसे मृत्यु होती है, उसको वा उन सबको मरुत् कहते हैं ) अर्थात् उन्चास प्रकारके वायुगण, उष्मपा अर्थात् पितृगण (ये लोग सात सम्प्रदाय हैं, अग्निष्वात्त्वा, सौम्या:, हविष्मन्तः, उष्मपाः, सुकालिनः, वर्हिषदः, आज्यपाः) हाहा हुहु आदि गन्धर्वगण, कुवेरादि यक्षगण, विरोचनादि असुरगण, कपिलादि सिद्धगण, सबके सब विस्मयापन्न होकरके ( म्लान मुखसे ) तुमको देखते हैं। (साधक ! तुम भी उसी प्रकार आश्चर्यान्वित होकर ताकते रहते हो; इसे मिलाकर देखो ) ॥ २२ ॥ Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीमद्भगवद्गीता रूपं महत् ते बहुवक्त्रनेत्रं महाबाहो बहुबाह रुपादम् बह दरं बहुदंष्ट्राकरालं · पृष्ठा लोकाः प्रव्यथितास्तथाहम् ॥ २३ ॥ अन्वयः। हे महाबाहो ! ते बहुवत्कनेत्रं बहुबाहूरुपादं बडूदरं बहुदंष्ट्राकरालं (बहुदष्ट्राभिः विकृतं ) महत् रूपं दृष्ट वा लोकाः प्रव्यथिताः ( भयेन प्रचलिताः) तथा अहं (अपि) ॥ २३ ॥ अनुवाद । हे महाबाहो! तुम्हारे बहुमुख और नयन विशिष्ट, बहुबाहु उरु और पाद विशिष्ट, बहु उदर विशिष्ट, बहुदंष्ट्रासे भयंकर महत् रूप देख करके समस्त लोक भय विचलित होते हैं, मैं भी भयातुर होता हूँ ।। २३ ।। __ व्याख्या। हे महाबाहो! (आदि, अन्त तथा मध्य विशिष्ट जो कुछ हैं, वह सब जिसके हाथके मध्यगत सदृश आयत्ताधीन हो सके, उन्हींको महाबाहु कहते हैं ) “रूपं महत्ते"-महत्को भी अतिक्रम करके यह जो तुम्हारा अप्रमेय रूप ! तुम्हारा कोई रूप नहीं; क्योंकि तुम अनादि अनन्त हो। रूप है सादि खान्तमें । परन्तु तुम महतूको भी अपने गर्भके भीतर लेकरके कैसे एक प्रकारका क्या हुए हो, उसका वर्णन भाषामें नहीं आ सकता इस करके कहा मी नहीं जाता। तथापि उस महत्में तुम्हारा जो रूप स्फुटित हो उठा, उसमें असंख्य मुख, चक्षु, हाथ, असंख्य उरु, पाद, उदर, असंख्य भीषण आकार वाले दांत देख करके समस्त लोक जगत् भयसे व्याकुल हुआ है, मैं भी व्याकुल हूँ! (साधक! अपना उस समयका ठीक ठीक भाव मिला लो, और मिलाते चलो) ॥ २३ ।। -नभस्पृशं दीप्तमनेकवर्ण व्यात्ताननं दीप्तविशालनेत्रम् । दृष्ट्वा हि त्वां प्रव्यथितान्तरात्मा धृति न विन्दामि शमश्च विष्णो ॥२४ ।। अन्वयः। हे विष्णो! नभस्पृशं (शु स्पर्श ) दीप्त (प्रज्वलितं ) अनेकवर्ण Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकादश अध्याय ८१ • व्यात्ताननं ( विवृतमुख) दीप्तविशालनेत्रं त्वां दृष्ट वा प्रव्यथितान्तरात्मा (भीतचित्तः सन् ) धृति ( धैय्यं ) शमं च ( उपशमम् ) न हि विन्दामि ( न लभे ) ॥२४॥ अनुवाद। हे विष्णो ! अन्तरीक्षव्यापो, प्रज्वलित, अनेकवर्ण, विवृतमुख, दीप्तविशालनेत्र तुमको देख करके भीत चित्त में धैर्य और उपशम लाभ कर ही नहीं सकता ॥ २४ ॥ व्याख्या। हे विष्णो ! (दूधमें घृत रहनेके सदृश जो पुरुष विश्वमें व्याप्त होकर स्थित है, उसीको विष्णु कहते हैं ) जैसे आकाश को अपने गर्भके भीतर ले करके, नाना वर्णके तथापि प्रमाणके अतीत ज्वलन्त अग्निशिखामय वह जो तुम्हारा विस्तार किया हुआ मुख गह्वर है, और ज्वालामाली तेजोराशि वह जो तुम्हारी विस्तृत चक्षु है;उन्हें देख करके हमारी अन्तरात्मा भयसे व्याकुल और संकुचित हो रही है। धैर्य धरकर अपनी समताको मैं और ठीक नहीं रख सकता ॥२४॥ दंष्ट्राकरालानि च ते मुखानि राष्ट्रव कालानल सन्निभानि । दिशो न जाने न लभे च शर्म प्रसीद देवेश जगन्निवास ॥ २५ ॥ अन्वयः। हे देवेश ! दंष्ट्राकरालानि च कालानलसन्निभानि (प्रलयाग्निसदृशाने ) ते मुखानि दृष्ट्वा एव दिशो न जाने ( दिङ मूढ़ोऽस्मि ) शर्म च (सुख) न लभे। भो जगन्निवास ! प्रसीद (प्रसन्नो भव ) ॥ २५॥ अनुवाद। हे देवेश ! दंष्ट्रा द्वारा विकृत और प्रलयाग्नि सदृश तुम्हारे मुख समूहको दर्शन करके मैं दिग्भ्रान्त हुआ हूँ, सुख लाभ नहीं कर सकता। हे जगन्निवास ! प्रसन्न होईये ॥२५॥ व्याख्या। हे देवेश ! तुम्हारे भयावह मुखके विकृत दन्त समूह की ज्योति जैसे प्रलयकाल वाली जगत्ध्वंसकरी विद्युत्-अग्नि-शिखा Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीमद्भगवद्गीता . सदश दश दिशामें व्याप्त देखता हूं, जिसने मुझको दिग्भ्रान्त का दिया और अब मैं सुख मात्रका भी अनुभव कर नहीं सकता। हे जगत् के आश्रय ! प्रसन्न होईये ॥ २५ ॥. अमी च त्वां धृतराष्ट्रस्य पुत्राः सर्वे सहैवावनिपालसंधैः । भीष्मो द्रोणः सूतपुत्रस्तथासो सहास्मदीयैरपि योधमुख्यैः ॥ २६ ॥ वक्ताणि ते त्वरमाणा विशन्ति दंष्ट्राकरालानि भयानकानि । केचिद्विलग्ना दशनान्तरेषु सदृश्यन्ते चूर्णितैरुत्तमाङ्गः ॥२७॥ अन्धयः। अमी च धृतराष्ट्रस्य पुत्राः ( दुर्योधनादयः ) सर्व अवनिपालसंघेः सह (भूपतिभिः सह ) त्वां (विशन्ति इति व्यवहितेन सम्बन्धः ); तथा भीष्मः द्रोणः असौ सूतपुत्रः ( कर्णः ) अस्मदीयैः अपि योधमुख्यः सह त्वरमाणा: ( त्वरायुक्ताः सन्तः ) ते दंष्ट्राकरालानि भयानकानि वक्तानि विशन्ति; ( तेषां मध्ये ) केचित् चूर्णितः उत्तमांगः ( शिरोभिः उपलक्षिताः ) दशनान्तरेषु ( दन्तसन्धिषु ) संलग्नाः (मक्षितं मांसमिव संश्लिष्टाः) संदृश्यन्ते ॥ २६ ॥ २७॥ अनुवाद। धृतराष्ट्र के वह पुत्रगण भी समस्त भूपतियों के साथ तुममें ( अति बेगसे प्रवेश करते हैं); और भीष्म, द्रोण तथा सूतपुत्र (कर्ण) अस्मदादिके भी प्रधान प्रधान योद्वागणके साथ तुम्हारे दंष्ट्रा द्वारा विकृत भयंकर मुखसमूहमें त्वरायुक्त होकरके प्रवेश करते हैं ; ( उन सबके भीतर ) कोई कोई चणितमस्तक होकरके दन्तसन्धिसमूहमें संलग्न हो रहा है ऐसा देखनेमें आता है ॥ २६ ॥ २७ ॥ व्याख्या। विषयभोगके शूल हृदयमें बिना गड़ने से, कोई कमी मुक्तिको ओर लक्ष्य करनेके लिये अबसर नहीं पाता। मुत्तीच्छुक साधकके अन्तःकरण काम-भोग-विषयादिको पराया मान करके Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकादश अध्याय विवेक-वैराग्य आदिको अपना मान लेता है, सेवा भी करता है। परन्तु साधक ज्यों ज्यों ऊंचे उठता जाता है; त्यों त्यों वे अपना समूह भी एकके बाद एक श्रापही छूटते जाते हैं, ऐसा उनको प्रत्यक्ष होता है। क्योंकि आदि-अन्त युक्त कुछ रहनेसे मुक्ति नहीं होती ( अर्थात् सबसे अलग हुआ नहीं जाता ), इसलिये प्रथम पराएको उत्सन्न देना होता है, प्रत्यक्ष करता है। अन्तःकरण-प्रसूत जो कुछ है, वही विकार है। इनमें भला व बुरा नहीं होता। विषय-भोग भी कामना है, फिर 'वह मुक्ति, अभी मैं पाता हूँ'-यह भी एक कामना है। कोई थोडासा पहले, कोई थोड़ासा पाश्चात् , परन्तु अद्भुत ब्रह्माग्निमें पड़कर जलजानेमें कोई भी बाकी नहीं रहता, देखता हूँ। चिदाभास, संस्कार, कर्तव्य, कामना, विवेक, वैराग्य ये सब छूट जाते हैं ॥ २६ ॥ २७॥ यथा नदीनां बहवोऽम्बुवेगाः समुद्रमेवाभिमुखा द्रवन्ति। तथा तवामी नरलोकवीराः विशन्ति वक्ताण्यभिविज्वलन्ति ॥२८॥ ___ अन्वयः। यथा नदीनां बहवः अम्बुवेगाः ( वारिप्रवाहाः ) अभिमुखाः ( समुद्राभिमुखा सन्तः ) समुद्र एव द्रवन्ति ( प्रविशन्ति ), तथा अमी नरलोकवीराः ( मनुष्यलोकपालाः ) तव अभिविज्वलन्ति (सर्वतः प्रदीप्यमानानि) वक्त ाणि विशन्ति ।।२८।। __ अनुवाद। जैसे नदी समूहका पारि प्रवाह समुद्राभिमुख होकरके समुद्र में ही प्रवेश करता है, उसी प्रकार यह सब नरलोकवीरगण सर्वत्र प्रदीप्यमान तुम्हारे मुखसमूहमें प्रवेश करते हैं ॥ २८ ॥ व्याख्या। “नरलोकवीरा"-न-नास्ति, रं-प्रकाश, अर्थात् स्वप्रकाश और परप्रकाशकत्व जिसमें नहीं है, उसीको “नर" कहते हैं। मनुष्य जबतक त्याग और प्रहणके लोभमें पड़ा रहता है, तबतक वह "नर" है। - Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८४ श्रीमद्भगवद्गीता - "नर" कहते हैं ज्योतिहीन वस्तुको, “लोक" कहते हैं दर्शनीय जो कुछ है उसीको और "वीर" कहते हैं जिसमें बन्धन करनेवाली व्यवस्था है। इसीसे हुआ, ज्योतिहीन दृश्य मायिक पदार्थ हैं, फिर बांधने वाली शक्ति भी रखते हैं, ऐसे जो लोग हैं, वे सबही "नरलोकवीर" हैं। अब साधक ! तुम देखो, तुममें तुम्हारे अन्तःकरणका भला बुरा जो कुछ स्फूरण है, वह संस्कार-प्रवाहाकारसे कहांसे पाकर तुमको दर्शन देकर तुम्हारे अन्तःकरणमें छापका बन्धन बांधकर क्षण भरके भीतर उसी प्रलयकरी ज्योतिमें प्रवेश करता है। ये समस्त ही श्राकाश-फूलके सदृश अलीक होनेसे भी ब्रह्ममार्गके विरोधी हैं। इसलिये कहा हुआ है कि जैसे नदी जलके वेगसे बहती हुई समुद्रमें गिरकर मिल जाती है, और जैसे उसका अस्तित्व नहीं रहता, उसी प्रकार इस मायाके धोखे "नरलोकवीर" समूह तुम्हारी ज्योतिमें पड़कर अस्तित्वशून्य हो जाते हैं. अर्थात् साधकका भ्रम अज्ञानता मिट जाती है ॥२८॥ यथा प्रदीप्तं ज्वलनं पतंगा विशन्ति नाशाय समृद्धवेगाः। तथैव नाशाय विशन्ति लोका स्तवापि वक्त्राणि समृद्धवेगाः ॥२६ ।। अन्वयः। यथा समृद्धवेगाः पतंगा ( शलभाः) नाशाय ( मरणाय ) प्रदीप्त ज्वलनं ( अग्नि ) विशन्ति; तथा एव समृद्धवेगाः लोकाः (प्राणिनः ) अपि नाशाय तव वक्ताणि विशन्ति ॥ २९॥ .. ___ अनुवाद। जैसे पतंग समूह मरनेके लिये अति वेगसे अग्निमें प्रवेश करते हैं, उसी प्रकार लोक समूह भी मृत्युके लिये अति वेगसे तुम्हारे मुखसमूहमें प्रवेश करते हैं ।। २९॥ व्याख्या। जैसे जलती हुई अग्निशिखामें पतंग समूह वेगसे जाकर जलकर भस्म हो जाता है, वैसे ही उत्पत्तिलयशील, असत् Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकादश अध्याय ८५ : अज्ञानताके आश्रय समूह (दृश्य जो कुछ ) तुम्हारे मुखमें गिरकर अदृश्य हो जाते हैं । जैसे सूर्यालोकमें आंधियारा ॥ २६ ॥ लेलिह्यसे असमानः समन्ता___ लोकान् समप्रान् वदनैबलद्भिः। . तेजोभिरापूर्य्य जगत् समय .. भासस्तवोग्राः प्रतपन्ति विष्णो ॥३०॥ अन्वयः। ज्वलद्भि ( वक्त ) समग्रान् लोकान् असमानः ( अन्तः प्रवेशयन् ) समन्तात् ( सर्वतः ) लेलिह्यसे ( आस्वादयसि ), हे विष्णो ( व्यापनशील )! तव उग्राः (तीव्राः) भासः ( दीप्तयः) समयं जगत् तेजोभिः आपूर्य्य ( संव्याप्य ) प्रतपन्ति ( सन्तापयन्ति ) ॥ ३०॥ अनुवाद। ज्वलन्त वदन समूहसे समग्र लोगोंको ग्रास करके सर्वतोभाषसे स्वाद ग्रहण करते हो। हे विष्णो । तुम्हारी उग्र दीप्ति समूह समग्र जगत्को तेजसमूहसे परिव्याप्त करके सन्तापित करती है ॥ ३०॥ व्याख्या। साधक ! तुम अपने साधनजात अवस्थाको इस अवस्थाके साथ मिला लो, और शंकाशून्य हो जाओ। अखण्ड काल को भूत, भविष्यत् तथा वर्तमान इन तीनों खंडोंसे बांधा गया है केवल परिणामको समझनेके लिये। अति सूक्ष्म वर्तमानसे खिसक जानेही से परिणाम शेष होता है, अर्थात् अपरिणामीके गर्भमें प्रवेश करता है। वह अपरिणामी अवस्थाही विष्णु वा व्यापनशी अवस्था है। कालके क्रम अनुसार ( क्रियाकालमें ) साधक जब प्रवाहाकारसे अपरिणामीमें उन परिणामियों के परिणाम देखते हैं (अर्थात् वर्तमान दृश्य पदार्थ जब भूतके गर्भमें प्रवेश करता है, देखते हैं ), तब साधक को भी इसका अनुभव होता है,-अहो! यह जो. परिणामी विश्वसंसार है, यह जैसे एक अतुल प्रतापवान तेजोमय मुखमें प्रवेश करता है, और वह विश्वभोक्ता मुख जैसे चबाचबा कर विश्वका खाद लेते हुए समस्त विश्वको उदरस्थ करते हैं ॥३०॥ Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीमद्भगवद्गीता आख्याहि मे को भवानुग्ररूपो नमोऽस्तु ते देववर प्रसीद । विज्ञातुमिच्छामि भवन्तमाद्य न हि प्रजानामि तव प्रवृत्तिम् ॥ ३१॥ अन्वयः। उग्ररूपः (मतिफराकारः ) भवान् कः इति मे ( मह्य) आख्याहि (कथय ) ते ( तुभ्यं ) नमः अस्तु, हे देववर! प्रसीद (प्रसन्नो भव ); आद्य (पुरुष) भवन्तं विज्ञातुं इच्छामि, हि ( यस्मात् ) तव प्रवृत्ति (चेष्टा ) न प्रजानामि ॥ ३९ ।। ___ अनुवाद। हे उग्ररूप तुम कौन हो?-मुझसे कहो। तुमको नमस्कार है। हे देवधर । प्रसन्न होईये। हे आदि पुरुष तुमको मैं विशेष रूपसे जानना चाहता हूँ, क्योंकि तुम्हारी प्रवृत्ति ( काम काज ) मैं नहीं जानता ॥ ३१ ॥ - व्याख्या। उस अद्भुत अवस्थामें पड़कर साधकके मनमें युगपत् उत्साहके साथ तमोपारमें क्या है उसे जाननेके लिये बड़ी व्याकुलता उत्पन्न होती है। उससे मालूम होता है कि, यह क्या है ! सब भूतोंमें सूक्ष्म तो आकाश है; चर्मचक्षुके दृष्टिसे उस आकाशका रूप अति दूर होनेके कारण भ्रमवश नीलिमाकारका प्रकाश होता है। . परन्तु अब तो मैं अखि बन्द किये हुये हूं। सुतरां अब आकाशसे भी अतिसूक्ष्म अपरूप रूपकी लीला देखता हूँ। फिर उस सूक्ष्मको भी प्रास करके पेटके भीतर जो भर रहे हैं, वह सूक्ष्मातिसूक्ष्म कौन हैं ? "आख्याहि मे"-मुझसे कहो, “को भवानुग्ररूपः" इतनी प्रखर मूर्ति तुम कौन हो ? मानवोंसे आकाश-वासी देवतागण श्रेष्ठ हैं; परन्तु तुम उन सबसे भी श्रेष्ठ हो। अतएव हे देववर ! नमोस्तुते ! हे श्रेष्ठोंके श्रेष्ठ, तुमको नमस्कार है, "प्रसीद"-प्रसन्न होईये, दया कीजिये । "विज्ञातुमिच्छामि"-विशेष कर मैं तुम्हें जानना चाहता हूँ, तुम्हारा आदि, अन्त, मध्य, प्रवृत्ति और चेष्टा मैं समझ नहीं सकता ॥ ३१ ॥ Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकादश अध्याय Ae - श्रीभगवानुवाच । कालोऽस्मि लोकक्षयकृत् प्रवृद्धो लोकान् समाहत्तमिह प्रवृत्तः। ऋतेऽपि त्वां न भविष्यन्ति सर्वे येऽवस्थिताः प्रत्यनीकेषु योधाः ॥ ३२ ॥ अन्वयः। श्रीभगवान् उवाच। लोकक्षयकृत् (लोकानां क्षयकर्ता ) प्रवृद्धः (अत्युत्कटः) कालः अस्मि; लोकान् समाहत्त' (संहत्त) इह ( अस्मिन् काले ) प्रवृत्तः ( अस्मि ), ( अतः ) त्वां ऋते अपि (त्वां हन्तारं विना अपि) सर्वे योधाः (योद्वारः) ये प्रत्यनीकेषु ( प्रतिपक्षभूतेषु अनीकेषु ) अवस्थिताः न भविष्यन्ति ॥३२॥ अनुवाद। श्रीभगवान् कहते हैं, मैं लोकक्षय करनेवाला अत्युत्कट काल हूँ, अब लोक समूहको संहार करनेके लिये मैं प्रवृत्त हुआ हूँ; ( अतएव ) तुम्हारे बिना (तुम हनन न करनेसे भी) समुदय योद्वागण जो उभय सैन्यदलमें अवस्थित है, उनमेंसे कोई भी जीवित न रहेगा ॥ ३२ ॥ व्याख्या। प्रकृतिस्थ आत्महारा साधक पूर्वमें जो जो देख आये हैं, निजबोध ज्ञान अनुसार उसीका विचार मीमांसा करते हैं। यही "भगवानुवाच" वावयसे व्यक्त होता है। ___ साधक विचार करते हैं कि, मैं जो देखता हूं उन्हें तो आंख बन्द करके ही देखता हूँ। क्या आंख बन्द करनेसे भी देखा जा सकता है ? ताकते हुए आंखसे ही तो लोग अपने शरीरसे अलग (पृथक् ) अन्य पदार्थों को जो कुछ बाहर देखता है, उसीको तो देखना कहते हैं। यह फिर कैसा देखना है ? इनमेंसे एक भी तो बाहर नहीं है। सब कुछ तो हमारे ही भीतर है। ओ हरि ! हरि !! तब तो सृष्टिस्थिति लयकी समस्त क्रिया मेरे ही भीतर होती हैं, तौभी न तो मैं उन सबको छूता हूं, न कुछ करता ही हूं; ऐसा कि मुझमें कुछ भी अदल बदल होना दिखाई नहीं देता। इसीलिये तो कर्म मात्रके परिसमाप्तिका स्थान मैं ही मैं हूँ ? अहो ! यह मैं कौन हूँ ? जिसका Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीमद्भगवद्गीता कर्म ही खाद्य है, वही कर्मभुक मैं हूँ ? यह मैं क्या समझता हूँ ! यह मैं कौन हूँ ? "कालोऽस्मि लोकक्षयकृत् प्रवृद्धो”-अतिमहान् .. असीम लोकक्षय करनेवाला. काल ही मैं हूँ ! इस समय उन लोक : मात्रके संहरणमें ( संहारमें ) प्रवृत्त हुआ हूँ ! ओ अर्जुन ! वह जो दोनों पक्षमें युद्ध करनेके लिये जो सब आये हुए दिखाई पड़ते हैं, भविष्यत्में तुम्हारे बिना उनमेंसे एक भी जीता नहीं बचेगा (क्योंकि, साधक देखते हैं कि, उन्हीं में सबका परिणाम होता है, परन्तु वह आप अपरिणामी हैं ) ॥ ३२॥ तस्मात् त्वमुत्तिष्ठ यशो लभस्व - जित्वा शत्रन भुक्ष्व राज्यं समृद्धम् । मयैवैते निहताः पूर्वमेव निमित्तमात्रं भव सव्यसाचिन् ॥ ३३ ॥ भन्वयः। तस्मात् त्वम् ( युद्धाय ) उत्तिष्ठ; यशो लभस्व, शत्रन् जित्वा समृद्ध राज्यं भुक्ष्म; एते ( तव शत्रवः ) युद्धात् पूर्व एष मया ( कालात्मना ) निहताः (प्राणवियोजिताः ); हे सव्यसाचिन् । ( त्वम् ) निमित्तमात्रं भव ॥ ३३ ॥ भनुवाद। अतएव तुम ( युद्धार्थ ) उठो, यश लाभ करो; शत्रुओंको जय करके समृद्ध राज्य भोग करो; ये सब ( तुम्हारे शत्रु गण ) युद्धके पूर्व में हो हमसे निहत हो चुके हैं। हे सव्यसाचिन् । तुम इस संहार में केवल निमित्त मात्र होओ ॥ ३३ ॥ व्याख्या। अतएव अब तुम्हारी शंकाका तो कोई विषय है ही , नहीं। चिदाभासादि प्राकृतिक जो कुछ है, वह सब ही मायामुक्त अहंकारका धोखा है। जिस रोज जीव असल मैं को भूल कर नकली मैं का आश्रय कर लिया है, उसी दिनसे ही जीव मर-धम्मी हुआ है। तब तुम्हारे फिर विषण्ण होनेका कारण क्या है ? नियतिके यशसे सबहीको हमारे इस कालरूपी प्रासमें गिरना ही पड़ेगा। अतएव तुम युद्धके लिये उठो। Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकादश अध्याय ८६ "उत्तिष्ठ”-युद्धार्थ उठ बैठो। युद्धके समय रथीको रयके ऊपर बीरासनसे दृढ़ और संयत होकर बैठना होता है। अर्जुन आत्मीय स्वजनादिकोंके बधकी चिन्तासे कृपा-परवश होकरके शरके साथ धनुष को भी परित्याग कर मेरु ढिला करके, हाथ जोड़कर बीरासन शिथिल करके पालती मारकर बैठ गये थे। इसलिये भगवान कहते हैं "उत्तिष्ठ" अर्थात् युद्ध करनेके लिये उपयुक्त रूपसे उठकर बैठो। साधकको भी साधन समयमें ठीक वैसीही अवस्था होती है, अवसाद के बाद साधकको भी उठके बैठना होता है, अर्थात् दोनों पगोंको उपदेश अनुसार आसन-बद्ध करके मेरुदण्ड सीधा कर छाती फुला, शरीरको संयत करना होता है; और मनको पञ्चतत्त्वोंके ऊपर "प" स्थानमें अर्थात् मस्तकप्रन्थिके ऊपर स्थापन करना होता है। इसी प्रकार उठ बैठ कर प्राणायामादि क्रियाएं (साधन युद्ध ) करनी होती हैं। इस श्लोकमें "उतिष्ठ" शब्द द्वारा यही उपदेश किया गया है। तत्पश्चात् भगवान् कहते हैं “यशो लभस्व”—यश लाभ करो। यश किसे कहते हैं ?-सत्-कम्मोके फलसे सबके ऊपर स्वभावतः आत्मप्रभाव विस्तार होना ही यश है। साधनामें सिद्धिलाभके पहले प्राकृतिक प्रभाव ही बलवान रहता है, आत्मप्रभाव दबा रहता है। सिद्धिलाभ होनेके बाद प्राकृतिक प्रभाव निस्तेज हो जाता है, और आत्म-प्रभाव सतेज होता है; यही यश है, यही कैवल्यकी सूचना है, अर्थात् 'मैं' व्यतीत और समस्तको छोड़कर अकेला बनना, संकोचता नाश करके विस्तार होना अवस्था है । "जित्वा शत्रून् भुक्ष्व राज्यं समृद्ध"-(द्वितीय अः ८म श्लोककी व्याख्या देखिये ।) शत्रु पक्षको अर्थात् दुर्योधन प्रभृति कामादि रिपुगणको जय करके निष्कण्टक राज्य भोग करो, अर्थात् जीवन्मुक्त होकर शरीरान्त न होने पर्य्यन्त, जैसे आकाश निलिप्तताके कारण Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीमद्भगवद्गीता प्रबल वायुको ताड़नाका बोध नहीं करता, उसी तरह तुम भी निलिप्त होकर माया और मायावियोंका भोग करते चलो। परिशेषमें कहते हैं-'हे सव्यसाची! मैंने इन सब लोगोंको पूर्व से ही निहत कर चुका है, इसमें तुम केवल निमित्त मात्र हो जाओ'। भगवानके इस वचनसे एक महान् जटिल समस्याकी मीमांसा हो गई । संसारमें मनुष्य 'मैं करता हूं मैं करता हूँ' इत्यादि कह करके वैषयिक अहंकारसे मतवाला होकर आत्महारा हो रहा है। असल में कर्ता क्या मनुष्य है ? नहीं, मनुष्य कर्त्ता कभी नहीं हो सकता; मनुष्य कम्मोका निमित्तमात्र है, कर्मके फल संयोजनके लिये अलग कोई एक अद्वितीय विधाता है। इसलिये मनुष्योंको कर्म मात्रमें अधिकार है, फलमें उनका अधिकार नहीं। मनुष्य निमित्त हो करके किसी एक कर्मका प्रारम्भ कर सकता है,-दो को अथवा उससे अधिक वस्तुओं को, (जैसे चूना हल्दी ) इकट्ठा मिला दे सकता है। यह मिला देनेकी क्रिया मनुष्योंके आधीन है, परन्तु चना और हल्दी परस्पर मिल करके रासायनिक क्रिया द्वारा उन दोनोंमें जो लाल रंग उत्पन्न होता है, उसमें मनुष्योंकी कोई शक्ति नहीं चलती। वही विधाताका ( उनका लाल रंगमें परिवर्तित होना) विधान है; उस विधानका कभी उल्लंघन नहीं होता। हल्दी और चुनेको इकट्ठे मिलानेसे सर्वदा लाल रंग ही होगा, कभी कोई काला या किसी दूसरे प्रकारके रंग नहीं कर सकता। उसी प्रकार जलजन् वाष्प ( हाईड्रोजन ) दो अंश, और अम्लजन् वाष्प ( अक्सिजेन् ) एक अंश एक साथ मिलनेसे जल उत्पन्न होवेगाही; इसका व्यतिक्रम कोई कभी भी कर नहीं सकता। ये सब विधान सृष्टिके पहले ही से बँधा हुआ है। अतएव जबही उस प्रकार कर्माका अनुष्ठान होगा, तब फल भी लसी प्रकारका फलेगा। जगत्के प्रत्येक व्यापारमें ही कर्म और कर्मफलविधानके सम्बन्धमें सर्वदा यही एक नियम अटल है, मनुष्य निमित्त Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकादश अध्याय मात्र है, फलबिधाता वही 'मैं' रूपी अद्वितीय अचिन्त्य पुरुष है। अब यह जो समय उपस्थित हुमा है ( इसे ऐतिहासिक कथा मानलो अथवा योगसाधनकी कथा मानलो ), इसमें भी वह एकही विधान वर्तमान है। इन दोनों सैन्योंके मध्य भागमें खड़ा होनेके पूर्वसे ही इस युद्धघटिव जितने कर्मों के अनुष्ठान हो चुके हैं-यम नियमादि जिन सब योगाङ्ग साधन द्वारा सव्यसाची अवस्था लाभ किया हुआ,. उसका अवश्यम्भावी फल-अनिवार्य विधान यह है कि, अब प्राणायाम-रूपी शर चालन करनेसे ही भीष्म, द्रोणादिकके साथ दुर्योधनादि वृत्ति समूह निश्चय लयप्राप्त होवेगाही, आपही आप होगा क्योंकि वे सब पूर्वहीसे 'मयैव निहताः' हो चुके हैं, अर्थात् मैं रूपी विधाताके कर्मफल विधानके विधानसे सब कुछ ठीक ठीक तैयार है, इसके विपरीत उनके लिये और कुछ हो ही नहीं सकता। प्राणायाम करना केवल निमित्त मात्र है। साधक सब्यसाची होकर अब जिस अवस्था में उपस्थित हुये हैं, उसमें इच्छासे चाहे अनिच्छासे हो, अवश्य साधकको इस निमित्तका नामी बनना पड़ेगा; किसी तरह भी साधक इस निमित्तसे बच नहीं सकते। क्योंकि 'स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य त्रायते महतो भयात्' इस वाक्य अनुसार साधकको पुनः पार्थिव अंशमें विशेष लपटना नहीं पड़ेगा, तत्पश्चात् “पूर्वाभ्यासेन तेनैव ह्रियते ह्यवशोऽपि सः” इस वाक्य अनुसार साधकको अवश होकर ब्रह्ममुखी होना ही पड़ेगा, बाद इसके 'कत्त नेच्छसि यन्मोहात् करिष्यस्यवशोऽपि तत्' इसी वाक्यके अनुसार साधकको कर्मफलके वशमें पड़कर इच्छा न रहनेसे भी बाध्य होकर कम करना ही पड़ेगा। इस कारण साधक कर्मसे छुटकारा नहीं पाते। जो कम कर चुके हैं उसके फल से उनको अवश्य 'निमित्त' होना ही होगा। अतएव अपनी इच्छासे यदि साधक निमित्त न होंगे, तो प्रकृतिके ऊपर निज आत्मप्रभाव विस्तार रूप यशोलाभ नहीं कर सकते-"असपत्नं ऋद्धं राज्य" का Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ श्रीमद्भगवद्गीता भोग नहीं होगा-चिराकांक्षित जीवन्मुक्तिको भी प्राप्त नहीं कर सकते; उनको निरर्थक लीन हो जाना पड़ेगा, और उस अपूर्ण आकांक्षाके लिये उनमें संसारबीज रह जायगा, इसलिये कालवशसे साधकको फिर संसार-मार्गमें आना ही पड़ेगा; (क्योंकि आकांक्षा करनेका यही गुण है कि कभी न कभी कालान्तरमें उसका फल फलेहोगा, बिना भोग किये उसका क्षय नहीं होता * 1) यदि आकांक्षा न किया जाय, तो और कोई बखेड़ा नहीं रहता, परन्तु यह असम्भव है, क्योंकि, कार्यप्रवृत्तिका मूल आकांक्षा ही है; इसलिये आकांक्षाका फल भोग किये बिना कदापि निरकांक्ष नहीं हुआ जाता,-ध्रुवर्का राज्य भोग ही इसका ज्वलन्त हटान्त है। यदि साधक अब भी अपनी इच्छासे 'निमित्त' हो जायँ, तो सर्वत्र उनका आत्म-प्रभाव विस्तार होकर प्रकृति-वशी रूप यशोलाभ होगा, जीवन्मुक्त अवस्थाकी प्राप्तिसे सब आकांक्षाओंकी परितृप्ति होकर वासना बीज नष्ट हो जायगा, और इसीसे फिर संसारमें जन्म नहीं होगा। इस कारण भगवान कहते हैं कि-कर्मफल विधानके द्वारा, मैंने पूर्वसे ही इन सबको निधन कर रखा है-( अर्थात् क्या होगा अथवा क्या नहीं होगा इन सबको पहिले हो से मैंने ठीक कर रखा है ), तुम केवल 'निमित्त' होकर, भोग द्वारा प्रारब्धको क्षय करके निबींज समाधि लाभ करो। आसनसिद्ध साधक केवळ स्थिरासनमें बैठकर "सहज कर्म" का अनुष्ठान करनेसे ही उनकी आपही आप सब क्रिया हो जाती हैं * जिस अभिलाषको पूरण करने के लिये किसो कम्मका अनुष्ठान किया जाता है, वही सचेष्ठ अभिलाष ही ठीक आकांक्षा है, और वही बन्धन है, भोग बिना उसका क्षय नहीं होता। और जो अभिलाष अनुष्ठानविहोन कल्पना मात्र है, वह ठीक ठीक आकांक्षा नहीं है, इसलिये वह बन्धन नहीं है और उसका फल भी नहीं फलता; परन्तु वह चित्तविक्षेपको उत्पन्न करके कर्मानुष्ठानमें बाधा डालता है ॥ ३३ ॥ Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकादश अध्याय योगके सब प्रकारका फल उत्पन्न होते हैं। जैसे शय्या पर लेटते रहनेसे 'निद्राके आक्रमण करने पर पूर्वकृत कर्मफल के लिये स्वप्नमें विविध अवस्थाका भोग और नाना प्रकारके दर्शन श्रवणादि होते हैं, परन्तु वह अलीक है, उसी प्रकार स्थिरासनमें बैठकर गुरूपदेश अनुसार क्रिया करते रहनेसे आपही आप योगनिद्राके आविर्भावसे "प्रबोध-समयका" उदय होता है, उस समय प्रबुद्ध होकर अद्वय आत्माका ("आत्मानमेवाद्वयं") साक्षात्कार लाभ होता है, वह सब सत्य और अभ्रान्त है। शय्या पर सो रहनेके सदृश साधकको स्थिरासनमें बैठकर कर्ममें लगे रहनेका नाम ही निमित्त होनेका अवश्यम्भावी चिरन्तन फल यह है कि, आत्मभावके द्वारा संसारवासना और तदनुकूल वृत्ति समूह सब लय हो जाते हैं, पुनरूद्भवकी फिर सम्भावना ही नहीं रहती। भगवानने अर्जुनको सव्यसाची कहकर सम्बोधन कर, अर्जुन जो निमित्तकारण होनेका उपयुक्त पात्र हुये हैं, उसी विषयका लक्ष्य करा दिये हैं। जिनके दहिने तथा वाए, दोनों हाथमें अव्यर्थ सन्धान रहता है। उन्हींको सव्यसाची कहते हैं। साधकको भी जब ठीक सुषुम्नाके भीतर वायुचालन होता है, तब श्वासप्रश्वास युगपत् दोनों नासिकामें ही सरल भावसे चलते रहते हैं, और वायुकी आकर्षण तथा विकर्षणकी गति भी समान ( बरोबर ) हो जाती है, और दशांगुलि प्रवेश, तथा द्वादशांगुलि बाहर पाना भी मिट जाता है; उस समय विषमता रहती ही नहीं। जो साधक इस अवस्थापन्न हैं उन्हींको सव्यसाची कहते हैं। इस अवस्था में साधक को निर्लिप्तता छाये रहती है। तौभी असाधक लोग निमित्त दोष लगा देते हैं। इसलिये कहा गया है कि तुम निमित्त मात्र हो जाओ ॥२३॥ Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४ श्रीमद्भगवद्रीता द्रोणध भीष्मथ जयद्रथम .. कर्ण तथान्यानपि योधवीरान् । मया हतास्त्वं जहि मा व्यथिष्ठा , युध्यस्व जेतासि रणे सपत्नान् ॥ ३४॥ अन्वयः। त्वं मया हताम् द्रोणं च भीष्मं च जयद्रथं च कर्ण तथा अन्यान् अपि योधवीरान् जहिं ( घातय ), मा व्यथिष्ठा ( तेभ्यः भयं मा कार्षीः ), युध्यस्थ, सपत्नान् ( शत्रन् ) रणे जेतासि ( जेष्यसि ) ॥ ३४ ॥ अनुषाद। हम से निहत किये हुये द्रोण, भीष्म, जयद्रथ, कर्ण और दूसरे युद्ध करने वाले वीर गणको भी तुम हनन करो, भयभीत नहीं होना; शत्रुगणको युद्धमै जय कर सकोगे, अतएव युद्ध करो ॥ ३४ ॥ . व्याख्या। द्रोणसंस्कारजनित बुद्धि, भीष्म - अविद्याजनित अहंकार वा चिदाभास; जयद्रथ = अभिनिवेश वा मृत्युभय; कर्ण = कर्त्तव्यमें अनुराग ( १ म अः ८ । ६ श्लोक देखो) और दूसरे कामसहचर वीरगण, उस नकली 'मैं' का आश्रय लेके पहले ही से मर चुके हैं। और अर्जुन तुम ? तुम असली 'मैं' में रहकर विपक्षियों को युद्ध में जय तो कर चुके हो-अब इसमें और क्या शंका है ? ॥३४॥ सञ्जय उवाच । एतच्छ्र त्वा वचनं केशवस्थ कृताञ्जलिर्वेपमानः किरीटी। नमस्कृत्वा भूय एवाह कृष्णं _____ सगद्गदं भीतभीतः प्रणम्य ॥ ३५ ॥ अन्वयः। संजय उवाच । केशवस्य एतत् वचनं श्रुत्वा वेपमानः ( कम्पमानः ) फिरोटी ( अर्जुनः) कृताञ्जलिः ( सन् ) कृष्णं नमस्कृत्वा भीतभीतः ( सन् ) प्रणम्य (च) भूयः एव सगदग्दं आह ॥ ३५ ॥ Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकादश अध्याय अनुवाद। संजय कहते हैं,-केशवके यह वचन श्रवणानन्तर कम्पमान अति भीत अर्जुन, कृताञ्जलिसे कृष्णको नमस्कार तथा बारंबार प्रणाम करके गद्गद वचन से कहते हैं ॥ ३५ ॥ व्याख्या। असिद्ध साधक ब्राह्मीस्थितिमें अटक रहने अथवा अनुभवसिद्ध विचारको लेकर उत्तरगतिके क्रमसे ऊंचे उठने अधिक क्षण नहीं सकते। इसलिये उनको नीचे उतर आना पड़ता है। नीचे आकर वे जो अनुभव प्रत्यक्ष करते हैं, वह भी आज्ञाचक्रसे ही होता है। पृथिव्यादि पांच भूत मूलधारादि पांचों चक्रमें हैं, ये पांचों भूत हो सर्व कहलाते हैं। आज्ञाचक इन पांचों चक्रके ऊपर है। नीचेवाले पांचोंको जय किये बिना आज्ञाचक्रमें रहनेका अधिकार नहीं मिलता। जो साधक इस आज्ञाचक्रमें रहते हैं, वही पञ्चमयी हैं और उन्हींको सञ्जय (सं+जय ) कहा जाता है। (१म अः १म और २१वां श्लोक और ११श हवा श्लोक देखो)। "केशव"-के-जळमें, और शव मृतदेह है। अर्थात् प्रलयके बाद प्रलय रसमें जो अनन्तरूपसे शवके सदृश निश्चिन्त और खारा पानीमें लवणके सदृश भासमान रहते हैं, जिस अवस्थामें सृष्टिकी अर्थात् उत्पादित्वका (समागम का) हर्ष, और संहारका अर्थात् प्रलय ( अपगम ) का विमर्ष नहीं रहता, ऐसे अवस्थापन्न जो पुरुष हैं, उन्होंको केशव कहते हैं (१०म अः १४वां श्लोक देखो)। साधक जब केशवावस्थाका भोग करके नीचे उतर आये, तब उस केशवकी पूर्वावस्थाकी स्मृति, केशव अवस्थाका अनुभव और वर्तमान अवस्थाके ज्ञान, यह सब मिलकर जो सरस विभोरता होती है, वही केशवका वचन सुननेका आभास है। "कृतान्जलि"। इस समय ऊर्ध्वदिशामें लक्ष्य रहनेसे भी ऊपर उठनेवाली शक्ति नहीं रहती। तथापि ऊर्वमें लक्ष्य रहने के कारण Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६ श्रीमद्भगवद्गीता निम्नगतिका भी रोध होता है। यह जो दोनों गतिओंके एकत्र मिलनेसे स्तम्भन अवस्था है, इसीको कृताञ्जलि कहा हुआ है। __ "वेपमान"। भोग्यवस्तु सम्मुखमें वर्तमान हैं, ऐसे समयमें स्पर्श करनेके पूर्व में अत्यन्त आसक्तिके कारण दुर्बलतासे आत्मकम्पन होता है, उसीको वेपमान अवस्था कहते हैं। "किरीट" अर्थात् शिरोभूषण। असिद्ध तथापि सर्व प्रकारसे प्रबल उत्साह-युक्त साधककी संज्ञा किरीटी है; अर्थात् जो साधक कार्य और गुणसे सकल साधकोंके शीर्षस्थानीय है, साधकों में उसको किरीटी कहते हैं। बड़ा हरे, बड़ा दुःख, बड़ा भय, बड़ा विस्मय, बड़ा स्नेह, बड़ा उत्साह आदि वृत्तिसमूह एकह मिल करके युगपत् भीतरसे बाहर आकर प्रकाश होनेकी चेष्टा करनेसे अश्रुपूर्ण-नेत्र और कण्ठरोध हो करके जिस अस्पष्ट स्वरका उच्चारण होता है, उसीको “गद्गद्" कहते हैं। 'भीतभीतः प्रणम्य'। हृदयमें जब ऊपर वाली अवस्था समूहका युगपत् आविर्भाव होता है, उस समय यदि प्राणका प्राण हट जाय, यह आशंका करके साधक बार बार भयसे भीत होते हैं। उनका अहंकार सब दूर हो जाता है, और नत हो करके अन्तरस्थ वायुका वेग धारण कर नहीं सकते। सुन्दर कण्टकहीन ( सरल ) दीर्घ निश्वास और प्रश्वासका त्याग और ग्रहण करते हैं। विषय-वृत्तिका एकदम निरोध होता है, अयच ऐसी विभूतिसे मिला हुआ रहनेसे ब्रह्मनाड़ीके ठीक मध्यसे श्वासके क्रममें चलने फिरनेसे ऊंची नीची गति होती है; इसीको ही प्रणाम कहते हैं। इस समय मुक्तिदाताके ऊपर आपही आप जो प्रेम स्वतः उत्पन्न हो जाता है वही कृष्णको कहनेका इङ्गित है। इस अवस्थामें मायिक (चिदाभास कर्मज संस्कार और कर्तव्यादि ) किसी वृत्तिका प्रकाश नहीं रहता। इसलिये वासनाका Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकादश अध्याय भय और साधनाका जय होनेसे मुक्ति वा चिरशान्ति निश्चय होती है। इस दृढ़ बोधके प्रकाश पानेसे 'सब्जय उवाच' कहा हुआ है॥३५॥ अर्जुन उवाच । स्थाने हृषीकेश तव प्रकीर्त्या जगत् प्रहष्यत्यनुरज्यते च । रक्षांसि भीतानि दिशो द्रवन्ति सर्वे नमस्यन्ति च सिद्धसंघाः ॥ ३६ ॥ अन्वयः। अर्जुनः उवाच। हे हृषीकेश ! तव प्रको| (त्वन्माहात्म्यकीतनेन ) जगत् प्रहृष्यति (प्रहर्षमुपैति) अनुरज्यते च ( अनुरागं च उपति), रक्षांसि भीतानि ( सन्ति ) दिशः द्रवन्ति ( पलायन्ते ), सिद्धसंधाः (सिद्धसमूहाः) सर्वे च नमस्यन्ति-(एतब )स्थाने ( युक्तमेव ) ॥ ३६॥ . अनुवाद । अर्जुन कहते हैं । हे ह्रषीकेश ! तुम्हारे माहात्म्य कीत्त'नसे जगत् प्रहृष्ट और अनुरागयुक्त होते हैं, राक्षसगण भीत हो करके दश दिशामें दौड़ते हैं। और सिद्धसमूह नमस्कार करते हैं, ये समस्त ही युक्तियुक्त है ॥ ३६ ॥ व्याख्या। पुनः साधक प्रकृतिस्थ हो करके पूर्वको अनुभूति स्मरण करके मनही मनमें कहते हैं कि, हे हषीकेश ! तुम्हारी इस अलौकिक विभूतिके प्रत्यक्ष होनेसे तुम्हारे ऊपर जगत्का जो अनुराग होवेगा इसमें सन्देह क्या है ? इस पन्थमें देखता हूँ कि अत्याचारी अनाचारी राक्षसगण ( काम, क्रोधादि रिपुगण) भयभीत होकर दश दिशा में दौड़ते हैं। और जगत् जैसे इस खुशियालीसे अनार सदृश फट करके अपने हृदयमें परिपूर्णत्व दिखलाता है। (साधक जब क्रियाकी परावस्थाकी पूर्वावस्था और परावस्थाकी परावस्थामें इस अरूपका रूपका दर्शन और स्मृतिका अनुभव करते हैं; तब उस जगदानन्दके आनन्दमें विभोर [ मतवाला ] हो जाते हैं )। जो लोग प्राप्तिकी Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीमद्भगवद्गीता प्राप्तिको पा चुके हैं, वे ही सब महाजनगण एक दृष्टिसे तुमको देखते हुये 'तुम और मैंको' एक करके प्राणायामसे तुमको नमस्कार करते हैं। अहो! क्या ध्रुव सच्चीवाणी है। यह कार्य भी ठीक उचित होता है । प्रभो ! तुम्हारा कीर्तन कैसा है, पहले मैं उसे नहीं जानता था। परन्तु अब देखता हूँ, जीम उलटके दांत और ओष्ठ सम्पूट करके गुरूपदिष्ट क्रियामें मूलाधारसे यथानियम अनुलोम विलोमसे जो प्राणका परिचालन है (जिससे 'तुम मैं' एक होता है ) यही तुम्हारा मुख्य कीर्तन है ॥ ३६॥ कस्माच्च ते न नमेरन्महात्मन् गरीयसे ब्रह्मणोऽप्यादिकरें। अनन्त देवेश जगन्निवास त्वमक्षरं सदसत्तत् परं यत् ॥ ३७॥ अन्वयः। हे महात्मन् ! हे अनन्त । हे देवेश ! हे जगन्निवास ! ब्रह्मणः (हिरण्यगर्भस्य ) अपि गरीयसे (गुरुतराय ) आदिकत्रे च (ब्रह्मणोऽपि जनकाय ) ते (तुभ्यं ) कस्मात् ( हेतोः) न नमेरन् ( नमस्कारं कुय्यु:); त्वं अक्षरं ( कूटस्थं) सत् (व्यक्ती) असत् ( अन्यक्त) तत्परं यत् ( सदसदो अतीतं यत् अवाङ मनसोगोचरः तत् असि इत्यर्थः) ॥३७॥ ___ अनुवाद । हे महात्मन् । हे अनन्त ! हे देवेश ! हे जगन्निवास ! ब्रह्माजीसे भी गुरुतर और आदिकर्ता तुम हो, तुमको सब क्यों नहीं नमस्कार करेंगे? तुम अक्षर, सत् , असत् और उससे भी अतोत जो है ( वह भी) हो ॥ ३७॥ व्याख्या। मकड़ा अपने शरीरसे जाल विस्तार करता है। उसमें कीड़ा, पतंग, मचड़, मक्षिका फंसा करती हैं। कोई भागा कोई मरा। पुनः उस विस्तार किया हुआ जालको मकड़ाने अपने शरीरमें लपेट लिया। परन्तु जाल विस्तारके पहिले और जाल समेट लेनेके बाद विश्राम नामकी मकड़ेकी एक अवस्था होती है । देखता हूँ कि, जगत्के Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकादश अध्याय ६६ स्रष्टा ब्रह्माजीकी भी उसी अवस्था है। अष्टिके पहले और संहारके पश्चात् जो एक विश्राम अवस्था है, उसीको हिरण्यगर्भ नाम दिया गया है। हिरण्य रूपका राजा है; सुवर्गको देखनेसे जिस प्रकार उसके रूपसे मोहित होना पड़ता है उसी तरह यह विश्व भी रूपराशि सुवर्गसे भरा हुआ है। जिसकी ओर ताकोगे वही तुमको मोहित करेगा। जो देव मकड़ेके जाल सदृश इस विश्वको सृष्टिके पहले और संहारके पश्चात् अपने गर्भमें धारण कर रखते हैं, उसी देवका नाम हिरण्यगर्भ वा ब्रह्मा है। ___ यह जो इतना बड़ा विश्व देखते हो, मन भी जिसकी सीमा करने में हार जाता है, यह सुबृहत् विश्व भी ब्रह्माजीके पेटके भीतर रहता है। इसीसे समझ लो ब्रह्माजीका आकार कितना बड़ा है। और भी विश्राम कालमें ब्रह्माजी जिसके ऊपर विश्राम करते हैं, वह विश्रामभूमिका वा ब्रह्माजीका विश्रामवाला आधार कितना बड़ा और कसा है, वह मन बुद्धि और चित्तकी तो बात ही नहीं, परन्तु ब्रह्मदेवताके भी धारणाके अतीत है। इसलिये ब्रह्मासे भी वह गरीयस ( बड़ा) है। 'आधारके ऊपर आधेयकी उत्पत्ति और स्थिति (जैसे पृथिवीके ऊपर स्वेदज, अण्डज, उद्भिज्ज और जरायुज प्रजा हैं ) होनेसे आधार आधेयका आदि और कर्ता है। विश्वके उत्पादक और धारक होनेसे जगतके देवता ब्रह्माजी हैं। इसलिये वह ब्रह्माजीका आधार देवेश नाम पाया है। सत् =जो विद्यमान । असतू जो अविद्यमान । अक्षर = जिसका क्षय व्यय नहीं। तत्-विष्णुका परमपद; और परं ब्रह्म है। साधक! अब व्यापार क्या है यह भी देख लो! विद्यमानतुम्हारे जाननेमें जो कुछ है; अविद्यमान तुम्हारे अनजानमें जो कुछ है; वह सब ब्रह्मामें और उनके गभस्थ हिरण्यमें (अर्थात् विश्वमें और विश्वका कोष स्वरूप हिरण्यगर्भ में ) रह गया। परन्तु उनका वह Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०० श्रीमद्भगवद्गीता आधार-जिसमें परिणाम मात्रका अभाव है-जिसके ऊपर सब कुछ होता है, वह जैसे क्षय व्यय शून्य वैसा ही है, वही तुम्हारा अद्वितीय "त्वम्" है। सब देवतोंके वासस्थान हिरण्यगर्भ है, उस हिरण्यगर्भके भी वासस्थान वही 'त्वम्' है। इसलिये वह “त्वम्" वासुदेव है। अतएव कहा जाता है कि-हे महात्मन् ! हे अनन्त ! हे देवेश ! हे अगन्निवास ! जब ऐसे तुम हो, तब तुमको प्रणाम न करके और किसको प्रणाम करेंगे प्रमो? ॥ ३७॥ त्वमादिदेवः पुरुषः पुराण स्त्वमस्य विश्वस्य परं निधानम् । वेत्तासि वेद्यञ्च परब्च धाम त्वया ततं विश्वमनन्तरूप ॥ ३८.॥ अन्वयः। हे अनन्तरूप ! त्वम् आदिदेवः पुराणः (चिरन्तनः ) पुरुषः । त्वम् अस्य विश्वस्य परं निधानं ( लयस्थानं ); ( त्वम् ) वेत्ता (ज्ञाता ) नेयं च (वस्तुजातं च ) परं च धाम (वैष्णवं परमं पदं च ) असि, त्वया विश्वं ततं (व्याप्तं) ॥ ३८॥ अनुवाद। हे अनन्तरूप ! तुम आदिदेव और पुराण पुरुष हो; तुम इस विश्व के लयस्थान हो। (तुमही ) वेत्ता, वेद्य और परम धाम ( विष्णु पद ) हो; तुमसे विश्व व्याप्त हो रहा है ॥ ३८ ॥ व्याख्या। पहले साधक आधार में विश्वरूप देख चुके थे, अब विश्वरूपमें आधारको देखते हैं। 'त्वमादिदेव' हे प्रभो ! देखता हूं कि तुम प्रथमके भी प्रथम हो। इस माया-पुरमें सोये हुये तुमने 'पुरुष' नाम धारण किया है। समस्तका ही परिणाम है, केवलमात्र अपरिणामी चिरन्तन तुम हो। इस नाम रूपके शेष विश्राम स्थान वा आधार तुम हो। जाननेका जो कुछ है सो सब एकमात्र तुम ही जानते हो। पुनः जाननेका जो कुछ है, वह भी तुम ही हो। Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकादश अध्याय १०१ "धाम”-निवासस्थान, हरे : पदं तापहरणैक धाम; वह भी तुम ही हो। हे अनन्तरूप ! तुम इस विश्वमें और यह विश्व तुममें व्याप्त है। जैसे चीनीके शरबतमें जल और चीनी। इसीलिये परं (ब्रह्म ) भी तुम्ही हो ॥ ३८ ॥ वायुर्यमोऽग्निवरुणः शशांकः . प्रजापतिस्त्वं प्रपितामहश्च । नमो नमस्तेऽस्तु सहस्रकृत्वः पुनश्च भूयोऽपि नमो नमस्ते ॥ ३६॥ अन्वयः । त्वं वायुः यमः अग्निः वरुणः शशांकः प्रजापतिः ( पितामहः) प्रपितामहश्च; ते ( तुभ्यं ) सहस्रकृत्वः नमः नमः अस्तु, पुनश्च ( सहस्रकृत्वः नमः नमः अस्तु ), भूयोऽपि ते नमः नमः ॥ ३९॥ अनुवाद। तुम ही वायु, यम, अग्नि, वरुण, शशांक, प्रजापति और प्रपितामह हो, तुमको सहस्र बार नमस्कार है; पुनश्च नमस्कार है, फिर भी बार बार नमस्कार है ॥ ३९॥ व्याख्या। वायु कहते हैं वाहक को। हे नाथ ! आदिअन्तयुक्त जो कुछ है उसे तुम अपने शरीर में धारण करके वहन करते हो, इसलिये वायु भी तुम हो। यम भी तुम हो ( १०म अः २६ श्लोक), अग्नि भी तुम हो (हम अः १६ श्लोक ), वरुण भी तुम हो ( १०म श्रः २६ श्लोक)। शश शब्दमें लान्छन वा कलंक ( जो केवल फेकने की चीज ) है और अंक शब्दसे क्रोड़ वा गोदीका बोध होता है। जो प्रकाश ही प्रकाश, नित्य ही नित्य है, उसकी क्रोड़में अनित्य प्रकाश मायाको बैठा कर मायिकों का जो भ्रम दर्शन है, वही शशांक अवस्था है। वह भी तुम ही हो; क्योंकि, तुममें ही यह सब अवस्थाएं वर्तमान हैं। Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२ श्रीमद्भगवद्गीता "प्रजापति"-जीव-संसारका कर्ता (मालिक), जनयिता वा पिता, जिनसे प्रजा उत्पन्न होती है, जैसे दक्ष, कईम, कश्यप इत्यादि । यह भी तुम हो। इन सबके पिता ब्रह्मा जी हैं। पुनः वह ब्रह्मा तुम्हारे नाभिकमलसे उत्पन्न हुये हैं; अतएव तुम प्रपितामह हो। . इसलिये, हे पिता! हे पाता! हे धाता ! हे रक्षयिता ! तुमको नमस्कार ! नमस्कार !! पुनः तुमको बार बार नमस्कार है !!! ॥३६ ॥ नमः पुरस्तादथ पृष्ठतस्ते नमोऽस्तु ते सर्वत एव सर्व। अनन्तवीर्य्यामितविक्रमस्त्वं सर्व समाप्नोषि ततोऽसि सर्वः॥४०॥ अन्वयः। हे सर्व ( सर्वात्मन् ) ! ते ( तुभ्यं ) पुरस्तात् ( सम्मुखे ) अथ पृष्ठतः ( पश्चात् ) नमः, ते ( तब ) सर्वतः एष ( सर्वासु दिक्षु ) नगः अस्तु; अनन्तवीर्यामितविक्रमः ( अनन्तं वीर्य सामथ्यं यस्य तथा अमितो विक्रमः पराक्रमो यस्य सः एवम्भूतः) त्वं सर्व (समस्तं जगत् ) समाप्नोषि ( सम्यगेकेनात्मना व्याप्नोपि ); ततः (दस्मात् ) सर्वः । सर्वस्वरूपः असि ॥ ४० ॥ अनुवाद। हे सर्वात्मन् ! तुमको पुरोभागमें और पश्चात् भागमें नमस्कार है, तुम्हारी समस्त दिशाओं में नमस्कार है। अनन्त सामर्थ्य और अमित पराक्रमशाली तुम समस्त जगत्में सम्यक् रूपसे व्याप्त हो रहे हो, अतएव तुम सर्वस्वरूप हो ॥४०॥ व्याख्या। तुम्हारी पूर्व दिशामें नमस्कार करता हूँ, तुम्हारी पश्चिम दिशामें नमस्कार तुम्हारी उत्तर, दक्षिण, नैऋत, ईशान, वायु, अग्नि, अधः और ऊर्व समस्त दिशामें ही नमस्कार है। हे नाथ ! यह जो सर्व (विश्व ) है, यह तुमसे ही प्रकाश होकर पुनः तुममें ही विलीन होता है। इन सबका जो विक्रम और वीर्य है वह अति तुच्छ अर्थात् मित है ! और तुम ? जैसे जलमें रस, उस प्रकारसे तुम इस सर्वमें व्याप्त हो; और जैसे रसमें जल, उसी तरह सर्व तुममें Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । एकादश अध्याय १०३ रहता है। इसलिये तुम अनन्त हो। अतएव तुम्हारा वीर्य और विक्रम भी अनन्त है। हे अनन्त ! तुमको नमस्कार है ॥४०॥ सखेति मत्वा प्रसभं यदुक्तं हे कृष्ण हे यादव हे सखेति ।। अजानवा महिमानं तवेदं मया प्रमादात् प्रणयेन वापि ॥४१॥ यच्चावहासार्थमसतकृतोऽसि विहारशय्यासनमोजनेषु । एकोऽथवाप्यच्युत तत्समक्षं __तत् क्षामये त्वामहमप्रमेयम् ॥ ४२ ॥ अन्धयः। हे अच्युत ! तव इदं महिमानं ( माहात्म्यं तवेदमीश्वरस्य विश्वरूप) अजानता ( अज्ञानिना ) मया प्रमादात् (विक्षिप्तचित्ततया ) प्रणयेन (स्नेहेन ) पा अपि सखेति मत्वा ( समानवया इति ज्ञात्वा ) “हे कृष्ण, हे यादव, हे सखे" इतिः यत् प्रसभं (हठात् तिरस्कारण ) उक्त, यत् च अबहासार्थ (परिहासप्रयोजनाय ) विहारशय्यासनभोजनेषु (क्रीड़ादिषु ) एकः ( केवलः पखीन् विना रहसि स्थितः) अथवा तत् समक्ष ( तेषां परिहसतां सखीनां पुरतोऽपि ) असत्कृतः (तिरस्कृतः) असि, तत् ( सर्वमपराधजातं ) अहं अप्रमेयं (अचिन्त्यभाषं) त्वां क्षामये (क्षमा. कारये) ॥४१॥४२॥ अनुवाद। हे अच्युत। तुम्हारी यह महिमा मैं न जान करके प्रमाद वशतः अथवा प्रणय वशतः मनमें तुमको सखा मान कर "हे कृष्ण, हे यादव, हे सखे" इत्यादि जो हठात् तिरस्कार भाषसे सम्बोधन किया है, और जो परिहास करनेके लिये विहार शयन, उपवेशन और भोजन समयमें अकेले अथवा सबके सामने तिरस्कृत हुए हो, इसलिये मैं अप्रमेय तुमसे क्षमा चाहता हूँ॥४१॥ ४२ ॥ व्याख्या। हे नाथ! तुम महानसे भी महान् हो; तुम्हारी महिमा न जान करके साथी ज्ञान करके मैं प्रमादके घेरमैं और प्रणयः Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४ श्रीमद्भगवद्गीता में पड़ करके, तुमको (अप्रमेय होनेसे भी ) “हे कृष्ण! हे यादव ! हे सखा ! इत्यादि रूप-गुणात्मक नामोंसे सम्बोधन करते हुये प्रमाण के अन्तर्गत जो जो अनुचित शब्द कहा है, अथवा प्रत्यक्ष वा परोक्षमें शयन, उपवेशन, भोजन, और विहार इत्यादिमें अज्ञानतावश मैंने जो तुम्हारा असम्मान किया है, हे अच्युत ! मेरे वह सब दोष तुम क्षमा करो ॥४१॥ ४२ ।। पितासि लोकस्य चराचरस्य त्वमस्य पूज्यश्च गुरुगरीयान् । न त्वत्समोऽस्त्यभ्यधिकः कुतोऽन्यो लोकत्रयेऽप्यप्रतिमप्रभाव ॥ ४३ ॥ अन्वयः। हे अप्रतिमप्रभाव ! त्वं अस्य चराचरस्य लोकस्य पिता पूज्यः गुरुः गरीयान् च ( गुरुतरः च ) असि; लोकत्रये त्वत्समः अपि ( त्वत्तुल्यः एव ) अन्यः . न अस्ति, अभ्यधिकः ( त्वत्तोऽधिकः ) कुतः ( स्यात् ॥ ४३ ॥ अनुवाद। हे अप्रतिमप्रभाव ! तुम इस चराचर जगत्के पिता, पूज्य, गुरु और गुरुके भी गुरु हो; तीनों लोकमें तुम्हारे सदृश दूसरा कोई नहीं है, अतएव तुमसे अधिक और कहां है ॥ ४३n : व्याख्या। तुम स्थावर जंगमात्मक लोकजगत्के पिता हो; क्योंकि यह सब तुम्हीसे उत्पन्न होते हैं। केवल यही नहीं, इन सबके पूजनीय, गुरु और गुरुके भी गुरु तुम हो। इन सबके भीतर तुम्हारे सदृश वा तुमको अतिकम करनेवाला कोई भी नहीं है। तीनों लोकमें तुम्हारे प्रभावकी (क्षमताकी) सादृश्य नहीं है प्रभो! तुम्हारा प्रभाव प्राकृतिक चौबीस तत्वोंके प्रभावसे अतीत है इसलिये तुम अप्रतिम प्रभाव हो। तुम एक अद्वितीय हो ॥ ४३ ॥ Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकादश अध्याय १०५ तस्मात् प्रणम्य प्रणिधाय कायं प्रसादये त्वामहमीशमीड्यम् । पितेव पुत्रस्य सखेव सख्युः । प्रियः प्रियायार्हसि देव सोढुम् ।। ४४ ॥ अन्वयः। हे देव ! तस्मात् अहं कायं ( शरीरं ) प्रणिधाय ( नीचर्धत्वा दण्डवत् निपात्य ) प्रणम्य ( प्रकर्षेण नत्वा ) ईशं ईढ्य ( स्तुत्यं ) त्वां प्रसादये; पुत्रस्य ( अपराधं ) पिता इव ( यथा क्षमते), सख्युः ( अपराधं ) सखा, प्रियायाः (अपराध) प्रियः इव ( यथा क्षमते), ( तथा ) सोढुम् ( मम अपराधं क्षन्तु) अर्हसि ॥ ४४ ॥ ____ अनुवाद। हे देव ! इसलिये मैं शरीरको दण्डवत् गिराकर प्रणाम करके सर्वनियन्ता वन्दनीय तुमको प्रसन्न करता है। पिता जेसे पुत्रका अपराध क्षमा करता है, सखा जैसे सखा का और प्रिय जैसे प्रियाका अपराध क्षमा करते हैं, उस प्रकार तुम मेरे अपराधको क्षमा करो ॥ ४४ ॥ व्याख्या काय कहते हैं शरीरका मध्यभाग अर्थात् मेरुदण्ड (पीठकी रीढ़ ) को आश्रय करके जो अंश वर्तमान है, उसको। प्रणिधाय कहते है, दण्डवत् नीचे धारण करनेको। ईश्वरका प्रसाद प्राप्त करनेके लिये प्रणाम करनेका क्रम यही है; यह साधनाका उच्चतर-क्रम है। अर्थात् कायको दण्डवत् दृढ़ करके नीचेकी ओर फेकना होता है; नीचे फेकनेका अर्थ है गुरूपदेशके क्रमसे पञ्चतत्वके ऊपर उठना होता है, ऊपर उठ जानेसे ही-मनसे देहको पृथक करके केवल चित्का अवलम्बन करनेसे ही "प्रणिधाय काय” होता है। (यह अवस्था साधनमें निजबोधगम्य है )। इस प्रकार अवस्थापन्न हो करके प्रात्ममन्त्रके सहारेसे नादज्योतिके साथ मनको विष्णुपद फेकनेसे ही "प्रणम्य प्रणिधाय कायं” यह क्रिया होती है; यह तो आज्ञाचक्रके ऊपरको क्रिया हुई-जिसे शरीराभिमान वजित मानसक्रिया कहते इससे ईश प्रसन्न होते हैं *। प्रसन्न करनेके लिये प्रार्थनाकी ये तीन * इसलिये भगवान अष्टावक्र कहते हैं- “यदि देह पृथक् कृत्वा चिति विश्राम्य तिष्ठसि । अधुनेव सुखो शान्तो बन्धमुक्तो भविष्यसि ॥" Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६ श्रीमतगवद्गीता उपमा साधारण और स्वाभाविक है; यथा-समप्राणतासे सखाके पास सखाका, प्रियके पास प्रियाका, और पिताके पास पुत्रका अपराध जैसे ग्रहणयोग्य नहीं होता, क्षमा ही क्षमा प्रकाश रहती है, उसी तरह तुम हमारे समस्त अपराधको क्षमा करो ॥४४॥ . अहष्टपूर्व हृषितोऽस्मि दृष्ट्रा . भयेन च प्रव्यथितं. मनो मे। तदेव मे दर्शय देव रूपं प्रसीद देवेश जगन्निवास ॥४५॥ अन्वयः। हे देव ! अदृष्टपूर्व ( इदं विश्वरूपं ) दृष्ट वा हृषितः (हृष्टः ) . अस्मि मे मनः च भयेन प्रव्यथितं (प्रचलितं ), ( अतः ) तत् रूपं एव मे दर्शय; हे देवेश ! हे जगन्निवास प्रसीद ॥ ४५ ॥ अनुवाद। हे देव ! मैं अदृष्टपूर्व ( इस विश्वरूप ) का दर्शन करके हृष्ट हुआ हूँ, परन्तु अब मेरा मन भयभीत हुआ है; अतएव मुझको अपना वही रूप दिखाइये; हे देवेश ! हे जगन्निवास ! प्रसन्न होइये ॥ ४५ ॥ . व्याख्या। जिसे और कभी पूर्वकाल में नहीं देखा गया, तुम्हारे उसी विश्वरूपका दर्शन करके मैं उल्लसित हुआ हूं, परन्तु अपरम्पार रूप-तरंगमें पड़कर मेरा मन भयविह्वल हुआ है। हे जगन्निवास ! आप मेरे ऊपर प्रसन्न हो करके अपना पहला वाला वही छायाविहीन तेजस देवेश रूप मुझको दिखाइये ॥ ४५ ॥ किरीटिनं गदिनं चक्रहस्त मिच्छामि त्वां द्रष्टुमहं तथैव । तेनैव रूपेण चतुर्भुजेन सहस्रबाहो भव विश्वमूचें ॥ ४६॥ अन्धयः। अहं त्वां तथा एव ( यथा पूर्व दृष्टोऽसि ) किरीटिनं गदिनं चक्रहस्तं Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकादश अध्याय १०७ द्रष्टुं इच्छामि, हे सहस्रबाहो । हे विश्वमूर्त ! तेन एव चतुर्भुजेन रूपेण ( धसुदेवपुत्ररूपेण ) भव ॥ ४६॥ अनुवाद। मैं तुमको उसी किरीटधारो, गदाधारी, चक्रहस्त रूपसे देखना चाहता हूँ। हे सहस्रबाहो ! हे विश्वमूत! आप उसी चतुर्भुज रूपसे आविर्भूत होइये ॥ ४६॥ व्याख्या। हे सहस्रबाहो विश्वमूर्ते ! तुम्हारे इस विश्वरूपको निरोहित करो हे ठाकुर! जैसे आपने जन्म समयमें मस्तकमें किरीट धारण करके हाथमें शंख, चक्र, गदा, पद्म धारण करके जिस चतुर्भुज रूपसे देवकी बसुदेवका भय दूर करके अभय दिये थे आज उसी भयहारी सौम्य मूर्तिसे मेरे हृदय में भी अभय दीजिये। मैं आपकी उसी मूर्तिका दर्शन करनेके लिये अभिलाषी हूँ॥४६॥ श्रीभगवानुवाच । मया प्रसन्नेन तवार्जुननेदं रूपं परं दर्शितमात्मयोगात्। तेजोमयं विश्वमनन्तमाद्य यन्मे त्वदन्येन न हष्टपूर्वम् ॥ ४५ ॥ अन्वयः। श्रीभगवान् उवाच । हे अर्जुन ! मया प्रसन्नेन ( सता) तव इदं मे ( मम ) तेजोमयं विश्वं ( विश्वात्मकं ) अनन्तं आय परं रूपं ( आत्मयोगात् ( आत्मनः मम योगात् योगमायासामर्थ्यात् ) दर्शितं; यत् (रूपं) त्वदन्येन (त्वादशात् भकात् अन्येन ) न दृष्टपूर्व ( पूर्व न इष्ट)॥ ४७ ॥ अनुवाद। श्री भगवान् कहते हैं । हे अर्जुन ! मैंने प्रसन्न होकर आत्मयोगके प्रभावसे मेरे इस तेजोमय, विश्वात्मक, अनन्त, आद्य परमरूप दिखाया है, जिसको पूर्वमें तुम्हारे बिना किसी और ने नहीं देखा था ॥४७॥ व्याख्या। पुनः साधक निजबोध द्वारा पूर्वके देखे हुए रूपकी लीला समूहकी मीमांसा करते हैं । हे अर्जुन ! यह जो तुमने लोक Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८ श्रीमद्भगवद्गीता जगत्के प्रजा सदृश अद्भुत जीवन्त चित्रोंकी क्रिया देखी, यह सब मेरी प्रसन्नतासे है (प्र+ सदगमन करना + त, अर्थात् ममत्व शब्दके अर्थसे जो समझा जाता है, प्रकृष्ट पूर्वक उसके विश्रामके पश्चात् जिस भावका उदय होता है, उसीको प्रसन्नता कहते हैं ); क्योंकि जबतक तुम्हारे अन्तःकरणमें "मेरे" कह करके किसी वृत्तिकी उपस्थिति थी, तबतक तुमने उस अद्भुत सखीवनी शक्तिकी क्रीड़ा (खेल) देखनेके लिये अवकाश नहीं पाया। जब तुम अपना "अहं ममत्व" को छोड़ करके सच्चे “मैं” में मिलने गये, तबही तुम्हारी वह अदृष्टपूर्व घटना उपस्थित हुई थी। इसीको आत्मयोग कहते हैं, जिससे तुमने उस आदि, अनन्त परं रूप अर्थात् अरूपके रूपका दर्शन कर लिया। जिसकी छाया पड़ सके ऐसे पृथिवीके अणु उसके भीतर कहीं भी नहीं थे। केवल ज्योतिर्मय तेजसे बना हुआ चर-जगत्का चरम खेल था। ब्रह्म नाड़ीका ठीक मध्यमागसे सहस्रारमें उठकर ज्योति भेद करके, मनोलय होनेके पश्चात् इस अवस्थाका परिज्ञान होता है। इसको तुम जिस रीतिसे देखते हो, उसीके अनुसार तद्भाव युक्त होनेसे ही वह दिखाई पड़ता है। और इसीलिये इसे कोई दूसरा देख नहीं सकता॥४७॥ न वेदयज्ञाध्ययनैर्न दान न च क्रियाभिर्न तपोमिरुतः। एवं रूपः शक्य अहं नृलोके द्रष्टु त्वदन्येन कुरुप्रवीर ॥४८॥ अन्वयः। हे कुरुप्रवीर । न वेदयज्ञाध्ययनैः न दानैः न क्रियाभिः ( अग्निहोत्रादिभिः ) न च उग्रः तपोभिः ( चान्द्रायणादिभिः ) नृलोके ( मनुष्यलोके ) त्वदन्येन (त्क्तोऽन्येन केनचित् ) एवं रूपः अहं द्रष्टुं शक्यः ॥ ४८ ॥ Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६ एकादश अध्याय अनुषाद । हे कुरुप्रबोर ! न वेदाध्ययनसे न दानसे न क्रिया सम्हसे न उग्र तपस्यासे मनुष्यलोकमें तुम्हारे बिना अबतक दूसरा कोई मेरे इस रूपका दर्शन करनेमें समर्थ हुआ ॥ ४८ ॥ व्याख्या। न वेद-(विद् धातुका अर्थ ज्ञान है ) ज्ञानावस्थामें पहुँचनेसे इस रूपका दर्शन नहीं होता, क्योंकि उस समय दृश्य-द्रष्टाभावका अभाव होता है। यज्ञ-जबतक आदान प्रदान रहता है तबतक अर्थात् कुछ लेना देनाकी वृत्ति (अभिलाषा) रहनेसे इसका दर्शन नहीं होता। __ अध्ययन-बुद्धि जो शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्धमें विस्तृत हो गई है, उन सबसे उसको समेटकर स्वस्थानमें रखनेका काम जबतक जारी रहता है, तबतक भी इस रूपका दर्शन नहीं होता। __न दान:-त्याग ही त्याग करते रहनेसे भी इसका दशन नहीं होता। न क्रियाभि:-गुरूपदिष्ट क्रियाओंसे जबतक प्राण-संचालन किया जाता है, उसके भीतर इस दृश्यका आविर्भाव नहीं होता। न तपोभिरुप:-क्रिया कालमें स्वेद, कम्पन, और गति, ये जो अवस्थात्रय हैं इन तीनोंमें से एक भी रहनेसे इसका दर्शन नहीं होता। यह जो आत्मरूप है, यह ठीक ठीक 'मैं' में 'मैं' मिलानेका अव्यवहित पूर्व में ही साधकमें प्रकाश पाता है । हे कुरु-प्रवीर ! इसका और कोई दूसरा रास्ता नहीं है । ४८ ॥ मा ते व्यथा मा च विमूढ्भावो ____दृष्ट्वा रूपं घोरमीहङ ममेदम् । व्यपेतभीः प्रीतमनाः पुनस्वं ___ तदेव मे रूपमिदं प्रपश्य ॥ ४६ ॥ अन्वयः । मम ईदृक घोरं इदं रूपं दृष्ट वा ते व्यथा'मा (अस्तु) विमूढभावः Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११० श्रीमद्भगवद्गीता (विमूढ़चित्तता ) च मा (अस्तु ); त्वं व्यपेतभीः (विगतमयः) प्रीतमनाः ( सन् ) पुनः मे इदं तदेव रूपं ( शङ्खचक्रगदापद्मधरं चतुर्भुजं रूपं ) प्रपश्य ॥ ४९ ॥ अनुवाद। ईदृश भयंकर मेरा यह रूप देखकरके तुम्हें भयभीत न होना चाहिये, विमूढ़ भी न होना चाहिये; तुम विगतभय और प्रसन्नचित्त हो करके पुन: यह मेरा वही रूप देखो ॥ ४९॥ व्याख्या। "मा ते व्यथा"-तुम और भय न करो। "मा च विमूढ़भाव" और तुमको काम, क्रोध, शम, दम आदिके वशीभूत हो करके चलनेका प्रयोजन नहीं है । (आत्महारा हो करके काम, क्रोध, मोह विवेक, वैराग्य आदि किसी वृत्तिका आश्रय लेना ही विमूढ़त्व है)। तुमने तो देखा मेरा घोर (सर्वको नाश करने वाला ) रूप कैसा है ? अब तुम अपने मनको निर्भय और तृप्त कर लो। पुनः मेरा वही रूप -वही शंख, चक्र, गदा, पद्मधारी. चतुभुज रूप, जिसे तुम देखने के लिये उत्सुक हुए हो, देखो ! ॥ ४६॥ सञ्जय उवाच। इत्यर्जुनं वासुदेवस्तथोक्त्वा । स्वकं रूपं दर्शयामास भूयः। आश्वासयामास च भीतमेनं भूत्वा पुनः सौम्यवपुर्महात्मा ॥५०॥ अन्वयः। वासुदेवः अर्जुनं इति उक्त्वा भूयः स्वकं ( स्वीर्य ) तथा ( पूर्ववत् 'किरीटगदादियुक्त चतुर्भुजं ) रूपं दर्शयामास; महात्मा सौम्यवपुः ( प्रसन्नदेहः) भूत्वा पुनश्च भोतं एनं ( अजुनं ) भाश्वासयामास ॥५०॥ अनुवाद। वासुदेवने अर्जुनको इस प्रकार कह करके पुनः अपना वही चतुभुज रूप दिखाया; और महात्माने ( श्रीभगवान ) प्रसन्नमूत्ति हो करके भयभीत अर्जुन को पुनश्च पाश्वस्त किया ॥५०॥ Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .१११ एकादश अध्याय व्याख्या। वसु शब्दका अर्थ है रत्न,-जैसा हीरा, चुन्नी, मणि, माणिक्य, स्थावर अथवा अस्थावर सदृश ऐसी कोई चीज जिसके भीतरसे ज्योति निकले, परन्तु दृढ़ एवं स्वच्छ आवरणसे ढकी हुई हो। देव शब्दमें दीप्ति है। तभी हुश्रा, स्थावर अथवा अस्थावर सदृश कोई वस्तु, जिसके भीतरसे ज्योति निकलती है, और वह दृढ़ स्वच्छ आवरणसे ढका हुआ दिखाई पड़ता है। ऐसा दीप्तिमान जो है वही "वसुदेव" है। और वासुदेव कहते हैं समस्त देव अर्थात् ज्योतिष्मान् लोग जहां इक? हो करके निवास करते हैं, ऐसे स्थानको। "ज्योतेरभ्यन्तरे रूपं अचिन्त्यं श्यामसुन्दर”। साधक जब अज्ञानचक्रमें रहकर ऊर्ध्वदिशामें देखते हैं, तब ठीक सन्मुखमें वसुदेव दिखाई पड़ते हैं। उसो वसुदेवका भेद होनेसे ही वासुदेवका दर्शन होता है। इनके निज रूप प्रकृतिके साथ आत्मा मिल करके ( आत्मा अनादि-अनन्त और प्रकृति सादि-सान्त हैं. इन दोनोंके मेलसे ) सादि-अनन्त रूपसे साधकके अनुभवमें आता है। इस सुन्दर रूपकी सीमा नहीं है, इसलिये सिद्ध साधक लोगोंने इस रूप-राशिके मस्तकमें किरीट दे करके रूपका श्रेष्ठत्व प्रतिपादन किया है, इसीलिये यह किरीटधारी हैं। यहाँ किसी भूतका ठौर ठिकाना नहीं, परन्तु तन्मात्राका प्रकाश है। "अ" और "ऊ” मिल करके जैसे अविच्छिन्न कैसा एक प्रकार का शब्द सुननेके सदृश बोधमें आता है। इसलिये साधक उस शब्द को शंखनादके सादृश्यसे लेकरके उस स्थानके एक दिशामें शंख कह करके स्थापन किये हैं। (चिन्ताशील लोग इस जगत्को शब्दमात्र वस्तुशून्य विकल्प कहते हैं)। ___सादि जो कुछ है, वह एक जगहस उत्पन्न हो करके घूमते फिरते फिर उत्पत्ति स्थानमें आकरके विश्राम लेता है। यहां भी जहांसे अनुभूतिका प्रारम्भ होता है, वहांसे सब दिशाओंमें घूमते घामते फिर Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२ ___श्रीमद्भगवद्गीता उसी स्थानमें भाकरके विलयको प्राप्त होता है इसलिये उसे चक्र कल्पना करके एक दिशामें रख दिया। भ्रम-मय होनेसे भी यह जगत् देखने में अतीव सुन्दर है; और अव्यक्तसे खिल करके व्यक्त सरीखे भान दिखलाकर पुनः अव्यक्तमें मिलकर अदृश्य हो जाता है। इसलिये भावुक लोग जगतका वस्तुशून्यता हेतु सुदर्शन चक्र नाम दिया है। यह रूप बड़ा चमकदार, बार बार आत्महारा करता है इस करके आघातकी शक्तिको "गदा” नाम दे करके एक दिशामें रख दिया है। जगत्में 'दगा' के सिवा और कुछ भी नहीं है, इसलिये मनीषी लोगों ने इसका सांकेतिक शब्द "गदा" रक्खा है। पद्म-'पद्' शब्दमें स्थान और 'म' शब्दमें ब्रह्मा, विष्णु, शिव, यम, काल और चन्द्र है। इन सबके एकत्र समावेश स्थानको पद्म कहते हैं। यह जगत् (सृष्टि, पुष्टि, व्यवधान, संयम और संहार करनेवाले इन्द्रजालके खेल सदृश ) रूपकी छटामें सबको मोहित कर रक्खा है; इसलिये तत्त्वदर्शी ऋषियोंने इसका नाम पद्म रक्खा है; इसका एक और नाम पड्वज भी है, क्योंकि मायामय पडसे उत्पन्न होता है। अतएव इस जगतका निदर्शन स्वरूप 'पद्म' को भी एक दिशामें रख दिया है। ये चारों चार दिशामें अवस्थित हैं अर्थात् चतुर्भुजसे पकड़े हुए हैं, इसलिये शंख-चक्र-गदा-पद्मधारी किरीट शोभित वासुदेव हैं अर्थात् इस मिथ्या मायामय विश्व-संसारको जो धारण कर रहे हैं, वही वासुदेव हैं। वासुदेवका यह रूप अत्यन्त गभीर और अपरिज्ञय है। अत्यन्त दूरत्व हेतु, हकशक्तिकी दुर्बलतासे रूपशून्य आकाशमें जैसा नीलिमाका पट देखा जाता है, यह रूप उससे भी गभीर है। सूक्ष्मातिसूक्ष्म, जो अनुभवमें आता ज्ञानमें आता और समझमें आता है, उससे भी दूर दूरान्तर अज्ञ य गाढ़ अन्धकारमें डूबा हुआ रहनेसे चिक्कन काला नामा दिये हैं। "साधकानां हितार्थाय ब्रह्मणो रूप Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११३ एकादश अध्याय कल्पना"। यथार्थमें वहां कोई रूपही नहीं है। जैसे जसे साधक अनुभवकी ताड़ना और दिव्यदृष्टिकी सहायतासे देखते देखते नीचे उतरता रहता है, उसीके साथ साथ प्रकृतिगत भावके विषय समूहको उसमें लगाते लगाते आते हुए सांसारिक ऐसी एक मूत्ति बना लेता है, जो उस पूर्वोक्त समष्टिका भावमय आकार यह वासुदेव है। भगवान ने पूर्व श्लोक-कथित भीत अर्जुनको अभय दे करके 'वसुदेव गृहे जात' उस चतुर्भुज रूपको दिखला कर पुनः सौम्य ("तोत्रवेत्रकपाणि" सखा ) मूर्ति धारणकर आश्वास दिया। साधनके प्रथम उन्नति क्रममें साधक निर्भय रहते हैं, परन्तु साधनमें उन्नत होकर विश्वव्यापी अवस्था प्रत्यक्ष करनेके समय, हृदयका संसारासक्तिके लिये दुर्बलताके कारण उनका वह निर्भयता भयमें परिणत होता है। परन्तु पश्चात् वासुदेव अवस्थाके परिज्ञानसे उस भयका अपसारण होनेसे आश्वासित होते हैं, और अति सन्तर्पणसे उस महान् भावको अपना मानुषि अन्तःकरणमें धारणाका उपयोगी करके प्रकृतिस्थ होकर सौम्य भाव धारण करते हैं ॥ ५० ॥ अर्जुन उवाच। राष्ट्रदं मानुषं रूपं तव सौम्यं जनार्दन। इदानीमस्मि संवृत्तः सचेताः प्रकृतिं गतः ॥५१॥ अन्वयः। अर्जुन उवाच। हे जनार्दन । तष इदं सौम्यं मानुषं रूपं दृष्ट वा इदानीं सचेताः ( प्रसन्नचित्तः ) संवृत्तः ( संजातः ) अस्मिा प्रकृतिं च (स्वास्थ्यं) गतः (प्राप्तोऽस्मि ) ॥५१॥ अनुवाद। अर्जुन कहते हैं। हे जनार्दन ! तुम्हारा इस सौम्य मानुष रूपका दर्शन करके अब मैं प्रसन्नचित्त और स्वस्थ हूँ। ५१३ व्याख्या। हे जनार्दन ! तुम्हारी इस मनोहर मानुष मूर्तिका दर्शन करके मैं अब और उसी सर्वभूतात्मक रूपमें अटका नहीं हूँ मैं -८ Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११४ __ श्रीमद्भगवद्गीता प्रकृतिगत हुआ हूँ, अर्थात् प्रकृतिके साथ मिल चुका हूँ; जड़-चैतन्यके संयोगसे जो होता है, मैं वही हुआ हूँ; प्राकृतिक प्रावरणके भीतर पहुंच कर चित्तधर्माकान्त हुआ हूँ। विश्वरूप दर्शनके समय जीवभाव चित्ताकाशको अतिक्रम करके चिदाकाशमें अवस्थान करता है। उस अवस्थामें जो जो अनुभव प्रत्यक्ष होता है, उनका वर्णन शब्दोंके द्वारा किया नहीं जा सकता वह अव्यक्त है-चित्तकी धारणा करनेके अतीत विषय है; अतएव चित्त प्रसन्न नहीं होता, किम्भूत किमाकार मूत्तिके दर्शनसे शान्ति नहीं पाता; भयभीत हुभा रहता है। पश्चात् निज विश्वरूप सम्वरण करके जब इष्टदेव मानुष रूप धारण करते हैं, तब उसका भय दूर होता है, चित्त प्रसन्न होता है और उस समय प्रकृतिस्थ होना पड़ता है। क्योंकि स्वभावतः मनुष्य अभीष्टदाताको स्वजातीय रूपमें देखनेसे सम-प्राणके लिये प्रसन्न होता है, विजातीय रूपमें उसे देखने से भयभीत होता है ॥५१॥ श्रीभगवानुवाच ॥ सुदुईमिदं रूपं दृष्टवानसि यन्मम । देवा अप्यस्य रूपस्य नित्यं दर्शनकाक्षिणः ।। ५२ ॥ अन्वयः। श्रीभगवान् उवाच । मम इदं सुदुर्दशं ( अत्यन्तं द्रष्टुं अशक्यं ) यत् रूपं दृष्टवान् असि; देवाः अपि अस्य रूपस्य नित्यं दर्शनकाक्षिणः ॥ ५२ ॥ अनुवाद। श्रीभगवान कहते हैं.। यह जो मेरे सुदुर्दर्श रूपका तुमने दर्शन किया है, देवता समूह भी नित्य उस रूपके दर्शनको आकांक्षा करते हैं ॥ ५२ ॥ व्याख्या। पुनः साधक आत्मज्ञानमें उठ करके आपही आप पूर्व अनुभूतिकी मीमांसा करते हैं। यह जो हमारा अद्भूत रूप है, जो रूप अति कठोर साधनसे दर्शनमें आता है, मैंने देखा कि देवतागण भी (तैजस, सूक्ष्मशरीरधारी कर्मफलके भोक्ताओंको देवता Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११५ एकादश अध्याय कहते हैं ) उस रूपके दर्शनके लिये सर्वदा इच्छुक रहते हैं। स्थूल शरीर, जाग्रतावस्था और रजोगुणको छोड़कर साधन नहीं होता। देवतोंमें इन सबका अभाव है, इसलिये वे लोग ( देवतागण ) साधन नहीं कर सकते। फिर साधन न करनेसे इस अद्भुत रूपका दर्शन करनेका उपाय भी दूसरा और कोई नहीं है ॥५२॥ . नाहं वेदैर्न तपसा न दानेन न चेज्यया । शक्य एवम्विधो द्रष्टु दृष्टवानसि मां यथा ॥ ५३ ॥ अन्वयः। मां यथा दृष्टवान् असि, न वेदः (ऋगादिभिः चतुभिः) न तपसा न दानेन न च इज्यया अहं एवम्बिधः द्रष्टुं शक्यः ॥ ५३॥ अनुवाद। हमारे जिस रूपका तुमने दर्शन किया है। दूसरा कोई न तो वेदाध्ययनसे, न तपस्यासे, न दानसे और न यज्ञसे हमारे उस रूपका दर्शन कर सकता है ॥ ५३॥ - व्याख्या। यह जो "मैं" है, साम-ऋक-यजु-अथर्व चारों वेदको कण्ठ करनेसे भी उस “मैं” का दर्शन नहीं होता। शरीरादिको सुखा कर, नीचे शिर ऊर्ध्व पादादि करके तपस्या करनेसे भी उस "मैं" को देखा नहीं जा सकता। अग्निहोत्रादि यज्ञसे भी उस "मैं" को कोई देख सकता नहीं। सागरान्त पृथ्वीको दान करनेसे भी "मैं" को कोई देख नहीं सकता। जिस तरहसे मैंने उस “मैं” को देखा है, ठीक ठीक उसी प्रकार साधन करके उस "मैं” को देखना होता है। उससे दूसरा और कोई पन्थ नहीं है ॥ ५३॥ भक्त्या त्वनन्यया शक्यः अहमेवम्विधोऽर्जुन। ज्ञातु द्रष्टुं च तत्त्वेन प्रवेष्टु च परन्तप ॥ ५४॥ अन्वयः। हे परन्तप अर्जुन! अनन्यया भक्त्या तु एवम्विधः अहं तत्वेन ( परमार्थतः ) ज्ञातु द्रष्टुं च प्रवेष्टुं च ( मोक्षं च गन्तु) शक्यः ॥५४॥ Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११६ श्रीमद्भगद्गीता : अनुवाद। हे परन्तप अर्जुन ! केवल अनन्य भक्तिसे ही इस प्रकार मुझको परमार्थत जानने, देखने, और हममें प्रवेश करने सकते हैं ॥ ५४॥ व्याख्या। जो साधक साधनके बलसे पराशक्तिको भी तापन करनेकी शक्ति रखते हैं, उन्हींको परन्तप कहते हैं । गुरु-वाक्यमें अटल विश्वास करके अबाधतः क्रियाका अनुष्ठान करते रहनेका नाम अनन्यभक्ति है। एक मात्र इसी अनन्यभक्तिसे इस विश्वरूपी अहंतत्त्व को ("मैं" को ) तत्त्वोंसे जाना जाता है-समझा जाता है, अर्थात् क्रम अनुसार पृथ्वीतत्व, रसतस्व, तेजस्तत्व, वायुतत्त्व, आकाशतत्त्व इत्यादि क्रमसे उठ करके आत्माका उस प्रकार स्वरूपका बोध होता है [ यही साधनका कर्मकाण्ड है ]; पश्चातू आत्माका साक्षात्कार लाभ होता है, अर्थात् विश्वरूपका प्रत्यक्ष दर्शन होता है [ यही उपासनाकाण्ड है ]; इसके बाद, उस विश्वरूपमें प्रवेश होता है, अर्थात् उस रूपको देखते देखते तन्मय होकर उसमें मिल जाता है-मोक्ष लाभ होता है [ यही ज्ञान-काण्ड है]। अतएव भक्ति बिना मुक्ति नहीं होती। इस श्लोकमें भक्ति-साधनका यह क्रम व्यक्त हुआ है;-प्रथम अनन्यभक्ति अर्थात् ऐकान्तिक आग्रहके साथ गुरूपदिष्ट मतामें श्रात्मक्रियाका अनुष्ठान है। तत्पश्चात् अपरोक्ष ज्ञान लाभ होता है। इसके बाद मुक्ति है। इससे समझा गया कि साधन क्रियाकी आदि अवस्था का नाम भक्ति, मध्य अवस्थाका नाम ज्ञान, और अन्त्य अवस्थाका नाम मुक्ति है। इसलिये लोग कहते हैं कि भक्ति ही मुक्ति है"भक्तिमुक्तिरेव सुनिश्चितम्" ॥ ५४॥ मत्कर्मकन्मत्परमो मतः संगवर्जितः। निव्वरः सर्वभूतेषु यः स मामेति पाण्डव ।। ५५ ॥ अन्वयः। हे पाण्डव ! यः मत्कर्मकृत् ( मदर्थ कर्मानुष्ठाता ) मत्परमः ( अहमेव परमः पुरुषार्थः यस्य सः ) मद्धतः ( ममाश्रितः ) सर्गवजितः (इन्द्रियार्थेषु Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकादश अध्याय भासकिरहितः) सर्वभूतेषु निर्वैरः ( शत्रुभाव वजितः), सः माम् एति (प्राप्नोति; अहमेव तस्य परागतिनान्या कदाचित् भवतीति ) ॥ ५५ ॥ अनुवाद। हे पाण्डव ! जो साधक मेरे लिये कानुष्ठान करते हैं, मैं हो जिनका परम पुरुषार्थ हूँ, जो मेरे भक्त, संगजित तथा सर्वभूतमें शत्रुभाववजित है . वही साधक मुझे प्राप्त करते हैं ॥ ५५ ॥ व्याख्या। [जिस प्रकार आचार व्यवहार से चलते हुए मुमुक्षुगण मुझ ( "मैं" ) को प्राप्त करते हैं-मुक्त होते हैं, श्रीभगवानने गीताशास्त्र का सार स्वरूप उसी उपदेशको संक्षेपसे इस श्लोकमें व्यक्त कर दिया है । अतएव हे अर्जुन ! जो साधक गुरूपदिष्ट पन्थमें प्राणका चालन करते हैं, जो साधक उस “मैं” के ऊपर अपनेको निछावर करते हैं; जो साधक उस 'मैं' को सम्मुखमें रख करके “मैं” में मिलनेकी चेष्टा करते हैं; इसे छोड़कर जिनकी इच्छा दूसरी ओर एक दम नहीं रहती; गुणों के साथ भूत मात्र भी जिनके विरुद्ध किसी प्रकार विघ्नोत्पादन न कर सकनेसे, समूह भूतोंके साथ जिनका विरोध नष्ट हो गया है, वही साधक इस “मैं” को पाते हैं-“मैं” हो जाते हैं ॥ ५५॥ इति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायो योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुन सम्वादे विश्वरूपदर्शनयोगोनाम एकादशोऽध्यायः। Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वादशोऽध्यायः अर्जुन उवाच । एवं सततयुक्ता ये भक्तास्त्वां पर्युपासते। ये चाप्यक्षरमव्यक्तं तेषां के योगवित्तमाः ॥ १॥ अन्वयः। अर्जुनः उवाच । एवं ( सर्वकार्पणादिना ) सत्त्युक्ताः ( सद त्वन्निष्ठाः सन्तः ) ये मक्ताः त्वा ( विश्वरूपं ) पर्युपासते, येव अव्यक्त अक्षरं अपि (ब्रह्म) पथ्यं पासते, तेषां (उभयेषां मध्ये ) के योगवित्तमाः ( अतिशयेन योगविदः)? ॥१॥ अनुवाद। अर्जुन कहते है। इस प्रकार सतत युक होकर जो सब भक्तगण तुम्हारी उपासना करते हैं, और जो लोग अव्यक्त अक्षरकी उपासना करते हैं। इन दोनोंके भीतर अधिकसे अधिक योगविद् कौन हैं ॥१॥ व्याख्या। गुरु वाक्यमें अटल विश्वास करके जो पूर्वोक्त प्रकारसे सतत युक्त रहकर तुम्हारी उपासना करता है, और जो अक्षर अव्यक्त की उपासना करता है, इन दोनों में योगवित्तम (श्रेष्ठ) कौन है ? साधक देखते हैं, यह जो विश्वरूप दर्शन है इसमें तो "मैं" "तुम" ( महं-त्वं) एक नहीं हुआ। यही साधन अच्छा है, या जिसमें "मैं" "तुम" एक हो जाता है । बताइये ! दोनोंके मोतर श्रेष्ठ कौन है ?॥१॥ श्रीभगवानुवाच । मय्यावेश्य मनो ये मां नित्ययुक्ता उपासते । श्रद्धया परयोपेतास्ते मे युक्ततमा मताः॥२॥ अन्धयः। मयि ( परमेश्वरे सर्वशत्वादिगुणविशिष्टे ) मन आवेश्य ( एकाग्र कृत्वा ) नित्ययुजाः (मदर्थकानुष्ठानादिना मन्निष्ठाः सन्तः ) परया (श्रेष्ठया) Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वादश अध्याय ११६ श्रद्धया उपेता: (युताः ) ये मां उपासते ( आराधयन्ति ), ते युक्ततमाः मे मनाः ( ममाभिमताः ) ॥२॥ अनुवाद। हममें मन समाहित कर, नित्ययुक होकरके परम श्रद्धा युक जो सक लोग मेरो उपासना करते हैं, मेरे मतमें वही युक्ततम हैं ॥२॥ व्याख्या। पुनः साधक निजबोधसे अपने प्रश्नकी मीमांसा माप ही श्राप करते हैं। गुरुवाक्यमें अटल विश्वाससे ( सर्वबाधाको अतिक्रम करने वाली शक्तिको दृढ़तासे ) मुझको सामनेमें रख करके, विश्वकोषका जो कुछ समस्त भूल जा करके, हममें मन फेंक करके, नित्य स्वरूप हममें युक्त (जैसे गंगा जलमें इन्दारा जल ) हो करके, मैं के समीपमें आय करके, जो मैं में मिल-मिश जाय; मेरे मतमें बही युक्ततम है ॥२॥ ये त्वक्षरमनिर्देश्यमव्यक्तं पर्युपासते । सर्वत्रगमचिन्त्यष कूटस्थमचलं ध्रुवम् ॥ ३ ॥ संनियम्येन्द्रियग्रामं सर्वत्र समबुद्धयः। ते प्राप्नुवन्ति मामेव सर्वभूतहिते रताः ॥ ४ ॥ अन्वयः । ये तु इन्द्रियग्रामं संनियम्य सर्वत्र समबुद्धयः ( सन्तः ) अनिद्देश्य (निर्देष्टुं अशक्यं ) अव्यक्त (रूपादिहीनं ) सर्वत्रग (सर्वव्यापिनं ) अचिन्त्यं कूटस्थं ( कूटे मायाप्रपञ्चे अधिष्ठानत्वेनावस्थितं ) अचलं ( स्पन्दनरहितं अतएव ) ध्र वं ( नित्यं ) अक्षरं पर्युपासते, सर्वभूतहिते रताः ते मामेव प्राप्नुवन्ति ॥३॥४॥ अनुवाद। और जो सब साधक इन्द्रिय समूहको सांयत करके सर्वत्र समबुद्धि सम्पन्न होकरके अनिद्देश्य, अचिन्त्य, सर्बत्रगत, अव्यक्त, अचल, ध्र व, कूटस्थ अक्षर की उपासना करते हैं, सर्वभूतोंके हितमें रत वही लोग मुझको प्राप्त होते हैं ॥३॥४॥ व्याख्या। 'अक्षर'-जो कभी क्षयको प्राप्त नहीं होते। 'अनिर्देश्य'-जिनका कभी किसीसे निरूपण किया नहीं जा सकता। 'अव्यक्त'-जो शब्दके अगोचर, अर्थात् शब्दसे जिनका थाह पाया Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२० श्रीमद्भगवद्गीता नहीं जाता। 'सर्वत्रगं' अर्थात् आकाश सदृश जो सर्वव्यापी। 'अचिन्त्यं'--जो चिन्ताके विषयीभूत नहीं, अर्थात् चिन्ता करके जिनकी रचना की नहीं जा सकती। 'कूटस्थ'-दृश्यमान जो कुछ गुणमन्त और दोषमन्त है उसीको कूट कहा जाता है, अर्थात् अविद्यादि अनेक संसार-बीज-दूषित पदार्थको 'कूट' कहते हैं । माया, प्रकृति, विद्या इन तीन शब्दोंके अर्थको धारण करके महेश्वर जैसे मायिन् नाम पाये हैं, तैसे उन दोष-गुणमन्त पदार्थोके अध्यक्ष स्वरूप रहे हैं जो, उन्होंको कूटस्थ कहते हैं। जिनकी चलने फिरने वाली जगह नहीं, वह 'प्रचल' है। 'ध्रुव' कहते हैं नित्यको। इस शरीरके समस्त इन्द्रिया, पन्चप्राण, और बुद्धिको सर्व कालमें संयत करके सव भूतोंके हितमें रत रहनेसे जब इष्ट और अनिष्टका उदय होता ही नहीं, ऐसी अवस्थामें वह ऊपर वाले विशेषणोंका आधार जो 'मैं' है, उस मैं में पड़नेसे मेरी उपासना करना भी होता है, और उस मैं को पाना भी होता है। दर्शनीय शरीर धारण कर रह करके भी ज्ञानी जैसे आत्मा ही श्रात्मा है, यह भी तद्रप ॥ ३ ॥४॥ क्लेशोऽधिकतरस्तेषामव्यक्तासक्तचेतसाम् । अव्यक्ता हि गतिदुखं देहवद्भिरवाप्यते ॥५॥ अन्वयः। अव्यक्तासक्तचेतसां तेषां (जनाना) क्ले अधिकतरः; हि ( यस्मात् ) अव्यक्ता गतिः (अव्यक्तविषया निष्ठा ) देहवद्भिः ( देहाभिमानिभिः ) दुःख ( यथा स्यात् तथा ) अवाप्यते ॥५॥ अनुवाद। अन्यक्कमें आसक्त चित्त उन सब लोगोंको क्लेश अधिकतर है, क्योंकि देहाभिमानी जन अव्यक्तगति दुःखसे प्राप्त होते हैं ॥५॥ व्याख्या। साधक देखते हैं कि, वचनमें परमार्थदशी, अथच देहाभिमान छुटा नहीं, जिनकी ऐसी अवस्था है, उनके क्लेशको सीमा नहीं; उन सबको “मैं-मेरे" भावमें माबद्ध रहना ही पड़ता है। Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२१ . द्वादश मल्याय क्योंकि, "मेरे" लेकरके ही संसारमें जितना कर्म है। इन कर्मों का अत्यन्त अभ्यासके लिये "मेरे” छोड़ करके "मैं' में गिरने जावो तो अनजान भावसे "मेरे" का ऊपर गिरा देता है। जिसलिये "मैं" में गति होती नहीं॥५॥ ये तु सर्वाणि कर्माणि मयि संन्यस्य मत्पराः। अनन्येनैव योगेन मां व्यायन्त उपासते ॥ ६ ॥ तेषामहं समुद्धा मृत्युसंसारसागरात् । भवामि न चिरात् पार्थ मय्यावेशित्तचेतसाम् ॥ ७॥ अन्वयः। हे पार्थ। ये तु सर्वाणि कर्माणि मयि ( परमेश्वरे ) संन्यस्य (समय) अनन्येन एष योगेन ( एकान्तभक्तियोगेन ) मत्पराः ( भूत्वा ) मां ध्यायन्तः (चिन्तयन्तः ) उपासते, अहं तेषां मय्यावेशितचेतसा मृत्यु संसारसागरात् न चिरात् (अचिरेण ) समुद्धता भवामि ॥ ६ ॥ ७॥ अनुवाद। हे पार्थ । परन्तु जो सब लोग समुदय कर्म मुझको अर्पण करके एकान्तभक्तियोगसे मत्परायण होकरके हृदयमें मुझको बैठायके ( ध्यानयोगसे ) उपासना करते हैं, हममें निविष्टचित्त उन सब लोगोंको मैं तुरन्त मृत्यु-युक्त संसार-सागरसे उद्धार करता हूँ ॥ ६ ॥ ७ ॥ व्याख्या। जो कोई साधक सर्वकर्म अर्थात् २१६०० दफे निश्वास प्रश्वासका त्याग ग्रहण की क्रिया "मैं' में अर्थात् ब्रह्मनाड़ीके भीतर सम्यक् प्रकारसे समर्पण करके एकान्तभक्तियोग द्वारा दूसरी कोई चिन्ता-संम्रव-दोष न रख करके केवल मात्र “मैं” के वाचक स्वरूप उसी ब्रह्म:मन्त्रका अवलम्बन करके इष्ट मूर्तिका ध्यान करते हुए उपासना करते हैं, अर्थात प्रात्मस्वरूपमें स्थिति ( समाधि) लाभ करते हैं। वही साधक "मय्यावेशितचित्त” होते हैं, और वही साधक अतिशीघ्र मृत्यु-संसार-सागर रूपी दुस्तरणीय आने जाने वाले प्रवाहसे परित्राण पा करके ऊपरमें अटक रहते हैं-“मैं” हो जाते हैं। Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२ श्रीमद्भगवद्गीता इस श्लोकमें "मल्पराः" शब्दसे अनाहत ध्वनि अवलम्बन अर्थात् योगशास्त्रके मतमें क्रियायोगकी "श्रवण" क्रिया समझाता है; "मां ध्यायन्तः” से “मनन" ( मनोलय) क्रिया समझाता है; और "उपासते” शब्दसे "निदिध्यासन" (आत्म-स्वरूपावस्थान) क्रिया समझाता है। गुरूपदेश अनुसार साधक इन तीन क्रियामें सिद्धिलाभ करनेसे ही संसारसे उत्तीर्ण होने के लिये उनको और देर रहता नहीं; शीघ्रही मृत्युको अतिक्रम करके जीवनन्मुक्त होते हैं ॥ ६ ॥७॥ मय्येव मन आपत्स्व मयि बुद्धिं निवेशय । निवसिष्यसि मय्येव अत ऊवं न संशयः ॥८॥ अन्धयः। मयि एव मनः ( संकल्प विकल्पात्मकं ) आधत्स्व ( स्थिरी कुरु), बुद्धिं ( व्यवसायात्मिकाम् ) मयि निवेशय, अत: ऊर्ध्व ( देहान्ते ) मयि एव निष. सिष्यसि ( मदात्मना वासं करिष्यसि ), ( अत्र ) संशयः न ( अस्ति ) ॥ ८॥ अनुवाद। हमहीमें मनस्थिर करो, हममें बुद्धि निवेश करो, तो देहान्त पश्चात् हममें ही निवास करोगे, इस विषयमें संशय नहीं ॥ ८॥ . व्याख्या। अतएव ऐसे 'मैं' में मनको फेंको, ऐसे 'मैं' में बुद्धिको निवेशित कर दो, ऐसा करनेसे तुमको फिर माया-विकार छू नहीं सकेगा, इसमें संशय न करो, तुम ऊंचे हो जावोगे, अर्थात् जबतक. तुम शरीर धारण कर रहोगे तबतक आज्ञाके ऊपर आत्मभावमें आत्मस्थ (जीवन्मुक्त) होकर रहोगे, और नीचे में उतर कर प्रकृतिगत होकरके बद्ध होना नहीं पड़ेगा; और शरीर-पतनके पश्चात् ठीक ठीक 'मैं हो जावोगे ॥ ८॥ अथ चित्तं समाधातुं न शक्नोषि मयि स्थिरम् । अभ्यासयोगेन ततो मामिच्छाप्तु धनञ्जय।। ६॥ अन्वयः। हे धनब्जय। अथ (यदि ) चित्त मयि स्थिरं समाधान शक्नोषि, ततः ( तहिं ) अभ्यासयोगेन मा आप्तुं इच्छ ( प्रयत्नं कुरु ) ॥९॥ * मृत्युका अर्थ २य अः २७ श्लोक देखो। Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वादश अध्याय १२३, अनुवाद । हे धनन्जय ! यदि हममें चित्त स्थिर कर रखनेमें समर्थ न हो, तो अभ्यास-योगसे मुझको प्राप्त होने के लिये प्रयत्न करो ॥९॥ . व्याख्या। पूर्व जन्मार्जित उत्तम सुकृति न रहनेसे पूर्व श्लोकानुसार बिना चेष्टामें आपही आप आत्मामें मन बुद्धि स्थिरकी नहीं जाती, अभ्यासका प्रयोजन है। इसलिये भगवान कहते हैं कि, जैसे हमने कहा है वैसे करके यदि तुम चित्तको उस "मैं" के ऊपर स्थापन न कर सको तो, "मैं" होने के लिये बारम्बार चित्तसमाधानका अभ्यास करो। ६ष्ठ अध्यायका २६वा श्लोककी व्याख्या देखो ॥६॥* अभ्यासेऽप्यसमर्थोऽसि मत्कर्मा परमो भव। मदर्थमपि कर्माणि कुर्वन् सिद्धिमवाप्स्यसि ॥ १०॥ अन्वयः। ( यदि पुनः ) अभ्यासे अपि असमर्थः असि, ( तहिं ) मत्कम्मपरमः (मदर्थ कर्म मतकर्म तदनुष्ठानमेव परमं यस्य त दृशः ) भव; कांणि मदर्थ कुर्वन् अपि सिद्धिं भवाप्स्यसि ॥१०॥ अनुवाद। ( यदि) अभ्यासमें भी असमर्थ हो तोहमारे कर्ममें निरत हो जाओ, मदर्थमें समस्त कर्म करते रहनेसे हो सिद्धिलाभ करोगे ॥ १० ॥ * चित्त समाधान करने में अशक्त होनेसे भगवान् ९-११ श्ल कमें जो जो करने के लिये उपदेश किये हैं, सो सब अलग नहीं, साधनका पर पर क्रम है। प्रथम अभ्यासयोगसे आत्मत्व प्राप्तिकी चेष्टा, दूसरे मत् कर्मपरायणता, तीसरे मोगाश्रय, चौथा यतचित्तता, पञ्चम सर्व कर्मफल त्याग। प्रथम क्रममें असमर्थता न आने से दूसरे क्रममें पहुँचा नहीं जा सकता; उसी तरह दूसरे दूसरे क्रम सम्बन्ध भो जानना । जैसे चलते चलते शरीर ढीला पड़नेसे आपही आप चलना रुक जाता है, चलनेमें शरीरकी असमर्थता आती है, तैसे अभ्यास-योग की क्रिया करते करते भी उसमें असमर्थता आती है। तब मत्कर्मपरायणताका उदय होता है। पश्चात् इस क्रियामें भी असमर्थता आनेसे मद्योगाश्रय होता है; उसमें भी असमर्थता आनेसे चित्त संयत होता है। यह संयम अवस्था आनेसे ही सर्व कर्मफल त्याग हो करके कैवल्य स्थितिकी प्राप्ति होती है। ये सब आपही आप क्रम अनुसार उदय होती रहती है। असमर्थताको अवस्था समूह साधनमें निजबोध रूप जानना ॥९॥ Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४ श्रीमद्भगवद्गीता व्याख्या। (यदि ) अभ्यासमें भी तुम अशक्त हो, तो मैं के (हमारा ) कर्म परायण हो जाओ। किस प्रकारसे मत्कर्म परायण होने होता है? मैं के अर्थमें अर्थात् मैं जो ब्रह्म हूँ, मैं का वाचक है प्रणव, प्रणवका अर्थ हूँ मैं; गुरूपदिष्ट रस्तेमें यथा यथा स्थानमें उस प्रणवको उच्चारण करते करते निश्वास-प्रश्वासका ग्रहण-त्याग करनेसे ही 'मैं' के अर्थमें कर्म करना होता है और वही कर्म तुमको सिद्धि अर्थात् प्राप्तिकी प्राप्ति लाभ करावेगा, अर्थात् तुम आप ही आप अपने को भूल करके जो 'तुम' खज लिये हो, यह तुम्हारे सजनेका भ्रम 'मिटाकर तुम्हारा पुनः आत्मत्व प्रतिष्ठा भी कग देगा (४र्थ अः २६वें श्लोककी व्याख्या देखो)॥१०॥ अर्थतदप्यशक्तोऽसि कत्तु मद्योगमाश्रितः । सर्वकर्मफलत्यागं ततः कुरु यतात्मवान् ॥ ११ ॥ अन्वयः। अथ ( यदि ) एतत् अपि कत्तु "अशक्तः असि, ततः ( तहिं ) मद्योगं ( मदेकशरणं ) आश्रितः सन् यतात्मवान् ( यतचित्तः भूत्वा ) सर्वकर्मफलत्यागं कुरु ॥११॥ अनुवाद। इसमें भी यदि तुम अशक्त हो तो, मद्योग का आश्रय करके यतचित्त हो करके सर्वकर्मफल का त्याग कर दो ॥ ११॥ व्याख्या। ऊपरमें जो जो साधन कहा हुआ है, उन सबके सीतर यदि तुम एक भी न कर सको, तो हमारे योगका आश्रय कर लो। हमारा योग इस प्रकार है-ब्रह्मनाड़ी के बीचमें जो आकाश है, उस आकाशके मथनसे आदि अन्त शून्य एक प्रकारके शब्दकी उत्पत्ति होतो है; ऊंचे नीचे कम्पन वाले जो सुननेमें आता है उसको शब्द कहते हैं, और एक रंग कम्पन-शून्य अविच्छिन्न व्यंजन-रहित जो शब्द सुननेमें आता है उसीको नाद कहते हैं। उस नादके उदय होनेसे, वह नाद प्रोक्त आकाश-मथनके लिये परिश्रम दूर करा कर Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वादश अध्याय १२५ साधकको 'मैं' में ला करके साधक और 'मैं' दोनोंका मिलन कराय देता है। तुम भी ढूढो, तुम्हारे भीतर वह अकम्पन नाद कहाँ है। उस नादमें तुम मनको फेंको, ( क्रिया गुरूपदेशगम्य है ); तब तुम अपनेको विषय, देहादि इन्द्रियों और अन्तःकरणसे समेट लाकर अलग करके ऐसे कोई एक जगहमें लाओगे जिसमें तुम अनुभव करोगे कि, "सकल” कहने से जो किसीको समझा जाता है, उन सबसे तुम अलग हुए हो, और कोई किसीको तुम आश्रय करके नहीं हो। इस अवस्था. के बाद ही तुम 'मैं' में मिल करके 'मैं' हो जाओगे। इस अवस्थामें बोव्य बोधन मात्रका अभाव हो जाता है। इसीको मद्योग कहते हैं । इस अवस्थामें जबतक तुम रहोगे, तबतक तुम्हारा क्रियमाण कोई कम ही नहीं रहेगा, अतएव कर्म न रहनेसे कर्मफल आपही श्राप त्याग हो जावेगा। यह तो हुई क्रियमाण कर्मकी बात, पूर्वके सञ्चित कर्मसमूह जो तुमको फल देते थे और फल देनेके लिये उन्मुख हुए थे, सो सब भी अंधियारेकी ज्योति राशिमें पतंग-प्रवाह सदृश पड़कर जलकर खाक होते चले जावंगे। तब और तुम गुणके भीतर नहीं रहते हो इसलिये गुणोंके उपार्जित कर्म-संस्कार गुणको प्राप्त न हो करके निर्गुणमें पड़ करके क्रिया विहीन हो जायेगा। और इस अवस्थामें भविष्यत् शब्दके अर्थक अभावके लिये कशिंका भी नहीं रहेगी, इसलिये तुमको माया-विकार-शून्य कराकर आत्मवान् का देगा। इसीको तुम करा करो ॥ ११॥ . श्रेयो हि ज्ञानमभ्याखातूज्ञानाद्धयानं विशिष्यते। ध्यानात् कर्मफलत्यागस्त्यागाच्छान्तिरनन्तरम् ॥ १२ ॥ - अन्वयः। (अविवेकपूर्वकात् ) अभ्यासात् ज्ञानं हि श्रेयः ( निश्चितमेव प्रशस्वतरं ), ज्ञानात् ध्यानं विशिष्यते; ध्यानात् (कर्मफलत्यागः (विशिष्यते ); ( एवं ) त्यागात् अनन्तरं शान्तिः ( उपशमः स्यात् ) ॥ १२ ॥ Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीमद्भगवद्गीता अनुवाद। (अविवेक पूर्वक ) अभ्याससे ज्ञान श्रेष्ठ है; शानसे ध्यान विशिष्ट; ध्यानसे कम फलल्याग ( विशिष्ट ); ( इस प्रकारसे ) त्याग के बाद ही शान्ति होती है॥ १२॥ व्याख्या। अविवेक-जनित अभ्यासमें कठोरता है; परन्तु स्थिति नहीं विवेक-जनित ज्ञानमें निर्ममत्व, परन्तु स्थिति है। ये अभ्यास और ज्ञान इन दोनोंके भीतर ध्यानको समझते जाओ तो इस प्रकार समझ आता है कि,-साध्य वस्तुमें मिल करके साधक तदाकारत्व लेकर एक हो जानेका नाम ध्यान है। इस ब्यानमें मिलन-सुख और मिलनके लिये प्रेमकी कोमलता दोनोंही वर्तमान हैं । इसमें कठोरता वा निर्ममत्व इन दोनोंका ही अभाव है। साध्य और साधक मिलकर जब एक हो गये, उस एकत्वके परिपाकसे कर्म और कर्मफल दोनों का ही विश्राम हुआ। वह कर्म-विश्राम ही त्याग है। त्याग होनेसे निरन्तर शान्ति होती है। यह शान्ति ही अमनस्क स्थिति वा ब्राह्मीस्थिति है। इसलिये कहता हूं कि अभ्याससे ज्ञान श्रेष्ठ है; ज्ञानसे ध्यान श्रेष्ठ है, जिस ध्यानमें कठोरता भी नहीं, निर्ममत्व भी नहीं, तथापि त्याग-जनित सुखके साथ ज्ञानका फल शान्तिस्वरूप जो ब्राह्मी स्थिति है, उसे भी मिला देती है। - २य अर्थ। साधक देखते हैं कि बिना सद्गुरुके चरण कमलमें मस्तक नवाय आपापन्थी बनकर योग-समाधिका अनुष्ठान करना बकरीके गले वाले स्तनोंसे दूध निकालनेकी चेष्टाके नाई निष्फल है; परन्तु गुरूपदिष्ट सामान्य ज्ञान ही साधनमें सुफल देता है। और क्रमशः यह ज्ञान ध्यानावस्थामें साधकको ले जाकर और भी श्रेष्ठत्व देता है। इसके बाद जब समाधि-अवस्था आती है, तब कर्म और कर्मफलका स्वर विश्राम हो जाता है। उसीको त्याग कहते हैं। और. उसी त्यागमें शान्ति विराजती है ॥ १२॥ Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२७ द्वादश अध्याय अद्वष्टा सर्वभूतानां मैत्रः करुण एव च । निर्ममो निरहङ्कारः समदुःखसुखः क्षमी ॥ १३ ॥ सन्तुष्टः सततं योगी यतात्मा दृढ़निश्चयः । मय्यर्पितमनाबुद्धिर्यो मद्भक्तः स मे प्रियः ॥ १४ ॥ अन्वयः। सर्वभूतानां अद्वष्टा, मैत्रः, करुणः एव च, निर्ममः, निरहङ्कार, समदुःखसुखः, क्षमी ( क्षमाशीलः ), सततं सन्तुष्टः, योगी ( अप्रमतः ), यतात्मा (संयतस्वभावः ), दृढ़निश्चयः (आत्मतत्व-विषये स्थिराध्यवसायसम्पन्नः), मय्यपितमनोबुद्धिः ( मयि अपिते स्थापिते मनोबुद्धिः यस्य संन्यासिनः सः ) यः ( ईदृशो) मद्भक्तः सः मे प्रियः ॥ १३ ॥ १४ ॥ अनुवाद। जो पुरुष सब प्राणियोंसे द्वषशून्य, मैत्र, कृपालु, ममताविहीन, अहकारशून्य, सुखदुःखमें समज्ञानसम्पन्न, क्षमाशील, सर्वदा सन्तुष्ट, योगी (अप्रमत्त), संयतचित्त, दृढ़ अध्यवसायसम्पन्न और हममें अपने मन, बुद्धिको अर्पण करनेवाला है; वही मद्भक्तः मेरा प्रिय है ॥ १३ ॥ १४ ॥ व्याख्या। जिस समय साधक साधनके बलसे 'मैं' में आकर संकल्प-विकल्प रूप मन और निश्चयकरणशक्ति बुद्धिको एक स्थान पर स्थिर कर देते हैं, उस समय उनके अन्तष्करणमें सङ्कीर्णताका बन्धन शिथिल हो जाता है और उदारताका विकाश होता है। संयम-साधन समयमें उनका भूतादि विषयोंके प्रति जो विरोध भाव था, इस अवस्थामें पहुंचने से उसका भी लोप हो जाता है। मानो क्रमशः सबमें ही मैं-ज्ञान हो जाता है और इसीलिये द्वष-भाव हट जाता है। मेरी प्यारी वस्तु जैसी मैं हूँ, वैसी और कोई नहीं है; इससे मैत्री भावका प्रकाश होता है। अपना कष्ट जिस प्रकार मैं सहन नहीं कर सकता उसी तरह यह भाव सबके ऊपर विस्तार हो करके करुणा रससे पूर्ण होकर “मैं” में मिला लेता है। सबही “मैं” हो जाता है इसलिये 'मेरा' कहनेको कोई नहीं रहता। मुझे छोड़कर और किसी की विद्यमानता नहीं रहती और इसीलिये अहङ्कारका प्रादुर्भाव नहीं Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८ श्रीमद्भगवद्गीता होता। सुख और दुःख नामकी कोई वृत्ति भी नहीं रहती। सब समान हो जाते हैं; केवल क्षमा ही क्षमा, तोष ही तोष रह जाता है। पहले जो द्वैतभाव था, इस समय यह दोनों मिलकर एक हो जाते हैं और द्वैताद्वैत विवर्जित की सी एक अवस्था आती है। और यही (अवस्था ) योगी अवस्था कहलाती है। इस अवस्थामें आत्माका अवधि-रहित विस्तार हो जानेसे जितने दृढ़ और निश्चयवाची अर्थ हैं, उनकी प्रतिष्ठा लाभ होती है। गुरुवाक्यमें अटल विश्वाससे साधन करनेसे जिसकी इस प्रकारकी अवस्था पाती है, वही हमारा प्रिय है; क्योंकि वह साधक 'मैं' को छोड़कर और कुछ नहीं है ॥ १३ ॥ १४ ॥ यस्मान्नोविजते लोको लोकान्नोद्विजते च यः। हर्षामर्षभयोगमुक्तो यः स च मे प्रियः ॥ १५ ॥ अन्वयः। यस्मात् ( सकाशात् ) लोकः ( जनः ) न उद्विजते (भयशङ्कया क्षोभं न प्राप्नोति ), यश्च लोकात् न उद्विजते, यश्च हर्षामर्षमयोद्व गैः ( हर्षः स्वस्येष्ठलाभे उत्साहः, अमर्षः परस्य लाभऽसहन, भयं त्रासः, उद्व गो भयादि निमित्तचित्तक्षोभः एतः) मुक्तः यः स च मे प्रियः।। १५॥ अनुवाद। जिस साधकसे लोग उद्विजित नहीं होते और दूसरे लोगोंसे भी जो आप द्विजित नहीं होता, जो हष, अमर्ष, भय तथा उद्वेगसे विहीन है, वही हमारा प्रिय है ।। १५॥ व्याख्या। 'लोक" अर्थात् दृश्य यह जो कुछ है; उनके "मैं" हो जानेके पश्चात् द्रष्टा और दृश्य का सम्बन्ध मिट जाता है। इसलिये "मैं" से दृश्यका उद्विग्न अथवा दृश्यसे मेरे उद्विग्न होनेका अवसर नहीं आता। उद्व गसे अमर्ष, निरुद्व गसे हर्ष और प्रतिद्वन्दीसे भय उत्पन्न होता है। ये विकार जिसमें नहीं रहता, वही मेरा प्रिय अर्थात् “मैं” हूं ॥ १५॥ Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वादश अध्याय १२६ अनपेक्षः शुचिर्दक्ष उदासीनो गतव्यथः । सर्वारम्भपरित्यागी यो मद्भक्तः स मे प्रियः ॥ १६ ॥ अन्वयः। अनपेक्षः (निस्पृहः ) शुचिः (बाह्याभ्यन्तरशौचसम्पनः) दक्षो (अमलसः ) उदासीनः ( पक्षपातरहितः ) गतव्यथः (आधिशून्यः) सारम्भपरित्यागी ( सर्वान् दृष्टादृष्टार्थान् प्रारम्भान् उद्यमान् परित्यक्तं शीलं यस्य सः) यः मद्भक्तः स मे प्रियः ॥ १६॥ अनुवाद। जो साधक स्पृहाशून्य, शुचि, दक्ष, उदासीन, व्यथावजित तथा सारम्भपरित्यागी है; वह मद्भक्त ही हमारा प्रिय है ॥ १६ ॥ व्याख्या। "अनपेक्ष" जो पुरुष किसीकी अपेक्षा न करके अकेले रहते हैं अर्थात् कैवल्य भोग करते है; वही अनपेक्ष हैं। मनकी चञ्चलता ही अशुचि और स्थिरत्व ही "शुचि” है। बाह्यजगत्के विषयों को लेकर खेलनेका नाम ही "कार्य" है। प्रत्युत्पन्नमतिके द्वारा इन सबका परिचालन करके और इन सबके संस्पर्श से दूषित न होकर जो साधक केवल सत्यमें अवस्थान करते हैं; वे ही "दक्ष" हैं। दक्ष प्रजापति हैं; प्रकृष्टपूर्वक उत्पन्न हो करके स्थिति और भंग जिनकी प्रकृति है वे ही प्रजा हैं। इस प्रजाका जो नियन्ता है वही दक्ष है। ऊँचे स्थानमें बैठे हुए को जैसे नीचे वाला मनुष्य छू नहीं सकता ठीक उसी तरह समाधिस्थ योगीकी दशा है। जगतप्रफचसे अपने अन्त:करणको उठाकर उस प्रकार रहने के सदृश ऊँचे पर जो रहता है, वही "उदासीन" है। आधि और व्याधि * जिसके अन्तःकरणमें किसी प्रकारका विकार उत्पन्न नहीं करतो; उसीको गतव्यथ" कहते हैं। जिसके कर्म तथा कार्यका प्रारम्भ ही नहीं रहता, उसको "सर्वारम्भपरित्यागी” कहते हैं। गुरु-वाक्यमें अटल विश्वाससे इस प्रकारकी ___ * मनकी पोडाका नाम आधि है; और इसकी शान्ति अननुध्यानसे होती है। व्याधि शरीरकी पौड़ाका नाम है; इसकी शान्ति प्रतिकार द्वारा अर्थात् औषधा. पथ्यादिके प्रयोगसे होती है ।। १६ ।। -६ Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३० श्रीमद्भगवद्गीता साधनका फल जिसने पा लिया है, वही मेरा भक्त है; इसलिये वही मेरा प्रिय अर्थात् “मैं” हूँ ॥ १६ ॥ यो न हृष्यति न द्वोष्टि न शोचति न काक्षति । शुभाशुभपरित्यागी भक्तिमान् यः स मे प्रियः ॥ १७॥ अन्वयः। यः (प्रियं प्राप्य ) न हृष्यति, (अप्रियं प्राप्य ) न द्वष्टिा ( इष्टार्थनाशे सति ) न शोचति, (अप्राप्त अर्थ) न कांक्षति, यः शुभाशुभपरित्यागी भक्तिमान् सः मे प्रियः ॥ १७॥ . अनुवाद। जो साधक (प्रियवस्तुके लामसे ) हृष्ट नहीं होता, ( अप्रियके मिलनेसे ) द्वेष नहीं करता, (इष्टके नाशसे ) शाक नहीं करता, (अप्राक्तवस्तुकी) आकांक्षा नहीं करता, जो शुभाशुभ परित्यागी और भक्तिमान है; वही मेरा प्रिय है ॥ १७॥ व्याख्या। जिस भक्तिमान साधकको इष्ट प्राप्तिसे आनन्द अनिष्ट प्राप्तिसे विद्वेष, प्रियजनके विरहसे शोक, अप्राप्त वस्तुको प्राप्ति की लालसा अन्तर्बाह्यमें उदय नहीं होती, धर्म अथवा अधर्म करनेकी इच्छा जिसके हृदय में उत्पन्न नहीं होती; उपयुक्त अवस्थाएं जो पाये वे ही साधक हमारे प्रिय हैं। साधक, तुम देखो, ये जो कई अवस्थाएं हमने वर्णन की हैं, उन्हें प्राप्त करना और “मैं” हो जाना बराबर है॥१७॥ समः शत्रौ च मित्रे च तथा मानापमानयोः। .. शीतोष्णसुखदुःखेषु समः संगविवर्जितः ॥ १८ ॥ तुल्यनिन्दास्तुतिमौ नी सन्तुष्टो येन केनचित् । अनिकेतः स्थिरमतिर्भक्तिमान मे प्रियो नरः ॥ १६ ॥ - अन्वयः। शत्रौ च मित्रे च तथा मानापमानयोः समः ( एकरूपः ) शीतोष्णसुखदुःखेषु समः संगविवजितः (क्वचिदप्यनासक्तः) तुल्यनिन्दास्तुतिः, मौनी Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वादश अध्याय १३१ ( संयतवाक ), येन केन चित् ( यथालब्धेन ) सन्तुष्टः, अनिकेतः ( नियतवासशून्यः), स्थिरमतिः ( व्यवस्थितचित्तः ), भक्तिमान् नरः मे प्रियः ।। १८ ॥ १९॥ ___ अनुवाद। शत्र, मित्र, मान और अपमानमें समदृष्टि सम्पन्न; शीत-उष्ण-सुख· दुःखमें समान ज्ञान विशिष्ट; आसक्तिरहित; निन्दा और स्तुतिमें समभावापन्न मौनी; जो कुछ हो उसीमें सन्तुष्ट; अनिकेत ( आश्रयशून्य ); स्थिरमति ऐसे जो भक्तिमान नर हैं वे ही हमारे प्रिय हैं ।। १८ ॥ १९॥ व्याख्या। संग कहते हैं इच्छाको; यदि इस इच्छाको अन्तःकरण से हटा दिया जाय तो, शत्रु ( विरोधी), मित्र (अनुकूल वा एकक्रिय ), मान ( पूजा ), अपमान (तिरस्कार), शीत (शीतलता बोध), उष्ण ( लत्ताप बोध ), सुख (जिससे अन्तःकरण तृप्त होता है), दुःख ( तद्विपरीत ), निन्दा ( अपवाद ), स्तुति (प्रशंसा), इत्यादि इन सब परस्परविरोधी वृत्तियोंकी विषमता नष्ट हो जाती है। उस समय मौनी ( संयतवाक् ), जो कुछ है उसीसे सन्तुष्ट, अनिकेत (ब्रह्मवत् आश्रय विहीन ), स्थिरमति (जिसका चित्त ब्रह्ममुखी होकर स्थिर हो चुका है ), इत्यादि भाव साधकमें आता है। मनुष्योंमें जो नर इस अवस्थापन्न है वही मेरा प्रिय है अर्थात् वही आत्मस्वरूप लाभ कर चुका है ॥ १८ ॥ १६ ॥ ये तु धर्मामृतमिदं यथोक्तं पय्युपासते। श्रद्दधाना मत्परमा भक्तास्तेऽतीव मे प्रियाः ॥२०॥ अन्वयः। ये तु इदं धर्मामृतं यथा उक्त ( अद्वेष्टासर्वभूतानामित्यादिवा ) पर्युपासते ( अनुतिष्ठन्ति ); श्रद्दधानाः ( श्रद्धा कुर्वन्तः ) मत्परमा ( मत्परायणाः ) ते भकाः मे अतीव प्रियाः ॥२०॥ अनुवाद। जो साधक इस अमृत रूपी धर्मका, जैसा वर्णन किया गया है, ठीक उसी प्रकार अनुष्ठान करते हैं, श्रद्धाशोल और मत्परायण वे भकगण ही मेरे अतीय प्रिय है ॥२०॥ Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३२ श्रीमद्भगवद्गीता .. व्याख्या। जो भक्तिमान, श्रद्धावान् साधक “मैं” होनेके लिये, हमारे कहे हुए इस अमृतमय धर्मोपदेशका ठीक ठीक साधन करते हैं, वे ही हमारे अतिप्रिय हैं। (क्योंकि निश्चय वे साधक 'मैं' हो जाते हैं ) ॥२०॥ इति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिरुत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुन संवादे भक्तियोगो नाम - द्वादशोऽध्यायः Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रयोदशोऽध्यायः __अर्जुन उवाच। प्रकृति पुरुषं चैव क्षेत्रं क्षेत्रज्ञमेव च । एतद्वदितुमिच्छामि ज्ञानं ज्ञयं च केशव ॥१॥ अन्वयः। अर्जुन: उवाच । है केशव ! प्रकृति पुरुषं च एव क्षेत्रं क्षेत्रज्ञं एव च, ज्ञानं ज्ञेयं च, एतत् वेदितु इच्छामि ॥१॥ अनुवाद। अर्जुन कहते हैं । हे केशव ! प्रकृति और पुरुष, क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ, ज्ञान और ज्ञेय इत्यादि को जानने की मैं इच्छा करता हूँ ॥१॥ व्याख्या। साधक देखते हैं कि, यह जो आत्मामें आत्माके . मिलानेकी चेष्टा है, जिसे मैं ने 'भक्तियोग' कहकर समझा है, इसमें कुछ वृत्तियां इसके अनुकूलमें और कुछ प्रतिकूलमें खड़े हो जाते हैं। किन्तु इन दोनों प्रतिकूल, अनुकूल वृत्तियोंकी आश्रयभूमि वा आधार एक ही है। जबतक इनके आधारको समूल नष्ट न किया जायेगा, तबतक आत्माके साथ आत्माके मिलानेका स्थायी फल पाना केवल दुराशा मात्र है। वह जो आधार सर्वसमष्टि-शक्ति रूपसे रहती है, वह भी और एक दूसरेकी श्राधेय है। सर्वकरणीय शक्ति हो करके भी एक "सत्ता" के निकट अधीनता स्वीकार करके यह अपना अस्तित्व बनाय रखती है। वह सत्ता इस महाशक्तिका ऐसा कोई अणु वा परमाणु नहीं है जिसमें ओतप्रोत भावसे नहीं रहता। ( जैसे ईट, पत्थर, बर्तन और घरके भीतर आकाश है )। उस सत्ताका वह जो ओतप्रोत भाव है, वही इस महाशक्तिकी चेतन-विधाता है। यह जो दोनों परमाराध्य परमार्थ एक रूपसे हमारे सम्मुखमें खड़े रहते हैं इनके बीचमें प्रकृति और पुरुष कौन है ? क्षेत्र अथवा क्षेत्रज्ञ भी कौन Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३४ श्रीमद्भगवद्गीता है ? जिससे इस क्षेत्र वा क्षेत्रको जाना जाता है, वह ज्ञान भी क्या है ? और मेरे जो कुछ जानने लायक वस्तु (ज्ञय ) वह भी क्या है ? हे केशव ! इस समय मुझे आप यही सब समझा दीजिये ॥१॥ श्रीभगवानुवाच । इदं शरीरं कौन्तेय क्षेत्रमित्यभिधीयते। एतद यो वेत्ति तं प्राहुः क्षेत्रज्ञ इति तद्विदः ॥२॥ अन्वयः। श्रीभगवान् उवाच । हे कौन्तेय । इदं ( भोगायतनं ) शरीरं क्षेत्र इति अभिधीयते (कथ्यते, संसारस्य प्ररोहभूमित्वात् ); यः यतत् ( शरीरं ) वेत्ति ( जानाति, अस्य शरीरस्य साक्षीस्वरूपेण वर्तते इत्यर्थः) तद्विदः ( तस्य साक्षिण: स्वरूपज्ञा ) तं ( वेदितारं साक्षिणं ) क्षेत्रज्ञः इति प्राहुः ।। २ ।। . अनुवाद। श्रीभगवान कहते हैं। हे कौन्तेय । इस शरीरको क्षेत्र कह करके अभिहित किया जाता है। जो इसे जानते हैं ( अर्थात् इसके ज्ञाता और साक्षीस्वरूपमें वत्त'मान हैं ), उन्हें क्षेत्रज्ञ कहते हैं ॥२॥ व्याख्या। इस शरीरको क्षेत्र कहते हैं। क्योंकि जिस प्रकार किसी क्षेत्रमें बीज बोनेसे जैसे हवा, गर्मीकी सहायतासे मिट्टीके गुण अनुसार तथा कृषि-कर्मके फलसे बीजका अनुरूप फल उत्पन्न होता है, उसी प्रकार इस शरीरमें भी (कर्म-फल तो उत्पन्न होता ही रहता है, परन्तु इसे छोड़ करके ) गुरुपदेशरूप बीजको बोनेसे प्राणयोगमें ऐकान्तिक इच्छा-प्रभावसे और गुणक्रियाके फलसे अभीष्ट फल उत्पन्न होता है। तत्वदर्शियोंने इस शरीरके कार्यकारण स्वरूपका निर्णय करके देखा है कि, यह त्रिगुणमय चौबीस तत्वोंसे निर्मित हुआ है, और इसका स्थूल, सूक्ष्म और कारण ये तीन प्रकारके रूप हैं, अन्नमय, प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय, और प्रानन्दमय ये पांच प्रकारके कोश हैं,-जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति ये तीन प्रकारके अवस्था हैं। और यह भी देखा है कि, इस स्थूल, सूक्ष्म और कारण शरीरको छोड़कर पञ्चकोशसे अतोत, अवस्थाओंका साक्षी, सच्चिदानन्द Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रयोदश अध्याय १३५ स्वरूप और कोई एक है, उसे ही आत्मा कहते हैं। वही संसारका 'अहं' अर्थात् ज्ञाता और साक्षी है-"अहमेकोऽपि सूक्ष्मश्च ज्ञाता साक्षी सदव्ययः”। यह "अह" ही इस श्लोकके "एतत् यो वेत्ति" इस उक्तिका वेत्ता है। इसीलिये तत्वविद्गण उसे क्षेत्रज कहते हैं। * किन्तु जो साधक साधन-शक्तिसे आत्मतत्वका अवलम्बन करके पगसे लेकर मस्तक पर्य्यन्त इस शरीरको ज्ञानका विषय किये हैं अथवा कर रहे हैं। वे भी क्षेत्रज्ञ हैं। क्योंकि वे क्रमशः उस “अहं" में चित्तलय करके तत्स्वरूप प्राप्त करके "अहं" स्वरूप हो जाते हैं। श्रीमत् शंकराचार्य और श्रीधर स्वामीने इस श्लोकके भाष्य टीका में ऐसे ही क्षेत्रका वर्णन किया है। किन्तु दूसरे श्लोकमें भगवानके "क्षेत्रज्ञञ्चापि मां विद्धि" इस वचनके अनुसार स्वामी शंकराचार्य्यने कहा है कि, क्षेत्रज्ञके सम्बन्धमें केवल इतना ही जाननेसे काम न चलेगा; जो सर्वक्षेत्रमें (सबमें) एक अद्वितीय परमेश्वर रूपसे विराजमान है, वही क्षेत्रज्ञ है। इससे समझाता है कि, शरीरतत्व-विद् साधक भी क्षेत्रज्ञ और परमेश्वर भी क्षेत्रज्ञ है । भगवानने ४र्थ श्लोकमें “स च यो यत्प्रभाषश्च" कहकर क्षेत्रज्ञके सम्बन्धमैं कहा कि, आगे कहेंगे, परन्तु अध्याय में किसी स्थान पर भी स्पष्टतया क्षेत्रज्ञका लक्षण नहीं कह करके अमानित्वादि कई एक गुणोंको ज्ञानसाधनत्व हेतु ज्ञान कह करके उल्लेख कर दिया तत्पश्चात् "ज्ञेयं यत्तत् प्रवक्ष्यामि” इत्यादि श्लोक द्वारा ज्ञेय पदार्थका लक्षण कह दिया है। इसीसे अर्जुनके "ज्ञान और ज्ञय क्या है ?" इस प्रश्नका उत्तर भी दे दिया गया और क्षेत्रज्ञ के स्वरूपका भी वर्णन कर दिया गया है। अतएव इसीसे जानना चाहिये कि, वह अमानित्वादि ज्ञानसाधन गुण जिसमें रहता है वह ज्ञानविज्ञानयोगाधिकृत होनेके पश्चात् संन्यासी और ज्ञाननिष्ट होनेके कारण बह भो क्षेत्रज्ञ-शरीरतत्वविद् साधक है; और जो शुद्ध केवल क्षेत्रज्ञ है, जिसका प्रभाव जाननेसे अमृतत्व लाभ होता है, वहो ज्ञेय है। उसके लक्षणादि "अनादिमत् परं ब्रह्म" इत्यादि द्वारा १३ से १८ श्लोक पर्यन्त वणित है। साधकको स्मरण रखना चाहिये कि म अध्यायमें वर्णित भगवानकी अपरा एवं परा दोनों प्रकृतिको ही इस अध्यायमें दो स्थान पर यथाक्रम अनुसार क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ एवं प्रकृति और पुरुष नामसे उल्लेख किया गया है। नाम पृथक् पृथक् है परन्तु उनमें भेद बहुत थोड़ा है। Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३६ श्रीमद्भगवद्गीता .. शरीरके सम्बन्धमें यह जो कहा गया, उसे समझानेके लिये और भागेके छठवें और सातवें श्लोकमें जो क्षेत्रका वर्णन किया गया है, उसे समझनेके सुभीताके लिये इस स्थान पर चौबीस तत्वोंका उत्पतिप्रकरण स्थूल-सूक्ष्म-कारण शरीर-विवरण, पञ्चकोश तथा अवस्थात्रय का परिचय, और क्षेत्रज्ञ वा आत्माका लक्षण इत्यादि श्रीमत् शङ्कराचार्य देवकी उक्ति अनुसार संक्षेपमें दिया गया है।__ भगवान् शंकराचार्य्यने तत्वोत्पत्तिप्रकार कहनेके पहले ही कहा है कि-"ब्रह्माश्रया सत्त्वरजस्तमोगुणात्मिका माया अस्ति”। उत्पत्तिप्रकार कहनेके लिये इस अंशको मान लेना पड़ा। इस अंशको ही शास्त्रका मान लेनेका विषय वा स्वीकारोक्ति कहते हैं। प्रत्येक शास्त्र में प्रतिलोम प्रकरणके सिद्धान्त विषयमें इस प्रकार स्वीकारोक्ति बिना गत्यन्तर नहीं है। इस प्रकार स्वीकारोक्तिकी सत्यता जानी जाती है, परन्तु प्रमाण देकर समझाई नहीं जा सकती। इसलिये इसको अप्रमेय सत्य कहते हैं। इस त्रिगुणात्मिका मायासे आकाश बना; उसके बाद आकाशसे वायु, वायुसे तेज, तेजसे आप (जल) और आपसे पृथ्वी, इस प्रकार फचतत्वकी उत्पत्ति होती है। इन सब पञ्चतत्वोंमेंसे आकाशके सात्विक अंशसे श्रोत्रेन्द्रिय उत्पन्न हुई, वायुके सात्विक अंशसे त्वगिन्द्रियकी उत्पत्ति, अग्निके सात्विक अंशसे चक्षुरिन्द्रियकी उत्पत्ति, जलके सात्विक अंशसे रसनेन्द्रिय और पृथ्वीके सात्विक अंशसे घ्राणेन्द्रिय उत्पन्न हुई है। और इन सब पचतत्वोंके एकत्रित सात्विकाशसे मन, बुद्धि, अहंकार और चित्त यह सब अन्तःकरण सम्भूत हुए हैं। इन सब पञ्चतत्वोंमें से आकाशके राजसांशसे वागिन्द्रिय, वायुके राजसांशसे पाणीन्द्रिय, अग्निके राजसाशसे पादेन्द्रिय, जलके राजसांश से उपग्थेन्द्रिय और पृथ्वीके राजसांशसे गुह्य न्द्रिय की उत्पत्ति है। Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रयोदश अध्याय १३७ और इन सब पचतत्वोंके समष्टि राजसाशसे प्राण, अपान, समान, उदान, व्यान यह सब पञ्चप्राण सम्भूत हुए हैं। . इन सब पञ्चतत्वोंके तामसांशसे पच्चीकृत पञ्चतत्वको उत्पत्ति होती है। पचीकरण यथा; -- इन सब पचमहाभूतोंके तामसांश स्वरूप एक एक भूतको दो भागोंमें विभक्त करके पाँचोंके पाँच अर्धभागको अलग अलग स्थिरभावसे रक्खो, और प्रत्येक शेष पाँच अर्ध भागको चार भागोंमें विभक्त करो। इन पाँच अध के प्रत्येकके भाग चतुष्टयको उन अलग रक्खे हुए पंचाध के बीच में स्वकीय अध को छोड़ बाकी बचे हुए चार अध भागोंके साथ मिला दो। ऐसा करनेका ही नाम पच्चीकरण है। इस पन्चोकरण क्रियामें पञ्चभूत स्थूलत्वको प्राप्त होते हैं, और इसीसे इन्द्रियग्राह्य होते हैं, अपचीकरण अवस्थामें सूक्ष्मत्व हेतु इद्रियप्राह्य नहीं होते। पञ्चीकरण अवस्था में प्रत्येक भूत पचमिश्रित होता है। इसलिये पृथ्वी जो दिखाई पड़ती है, उसमें पृथ्वी अंश आठ आना, जलांश दो आना, अग्नि अंश दो आना, वायु अंश दो पाना और आकाशांश दो आना है। उसी प्रकार जलमें जलांश आठ श्राना और बाकी प्रत्येक चार भूतका अंश दो दो आना है। इसी प्रकार अन्यान्य भूतोंमें भी जानो। इस पञ्चीकृत पञ्चमहाभूतसे ही स्थूल शरीर उत्पन्न होता है । इसीसे पिण्ड और ब्रह्माण्डकी एकता संगठित होती है। इस तत्वोत्पत्ति-प्रकरणमें अपञ्चीकृत पञ्चमहाभूत क्या है, उसे समझा दिया गया है। अब स्थूल, सूक्ष्म, और कारण शरीर क्या हैं; उसे कहते हैं जो शरीर पच्चीकृत पञ्चमहाभूत द्वारा कृत ( गठित ), सत्। असत् कर्मसे उत्पन्न, सुख दुःखादि भोगका आयतन (संस्थान), एवं अस्ति (रहता है), जायते ( उत्पन्न होता है ), वर्द्धते ( बढ़ता है) Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३८ श्रीमद्भगवद्गीता विपरिणमते (अवस्थान्तर प्राप्त होता है ), अपक्षीयते (क्षय प्राप्त होता है), विनश्यति (विनाश प्राप्त होता है )-यह षड्विकार सम्पन्न है, उसे स्थूल शरीर कहते हैं । जो शरीर अपञ्चीकृत पञ्चमहाभूत द्वारा कृत (गठित ), सत् असत् कमसे उत्पन्न, सुख दुःखादि भोगका साधन ( करण ) एवं पन्चज्ञानेन्द्रिय पचकर्मेन्द्रिय पञ्चप्राण मन तथा बुद्धि इन सप्तदश कलायुक्त है, वही सूक्ष्म शरीर है। और जो निर्वाच्य अनादि अविद्यारूप, स्थूल तथा सूक्ष्म दोनों शरीरका कारणमात्र, स्वस्वरूप ज्ञानका आवरक तथा निर्विकल्परूप है। वही कारण शरीर है। ___ इन तीनों शरीरकी क्रिया अनुसार जीवको तीन अवस्थाएं भोगनी पड़ता हैं। वह तीनों अवस्था यह हैं-जाग्रत, स्वप्न तथा सुषुप्ति। जिस समय श्रोत्रादि ज्ञानेन्द्रिय द्वारा शब्दादि विषय सहयोगसे ज्ञानोत्पत्ति होती है, तबही जाग्रदवस्था है। यह स्थूल शरीर की क्रिया है। स्थूलशरीराभिमानी आत्मा ही विश्व है, इस प्रकार कहा जाता है। __जाग्रदवस्थामें जो देखा जाता है, जो सुना जाता है, उससे उत्पन्न हुई वासना द्वारा निद्रा समयमें जो प्रपञ्च (प्रत्यक्ष्य ) दिखाई पड़ते हैं, वही स्वप्नावस्था है। यह सूक्ष्म शरीर की क्रिया है। यह सूक्ष्म शरीराभिमानी श्रात्मा तैजस है, ऐसा कहा जाता है। ... "मैं कुछ भी नहीं जानता, मैं सुखसे सोता हूँ" - यही सुषुप्तिअवस्था है। यह कारण शरीरकी क्रिया है। यह कारण शरीराभिमानी श्रात्मा प्राज्ञ है, ऐसा कहा जाता है। इसी तरह शरीरके कोश पांच हैं;-अन्नमय, प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमव और आनन्दमय। . Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रयोदश अध्याय १३६ अन्नरससे उत्पन्न होकर अन्नरस से ही वृद्धि पाकर अन्नरूप पृथ्वीमें जो विलीन होता है, वही अन्नमय कोश, अर्थात् स्थूलशरीर है। प्राणादि पन्चवायु तथा वागादीन्द्रिय पञ्चकको प्राणमय कोश कहते हैं। ज्ञानेन्द्रिय पञ्चक सम्मिलित मनको मनोमय कोश कहते हैं; उसी प्रकार ज्ञानेन्द्रिय पचक सम्मिलित बुद्धिको विज्ञानमय कोश कहते हैं। ये तीनों कोश सूक्ष्म शरीरके अन्तर्गत है। इसी प्रकार कारणशरीर गत अविद्या स्थित प्रियादिवृत्ति सहित जो मलिनसत्त्व है, वही श्रानन्दमय कोश है। - यह पाँचो कोशकी बात हुई। हमारा शरीर, हमारा प्राण, हमारा मन, हमारी बुद्धि, हमारा ज्ञान-यह सब आपही आप जाने जाते हैं। उसी प्रकार जैसे कनक कुण्डल गृहादिमें हमारा शब्दका प्रयोग होता है, मैं शब्द सूचित नहीं होता; वरन् वे सब मैं से भिन्न ही बोध होते हैं। इसी तरह पन्चकोशमें भी हमारा शब्द ही प्रयुक्त होता है। यह सब आत्मा नहीं है। तब आत्माका स्वरूप क्या है ? ना,-"सच्चिदानन्दस्वरूपः", अर्थात् आत्मा सत्=तीनों कालमें ही विद्यमान है, चित्=ज्ञानस्वरूप, एवं आनन्द = सुखस्वरूप। यह सच्चिदामन्दस्वरूप आत्मा ही क्षेत्रज्ञ है ॥२॥ क्षेत्रज्ञञ्चापि मां विद्धि सर्वक्षेत्रषु भारत । क्षेत्रज्ञत्रयोनिं यत्तज्ज्ञानं मतं मम ॥३॥ अन्वयः। हे भारत ! सर्वक्षेत्रेषु मां च अपि क्षेत्रज्ञ विद्धि; क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोः यत् ज्ञानं तत् ज्ञानं मम मतं ॥ ३ ॥ अनुवाद। हे भारत ! समुदय क्षेत्रमें हमें ही क्षेत्रज जानो; क्षेत्रक्षेत्रज्ञका जो ज्ञान है; वही ज्ञान हमारा अभिमत है ॥ ३॥ व्याख्या। वह जो क्षेत्रके सम्बन्धमें कहा गया है, एक भस्माणुसे लेकर माया पर्य्यन्त सब ही परिणामी होनेसे इन सबकी नश्वरता Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४० . श्रीमद्भगवद्गीता प्रतीत होती है, अर्थात् यह सब ही असत् है। और वह जो सत्ताके बारेमें कहा गया है, वही इन सब परिणामियोंका आश्रय और स्वयं सत् अपरिणामी होनेसे उसको इन सबका ईश्वर (१८ : ६१ श्लोक) कहा गया है। वह सत् अपरिणामी ही इन परिणामियोंके जानने योग्य वस्तु है। फिर इन परिणामियोंके भीतर बाहर जो कुछ है, परिणामी लोग उसे आप ही आप कुछ नहीं जानते; परन्तु वह परमेश्वर इनके प्रत्येक अणु परमाणुओंका वेत्ता है, इसीलिये वह क्षेत्रज्ञ है। यह जो दृश्यमान जगत् दिखाई पड़ता है, इसके प्रत्येक भागको तुम भलीभांति देखकर, पहचान कर समझ लो, देखो इनमें तुम कौन हो। ऐसा करनेसे ही देखोगे कि, इनमें तुम एक भी नहीं हो। क्योंकि जो कुछ आता जाता है, वह चिरस्थायी नहीं है, वह असत् है। जो चिरस्थायी सत् है, हे अर्जुन ! वही तुम हो। इसलिये कहता हूँ कि, प्रत्येक शरीर ही भिन्न भिन्न क्षेत्र है; क्योंकि स्थूल दृष्टिसे उनको अलग अलग देखा जाता है। परन्तु एक महाकाश जिस प्रकार प्रत्येक स्थूल पदार्थके भीतर बाहर वर्तमान है, उसी प्रकार मैं "सत्ता” रूपसे इन सब असत् परिणामियों के भीतर बाहर वर्तमान हूँ। इसीलिये इन सब क्षेत्रोंका जो कुछ ज्ञान, अर्थात् जाननेका जो कुछ पदार्थ है उन्हें मैं जानता हूँ, इसलिये मैं क्षेत्रज्ञ हूं। यह जो क्षेत्र परिणामी और असत् , और यह जो मैं परमेश्वर अपरिणामी और सत हूँ, इन दोनोंका.जो ज्ञान है, हमारी सम्मतिमें यह ज्ञानही ज्ञान तत् क्षेत्रं यच्च याहक् च यद्विकारि यतश्च यत् । - स प यो यत्प्रभावश्च तत् समासेन मे शृणु ॥४॥. अन्वयः। तत् क्षेत्रं यत् च ( स्वरूपतो जड़दृश्यादिस्वभावः ) यादृक् च (यादृशञ्च इच्छादिधर्मकं ) यद्विकारि (यरिन्द्रियादिविकारैर्युक्त) यतश्च (प्रकृतिपुरुषसंयोगाद्भवति ) यत् ( यै प्रकारैः स्थावरजङ्गमादिभेदै मिन्नं ), स च क्षेत्रज्ञः यः यत् Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रयोदश अध्याय १४१ प्रभावश्च ( अचिन्त्यैश्वर्ययोगेन येः प्रभावः सम्पन्नः ) तत् ( सर्व ) समासेन ( संक्षेपतः ) मे ( मम वाक्यतः ) शृणु ॥ ४ ।। अनुवाद। वह क्षेत्र कौन है, केसा है, कितने बिकारसे युक्त है, किससे उत्पन्न है, एवं किस प्रकार है, और वह (पुरुष) कौन तथा किस किस प्रभावयुक्त है उसे संक्षेपमें मुझसे सुनो ॥ ४ ॥ व्याख्या। ऊपर वह जो क्षेत्र कहा गया है, वह शरीररूपी क्षेत्र स्वरूपतः जिस प्रकार जड़ दृश्यादि स्वभाव-सम्पन्न, जिस प्रकार इच्छादि धर्मयुक्त, जो जो इन्द्रियादि विकारयुक्त, जैसे प्रकृति पुरुषके - संयोगसे उत्पन्न और जिस प्रकार स्थावर जङ्गमादि भेदसे विभिन्न है, और वह क्षेत्रज्ञ, वह सत्सत्ता, जिनके महिमा कणसे वह असतू क्षेत्र सत् सज करके खेल करता है वह भी जो है, तथा जिस प्रकार प्रभाव युक्त है; उसे संक्षेप में कहता हूँ, सुनो ॥४॥ ऋषिभिर्बहुधा गीतं छन्दोभिर्विविधः पृथक् । ब्रह्मसूत्रपदैश्चैव हेतुमद्भिर्विनिश्चितैः ॥५॥ · अन्वयः। [ तत् क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोर्याथात्म्यं ] ऋषिभिः ( वशिष्ठादिभिः ) बहुधा ( बहुप्रकारं ) गीतं ( कथितं ), छन्दोभिः (छन्दांसि ऋगादीनि तैमन्त्रच्छन्दोभिः ) विविधैः ( नानाप्रकारः ) पृथक् ( विवेकतः ) गीत; हेतुमद्भिः ( युक्तियुक्तः) विनिश्चितैः ( असन्दिग्धार्थप्रतिपादकः ) ब्रह्मसूत्रपदः ( ब्रह्मणः सूचकानि बाक्यानि ब्रह्मसूत्राणि तैः पद्यते गम्यते ज्ञायते ब्रह्म ति तानि तः) एव च क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोर्याथात्म्यं गोतमिति अनुवर्तते ॥ ५॥ - अनुवाद। ( उस क्षेत्र और क्षेत्रज्ञका यथार्थ तत्व ) ऋषियोंके द्वारा बहु प्रकारसे गीत ( कथित ) हुआ है, ऋगादि वेद समूहके द्वारा विषिध प्रकारसे पृथक् गीत हुआ है, और युक्तियुक्त निश्चितार्थ-प्रतिपादक ब्रह्मसूत्रपद समूहके द्वारा भी गोत हुआ है।॥५॥ व्याख्या। क्षेत्र क्षेत्रज्ञके सम्बन्धमें वशिष्ठादि ऋषियोंने बहुत प्रकारको वर्णना की है, ऋगादि वेदमें भी नाना प्रकारको वर्णनाकी है, Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४२ ... श्रीमद्भगवद्गीता . और जो सब युक्तियुक्त असन्दिग्धार्थ-प्रतिपादक ब्रह्मसूत्र और ब्रह्मपद (“अथातो ब्रह्मजिज्ञासा” इत्यादि वेदान्त सूत्र और उपनिषत्वाक्य ) हैं, उसमें भी वर्णना की गई है। वह सब वर्णना विस्तर एवं दुःसंग्रह हैं। इसलिये भगवानने अर्जुनको क्षेत्र क्षेत्रज्ञ सम्बन्धमें संक्षेपसे कहना प्रारम्भ किया ॥५॥ महाभूतान्यहङ्कारो बुद्धिरव्यक्तमेव च । इन्द्रियाणि दशैकश्च पञ्च चेन्द्रियगोचराः॥ ६ ॥ इच्छा द्वषः सुखं दुखं संघातश्चेतना धृतिः। एतत् क्षेत्रं समासेन सविकारमुदाहृतम् ॥ ७॥ .. अन्वयः। महाभूतानि (भूम्यादीनि पञ्च सूक्ष्माणि भूतानि ) अहङ्कारः ( महाभूतकारणमहंप्रत्ययलक्षणः ) बुद्धिः ( अहङ्कारकारणं महत्तत्त्वं ) अव्यक्तमेव च ( मूलप्रकृतिः ) इन्द्रियाणि दश (श्रोत्रादोनि पञ्च ज्ञानेन्द्रियाणि वाक्पाण्यादीनि पञ्च कमेन्द्रियाणि ) एकं च (मनः) इन्द्रियगोचराश्च पञ्च ( तन्मात्ररुपा एव शब्दादयः आकाशादिविशेषगुणतया व्यक्ताः सन्तः इन्द्रियविषया पञ्च )-तदेवं चतुर्विशति तत्त्वान्युक्तानि । इच्छा, द्वषः, सुख, दुःख, संघातः ( शरीरं ), चेतना ( ज्ञानात्मिका मनोवृत्तिः), धृतिः (धैर्य)-एते चेच्छादयो दृश्यत्वात् न आत्मधम्मीः अपितु मनोधाः अतः क्षेत्रान्तःपातिनः। एतत् क्षेत्रं सविकार ( इन्द्रियादिविकारसहित ) -समासेन ( संक्षेपेण ) उदाहृतम् ( तुभ्यं मया उक्तमिति ) ॥ ६॥ ७॥ अनुवाद। महाभूत समूह, अहङ्कार, बुद्धि, अव्यक्त, दश इन्द्रिय और एक (मन), और पञ्च इन्द्रियविषय, इच्छा, द्वेष, सुख, दुःख, संघात ( शरीर ), चेतना और धृति; यही क्षेत्र है, जिसे संक्षे पसे विकार सहित कहा गया ॥६॥७॥ व्याख्या। ब्रह्माश्रया त्रिगुणात्मिका मायासे आकाश, आकाशसे वायु, वायुसे तेज, तेज से जल, जलसे पृथ्वी उत्पन्न हुई है, ये पाँचो महाभूत हुए। अर्थात् सब विकारोंमें (दूधमें घीके सदृश) प्राप्त हैं जो अविकृत सूक्ष्म भूत समूह, जिन भूतोंमें पञ्चीकरण नहीं हुआ, जो Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रयोदश अध्याय १४३ सब भूत अपनी अपनी अवस्थामें अविकृत हैं, जो इन्द्रियोंसे ग्रहणीय नहीं, उन्हें ही महाभूत कहते हैं। इन भूतोंके एकत्रित सात्त्विक अंश से अन्तःकरणकी उत्पत्ति होती है। वृत्तिभेदसे इस एक अन्तःकरणको चार रूपसे समझा जाता है। सङ्कल्प विकल्पके समय मन, निश्चय करनेके समय बुद्धि, अहंप्रत्यय लक्षणमें अर्थात् "मैं", मैं ऐसा हूं, मैं वैसा हूं, इस प्रकारकी वृत्ति लेने के समय अहवार, और कृत कमके शोचन ( चिन्ता ) करनेके समय उसे चित्त कहते हैं। अन्यक्त कहते हैं सत्व रजः तमोगुणात्मिका मायाको; जिसे वाणी द्वारा प्रकाश नहीं किया जा सकता, वही अव्यक्त है। दशों इन्द्रियोंमें पांच कर्मेन्द्रिय और पाँच ज्ञानेन्द्रिय हैं, और एक मन है, जिसे एकादश इन्द्रिय कहते . हैं। इन्द्रियगोचर पाँच विषय हैं-शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्ध । श्रोत्रके गोचर शब्द, त्वचाके स्पर्श, चक्षुके रूप, रसनाके स्वाद और घ्राणेन्द्रियके गोचर गन्ध है। ___ "इच्छा" = प्रति आसक्ति। मेरे बिना और एकका नाम संग; जिस प्रकार मरुभूमिके गीसे झुलसा हुआ मनुष्यको बड़के पेड़के नीचे बैठकर चीनीके शर्बतमें निबूका रस डालकर पीनेके पश्चात् जो तृप्ति होती है। कालान्तरमें ऐसी अवस्था प्राप्त करने पर ऐसे समयमें उसकी जो स्मृति अथवा प्राप्ति की लालसा होती है, उसे ही इच्छा कहते हैं। 'द्वष' = कदापि कोई घोर अंधियारी रात्रिमें कण्टकमय जंगलमें पड़कर बहु यन्त्रणा भोगनेके पश्चात् ईश्वरकी कृपासे मुक्त हुए मनुष्यके हृदयमें उस अवस्थाको फिर कभी प्राप्त करनेका स्मरण होते ही जिस वृत्ति का उदय होता है, उसे ही द्वष कहते हैं। "सुख"अनुकूल प्राप्ति । "दुःख" = प्रतिकूल प्राप्ति ( सुखका परवत्ती मनोधर्म का नाम दुःख")। “संघात" = निविड़ संयोग; अर्थात् अणु परमाणुओंके परस्पर मिलनेसे इस प्रकारका एक भावापन्न होता है, जिससे उनमें भिन्नता बोध करानेके लिये किसी प्रकार छिद्र दिखाई Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४४ श्रीमद्भगवद्गीता न पड़ें इस प्रकारसे रहनेका नाम “संघात” है। जैसे तुम्हारे शरीर में असंख्य अणु परमाणु हैं, परन्तु ऐसे छिपे हुए हैं कि, किसी प्रकार भी एकके सिवाय दो की शंका उठनेकी भी युक्ति नहीं आती; ऐसे ही एक रसमें रहता है। यह जो भ्रम-प्रतिपाद्य असत्यको सत्यका ज्ञान करा देता है, इसे ही संघात कहते हैं । "चेतना" =जैसे लोहा स्वभावतः काला, कठोर और शोतल होने पर भी अग्निमें पड़कर गहरा सहवासके कारण तरल, उज्ज्वल, और भागके सदृश गरम हो जाता है; और यह सब रंग रूप जैसे लोहेके स्वाभाविक नहीं है; वैसे देहेन्द्रियादि अनित्य अवस्तुमें चित-संक्रमण होकर चैतन्य सदृश जो क्रिया दिखाता है, उसी को चेतना कहते हैं। "धृति”=धारणावती शक्ति । जो शक्ति अवसादके लिये विच्छिन्न नहीं होने देतो उसे ही धृति कहते हैं। यह इच्छादि समूह दृश्यत्व हेतु आत्मधर्म नहीं, परन्तु मनोधर्म हैं; इसलिये ये सब क्षेत्रान्तःपाति हैं । ये सबके सब विकार हैं, और इन सब विकारोंसे युक्त जो लोकजगतमें वर्तमान है, उसे ही क्षेत्र कहते हैं। यह क्षेत्रके उदाहरणको वर्णना संक्षिप्तमें की गई है ॥ ६ ॥७॥ अमानित्वमदम्भित्वमहिंसाक्षान्तिरार्जवम् । आचार्योपासनं शौचं स्थैर्य्यमात्मविनिग्रहः ॥८॥ इन्द्रियार्थेषु वैराग्यमनहवार एव च । जन्ममृत्युजराव्याधिदुःखदोषानुदर्शनम् ॥६॥ असक्तिरनभिष्वंग; पुत्रदारगृहादिषु। नित्यच्च समचित्तत्वमिष्टानिष्टोपपत्तिषु ॥ १० ॥ मयि चानन्ययोगेन भक्तिरव्यभिचारिणी। विविक्तदेशसेवित्वमरतिर्जनसंसदि ॥११॥ अध्यात्मज्ञाननित्यत्वं तत्त्वज्ञानार्थदर्शनम् । एतजज्ञानमिति प्रोक्तमज्ञानं यदतोऽन्यथा ॥ १२ ॥ Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रयोदश अध्याय १४५ अन्वयः। [क्षेत्रज्ञो वक्ष्यमाणविशेषणो यस्य सः प्रभावस्य क्षेत्रज्ञस्य परिज्ञानादमृतत्वं भवति, तं ज्ञेयं यत् तत् प्रवक्ष्यामीत्यादिना सविशेषणं स्वयमेव वक्ष्यति भगवान् , अधुना तु तत्ज्ञानसाधनगुणममानित्वादिलक्षणं यस्मिन् सति तत् ज्ञेयविज्ञानयोगोधिकृतो भवति यत्परः संन्यासी ज्ञाननिष्ठ उच्यते, तममानित्वादिगुणं ज्ञानसाधनत्वात् ज्ञानशब्दवाच्यं विदधाति भगवान् ।'--शङ्करः ] अमानित्वं ( स्वगुणश्लाधाराहित्यं ) अदम्भित्वं ( दम्भराहित्यं ) अहिंसा ( परपीड़ावजनं ) क्षान्तिः ( सहिष्णत्वं ) आर्जवं ( अवक्रता ) आचार्योपासनं ( सद्गुरुसेवनं ) शौचं ( वाद्य आभ्यान्तरञ्च ) स्थैर्य ( स्थिरभावो मोक्षमार्ग एष ) आत्मविनिग्रहः ( शरीरसंयमः );-इन्द्रियार्थेषु (विषयेषु ) वैराग्यं, अनहङ्कार एव च, जन्मभृत्युजराव्याधिदुःखदोषानुदर्शनम् (जन्मादिदुःखान्तेषु प्रत्येकं दोषानुदर्शनम् आलोचनम् );-पुत्रदारगृहादिषु असक्तिः (प्रोतित्यागः ) अनभिष्वङ्गः ( पुत्रादीनां सुखे दुःखे वा अहमेव सुखो दुःखी चेत्यध्यासातिरेकाभावः ), इष्टानिष्टोपपत्तिषु ( इष्टानिष्टयोः प्राप्तिषु ) नित्यञ्च ( सर्वदा ) समचित्तत्वं ;-मयि ( परमेश्वरे ) अनन्ययोगेन सर्वात्मदृष्ट्या ) अन्यभिचारिणी ( एकान्ता ) भक्तिः, विविक्तदेशसेवित्वं (विविक्तः शुद्वश्चित्तप्रसादकरः तं देशं सेवितु शीलं यस्य तस्य भावस्तत्वं ) जनसंसदि सभायाम् ) अरतिः (अरमणं रत्यभावः);-अध्यात्मज्ञाननित्यत्वं ( आत्मानमधिकृत्य वर्तमानं ज्ञानं तस्मिन् नित्यत्वं नित्यभावः ) तत्त्वज्ञानार्थदर्शनम् ( तत्त्वज्ञानस्य अर्थः प्रयोजनं मोक्षः तस्य दशनं मोक्षस्य सर्वोत्कृष्टत्वालोचनमित्यर्थः) । --एतत् ( अमानित्वमदम्भित्वमित्यादि विंशति संख्यकं यदुक्त तत् ) ज्ञानम् इति प्रोक्त ( वशिष्टादिभिः ), अतोऽन्यथा ( अस्मात् विपरीतं ) यत् यत् अज्ञानम् ॥८॥ ९॥ १० ॥ ११ ॥ १२ ॥ अनुबाद। आत्माश्लाधाराहित्य, अदाम्भिकता, अहिंसा, सहिष्णुता, सरलता, सद्गुरुसेवा, बाह्याभ्यन्तरशुचिता, मोक्षमार्गमें स्थिरभाव, शरीरसंयम; विषयोंके प्रति वैराग्य, अहङ्कारविहीनता, जन्ममृत्युजराव्याधिमें दुःख दोषको आलोचना; पुत्र दारा और घरके प्रति अनासक्ति, पुत्रादिकोंके सुख दुःखमें अपने मनको सुखी दुःखी न करना, इष्ट वा अनिष्टापत्तिमें नित्य समचित्तता; हमारेमें अनन्य योग द्वारा अव्यभिचारिणी भक्ति, निर्जन स्थानमें निवास, जनसभाके प्रति विराग; अध्यात्मज्ञानपरायणता और तत्वज्ञानार्थकी ( मोक्षकी ) आलोचना;-इन विंशति संख्यकको ज्ञान कहा जाता है, इसके विपरीत जो कुछ है वह अज्ञान है ॥ ८॥ ९॥ १० ॥ ११ ॥ १२ ॥ . Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीमद्भगवद्गीता व्याख्या। क्षेत्रज्ञका प्रभाव जाननेसे अमृतत्व लाम होता है। वह क्षेत्रज्ञ ही ज्ञेय पदार्थ है। ज्ञेय सम्बन्धमें भगवान् "शेयं यत्तत् प्रवक्ष्यामि” इत्यादि वाक्यसे पश्चात् कहेंगे। ज्ञेय पदार्थको जानना हो तो ततूज्ञानसाधन श्रमानित्व इत्यादि गुण प्रयोजनीय है। उसी अमानित्वादि गुणोंको ही भगवान्ने ज्ञानसाधनत्व हेतु ज्ञान कहकर निहेश किया है । वे सब ये हैं___ "अमानित्व”। -सम्भ्रमको मान कहते हैं। सं सम्यक् भ्रम जो कुछ है, वही सम्भ्रम वा मान है। आप जो नहीं है अपनेको वही मान लेनेका नाम मान है। उस सम्यक भ्रम वा मान लेने में जब "अ" पहिले लग जाता है, तब यह मान लेनेका वा सम्यक् भ्रमका अर्थ दूर हो जाता है; और उसका अर्थ दूसरा हो जाता है। तदनुसार अवस्थामें सर्वदा रहनेका नाम अमानित्व है। "अदम्भित्व"। - दम्भ कपटताको कहते हैं अर्थात् हम जो नहीं हैं, उसका भान ( बड़ाई ) दिखाकर लोगोंको ठग लेने का नाम दम्भ है। सर्वदा उस प्रकार चेष्टाशून्य अवस्थामें रहनेका नाम 'अदम्भित्व' है। "अहिंसाअन्तःकरणमें अनिष्टकर वृत्तिके उदय न होनेका नाम “अहिंसा” है। "क्षान्ति”। -प्रतिविधान करनेवाली शक्ति रहते हुए भी कृतापराधके ऊपर जो क्षमा की जाती है, उसे ही शान्ति कहते हैं। "आजव"सरलताको कहते हैं। उपदेष्टाकी शुश्रषामें रत रहनेका नाम "आचार्योपासना” है। “शौच"-मनके मैलको त्याग करके शुद्ध करनेको कहते हैं। शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्ध ये पांचों विषय और अविद्या, अस्मिता, राग, द्वष और अभिनिवेश इन पांच क्लेशोंको मनका मैल कहते हैं । जलसे शरीरके ऊपरका मैल धोनेका नाम भी शौच है, एवं शुची होनेको भी शौच कहते हैं। और मनके स्थिर अवस्थामें किसी वृत्तिका उदय न होकर जो निर्विकार स्थिति भोग होती है, उसे भी शौच कहते हैं । उद्वगके कार्यकाल में भी अचचल Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रयोदश अध्याय १४७ रहनेका नाम "स्थैर्य" है। क्रिया विशेषके द्वारा देहात्माभिमान नष्ट करनेकी चेष्टाका नाम "आत्मविनिग्रह" है। ___ "इन्द्रियार्थों में वैराग्य” अर्थात् दश इन्द्रियोंका जो ग्रहण और भोग है, उसमें विराग उत्पन्न करना। "अनहङ्कार"-सृष्टिमुखी अहवार वृत्तिका विलोपसाधन। - "जन्ममृत्युजराव्याधिमें दुःख दोषका अनुदर्शन"। -जन्म लेना ही दुःख है, क्योंकि गर्भयन्त्रणा और प्रसवकालीन यन्त्रणा बड़ी ही कष्टकर हैं; इसलिये वह दूषित हैं। उसी प्रकार मृत्यु-यन्त्रणा भी दुःखदायक और दूषित है। बुढ़ापेमें प्रज्ञाशक्ति और तेज बिल्कुल घट जाता है, इसलिये इसमें भी दुःख और दोष वर्तमान है। इसी प्रकार व्याधि भी दुःख और दोषका स्वरूप है । जीवको ये सब दुःख भोगना अनिवार्य है। इन सब दुःख और दोषके सम्बन्धमें बार बार आलोचना करनेसे देहेन्द्रियविषयमें वैराग्य उत्पन्न होता है, प्रत्यगात्माके प्रति प्रवृत्ति उत्पन्न होती है, और परिशेषमें आत्मदर्शन होता है, इसलिये अन्त:करणमें जब जिस वृत्तिका उदय होगा उसीको पुनर्जन्मका बीज ज्ञान करके और उसीके साथ जन्म-दुःख, मृत्यु-दुःख, जरा-दुःख, व्याधि-दुःखसे आलोचना करके उस वृत्तिको नष्ट कर देना भी ज्ञानसाधन कह करके ज्ञान शब्द वाच्य है। . __"आसक्ति” इत्यादि। –संसारमें उत्कृष्ट भोग और मोहकी वस्तुएं पुत्र, स्त्री और धर द्वार हैं। इनमें भासक्त न होना और इनसे मिलने की इच्छा सम्पूर्ण त्याग कर देना । इष्ट अथवा अनिष्ट उपस्थित होने पर भी ग्रहण करनेके लिये चित्त विचलित न होना, सदा ऐसी सतर्क अवस्थामें रहना है। ११ श्लोक-मैं जो "केवल राम" हूँ, इस मैं में अव्यभिचारिणी भक्तिका अखण्ड प्रयोग (व्यभिचार, विषयमुखी वृत्तिको कहते हैं )। शून्यागार, नदी तीर, पर्वत, निर्जनस्थान, श्मशान अथवा इनका Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४८ . श्रीमद्भगवद्गीता निकटवत्ती स्थान, रणस्थल, देवालय इत्यादि यह सब साधनके स्थान हैं। स्वभावतः यह सब स्थान पवित्र होने पर भी गोमय आदिसे परिष्कार करके व्यवहार करना चाहिये। ये तो बाहर की बात हुई । और भीतरकी वही सुषुम्ना-संलग्न ब्रह्मनाड़ीमें मूलाधारादि स्थान समूहको गुरूपदिष्ट प्रकारसे व्यवहार करना। जिनका संस्कार न हुआ हो ऐसे प्रकृति के लोगोंके साथ सब व्यवहार तोड़ देना, अर्थात उन लोगोंसे कुछ सम्पर्क न रखना। ब्रह्मादि स्थावरान्त जगत्के प्रत्येक अणु परमाणुओंमें अहमत्व प्रतिपादन करना अर्थात् सबही ब्रह्म है, इसे ही दृढ़ताके साथ अपने अन्तःकरणमें बोध कर लेनेका नाम "अध्यात्मज्ञाननित्यत्वं" है । तत्त्व विश्वरूप है; इस तत्त्वके ज्ञानका अर्थ ब्रह्म है, जो अवधि रहित महान् है। इन दोनोंको मिलाकर एक करके संसार-भावमें उपेक्षा करना ही "तस्वज्ञानार्थ-दर्शन” है। इन्हीं सबको ज्ञान कहते हैं; और इनके विपरीत जो कुछ है, उसीको अज्ञान कहते हैं। (“तत्त्वज्ञोऽसि यदा पार्थ तुष्णीम्भव तदा सखे । यत्दृष्टं विश्वरूपं मे मायामानं तदेव हि ॥ तेन भ्रान्तोऽसि कौन्तेय स्वस्वरूपं विचिन्तय । मुह्यन्ति मायया मूढास्तत्त्वज्ञा मोहवर्जिताः॥")॥८॥६॥ १०॥ ११ ॥ १२ ॥ ज्ञेयं यत्तत् प्रवक्ष्यामि यज्ञात्वामृतमश्नुते । अनादिमत् परं ब्रह्म न सत् तन्नासदुच्यते ॥ १३ ॥ अन्वयः। यत् ज्ञेयं तत् प्रवक्ष्यामि, यत् ज्ञात्वा अमृतं अश्नुते (मोक्ष प्राप्नोति, न पुनम्रियते); तत् अनादिमत् परं ब्रह्म न सत् न असत् उच्यते (विधिमुखेन प्रमाणस्य विषयः सच्छब्देनोच्यते, निषेधविषयस्तु असच्छब्देनोच्यते, इदन्तु तदुभयविलक्षणं अविषयत्वादित्यर्थः ) ॥ १३ ॥ अनुवाद। जो ज्ञय है, उसे कहता हूँ। जिसके जाननेसे अमृतत्व लाभ होता है, वह अनादिमत् परब्रह्म, सत भी नहीं कहा जाता है और असत् भी नहीं कहा जाता ॥ १३ ॥ Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रयोदश अध्याय १४६ व्याख्या। साधकने विचारके द्वारा क्षेत्र और ज्ञान क्या है, उसे समझ लिया है। अब ज्ञानका शेष सिद्धान्त अर्थात् जाननेकी वस्तु जो ज्ञेय पदार्थ है, उसे समझते हैं। ज्ञेय शब्दका अर्थ जानने योग्य वस्तु है। इस जगत्में जो कुछ दिखाई पड़ता है, वह सब ही सादि सान्त अर्थात् उत्पत्ति-स्थिति-नाश-धर्मी है। इस उत्पत्ति-स्थिति-नाशधम्मिओंके जानने योग्य वस्तु वह है, जिसकी उत्पत्ति-स्थिति-नाश नहीं है। क्योंकि जैसे जो हैं, वह अपने आपको भलीभांति जानते हैं। जो जिसको नहीं जानता है, वही उसकी जानने योग्य वस्तु है । इसलिये कहता हूँ कि, सादि-सान्त-मरधम्मिओंके जानने योग्य वस्तु वही है जो अनादि, अजर, अमर और अनन्त है। जिसके जाननेसे, इस जन्मके कष्ट, मरणका भय दोनों दूर हो जाते हैं । कारण चित्तकी विषयकारा वृत्तियां समेट लेकर, चिन्तन-स्रोत उस असीम-अनन्त-परंब्रह्ममें फेंकनेसे उससे गाढ़ सहवासके लिये जीवमें असीम, अनादि, अनन्तत्व उत्पन्न होवेगा; -जैसे अग्निके सहवाससे लौह-पिण्ड । ऐसा होनेसे ही जीव, जन्म-मृत्युसे मुक्त होकर ब्रह्मत्व प्राप्तिके लिये अमरत्व प्राप्त करेगा। जो ब्रह्म अकेला है, सत् भी नहीं और असत् भी नहीं (क्योंकि सत् अथवा असत् एक भी मान लेनेसे द्वतभाव बना रह जाता है। द्वैतादत विवर्जित जो है, वही ब्रह्म है। ॥ १३ ॥ सर्वतः पाणिपादन्तत् सर्वतोऽक्षिशिरोमुखम् । सर्वतः श्रुतिमल्लोके सर्वमावृत्य तिष्ठति ॥ १४ ॥ अन्वयः। तत् सर्वतः पाणिपाद, सर्वतः अक्षिशिरोमुखं, सर्वत: अतिमत् ( श्रवणेन्द्रियेयुक्त ), लोके सर्व प्राबृत्य ( संव्याप्य ) तिष्ठति ॥ १४ ॥ अनुवाद। वह सर्वत्र पाणि तथा पाद विशिष्ठ, सर्वत्र चक्षु, मस्तक तथा मुख विशिष्ट, सर्वत्र श्रवणेन्द्रिय विशिष्ट और संसारके समस्त पदार्थों में व्याप्त है ।।१४॥ Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५० श्रीमद्भगद्गीता व्याख्या। आकाशमें बादल छाये हुए रहनेसे तथा हवाके भी बन्द हो जानेसे. एक प्रकारकी उमससी हो जाती है; परन्तु ऐसी अवस्थामें आकाशको वायु-शून्य कहना उपयुक्त न होगा। क्योंकि उस समय भी वायु आकाशमें अति सूक्ष्म रूपसे वर्तमान रहता है। जीव-शरीर की त्वचाकी ग्रहणशक्ति अत्यन्त स्थूल होनेके कारण वह अत्यन्त सूक्ष्म वायुका स्पर्श नहीं ले सकती। स्थूलको सूक्ष्म भेद करता है, सूक्ष्मको स्थूल भेद नहीं कर सकता, यही इसका कारण है। उसी तरह असीम अनन्त ब्रह्ममें पाणि, पाद, चक्षु, श्रुति, बोधन शक्तिका आधार मस्तक, और मुख आदि जगत्को जो कुछ क्रिया शक्ति हैं वे सब सूक्ष्मरूप धारण करके खारी जलमें निमक सदृश आकाशको भी गर्भमें रक्खे हुए हैं। "तत्" में इन सब क्रिया शक्तिका कहीं कुछ नहीं घटता बढ़ता। सब जगह एकरस समान है। २य अर्थ। साधक जब विश्वलीलाको अच्छी तरह समझ लिये, तब साधक देखते हैं कि, इसमें सत्त्वगुणका प्रकाश, रजोगुणकी क्रिया और तमोगुणकी स्थिति, इन तीनों बिना और कोई सार नहीं है । इन तीनों के मिलकर एक होनेसे ही माया होती है। वह माया भी असार है। फिर उस असार मायाका विकार यही तीन हैं; इसलिये उत्पादीभंगुर है फिर तीनों ताप भी इसमें हैं। भूतके साथ खेल खेलनेसे जो ताप है, उसे आधिभौतिक ताप कहते हैं, देवताके साथ खेल खेलनेसे जो ताप होता है, उसे आधिदैविक ताप कहते हैं। और आत्माको ले करके खेलनेसे जो ताप होता है, . उसको आध्यात्मिक ताप कहते हैं। यह तीनों भी विकार हैं। यह जब निश्चय हो जाता है, तब इससे अलग होने के लिये साधक अकरण करण रूप एक प्रकार की क्रिया लेके बैठे (अर्थात् जिसमें करण मात्र भी शून्य हो जाता है)। इस क्रिया का अभ्यास जितना गाढ़ होने लगता है उतना ही साधक देखते हैं कि, प्रतिक्रममें साधक सबसे अलग हैं। जब कोई Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५१ त्रयोदश अध्याय कहीं भी साधकको स्पर्श कर न सके, तब साधकमें संकोचना नष्ट होकर उदारता खिल उठती है । यह उदारता, पहले वाली जो संकोकता थी, उसकी संकोचताको नष्ट करके अपनी उदार भावमें मिला लेती हैं । तब उदारता और संकोचता दोनोंका ही प्रभाव हो जाता है। इन दोनोंकी यह जो एकीभूत अवस्थामें स्थिति है, यही स्थिति अवस्था ही साधकका तद्ब्रह्म स्वरूप है। अपरिपक्व साधक इस अवस्थासे पुनः संसार-अवस्था में उतर आकर समझते हैं कि, साधक की उस पहले वाली अवस्थाको ही “तत्” (ब्रह्म ) कहते हैं। जो "तत्” सर्वत्र पाणिपादविशिष्ट, सर्वत्र अक्षिशिरोमुखविशिष्ट, सर्वत्र श्रुतिमत् और लोक-जगतमें सर्वव्यापी हो करके अवस्थित है ॥ १४ ।। सर्वेन्द्रियगुणाभासं सर्वेन्द्रियविवर्जितम् । असक्तं सर्वभृच्चैव निगुणं गुणभोक्तृ च ॥ १५ ॥ अन्वयः। सर्वेन्द्रियगुणाभासं ( अन्तःकरणबहिःकरणोपाधिभूनेंः सर्वेन्द्रियगुणैः अध्यवसाय-संकल्प-श्रवण-वचनादिभिरवभासत इति सर्वेन्द्रियव्यापार व्यापृतं ) सर्वेन्द्रियविवजितं ( सर्वकरणरहितं अतो न करणव्यापारावृतं ) असक्त ( संगशून्यं) सर्वभृत् च एव ( सर्वस्याधारभूतं ) निर्गुणं ( सत्त्वादिगुणरहितं) गुणभोक्त च (गुणानां सत्त्वादिना पालक) ॥ १५॥ अनुवाद। (वही ब्रह्म ) सर्वेन्द्रिय व्यापार द्वारा व्यापृत परन्तु सर्वेन्द्रिय रहित (अतएव इन्द्रिय-व्यापार में व्यापृत नहीं ) है, संगशून्य तिसपर भी सबके आधार स्वरूप, सत्वादि गुण रहित अथच सत्वादि गुणके पालक है ।। १५ ।। व्याख्या। अत्यन्त क्षुद्र और सीमाबद्ध शरीर में ही इन्द्रियादि रहता हैं, परन्तु इन इन्द्रियों को कार्यकरी शक्ति और उस शक्तिका सत्ता जैसे पृथिवीका गन्ध, जलका रस, तेजका रूप, वायुका स्पर्श और आकाशका शब्दके सदृश सर्वव्यापी तथा सर्वत्र विस्तृत है। पूर्व श्लोक की कही हुई साधककी अवस्था विस्तार रूपमें रहनेसे, सीमाबद्ध Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५२ . श्रीमद्भगवद्गीता इन्द्रियादिका कोई चिह्न नहीं रहता; इसलिये सर्वेन्द्रिय-विवर्जित, अथच इन्द्रियादिके गुण, शक्ति और सत्ताका आभास नाम लेकरके, सबका आधार और पोषक कारण हो करके विस्तारमें मिलकर रह गये। इस अवस्थामें किसी गुणकी क्रिया नहीं है (क्योंकि, यह गुणातीत अवस्था है ); अतएव सर्व संस्रव वर्जित है। किसो स्थानमें गुणोंकी क्रिया होनेसे, गुण क्रिया इस विस्तारके भीतर ही होती है इसलिये लोक-जगतमें बातकी बातमें गुणों के पालक हो गये हैं ॥१५॥ बहिरन्तश्च भूतानामचरं चरमेव च। सूक्ष्मत्वात्तदविज्ञेयं दूरस्थं चान्तिके च तत् ॥ १६ ॥ अन्वयः। ( तत् ) भूतानां बहिः अन्तश्च, अचरं (स्थावर ) चरं एव च (जंगम); सूक्ष्मत्वात् ( रूपादिहानत्वात् ) तत् अविज्ञ यं; तत् दूरस्थं च ( अविदुषां योजनलक्षान्तरितमित्र दूरस्थं सविकारायाः प्रकृतेः परत्वात् ) अन्तिके च ( विदुषां पुनः प्रत्यगात्मत्वात् नित्यसन्निहितं ) ॥ १६ ।। अनुवाद। भूत समूहके बाहर भी वही, भीतर भी वही, स्थावर भी वहो, जंगम भी वही; सूक्ष्मत्वके लिये तत् अविज्ञ य है; तत् दूरस्थ भी है, तत् निकट में भी है।। १६ ॥ व्याख्या। अत्यन्त सूक्ष्मताके लिये भूत मात्रके भीतर बाहरमें यह तद् ब्रह्म एक रससे समान स्थित है। इसलिये चर और अचरके भीतर बाहरमें वह तत् रहे हुए हैं। जो लोग सूक्ष्मदर्शी हैं, वे इस तत्के सूक्ष्मत्वमें सर्वदा लीन रहनेसे यह "तत्” उनके निकट है; परन्तु, स्थूलदर्शी लोग इस वचनका अर्थ कुछ भी समझ नहीं सकते, इसलिये वह उन लोगसे दूर भी है ॥ १६ ॥ अविभक्तं च भूतेषु विभक्तमिव च स्थितम् । भूतभर्तृ च तज्ज्ञेयं असिष्णु प्रभविष्णु च ॥ १७ ॥ अन्वयः। भूतेषु (स्थावरजंगमात्मकेषु ) अविभक्त कारणात्मना अभिन्न ) विभक्तमिव च ( कार्यात्मना भिन्न मिव ) स्थितं च तत् ज्ञयं भूत्भतृ च (स्थिति Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५३ त्रयोदश अध्याय काले भूतानां पोषक ) ग्रसिष्णु ( प्रलयकाले च ग्रसनशील ) प्रभविष्णु च ( सृष्टिकाले च नानाकार्यात्मना प्रभवनशीलं ) ॥ १७ ॥ अनुवाद। अविभक्त और विभक्त रूपसे भी भूत समूहमें अवस्थित है; वही ज्ञेय पदार्थ ( स्थितिकालमें ) भून समूहके पोषक, ( प्रलयकालमें ) ग्रास करनेवाला, ( सृष्टिकालमें नाना कार्य्यरूपसे ) उत्पत्तिशील है ॥ १७ ॥ व्याख्या। आकाशमें धूआ उड़नेसे आकाश व्यापी धूआ दिखाई देता है सही, परन्तु धूएमें और आकाशमें जैसे संगति (मिलावट) नहीं होता तैसे भूतोंके साथ और वह ऊपर वाले विस्तार अवस्थाके साथ अज्ञानियोंके दृष्टि में एकत्र भाव प्रत्यक्ष होनेसे भी यथार्थतः ज्ञानीके चक्षुमें वह एकत्र भाव मिल नहीं जाता, सर्वदा अलग ही रहता है। जसे एक मायाके तीन गुण, रजोगुणकी क्रिया कालमें ब्रह्मा बनकर उत्पत्ति. सत्वगुणके क्रिया कालमें विष्णु बन कर पालन और तमोगुणके क्रियाकालमें हररूपसे संहार दिखला देनेसे भी तीन गुणके विश्राम कालमें इन सबका कुछ भी नहीं रहता, केवल (मठ) एकदम बातकी बातमें गुथा हुआ (जैसे सिपीमें चाँदी, डोरीमें सर्प, मृगतृष्णामें जलज्ञान भ्रम ही भ्रम ) है, उसी प्रकार जानो ॥ १७ ॥ ज्योतिषामपि तज्ज्योतिस्तमसः परमुच्यते । ज्ञानं ज्ञेयं ज्ञानगम्यं हृदि सर्वस्य विष्ठितम् ।। १८ ॥ अन्वयः। तत् ज्योतिषां अपि ज्योतिः ( सूर्य्यादीनामपि प्रकाशकं ), अतएव तमसः (अज्ञानात् ) परं ( तेनासंस्पृष्ट) उज्यते; ( तदेव ) ज्ञानं ज्ञयं (बुद्धिवृत्तौ रूपाद्याकारेण अभिव्यक्त), ज्ञानगम्यं ( अमानित्वादि लक्षणेन. पूर्वोक्तज्ञानसाधनेन प्राप्यं ), सर्वस्य (प्राणिमात्रस्य ) हृदि विष्ठितं (विशेषेण अप्रच्युतस्वरूपेण नियन्तृतया स्थितं ) ॥ १८॥ अनुवाद। वह सूर्यादि ज्योतिः समूहके भी ज्योतिः (प्रकाशक ), और तमः Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५४ श्रीमद्भगवद्गीता से पर ( अज्ञानतासे असंस्पृष्ट ) कह करके उक्त है; ( वही तत् ) ज्ञान, ज्ञेय, ज्ञानगम्य तथा सर्व प्राणियोंके ह्रदयमें नियन्तृ रूपसे अवस्थित है ॥ १८ ॥ व्याख्या। ज्योतिष कहते हैं चन्द्र-सूर्य-अग्निको, जिन सबके ज्योतिसे चर्म चक्षुके हक शक्तिका आंधियारा मिटाकर अच्छी तरह दिखाई देता है। और एक ज्योतिष है ज्योतिष-विद्या, जिसमें अंक पातसे जिस किसीका सिद्धान्त फल जाना जाता है। और एक ज्योतिष निजबोधको कहते हैं [जैसे बालपनमें कितनोंके साथ खेल किये थे, अब बुढ़ापा आया, वह देश नहीं, वह काल नहीं, वह पात्र भी नहीं, तथापि स्मृतिमें वह सब जैसे ( अभी कर आया हूँ, ऐसा प्रत्यक्ष देखता हूँ; तैसे )] जिससे भूत भविष्यत्को वर्तमान सदृश प्रत्यक्ष करा देता है। यह कई प्रकारके ज्योतिष ही उस पूर्वोक्त "तत्" के आधेय हैं। इसलिये "तत्” ज्योतिषमानोंकी भी ज्योति है । यह "तत्" अज्ञानान्धताके परपारमें चिरस्थित है। ज्ञानकी चरम अवस्था के बाद ही यह "तत्" है; जाननेकी वस्तु भी यही “तत्" है। ज्ञानसे इस "तत्” में पड़ करके ही चिरशान्ति लेनी होती है। सब शब्दके अर्थमें जो समझा जाता है उसीके हृदयमें अर्थात् उसके भीतर में, और असीमताके लिये उन सभोंके बाहरमें भी परिपूर्ण रहे हैं। सर्व "तत्" के गर्भ में इस प्रकार स्थित है जैसे आकाशके गर्भ में पृथिवी ॥ १८ ॥ इति क्षेत्र तथा ज्ञानं ज्ञेयं चोक्तं समासतः। मद्भक्त एतद्विज्ञाय मद्भावायोपपद्यते ॥ १६ ॥ अन्वयः। इति ( एवं ) क्षेत्रं ( महाभूतादिधृत्यन्तं ) तथा ज्ञानं ( अमानित्वादि तत्वज्ञानार्थदर्शनपर्यन्तं ) ज्ञेयं च (अनादिमत्परं ब्रह्मत्यादि विष्ठितमित्यन्तं ) समासतः ( संक्षेपेण ) उक्त ( मया इति शेषः ), मद्भक्तः विज्ञाय मद्भावाय ( ब्रह्मत्वाय) उपपद्यते ( योग्यो भवति ॥ १९॥ अनुवाद। इस प्रकारसे क्षेत्र, ज्ञान और ज्ञेय संक्षेपसे कहा गवा हैं। मेरे भक्त , यह सब जान कर मद्भाव प्राप्तिके योग्य होते हैं ।। १९ ।। Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रयोदश अध्याय १५५ व्याख्या। "महाभूत” के श्रादिसे लेकर "धृति” पर्यन्त क्षेत्र, . 'अमानित्व' से प्रारम्भ करके 'तत्त्वज्ञानार्थ-दर्शन' पर्य्यन्त ज्ञान अनादिमत्से शुरू करके 'हृदि सर्वस्य विष्ठितं' पर्यन्त ज्ञ य सम्बन्धमें संक्षेपसे तुमको मैं कह चुका। “मैं” के जो भक्त ( अर्थात् जो भव सागरका दगा खाकर 'मैं' में मिलकर मुक्ति लेना चाहेगा) वह इन तीनों विषयों की आलोचना करते करते 'तत्' के स्वरूप अवगत होनेसे ही “मैं” के भावमें मतवाला होकर “मैं” ( मुझ ) को पाबेगा ॥ १६ ॥ प्रकृति पुरुषचव विद्धयनादी उभावपि । विकारांश्च गुणाश्च व विद्धि प्रकृतिसम्भवान् ॥ २० ॥ अन्वयः। तत्र सप्तमे ईश्वरस्य द्वे प्रकृती उपन्यस्ते परापरे क्षेत्रक्षेत्रज्ञलक्षणे, "एतद्योनौनि भूतानि” इति वाक, क्षेत्रक्षेत्रज्ञप्रकृतिद्वययोनित्वं कथंभूतानां इत्ययमर्थोऽधुनोच्यते । प्रकृति पुरुष चंव ( ईश्वरस्य प्रकृती, तौ प्रकृतिपुरुषौ ) उभौ अपि अनादा (न विद्यते आदिर्थयोः तौ अनादी) विद्धि (नित्यत्वादोश्वरस्य तत्प्रकृत्योरपि युक्त नित्यत्वेन भवितु)! विकारांश्च ( देहेन्द्रियादीन् ) गुणांश्च ( गुणपरिणामान् सुख दुःखमोहादीन् ) प्रकृतिसम्भवान् ( प्रकृतेः सम्भूतान् ) विद्धि ( जानीहि ) ॥ २० ॥ अनुवाद। प्रकृति और पुरुष दोनों को ही अनादि जानना, सब विकार और सब गुणको प्रकृतिसे ही सम्भूत जानना ॥ २० ॥ व्याख्या। [सप्तम अध्यायमें ईश्वरका क्षेत्रक्षेत्रज्ञ लक्षण अपरा एवं परा नामसे दोनों प्रकृतिकी कथा कही गई है। वहां कहा हुआ है कि, सब भूत इन दो प्रकारकी प्रकृतियोंसे जात ( उत्पन्न ) हैं। सब भूत किस प्रकारसे इस क्षेत्रक्षेत्रज्ञ लक्षण दोनों प्रकृतिसे उत्पन्न है, इसे ही समझानेके लिये भगवान अब प्रकृति पुरुषके लक्षणादि वर्णन करते हैं। अब साधक प्रकृति-पुरुषका विचार करते हैं। प्रकृति-प्र-प्रकृष्ट पूर्वक, कृति-करते हैं जो। अब निश्चय हुआ कि, यथार्थमें जो कार्य Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ “१५६ . श्रीमद्भगवद्गीता करता है उसीको प्रकृति कहते हैं। पुरुष कहते हैं-पुरमें ( घरके अन्दर ) जो सोया हुआ है। यह दोनों ही अनादि है (आज तक जो पैदा.ही नहीं हुआ ); न आदि अनादि । ब्रह्म शब्द का अर्थ करनेसे, बृह-धातुमें बृद्धि, महान् ; और मन् प्रत्ययके अर्थमें अवधिरहित समझाता है। जो अवधि रहित महान् है वही ब्रह्म शब्द वाच्य है। इस अवधि रहित महानका शासन जितनी दूर है, उतनी दूर तक और दूसरे किसीका स्थान नहीं हो सकता; केवल ब्रह्म ही ब्रह्म भासमान रहता है। दृश्य जगत्में जो कुछ देखता हूँ, उसीका एक न एक नाम है, रूप भी है। फिर ऐसे शब्द भी हैं; ढूढ़नेसे कोई चीज नहीं मिल सकती; तथापि उसका नाम है—(एष बन्ध्यासुतः याति खपुष्पकृतशेखरः। कूर्मलोमपटाच्छन्नःशशशृगधनुर्धरः)-जसे "भाकाशकुसुम” "घोड़े का अंडा” “सेर का सिंग” "बन्ध्या का बेटा” इत्यादि । ब्रह्म शब्दके शासनके भीतर रह करके माया, प्रकृति और पुरुषको भी समझना हो तो वह वस्तुशून्य शब्दमात्र विकल्पना वा अलीक (मिथ्या) समझना चाहिये । उन काल्पनिक शब्दोंके वस्तुत्व न रहनेसे भी जैसे उन सबके पोषण करने वाली सहकारी वृतियों का अभाव नहीं होता, यह माया, प्रकृति और पुरुष शब्दोंके अर्थमें भी वैसी ही है। जिस कारणसे जीवके दुःख की अत्यन्त निवृत्तिके लिये महर्षियों ने विवर्त्तवादमें (वेदान्त दर्शनमें ) जो वचन विलास कर रखे है, उनमें ब्रह्म ही सत्य और तदतिरिक्त माया, प्रकृति, पुरुष प्रभृति समस्त ही मिथ्या है। ‘सत्य" नाम कहके एक शब्द बाहर होनेसे ही उसके साथ ही साथ ( न रहनेसे भी) आप ही आप जैसे प्रतिपक्ष और एक “मिथ्या" शब्दका बोधन आता है, सत्य ब्रह्ममें यह मिथ्या मायाप्रकृति-पुरुष शब्द भी वैसे ही है। ब्रह्म सत्य, नित्य, निर्विकार; और माया अनित्य, असत्य, केवल विकारस्वरूप है। ब्रह्म और मायाका सम्बन्ध शरीर और छायाके सदृश है, एकको छोड़कर दूसरा नहीं Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रयोदश अध्याय १५७. रहता। यह माया जड़, अवस्तु है; और ब्रह्म चैतन्य-स्वरूप वस्तु है। गाढ़ सहवास करके जब इस अवस्तुमें वस्तुत्व बोधनरूप भ्रमज्ञान आ पड़ता है ( जैसे आदर्श=आयनेमें शरीर छाया ), तबही माया ब्रह्मसाज सज बैठती है, अर्थात् अपनेको नित्य-सत्य-निर्विकार रूपसे समझा देती है। यह जो माया की विपरीत सज्जा है, यही प्रकृति है । यह प्रकृति जब बढ़ जाती है, तबही अपने पेटके भीतर ब्रह्मको भर लेती है, जैसे गोष्पदके जलमें आकाश, अथवा महाकाशमें प्राचीर देकरके छत् छाह करके घर बनाया जाता है। प्राचीर छत् और घरके नीचे वाली जमीन मिलकर हुआ पुर, और उस पुरके गर्भके भीतर वाला शून्य पुरुष हुआ। समुद्रका खारी जल जैसे तेज, वायु और महान् आकाशके संग गुणसे अपना लवणत्य त्याग करके निर्मल, तृप्ति कर लोक-जगत्के जीवन रूपसे पृथिवीमें उतरता है, उसो प्रकार अतिक्षुद्र नीच प्रकृतिके सहवास दोषसे पुरुष भी जीव नाम लेके आत्महारा होकर प्रकृति सज बैठते हैं, इसलिये इनको पराप्रकृति कहते हैं । क्योंकि, यह निष्क्रिय हो करके भी संग दोषके लिये भोक्तत्व अभिमान लेनेका अपवाद ( न लेकरके भी ) ले लेते हैं। "संसर्गजा दोषगुणा भवन्ति” । इस कारणसे प्रकृति पुरुष दोनों ही अनादि हैं । और प्रकृतिमें ही समस्त विकार तथा गुणोंको कल्पना समझ लो ॥२०॥ कार्यकारणकर्तृत्वे हेतुः प्रकृतिरुच्यते । पुरुषः सुखदुःखाना भोक्तत्वे हेतुरुच्यते ॥ २१॥ अन्वयः। कार्यकारणकत्त 'त्वे ( कार्य शरीरं कारणानि सुखदुःख-साधनानीन्द्रियाणि तेषां ऋत्त त्वे तदाकारपरिणामे ) प्रकृतिः हेतुः उच्यते, पुरुषः ( जीवः क्षेत्रज्ञः) सुखदुःखानां ( भोग्यानां ) भोक्त त्वे ( उपलद्ध त्वे ) हेतुः उच्यते। [ पुरुषसन्निधानात् अचेतनायाः प्रकृतेः कत्त त्वमुच्यते, भोक्त त्वं च सुखदुःखसंवेदनं तच्च चेतनधर्म एवेति प्रकृतिसन्निधानात् अविकारिणों पुरुषस्य भोक्त त्वमुच्यते ] ॥ २१॥ Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ “१५८ ., श्रीमद्भगवद्गीता अनुवाद। कार्य और कारणके कत्तृत्व सम्बन्धमें प्रकृति हेतु कह करके उक्त होते हैं, और सुख दुःख समूहके भोक्त त्व सम्बन्धमै पुरुष हेतु कह करके उक्त होते हैं ॥२१॥ व्याख्या। यह जो मूल प्रकृति कही हुई है, वही विकृत होकरके सातों मूत्तिमें खड़ी हो गई, अर्थात् पञ्च तन्मात्रा ( शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्ध ), बुद्धि और अहंकार। इन सातोंको प्रकृति-विकृति कहते हैं। यह सब कारण हुए। फिर और सोलह रूपमें परिणत हो करके विकार नाम लिये, - यया पञ्च महाभूत (पृथिवी, जल, अग्नि, वायु, आकाश ), पञ्च ज्ञानेन्द्रिय (चक्षु, कर्ण, जिह्वा, नासिका, त्वचा ), पञ्च कर्मेन्द्रिय ( वाक् , पाणि, पाद, पायु उपस्थ ), यह पन्द्रह और एक मन है। इन सबके समष्टिसे जो स्थूल शरीर बना उसीको कार्य कहते हैं । इसलिये प्रकृतिको कार्य और कारणकी उत्पत्तिका हेतु कहा हुआ है। और पुरुष ? उनका कोई कारण नहीं है। असीमताके लिये उपायान्तरहीन होकरके प्रकृतिकृत सीमागर्भ में प्रकृतिगुणजात सुख दुःख भोग करते रह गये। यह भोग इस प्रकारके;-पाँच कोण वाले घरके गर्भ में पांच कोणका आकाश, सात कोणमें सात कोणा, गोलाकार घरके भीतर गोलाकार आकाश, ऐसे सुगन्धमें सुगन्धित, दुर्गन्धमें दुर्गन्धित, धूआसे धूममय; अर्थात् आकाशमें अपनेसे कोई भोगकी बोधन प्रकाश न होनेसे भी उस आकाशके भीतर निवास करने वाले लोग जिस जिस सुख दुःखका बोध करने लगे, वे ही सुख दुःखके प्रलेप उस निर्लिप्त आकाश बेचारेमें लगा देने लगे यथा, वह घरका गर्भस्थ आकाश दुर्गन्धमय, धुंधला, अन्धकारावृत इत्यादि । परन्तु आकाश बेचारेमें कोई भी दोष नहीं है। साधक ! यही पुरुष के भोक्तृत्व है। हरि! हरि !! अपूर्व लीलामयी प्रकृतिकी अपूर्व “अध्यारोपापवाद ऐसा है जैसे सरग वेलकी जड़ ॥ २१ ॥ Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रयोदश अध्याय . १५६ पुरुषः प्रकृतिस्थो हि भूङक्ते प्रकृतिजान् गुणान् । कारणं गुणसंगोऽस्य सदसद्योनिजन्मसु ॥ २२॥ अन्वयः। हि ( यस्मात् ) पुरुषः प्रकृतिस्थः ( अविद्यालक्षणायां कार्यकारणरूपेण परिणतायां प्रकृतौ तादात्म्येन स्थितः ) [ तस्मात् ] प्रकृतिजान् गुणान् ( सुखदुःखादीन् भूङ क्ते ; अस्य ( पुरुषस्य ) सदसद्योनिजन्मसु (सदसद्योनिषु सतीषु देवादियोनिषु असतीषु तीर्यगादियोनिषु यानि जन्मानि तेषु ) गुणसंगः ( गुणैः शुभाशुभकर्मकारिभिरिन्द्रियः संगः ) कारणं ( हेतु ) ॥ २२ ॥ अनुवाद। प्रकृतिस्थ होनेही के कारण पुरुष प्रकृति जात गुण समूहका भोग करते हैं, पुरुषको सदसद् योनिमें जो सब जन्म हैं उस विषयमें गुणसंग ही कारण है ॥ २२॥ व्याख्या। असीमके भीतर ससीमका कार्य-कारण रूप परिणति में ( बदलाईमें ) जैसे अरूप आकाशमें गभीरता हेतु हकशक्तिकी दुर्बलताके कारण अति दूर में जो नीलिमा रूपकी भ्रम कल्पना आती है, वह जैसे कभी भी सच्चा नहीं है; तैसे ही छिद्रशून्य (ठोस ) असीम ब्रह्म वस्तुमें, अबस्तु स्वरूप ससीम प्रकृतिको उपस्थिति मिथ्या ही मिथ्या भ्रममात्र है। इसमें कुछ भी सच्चा नहीं है। और वह भ्रम बोधनका जो प्रलाप है, वह प्रलाप ही "पुरुष” और पुरुषके "प्रकृतिस्थ" होना है। उस प्रकार प्रलापसे उत्पन्न सुख दुःख मोहाकारा वृत्तिमें "मैं सुखी हूं, मैं दुःखी हूँ, मैं मूढ़ हूं, मैं पण्डित हूं" इस प्रकार भाव वा (चिन्ता ) करेगा घोर बिकारग्रस्त रोगियोंकी प्रलाप सदृश ब्रह्मको काटकर छिन्न-भिन्न करके पुरुष बनाकर भोक्ता साज सजाय लेना। यही है तुम्हारा निर्गुणको गुणके साथ मिला करके गुणका भोक्ता कह करके अपवादमें फंसा लेना। जैसे शिशिर कालके सबेरे (प्रभात) में जौके पौधेके ऊपर शिशिर बिन्दुमें सूर्यकिरण पड़के नाना रंगके रूप दिखा देता है अर्थात् सूर्य-गतिके साथ ही साथ शिशिर बिन्दुमें जैसे अनेक प्रकारका रंग देखा जाता है, परन्तु शिशिरबिन्दुमें जैसे कोई Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६० । श्रीमद्भगवद्गीता अदल बदल नहीं होता; उसी तरह तुम्हारी अलीक प्रकृतिके गुणमें निगुण पुरुषको गुणके साथ संघठन कराना है। जैसे जैसे ढंगमें वह प्राकृतिक गुणकी बेड़ोका घेर है वैसे ही वैसे बह ब्रह्म कटा हुआ टुकड़े में भी पुरुषके देवता मनुष्य, प्रभृति सतयोनिमें, तथा पशु, पक्षी, कीड़े, पतंग प्रभृति असत् योनिमें जन्म ग्रहण करना है ॥ २२ ॥ उपद्रष्टानुमन्ता च भर्त्ता भोक्ता महेश्वरः। परमात्मेति चाप्युक्तो देहेऽस्मिन् पुरुषः परः ॥ २३ ॥ अन्वयः। अस्मिन् ( प्रकृतिकार्ये ) देहे ( वत्त मानोऽपि ) पुरुषः परः ( भिन्नः भवति, न तद्गुणैः युज्यते इत्यर्थः ), (यस्मात् ) उपद्रष्टा ( पृथगभूत एव समीपे स्थित्वा द्रष्टा, साक्षीत्यर्थः ) अनुमन्ता च ( अनुमोदितव सन्निधिमात्रेणानुग्राहकः) भर्ती ( विधायक्रः ) भोक्ता ( पालकः ) महेश्वरः ( ब्रह्मादीनामपि पतिः ) परमात्मा ( अन्तर्यामी ) इति च अपि उक्तः ॥ २३ ॥ अनुबाद। इस शरीरके भीतर रह करके भी पुरुष पर ( प्रकृतिसे भिन्न ) है (क्योंकि बह) उपद्रष्टा, अनुमन्ता, भा, भोक्ता और महेश्वर है, तथ' वह परमात्मा इस नामसे भो उक्त है ( कहा हुआ है ) ।। २३ ॥ व्याख्या। कृषिक्षेत्रको रक्षा करनेवाला कृषक कृषिजात सब विषयोंके भलाई बुराईका द्रष्टा है। दिन रात प्रति पौधेके पास रह करके शश आदि जन्तुके उपद्रवसे सबको रक्षा करनेका बोझ उसी कृषकके ऊपर है। परन्तु कृषक उसे भलीभांति कर सकता नहीं; इसलिये घास फूससे एक पुतलीका आकार बनाकर लम्बे लम्बे हाथ लगाकर, एक बांसके ऊपर बैठाकर, काले हांडीसे उसका मस्तक बनाकर, क्षेत्रके ठीक बीचमें गाड़ देता है। उस पुतलीका किम्भूत किमाकार विकट मूर्ति देख करके शश श्रादि अनिष्ट करनेवाले जन्तु भय मान करके क्षेत्रके तरफ फिर नहीं आते। उस पुतलीके ऊपर क्षेत्र-रक्षा करनेका बोझ उस कृषकने छोड़ दिया है। इस कारणसे वह मूर्ति उस क्षेत्रकी उपद्रष्टा है। इसी तरह प्रकृतिका कार्यकारण-व्यापारके अत्यन्त Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रयोदश अध्याय १६१ निकट रहनेसे प्रकृतिका किसीके साथ संस्रव न रखनेसे भी कल्पनामें पुरुषके हक शक्तिके सामने जैसे प्रकृतिका कार्य-कारण व्यापार सम्पन्न होता है, इसलिये (चाहे पुरुष देखे या न देखे ) उसको उपद्रष्टा कहते हैं। __ वह फूलकी पुतली उस कृषकके कृषिजात जो कुछ जड़ी बूटी रक्षा करनेवाले कार्यमें (कुछ न करके भी) अनिष्ट करनेवाले जन्तुओंको भगाकर कृषकके काम काजका अनुमोदन करती है; इसलिये "अनुमन्ता" है। उसी तरह प्रकृतिके कार्य-कारण-व्यापारमें पुरुषका कोई संस्रब न रहनेसे भी, प्रकृतिके बाड़ेमें पुरुषको घेर लेकर जड़में चैतन्य संक्रमणकी कल्पना कराकर आप ही आप प्राकृतिकी क्रियाका प्रकाश होने लगे, इसलिये पुरुष प्रकृतिका "अनुमन्ता" हुआ। __ पृथ्वोसे एक लक्ष योजन दूरान्तर ऊपरमें सूर्य रहता है, और पृथ्वी पर तालाबके जलमें पद्म है । प्रभात काल में सूर्य उठनेसे कमल खिलता है, और सूर्यास्तमें मुदित होता है, इस कारण कवि जैसे उस सूर्यके साथ कमलका पति-पत्नीत्व भावका आरोप किये हैं, उसी तरह प्रकृति नाम करके अनित्य, अज्ञानता, मिथ्या भ्रमको स्त्री सजा करके, नित्य, सत्य, सनातन, ब्रह्ममें पुरुष-शब्दका आरोप करके कल्पनाके जोरसे दोनोंके साथ विवाह देकर पुरुषको भर्ता बनाया है। जगत् भ्रमका घर है। भ्रमके घरके भ्रम-संसारमें भ्रम-कल्पनाकी ही प्रतिपत्ति है। इसलिये काल्पनिक प्रकृतिके कल्पित पुरुषमें कल्पित भर्ताका आरोप जानना। सत्य ही मिथ्याको पोषण करता है । सत्य है ब्रह्म, और प्रकृति मिथ्या है। इसलिये ब्रह्म प्रकृतिका "भर्ता" है। __ “भोक्ता" भुज भोजन करना +7 (तृण) = (कर्तृवाचक शब्द) अर्थात् जो भोजन करता है। सूर्योदयमें अंधियारा जैसे आपही आप मिट जाता है, तैसे ब्रह्मज्ञानके उदयमें प्राकृतिक भ्रमजाल आप -११ Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्राम श्रीमद्भगवद्गीता ही आप ब्रह्ममें परिलीन होते हैं इस करके, ब्रह्म प्रकृतिका भोक्ता है, यह मिथ्या अपवाद प्रकाश किया हुआ है। सामने यह जो अति दुर्बोध्य प्रकाण्ड विश्वकोष देखते हो, जिसकी सीमा करना मानुष-अन्तःकरणके असाध्य है, यह समस्त ही प्रकृति विकृति और विकार है। पुनः जिसके कार्यकारण-व्यापार मात्र ही यह विश्व है, वह प्रकृति खुद आप कितनी बड़ी है इसकी धारणाका आभास भी इस क्षुद्र हृदयमें नहीं आता। सबसे बड़ी कह करके प्रकृतिको महान कहा है। जिसे आश्रय कर के प्रकृति देवी इस रचनामालाकी अधीश्वरी हुई है, वही पुरुष इसके ईश्वर होनेके कारण उस पुरुषका नाम "महेश्वर" है। "परमात्मा" (पर शब्दमें श्रेष्ठ, और अम् कहते हैं केवलको) अर्थात् जो केवल, श्रेष्ठ और आत्मा है । "आत्मा शुद्धः स्वयंज्योतिरविकारी निराकृतिः”। तभी हुआ, जो केवल (अकेला ) श्रेष्ठ, शुद्ध, स्वयंज्योति, अविकारी और निराकृति है, वही परमात्मा है। हे अर्जुन ! प्रकृति के कार्यकारण स्वरूप इस देहके साथ संस्रकदोषसे दूषित हो करके ही पुरुष प्रोक्त विशेषण समूहसे आभूषित हुआ है। ऐसा न होकर यह खुद जो है, विश्लेषणमें वह भी तुम्हें समझना बाकी नहीं है। यह तुम्हारी प्रकृति, प्रकृति-विकृति, विकार और पुरुष है। लो देख लो ॥ २३ ॥ य एवं वेत्ति पुरुषं प्रकृतिञ्च गुणैः सह। सर्वथा वर्तमानोऽपि न स भूयोऽभिजायते ॥ २४ ॥ अन्वयः। यः पुरुष एवं ( उपद्रष्टत्वादिरूपेण ) वेत्ति, प्रकृतिं च गुणैः सह (सुखदुःखादिपरिणामैः सहित ) वेत्ति, सः सर्वधा ( सर्व-प्रकारेण ) वर्तमानोऽपि भूयः ( पुनः ) न अभिजायते (देहान्तरं न गृह्णाति, मुच्यते एवेत्यर्थः) ॥ २४ ॥ अनुवाद। जो इस प्रकारसे पुरुष को और गुणों के साथ प्रकृतिको विदित होता है, वह सर्व प्रकारसे वर्तमान रह करके भी पुनर्जन्म ग्रहण नहीं करता ॥ २४ ॥ Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रयोदश अध्याय १६३ व्याख्या। जो साधक उपरोक्त प्रकारसे अपनेको (अपनी आत्माको अर्थात् जो आत्मा शुद्ध, स्वयंज्योति, अविकारी, निराकृति है, उसको ), प्रकृतिको तथा प्रकृतिके गुण, क्रिया और शक्तिको दृढ़ता से जानकर समझ लेंगे, (जैसे तैसे जाना जानने से नहीं होगा, अन्त:करणमें जब जो किसी वृत्तिका उदय होगा, चेष्टा न करनेसे भी तब ही उस दृढ़ अभ्यासके गुणसे आप ही आप वह पुरुष-अवस्थाको प्राकृतिक संस्रवसे हटा कर सीधी सरल-हंसी हँसा देगा; जब ऐसा होगा, तब ही ) उनका भूत और भविष्यत् नामका प्रकृति के दोषसे उत्पन्न काल-विभाग नष्ट होकर सर्वथा वर्तमान निरन्तर अपरिवर्तनीय एक अवस्था पा जावेगी। उस अवस्थामें विधि निषेध कुछ भी नहीं रहेगा, क्योंकि उनका तब सर्व ब्रह्ममय हो जानेसे उनमें पुनर्जन्मके बीजस्वरूप वृत्तिमात्रका उदय फिर न होगा। साधक भी जीवन्मुक्त होवेंगे। इसलिये वह साधक बाहर वाले जिस किसी भाव में रहनेसे भी जन्म लेने वाले संस्कारके अभाव होनेके कारण उनका फिर पुनर्जन्म न होगा ॥ २४ ॥ ध्यानेनात्मनि पश्यन्ति केचिदात्मानमात्मना । . अन्ये सांख्येन योगेन कर्मयोगेन चापरे ।। २५ ॥ अन्वयः। [ एवम्भूतविविक्तात्मज्ञानसाधन विकल्पानाह ध्यानेनेति द्वाभ्यां ] । केचित् ध्यानेन । नात्माकारप्रत्ययवृत्या ) आत्मनि ( देह एव ) आत्मना ( मनसा एव ) आत्मानं पश्यन्ति, अन्ये सांख्येन योगेन ( ज्ञानयोगेन ) अपरे च कर्मयोगेन (पश्यन्ति ) ॥२५॥ ___ अनुवाद। कोई कोई ध्यानयोग द्वारा देहमें ही मानस दृष्टि से आत्मा का दर्शन करते हैं; दूसरे कोई कोई सांख्ययोग द्वारा तथा अपर कोई कोई कर्मयोग द्वारा ( आत्मा को अवलोकन करते हैं) ॥ २५॥ . __ व्याख्या। [ वह जो प्रकृति, प्रकृति-विकृति, विकार और पुरुषकी कथा कही हुई है, आत्म-दर्शन होनेसे ही उन सबको जाना जाता है। Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीमद्भगवद्गीता भगवान् साधनके क्रम अनुसारसे साधकका क्रमिक अधिकार भेद दिखला करके आत्मदर्शनका उपाय समूह इन दो श्लोकोंमें कहते हैं।] यथाशास्त्र श्रीगुरुदेवके पास उपदेश ले करके साधनमें अग्रसर होते होते जब सुषुम्नामें प्राणचालनकी शक्ति सरल हो जावेगी, तब १७२८ बार चातुर्थिक प्राणायाम करनेसे ही विषय और इन्द्रियोंसे मन उठकर बुद्धिमें पड़ करके आत्म-साक्षात्कार कराय देवेगा। यह जो आत्मसाक्षात्कार करनेका क्रम है, इसको ध्यान कहते हैं। इस प्रकार करते करते जब साधककी विषयमुखी वृत्ति प्रवाह एकदम आयत्ताधीन होगी, तब इच्छानुसार उस प्रवाहको प्रकृतिकी ग्लानिसे अलग करके तैलधारावत् अविच्छिन्न भावसे पुरुषमें फेंक कर निरन्तर स्थिति ली जा सकती है। यह एक प्रकारको साधन है। इसमें भी मात्मामें स्थिति और संसार-अवस्थाका निरोध होता है। [इस प्रकार साधनका पूर्व अंग सांख्ययोग अर्थात् ज्ञानयोग है और सांख्ययोगका पूर्व अंग कर्मयोग है। इसलिये श्रीभगवान इसके बाद ही सांख्ययोग तथा कर्मयोगका उल्लेख किये हैं। सिद्धयोगीगण इनमेंसे अपनी इच्छानुसार किसी एकका अवलम्बन करके आत्मदर्शन करते हैं; परन्तु अभ्यासीको पर पर क्रम अनुसारमें ही उठ करके सिद्ध होना पड़ता है। और एक साधन वस्तुविचार है। इस विचारमें प्रकृति, प्रकृतिविकृति और विकार सब "तन्न तन्न” करके त्याग होते होते, अर्थात् तत्वसमूहके भीतर “यह प्रात्मा नहीं, वह आत्मा नहीं, सो आत्मा नहीं है", इस प्रकारसे जो कुछ परिणामी है, सबको अलग करते करते शेष सिद्धान्तमें एक अपरिणामी, नित्य, सत्यका साक्षात्कार होता है, तथा गणनामें ( गिन्तिमें ) परिणामी वस्तुसमूह चतुर्विंशति संख्यक होते हैं इस कारण इसको सांख्ययोग कहते हैं। Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रयोदश अध्याय - १६५ और एक साधन है। दुर्बलचित्त मानव जगत्में अपने लिये जो कुछ काम काज करता है, उसे वह “अपने लिये करता हूं" यह बोध विचार न करके "मैं ईश्वर-प्रेरित हूँ ईश्वरकी इच्छासे जो कुछ काम काज करता हूँ, भला हो चाहे बुरा हो वह सब ईश्वरका है" इस प्रकार दृढ़ निश्चय करके सम्मुखमें सदाकाल अविच्छिन्न भावसे ईश्वरको बैठा करके तम्मुखी, तन्मयी वृत्ति द्वारा उस ईश्वरमें मिल करके काल काटने को कर्मयोग कहते हैं। यह बाहरका है और वह पहले वाला भीतर का है ॥ २५ ॥ अन्ये त्वेवमजानन्तः श्रुत्वान्येभ्यः उपासते। ... तेऽपि चातितरन्त्येव मृत्यु श्रुतिपरायणाः ॥२६॥ अन्वयः। अन्ये तु एवं (सांख्ययोगादिमार्गेण उपद्रष्टुत्वादि-लक्षणमात्मानं साक्षात् कत्त) अजानन्तः अन्येभ्यः (आचार्येभ्यः) श्रुत्वा उपासते ( ध्यायन्ति) तेऽपि च श्रुतिपरायणा: ( श्रद्धया उपदेश-श्रवणपरायणाः सन्तः ) मृत्यु ( संसारं ) अतितरन्ति एव ।। २६ ॥ अनुवाद। परन्तु दूसरे कोई कोई इस प्रकारसे (सांख्ययोगादिया में उपद्रष्ट त्वादि लक्षण आत्माको साक्षात् करने के लिये ) न जान करके दूसरेके पास ( आचार्यके पास ) सुन करके आराधना करते हैं ; वे लोग भी उपदेश श्रवणपरायण होकरके मृत्युको अतिक्रम करते हैं ।। २६ ॥ व्याख्या। ऐसे अनेक साधक हैं जिनमें जड़ता अधिक और सूक्ष्मतत्व निर्णय करनेकी शक्ति कम है। वे लोग सांख्ययोगादि मार्ग में आत्माका स्वरूप साक्षात्कार नहीं कर सकते। वे सब दूसरेके पास अर्थात् आचार्यों के मुखसे उपदेश श्रवण करके उपासनामें प्रवृत्त होते हैं। वह पर-उपदेश ही उन सबके प्रमाण है, क्योंकि वे सब आप विवेकर हित हैं। परन्तु क्रम अनुसार वे सब भी मृत्युयुक्त संसारको अतिक्रम करते हैं । क्योंकि श्रद्धाके साथ वह उपदेश सुनते सुनते धीरे Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीमद्भगवद्गीता धीरे उसीमें भक्तिका विकाश होनेसे उन सबकी बहिवृत्तिका निरोध होता है। तब बाहरका उपदेश अन्तरके भीतर नादरूपमें परिणत होता है । उसी नादको सुनते मन विष्णुपदमें लय हो जाता है ॥२६॥ यावत्संजायते किन्चित्सत्वं स्थावरजंगमम् । क्षेत्रक्षेत्रज्ञसंयोगात् तद्विद्वि भरतर्षभ ।। २७ ॥ अन्वयः। हे भरतर्षभ । यावत् किञ्चित् स्थावरजंगमं सत्त्वं ( यत् किञ्चित् वस्तुमात्रं ) संजायते ( समुत्पद्यते ) तत् (सर्वे ) क्षेत्रक्षेत्रज्ञ-सयोगात् ( भवति इति) विद्धि ( जानीहि ) ॥ २७ ॥ अनुवाद। हे भरतर्षभ ! जितना कुछ स्थावर, जंगम सत्त्व उत्पन्न होता है, वह सबही क्षेत्र और क्षेत्रज्ञके संयोगसे होता है, जानना ।। २७ ॥ .. व्याख्या। वह जो क्षेत्रज्ञ स्वरूप ईश्वरको (प्रकृतिका बाड़ा काटकर ) असीम करनेका साधन कहा गया, जिसमें मरधर्म ( जन्म-मृत्यु) नाश करके अमरत्व मिलता है, उसका अति सूक्ष्म तत्त्व (प्रधान साधन ) है क्षेत्र और क्षेत्रज्ञका संयोग समझ लेना। हे भरतर्षभ ! हे अर्जुन ! जबतक स्थावर (अचल पदार्थ ) जंगम ( जो चलता फिरता है ) इन दोनों प्रकारके कल्पित अवस्तु । भनित्य मिथ्या ) में नित्य, सत्य, ज्ञान करानेका भ्रम रहेगा, अर्थात् क्षेत्र (प्राकृतिक व्यापार ) और क्षेत्रज्ञ (ब्रह्ममें मायाका बाड़ा, जो कल्पनाके बाहर, जो परस्पर विपरीत और अत्यन्त भिन्न हैं ) इन दोनोंका भेद परिज्ञान न होवेगा, तबतक क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ-संयोग बना है, जानना। स्वप्नमें हाथी, घोड़ा, भूत, प्रेत देखनेका भय जैसे जाग्रत होनेसे नहीं रहता, तैसे ब्रह्मज्ञानके उदय होनेसे ब्रह्मवस्तुमें मायाका बाड़ा पड़नेका भ्रम नहीं रहता। प्रकृति, प्रकृति-विकृति, विकार और पुरुष अवस्थाको बार बार विश्लेष करते करते (घोरतर अभ्याससे ) वह क्षेत्रक्षेत्रज्ञ-संयोग भ्रम कट जाता है। पुनर्जन्मका बीज भी मिट जाता है। इसीको तुम्हारी मुक्ति Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .. त्रयोदश अध्याय १६७ उद्देशमें चरम साधनका उपदेश जानना। साधक ! इसका स्पष्ट प्रमाण देखो। जिस दिन तुम क्रिया करनेके लिये बैठ करके क्रियाकी परावस्था पानेकी इच्छा न रक्खो, उसी दिन तुम्हारी उस क्रियाकी परावस्थाको प्राप्ति होती है, और जिस दिन रक्खो, उस दिन कदापि नहीं होती ॥२७॥ समं सर्वेषु भूतेषु तिष्ठन्तं परमेश्वरम् । विनश्यत्स्वविनश्यन्तं यः पश्यति स पश्यति ॥ २८ ॥ अन्धयः। यः सर्वेषु ( स्थावरजममात्मकेषु ) भूतेषु समं (निवि-शेषसद्र पेण यथा भवत्येवं ( तिष्ठन्तं विनश्यत्सु अविनश्यन्तं परमेश्वरं ( परमात्मानं ) पश्यति सः पश्यति ( स एव सम्यक् पश्यति नान्य इत्यर्थः ) ॥२८॥ अनुवाद। जो परमेश्वर को सर्वभूतोंमें समभावसे अवस्थित तथा भूतगणों के विनाशसे उनको अविनाशी दर्शन करता है; वही पुरुष सम्यक् दर्शन करता है ॥२८॥ व्याख्या। "परं” अर्थमें केवल, श्रेष्ठ; और 'ईश्वर' अर्थमें माया संयुक्त ब्रह्म। प्रकृति की ज्योति नहीं, पुरुषमें ज्योति है। पुरुष-संयोग से प्रकृतिमें जो इच्छा, क्रिया और ज्ञानशक्तिकी भ्रमोत्पत्ति होती है, प्रकृति उस भ्रमको पुरुषमें डाल कर, पुरुषकी ज्योति अपनेमें लेकर, पुरुषको कर्ता सजा कर आप खुद जो स्वयंज्योति और अकर्ता सज बैठती है, उस द्वयात्मक अवस्थाका नाम ईश्वर * है। जिस ईश्वर में * चक्षु की मणियां गोल और बहुत छोटी हैं। परन्तु उसी आंख को मणियोसे दृकशक्ति बाहर आकर महाकाश का जितना स्थान अधिकार करती है वह अतीव महान् है। दृकशक्ति का केन्द्रस्थान गोलक होनेसे आकाश का जितना स्थान अधिकार करता है वह समस्त गोलाकारसे बोधमें आता है। उतना गोलक आकाशके भीतर कितनी चक्षु को मणियां स्थान पा सकता है, उसकी संख्या नहीं होती, चिन्ता करके भी निर्णय किया नहीं जा सकता। उसी तरह परिपूर्ण Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६८ श्रीमद्भगवद्गीता केवलत्व और श्रेष्ठत्व है, उसको परमेश्वर कहते हैं। महाकाशमें लोहे का प्राचीर दे करके किल्ला बनानेसे जैसे आकाश विच्छिन्न नहीं होता, तैसे प्राकृतिक अध्यास वा अपवाद का प्रलेप ब्रह्मको स्पर्श नहीं कर सकता। अज्ञानियोंके चक्षुमें किल्लाके प्राकारसे भाकाशको विच्छिन्न बोध होनेसे भी ज्ञानियों के चक्षुमें जैसे वह बाधा महाकाश में नहीं ठहरता; ज्ञानी जैसे पर्वत, प्राचीर, वृक्ष पत्थरके भीतर बाहर अविच्छिन्न एक महाकाशको ही देखते हैं। वैसे एक परमेश्वर सर्वभूतों में समभावसे महाकाश सदृश अविच्छिन्न भावसे ( निरन्तर ) वर्त्तमान है। प्राकृतिक परिवर्तनसे उस नित्य सत्यका कुछ भी परिवर्तन नहीं होता। यह व्यापार देखनेके अधिकारी जो हुए हैं, उसे वही देखते हैं, दूसरेके लिये दुज्ञेय है। अपनी फ्रियाकी पूर्वावस्था, क्रियावस्था, क्रियाकी परावस्था, और क्रियाकी परावस्थाकी परावस्थासे मिला लेनेसे ही साधकको यह भ्रम नहीं रहेगा ॥२८॥ ब्रह्ममें माया-प्रसूत गोलकधंधा जितना स्थान अधिकार कर चुका है उतने स्थानमें जो ब्रह्म-अंश हुअ है अर्थात् माया ब्रह्म का संयोग हुआ है, उतना स्थान गुणमयी मायाके संस्पर्श-दोषसे गुणों के संक्रभ हो करके सगुण-ब्रह्म नाम लिया है। यह सगुण ब्रह्म ही 'ईश्वर" है। इस सगुण ब्रह्मके अधिकारमें असंख्य माया विकार विश्वब्रह्माण्ड उस आंख की मणियोंके सदृश स्थान पा चुके हैं। आकाशकी गोलकसे आंख की मणियों की गोलक बहुत दूर में तथा छोटेसे छोटा [ जरा सा ] है। नित्य निरंजन सत्य ब्रह्ममें ईश्वरसे आदि लेकर असल माया की आबास-भूमिका असत्य मिथ्याभी बहुत दूर में और छोटोसे छोटी है । ईश्वर इस माया को अपने वशमें रक्खे हैं इस करके उनका नाम मायावशी है। और वह चिदाकाश जैसे जैसे मायाको दिशा (तरफ) में निकट उतरते आये तैसे तैसे वह मायाके वशीभूत होते गये। वही मायाका वशीभूत अवस्था जीव है। यह जीव तैसे जैसे मायाके निकट आते गये, तसे तैसे वशीभूतताके तारतम्यानुसार देवता, असुर, मानुष, पशु, पक्षी, कीट, पतंग, वृक्ष, प्रभृति नाम पा चुके हैं। Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रयोदश अध्याय १६६ समं पश्यन् हि सर्वत्र समपस्थितमीश्वरम् । न हिनस्त्यात्मनात्मानं ततो याति परां गतिम् ॥ २६ ॥ अन्वयः। हि (यस्मात् ) सर्वत्र ( सर्वभूतेषु ) समं समवस्थितं ईश्वरं ( परमात्मानं ) पश्यन् आत्मना (स्वेनैव ) आत्मानं न हिनस्ति ( अविद्यया सच्चिदानन्दरूपमात्मानं तिरस्कृत्य न विनाशयति ), तता ( तस्मात् ) परी गति (मोक्ष) याति ( प्राप्नोति ) ॥ २९ ॥ अनुवाद। क्योंकि सर्वत्र समान भावसे सम्यक् अवस्थित परमात्माको दर्शन करनेवाला पुरुष अपनेको विनष्ट नहीं करता, इसलिये परागति ( मोक्ष ) को प्राप्त होता है ॥ २९ ॥ व्याख्या। पूर्व श्लोकमें जो ब्रह्म, ईश्वर, परमेश्वर समझा गया, उसमें और कोई किसीका स्थान मिलनेकी जगह नहीं है। यह, वह कह करके निर्दश करनेका कोई कुछ भी नहीं है। भूत भविष्यत् कह करके प्रकाश करनेका कोई काल भी नहीं है। प्रज्ज्वलित अग्नि शिखा की चद्दर (ोड़ना) सदृश एकही वस्तु (ब्रह्म) विद्यमान है। यह अनादि, अनन्त, ज्योतिस्वरूप ही स्वयं मैं हूँ। ऐसा कौन प्राकृतिक भ्रम है, जो मेरे इस स्वस्वरूपमें बिघ्नोत्पत्ति कर सकता है ? और वह भ्रम भी कैसा ? कहाँ रहता है ?-इस शासनके भीतर अविच्छिन्न रहनेसे मिथ्यासे सत्यको काट कर आत्मघाती होना नहीं होता, अर्थात् "मैं जीव हूँ" इस अज्ञानतामें उतर कर "मैं परमात्मा हूँ" इस ज्ञानका विनाश साधन करना नहीं पड़ता-अपनेको अपना हीनत्व स्वीकार करना नहीं होता। इसलिये परागति (ब्राह्मीस्थिति ) आप ही आप स्थायी होती है ॥ २६ ॥ प्रकृत्यैव च कर्माणि क्रियमाणानि सर्वशः। यः पश्यति तथात्मानमकर्तारं स पश्यति ॥ ३० ॥ अन्वयः। यः कर्माणि प्रकृत्या एव च ( देहेन्द्रियाकारेण परिणतया मायया Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीमद्भगवद्गीता १७० एब च नान्येन ) सर्वश: ( सर्वप्रकारैः ) क्रियमाणानि पश्यति तथा आत्मानं ( क्ष त्रज्ञ अत्तरं ( सर्वोपाधिविवर्जितं ) पश्यति, सः पश्यति ( स एव परमार्थदर्शी ) ॥ ३० ॥ अनुवाद | कर्म समूह प्रकृति द्वारा ही सर्व प्रकार से कृत होता है और आत्मा अती है, ऐसा जो देखते हैं, वे ही परमार्थदर्शी हैं ।। ३० ।। व्याख्या | छोटी छोटी लड़कियाँकी खेलवाड़ी घर गृहस्थी जैसे भविष्यत् विलास के लिये प्रस्तुत होनेकी शिक्षारम्भ करता है; उसी तरह उस आत्मघातिनी ( आत्माको नष्ट करती है ) मायाको दूर करके पुनः स्वस्वरूप में स्थितिके लिये प्रथम अभ्यास है यह वचन - विलास ( जी यहाँ समझा और समझाया जाता है ) । त्रिगुणात्मिका प्रकृति भगवानको माया है। कार्य और कारण में यह मायाही अपना परिणाम श्रापही आप दिखला देती है । इसलिये करण और निवृत्ति इन दोनोंका ही कर्त्ता वह खुद है इससे इसका नाम प्रकृति है । जितने प्रकार के कार्य-कारण-कर्त्ता सम्बन्ध जहाँ आवेगा, वे समस्त हौ यह विलासिनी प्रकृति है । "मैं" उस अनन्त ज्योतिस्वरूप बिना और कुछ भी नहीं । - यह अपरोक्ष ज्ञान ही अपनेको आप अकर्त्ता दिखा देता है । साधन- विशेषसे जिसने ऐसी दृष्टि पाई है, वही साधक अपनेको कर्त्ता देखता है ।। ३० ।। यदा भूतपृथग्भावमेकस्थमनुपश्यति । ततएव च विस्तारं ब्रह्म सम्पद्यते तदा ॥ ३१॥ अन्वयः । यदा ( यस्मिन् काले ) भूतपृथग्भावं ( भूतानां भेदं ) एकस्थं ( एकस्मिन्नात्मनि स्थितं ) अनुपश्यति, तत एव च ( तस्मात् आत्मने एव च ) विस्तार (उत्पत्ति ) अनुपश्यति, तदा ( तस्मिन् काले ) ब्रह्म सम्पद्यते ( ब्रह्मव भवति ) ॥ ३१ ॥ अनुवाद | जब ( जो ) भूतसमूहके पृथकू भावको एकस्थ ( एक आत्मा में अवस्थित ) दर्शन करते हैं, और उन्हींसे ( उसी एक आत्मा से ) भूतसमूहके विस्तार दर्शन करते हैं, तब वे ब्रह्म हो जाते हैं ॥ ३१ ॥ Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रयोदश अध्याय १७१ व्याख्या। यह जो भूतोंके यह-वह-इत्यादि पृथक् पृथक् भावः देखते हो, उन सबको उस प्रकृतिके ही करण और निवृत्तिरूप धर्म जानो। इस अन्तःकरणसे वह पृथक् भाव मिटा देनेसे ही भूतसमूह एक होकरके अति विस्तार होता है। और वह अति विस्तार ही ब्रह्म है। वह ब्रह्म ही "मैं” हूँ। तस्वदर्शी साधक जब चतुर्थ अध्यायका कहा हुआ ब्रह्मयज्ञका अनुष्ठान करते हैं, तब उनकी सर्वत्र आत्मदृष्टि प्रतिष्ठित होती है, और प्रत्यक्ष करते हैं कि वारिधि-वक्षमें (अकूल समुद्रके जलके ऊपर जहाँसे कोई कूल किनारा दिखाई नहीं देता ) अनन्त तरंग-फेन-बुद्बुद्वत् भूतसमूह एक आत्मामें ही अवस्थित और एक आत्मासे ही विविध आकार धरके विस्तृत तथा एक आत्मा में ही प्रलीन होता है। जब यह प्रत्यक्ष दर्शन होता है, बोध भी निस्तरंग दृढ़ होता है, तबही साधकको ब्रह्मभाव-प्राप्ति होती. है॥३१॥ । अनादित्वान्निगुणत्वात्परमात्मायमव्ययः । शरीरस्थोऽपि कौन्तेय न करोति न लिप्यते ॥ ३२ ॥ अन्वयः। हे कौन्तेय ! अनादित्वात् अथं परमात्मा अव्ययः ( अविकारी ), (अतः ) शरीरस्थोऽपि न ( किंचित् ) करोति न ( कर्मफले:) लिप्यते ॥ ३२ ॥ अनुवाद। हे कौन्तेय ! अनादित्व और निर्गुणत्व हेतु यह परमात्मा अव्यय (अविकारौ ) है, इसलिये शरीरस्थ हो करके भी कुछ नहीं करते यथा ( कभी किसोमें भी ) लिप्त नहीं होते ॥ ३२ ।। व्याख्या। ब्रह्मभाव-प्राप्ति होनेके पश्चात् देह सम्बन्धके लिये सुख दुःखादिसे और विषमता नहीं आती, समदर्शन ही रहता है। क्योंकि परमात्मतत्त्व जो है, वह अनादि और निगुण है, इसलिये अविकारी है। और प्राकृतिक तत्त्व सादि तथा सगुण है, इसलिये Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७२ श्रीमद्भगवद्गीता उस अविकारीके ऊपर (आकाशके शरीरमें धुआंके सदृश ) कोई छाप नहीं लगा सकते। इसलिये कहा जाता है अनादि, निगुण, अव्यय परमात्माका सादि, सगुण प्रकृतिका बाड़ामें लिप्त होनेका अथवा कुछ करनेका कोई रास्ता नहीं है ॥ ३२ ॥ यथा सर्वगतं सौक्षम्यादाकाशं नोपलिप्यते । सर्वत्रावस्थितो देहे तथात्मा नोपलिप्यते ॥ ३३ ॥ अन्वयः। यथा सर्वगतं आकाशं सौक्ष्म्यात् ( असंगत्वात् ) न उपलिष्यते, तथा आत्मा देहे सर्वत्र अवस्थितः ( अपि ) न उपलिप्यते ॥ ३३ ॥ अनुवाद। जसे सर्वगत आकाश सूक्ष्मत्व हेतु ( कभी किसीमें ) लिप्त नहीं होता तैसे आत्मा देह में सर्वत्र रह करके भी नहीं लिप्त होता ॥ ३३ ॥ व्याख्या। परमात्मा जो शरीरस्थ हो करके भी क्यों लिप्त नहीं होते, इसका उदाहरण आकाश है। सूक्ष्मतत्व हेतु आकाश सर्वगत है; ऐसा स्थान वा चीज कोई नहीं है जहां वा जिसके भीतर बाहर आकाश नहीं है। इ. आकाशको धुसे छाय दो, धूमाकीर्ण कर दो, धूलि उड़ा दो, कीचड़ छिटा दो, जितने प्रकारसे हो सके आकाश को मैलायुक्त करनेकी चेष्टा करो, देखोगे आकाशके शरीरमें कोई कुछ भी छाप नहीं लगा सकता धुआं धूल प्रभृति जब हट जायगा, तब ही देखोगे आकाश जैसा साफ था वैसा ही है। सूक्ष्मपदार्थ होनेके कारण आकाश स्थूलके साथ नहीं मिलता। यह आकाश जैसे सब पदार्थों के भीतर बाहर रह करके भी किसीके साथ लिप्त नहीं होता है, ठीक बसे आत्मा सूक्ष्मातिसूक्ष्म होनेसे इस जगत् ब्रह्माण्डमें जितने देह हैं सबके भीतर बाहर रह करके भी किसीके साथ या कभी किसी के काम काजमें लिप्यमान नहीं होता ॥ ३३ ॥ Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७३ त्रयोदश अध्याय यथा प्रकाशयत्येकः कृत्स्नं लोकमिमं रविः । क्षेत्रं क्षेत्री तथा कृत्स्नं प्रकाशयति भारत ॥ ३४ ॥ अन्वयः। हे भारत ! यथा एकः रविः ( सूर्यः) इमं कृत्स्नं लोकं प्रकाशयति तथा क्षेत्री कृत्स्नं क्षेत्रं प्रकाशयति ॥ ३४॥ अनुवाद। हे भारत ! एक सूर्य जैसे इस समग्र लोकको प्रकाशित करता है, तसे क्षेत्री ( परमात्मा ) समग्र क्षेत्रोंको प्रकाशित करता है ॥ ३४ ॥ व्याख्या। हे भारत ! एक सूर्य जैसे समस्त लोकको प्रकाशित करता है, परन्तु किसीके साथ लिप्त नहीं होता; तैसे जितना क्षेत्र है, एक क्षेत्री (आत्मा) सब क्षेत्रको प्रकाश करते हैं, परन्तु लिप्त नहीं होते ॥ ३४॥ क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोरेवमन्तरं ज्ञानचक्षुषा । भूतप्रकृतिमोक्षच ये विदुर्यान्ति ते परम् ॥ ३५॥ अन्वयः। एवं (उक्त प्रकारेण ) क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोः अन्तरं ( भेदं ) भूत-प्रकृतिमोक्ष च ( भूतानां प्रकृतिः तस्याः सकाशात् मोक्ष मोक्षोपायं ध्यानादिकं च) ये ज्ञानचक्षुषा ( शास्त्राचार्योपदेशजमितमात्मप्रत्यायिकं ज्ञानं चक्षुस्तेन ) विदुः, . ते परं यान्ति ( परमार्थतत्त्वं ब्रह्म गच्छन्ति, न पुनर्देहमाददतीत्यर्थः ) ॥ ३५। . अनुवाद । उक्त प्रकार से ज्ञानचक्षु द्वारा क्षेत्र और क्षेत्रज्ञका प्रभेद तथा प्रकृतिसे भूतगणोंके मोक्षका उपाय जो लोग जानते हैं, वे सब परमार्थतत्त्वमें ( ब्रह्ममें) गमन करते हैं ॥ ३५ ॥ व्याख्या। वह जो क्षेत्र, क्षेत्रज्ञ, प्रकृति, प्रकृति-विकृति (भूत ), और मोक्ष अर्थात् इन सबसे अलग होनेकी कथा कही हुई है, इनके भीतर क्षेत्र, प्रकृति और प्रकृति-विकृतिसे क्षेत्रज्ञ जो सर्वथा ( एकदम ) भिन्न है, यही शास्त्रका प्रमाण, और वही शास्त्रवाक्य गुरूपदेश करके प्रमाणित है । और उस शास्त्रवाक्य तथा गुरूपदेश अनुसार साधनमें Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ :१७४ श्रीरद्भगवद्गीता ब्रती होकरके जो साधक अपने शरीरके भीतर क्षेत्र-क्षेत्रज्ञका प्रभेद एवं प्राकृतिक लाभ करनेकी धारणा, ध्यानादि उपाय प्रत्यक्ष करके निजबोध-रूपसे प्रबुद्ध होते.हैं, वे साधक जितने दिन शरीर धारण करके रहेंगे, उतने दिन जीवन्मुक्त और देहपातात अनन्तर स्वस्वरूपमें "अर्थात् ब्रह्ममें मिल जाते हैं, फिर उनको पुनर्जन्म धारण करने नहीं होता ॥ ३५ ॥ इति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्र श्रीकृष्णार्जुन संवादे क्षेत्रक्षेत्रज्ञविभागयोगो नाम त्रयोदशोऽध्यायः Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्दशोऽध्यायः श्रीभगवानुवाच । परं भूयः प्रवक्ष्यामि ज्ञानानां ज्ञानमुत्तमम् । यजज्ञात्वा मुनयः सर्वे परी सिद्धिमितोगताः॥१॥ अन्वयः। श्रीभगवान् उवाच। ज्ञानानां ( मध्ये ) उत्तभं परं ( परमात्मनिष्ठ) ज्ञानं भूयः प्रवक्ष्यामि, यत् ज्ञात्वा सर्वे मुनयः इतः ( देहवम्धनात् परां सिद्धि गताः (मोक्ष प्राप्ताः)॥१॥ अनुवाद । श्रीभगवान कहते हैं। ज्ञान समूह के भीतर उत्तम जो परम ज्ञान, पुनराय मैं कहूंगा, जिसे जानकर सब मुनिगण वहाँसे ( देह बन्धनसे ) मोक्षधाममें गमन करते हैं ॥१॥ व्याख्या। पूर्वाध्यायमें उक्त हुआ है कि उत्पद्यमान पदार्थ समूह क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ-संयोगसे उत्पन्न होता है। वही क्षेत्र-क्षेत्रज्ञका संयोग जो आपही श्राप नहीं होता, परन्तु ईश्वरकी इच्छासे ही होता है, उसी विषयको प्रत्यक्ष दिखलानेके लिये श्रीभगवान “परं भूयः प्रवक्ष्यामि" इत्यादि वाक्य द्वारा इस अध्यायको प्रारम्भ किये हैं। पूर्व अध्यायके २२ श्लोकमें कहा हुआ है कि, प्रकृतिस्थत्व और गुणसंग ही संसारकारण है। अब बात यह है कि, कौन गुणमें किस प्रकार संग होता है ? गुण क्या क्या है ?-और कसे कर के आबद्ध करता है ? गुण समूहसे मोक्ष किस प्रकारसे होता है ? तथा मुक्त पुरुषका लक्षण किस प्रकारका है ? -इन सब विषयका ज्ञान ही उत्तम अर्थात् परमज्ञान है; इस अध्यायमें वही कहा हुआ है। उसी परमज्ञानको जान करके ही मुनिगण (जिस साधकोंको मनोवृत्ति सम्यक् प्रकारसे लीन हुई हैं वे सब ) परासिद्धि अर्थात् जिसके ऊपर ( बढ़के ) साधन और साधन Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७६ श्रीमद्भगवद्गीता फल नहीं है, वही देहाभिमान नाशकी परावस्था प्राप्त हो चुके, तथा जो लोग जानते हैं, उन सबका शरीर त्यागके पहिले जीवन्मुक्तत्व मोग तत्पश्चात ब्रह्ममें लय होता है ॥ १॥ ... इदं ज्ञानमुपाश्रित्य मम साधर्म्यमागताः। सर्गेऽपि नोपजायन्ते प्रलये न व्ययन्ति च ॥ २॥ अन्वयः। इदं ( वक्ष्यमाणं ) ज्ञानं उपाश्रित्यं ( ज्ञानसाधनमनुष्ठाय ) मम साधयं (मत्स्वरूपता ) आगताः (प्राप्ताः सन्तः ) सर्गे अपि ( सृष्टिकाले अपि) न उपजायन्ते (न छल्पद्यन्ते ) प्रलये ( ब्रह्मणोऽपि विनाशकाले ) न व्यथन्ति च ( व्यथा न आपद्यन्ते न च्यवन्तीत्यर्थः ॥ २॥ अनुवाद। इस ज्ञानका आश्रय करके हमारा स्वरूपत्व प्राप्त होनेसे वे लोग सृष्टि कालमें भी उत्पन्न नहीं होते और प्रलय कालमें भी व्यथा ( संकट ) को प्राप्त नहीं होते ॥२॥ व्याख्या। यह जो उत्तम परमज्ञानकी कथा कही जाती है, यह ज्ञान तीव्रतम वेग करके साधनमें अनुष्ठित होनेसे "मैं" की साधर्म्य अर्थात् स्वरूपत्व प्राप्ति होती है-ब्रह्ममें परिलीन होता है, जैसे डोरीखण्ड पड़ा हुआ है जानते मात्र सर्पभय आपही आप मिट जाता है, तैसे । इस अवस्था द्वत वा अद्वैत कोई भाव-विकार ही नहीं रहता, इस कारण सृष्टि कालके उदय और प्रलयके क्षय इन दोनोंके किसी कष्टसे व्यथित होनेका अवसर नहीं आता ॥२॥ मम योनिमहद्ब्रह्म तस्मिन् गर्भ दधाम्यहम् । सम्भवः सर्वभूतानां ततो भवति भारत ॥३॥ अन्वयः। हे भारत ! महद्ब्रह्म (प्रकृतिः) मम ( परमेश्वरस्य ) योनिः (गर्भाधानस्थान ), अहं तस्मिन् ( महति ब्रह्मणि योनौ ) गर्भ ( जगद्विस्तारहेतु चिदाभासं) दधामि ( निक्षिपामि ) ततः ( गर्भाधानात् ) सर्वभूतानां (ब्रह्मादीनां ) सम्भवः ( उत्पत्तिः ) भवति ॥ ३ ॥ Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्दश अध्याय १७७ ___ अनुवाद। हे भारत । महद्ब्रह्म मेरी योनि ( गर्भाधाम स्थान ) है, मैं उसमें गर्भ ( जगद्वीज ) प्रक्षेप करता हूँ, उससे ही सर्वभूतों उत्पत्ति होती है ॥ ३ ॥ व्याख्या। मम शब्दका अर्थ है मेरा अर्थात् अहंकारका । योनि=स्थितिका स्थान (आकर )। महद्ब्रह्म-महत् कहते हैं सबसे बड़ेको, सब लोग ढूढ़ करके जिसका कूल-किनारा नहीं पाते, अवधि रहित महान् न हो करके भी सबके पास अवधि रहित महान्का भान दिखठा कर जो धोखा देता है, वही महत् है; इसलिये इसका एक नाम है महद्ब्रह्म वा माया। तभी अहंकारकी स्थितिका स्थान माया हुई। उस मायामें मैं गर्भाधान करता हूँ, अर्थात् “मैं” जब उस माया का आश्रय लेता हूँ, तभी मायाको गर्भ ( उत्पादिका शक्ति ) होता है; इसका कारण यह है कि यदि मैं मायाका आश्रय न करूं तो माया बन्न्धा ही रह जाती है, कुछ उत्पन्न करनेकी शक्ति उसमें नहीं रह जाती। उक्त प्रकारसे मायाके गर्भ होनेसे ही माया सर्वभूतको (इस जगत्को ) प्रसव करती है। ज्ञानमें सृष्टि नहीं; सृष्टि अज्ञानतामें है। इसलिये सृष्टि-प्रकरण समझाने जाओ तो "मैं मायाको (अज्ञानताको) आश्रय करता हूँ" यह बात कहना ही पड़ता है । हम अः १७ श्लोक देखो॥३॥ सर्वयोनिषु कौन्तेय मूर्तयः सम्भवन्ति याः। .. तासां ब्रह्म महद्योनिरहं बीजप्रदः पिता ॥ ४ ॥ अन्वयः। हे कौन्तेय ! मर्वयोनिषु याः मूर्तयः सम्भवन्ति ( उत्पद्यन्ते ) तासां (मूर्तीना ) महद्ब्रह्म (प्रकृतिः ) योनिः (मातृस्थानीया ) अहं बीजप्रदा (गर्भाधानकर्ता ) पिता ॥ ४ ॥ अनुवाद। हे कौन्तेय ! सर्व योनियों में जो जो मूत्ति उत्पन्न होती हैं, महद्ब्रह्म उन सबकी योनि ( माता ) और मैं बीजप्रद पिता हूँ॥ ४ ॥ व्याख्या। हे अर्जुन ! देवता, असुर, मनुष्य, पशु, पक्षी आदि जितने प्रकारको योनि हैं, और उन सबसे जितने प्रकारकी मूर्ति Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७८ श्रीमद्भगवद्गीता उत्पन्न होती हैं, उन सबकी योनि वह महब्रह्म और वह "अहं (मैं) बीजदाता पिता हूँ॥४॥ सत्त्वं रजस्तम इति गुणाः प्रकृतिसम्भवाः। निबध्नन्ति महाबाहो देहे देहिनमव्ययम् ॥ ५॥ अन्वयः। हे महाबाहोसत्त्वं रजः तमः इति गुणाः ( इत्येवं संज्ञकाः त्रयो गुणा: ) प्रकृतिसम्भवाः ( गुणसाम्यं प्रकृतिः, तस्याः सकाशात् पृथक्त्वेनाभिव्यक्ताः सन्तः ) देहे (प्रकृतिकायें शरीरे ) देहिनं ( तादात्म्येन स्थितं चिदंशं ) अव्ययं ( वस्तुतः निविकारमेव सन्तं ) निवघ्नन्ति (स्वकार्ये सुखदुःखमोहादिमिः संयोजयन्तीस्थीर्थः) ॥५॥ अनुवाद। हे महाबाहो। सत्त्व, रजः, तमः यह तीन गुण प्रकृतिसे सम्भूत हो करके देहमें देहौ को (अव्यय होनेसे भी ) निबद्ध करते हैं ॥५॥ . व्याख्या। पहिले ही कह चुका हूँ कि, मैं देही नहीं हूँ-मैं देह नहीं हूँ, “मैं” का देह नहीं, मैं जीव नहीं हूँ; मैं निर्विकार चित् हूँ। तथापि तीन गुण क्या हैं ? और उसमें अव्यय "मैं” को किस प्रकार से देह-बन्धनमें लाता है ? वही विषय समझाने के लिये कहा जाता है कि, सत्त्व रजः तमः यह तीनों गुण ही प्रकृतिसे उत्पन्न हैं। हे महाबाहो! (जिसके दोनों हाथके वेष्टनके भीतर "सर्व" नाम करके जो कुछ अायत्तमें आता है, वही महाबाहु है ) यह तीनों गुण अव्यय निर्विकारमें भी विकार लगाकर और उसे देहके भीतर लाकर देही बनाके बांध डालते हैं ॥५॥ तत्र सत्वं निर्मलत्वात्प्रकाशकमनामयम् । सुखसंगेन बध्नाति ज्ञानसंगेन चानघ ॥६॥ अन्वयः। हे अनघ! तत्र ( तेषां गुणानां मध्ये ) सत्त्वं निर्मलत्वात् (स्वच्छत्वात् स्फटिकमणिरिव ) प्रकाशकं (भास्वरं ) अनामयं च (निरुपद्रवं शान्तमित्यर्थः); (अतः ) सुखसंगेन (शान्तत्वात् स्वकार्येण सुखेन यः संगस्तेन ) Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्दश अध्याय १७६ ज्ञानसंगेन च (प्रकाशकत्वाच्च स्वकार्येण ज्ञानेन थः संगस्तेन च ) बध्नाति ( अहं सुखी ज्ञानी चेति मनोधर्मास्तदभिमानिनि क्षेत्रज्ञ संयोजयन्तीत्यर्थः ) ॥ ६॥ अनुवाद। हे अनघ ( अपाप )! उन तीन गुणके भीतर सत्त्वगुण स्वच्छत्व हेतु प्रकाशक ( भास्वर ) और अनामय ( शान्त) है, ( इसलिये) सुखसंग तथा ज्ञानसंग द्वारा बद्ध करता है ॥ ६॥ व्याख्या। उन तीन गुणोंके भीतर सत्त्वगुण स्वच्छ और सबका प्रकाशक तथा शान्त है, इसलिये सुखके साथ (सु-सुन्दर +ख= शून्य, अर्थात् कष्टविहीन अवकाश अवस्थाके साथ) और ज्ञानके साथ मिलन करता है, अर्थात् मैं सुखी हूँ, मैं ज्ञानी हूँ इत्याकार मनोवृति उत्पन्न करता है। इस मिलनका नाम उपद्रव वा बन्धन है। क्योंकि मैं अवधिरहित महान् बिना और कुछ भी नहीं हूँ; तथापि दूसरी एक अवस्तुको सुख नाम देकर खड़ा कराके “मैं” के साथ मिलन कराता है, जिस मैंमें और कुछ भी आनेकी जगह नहीं है । फिर ज्ञान के साथ भी मिला देता है। यह जो आत्म-विस्मृति भ्रम है, यही बन्धन है। ___ ज्ञान शब्दके भीतर ज, ब, आ, न यह चार वर्ण हैं । इनके भीतर "ज" वर्णका अर्थ है जायमान अर्थात् उत्पति-स्थिति-नाशशील जो कुछ है वही; और "ब" वर्णका अर्थ है गन्धाणु, अर्थात् पञ्च तन्मात्रा शब्द-स्पर्श-रूप-रस-गन्धको मिश्रण-क्रिया जिसमें प्रकाश पाती है वही। यह दोनों वर्ण मिल करके "ज्ञ" हुआ। यह "" शब्दका अर्थ है - उत्पत्ति-स्थिति-नाशशील शब्द-स्पर्श-रूप-रस-गन्ध संकूल जो कुछ है। "आ" वर्णका अर्थ है आसक्ति, और "न" वर्णका अर्थ नास्ति है। तब ही हुआ, उत्पत्ति-स्थिति-नाशशील शब्द-स्पर्श-रूपरस-गन्ध युक्त जो कुछ है उसमें आसक्ति न रहनेकी अवस्थाका नाम "ज्ञान" है। जो इस ज्ञानके साथ मिला देता है वही सत्त्वगुण है। अब साधक ! समझ लो, सुखके साथ और ज्ञानके साथ मिलकर जो बन्धन, वह कैसा है ? ॥६॥ Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८० ___ श्रीमद्भगवद्गीता रजो रागात्मकं विद्धि तृष्णासंगसमुद्भवम् । तन्निवनाति कौन्तेय कर्मसंगेन देहिनम् ॥७॥ अन्वयः। रजः रागात्मकं ( अनुरजनरूपं ) तृष्णासंगसमुद्भवम् (तृष्णा अप्राप्ताभिलाषः आसंगः प्राप्तेऽथ प्रीतिः, तधो: तृष्णा संगयोः समुद्भवः यस्मात् तत् ); हे कौन्तेय ! तत् ( रजः ) देहिनं कर्मसंगेन निबध्नाति ॥ ७॥ अनुवाद। हे कौन्तेय ! रजोगुणको रागात्मक तथा तृष्णा और आसंग का .उत्पादक रूप जानना; यह देही को कर्मके साथ निबद्ध करता है ॥ ७॥ व्याख्या। जिससे जन्म होय वही रजोगुण है। रजः रजन क्रियाको भी कहते हैं; जैसे सफेद वस्त्र किसी रंगसे रंगा लेना। निर्मल ब्रह्ममें मायाविकार अहंकार लगाकर जीव-सजानेकी क्रियाका नाम भी रजा है। यह रजोगुण रागात्मक अर्थात् अनुरागमय है। इस अनुरागसे ही तृष्णा और प्रासंगकी उत्पत्ति होती है। अप्राप्त विषयमें अभिलाषाका नाम तृष्णा और प्राप्त विषयमें मनकी प्रीतिका नाम संग है। यह समस्त ही क्रिया है। मैं बिना और दूसरे एक को प्राप्त होनेके लिये कार्य में जो प्रेरणा करता है, वही रजोगुण है। इस प्रेरणाका सूत्र ही अनुराग है । उस अनुरागकी शक्ति ही आसक्ति है। उस प्रासचिसे ही अधीनता स्वीकार की जाती है। वह अधीनता स्वीकार ही बन्धन है। उस स्वीकार अंशको कर्म, और अधीनता अंशको बन्धन जानना। रजोगुणसे ही जीव अनुरागका वश क्त्ती होकर कर्ममें आबद्ध होता है ।। ७ ॥ तमस्त्वज्ञानजं विद्धि मोहनं सर्वदेहिनाम् । प्रमादालस्यनिद्राभिस्तन्निबध्नाति भारत ॥ अन्वयः। हे भारत ! तमः तु अज्ञानजं ( अज्ञानात् जातं) सर्व देहिनां ( सर्वेषां देहवता ) मोहनं ( भ्रान्तिजनक ) विद्धि; तत् ( तमः ) प्रमादालस्यनिद्राभिः निवघ्नाति ॥८॥ Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८१ चतुर्दश अध्याय अनुवाद। हे भारत ! तमोगुण अज्ञानता से उत्पन्न है, इसलिये इसे सर्व. देहियें का भ्रान्तिजनक जानना। यह प्रमाद आलस्य और निद्रा द्वारा निबद्ध करता है ॥ ८॥ व्याख्या। आवरण शक्ति प्रधान अज्ञान नाम करके प्रकृतिका एक अंश है। उस अज्ञानतासे ही तमोगुणकी उत्पत्ति है। यह अज्ञानज तमः सब प्राणियोंको भ्रान्त करता है-आत्महारा करता है तथा प्रमाद, आलस्य और निद्रा द्वारा श्राबद्ध करता है। [ यह हुई प्रकृतिजात तमोगुणकी बात। परन्तु शुद्धतमः जो है, वह प्रकृतिकी विश्राम भूमिका है, जिसे कैवल्य स्थिवि कहते हैं। वह केवल, मुक्ति वा ब्राह्मीस्थिति है। प्राकृतिक क्रिया वहाँ नहीं पहुँचती ] ॥ ८॥ सवं सुखे साजयति रजः कर्मणि भारत । ज्ञानमावृत्य तु तमः प्रमादे सब्जयत्युत ॥६॥ अन्वयः। हे भारत ? सत्त्वं सुखे सञ्जयति (संश्लेषयति ), रजः कर्मणि सञ्जय ति, तमः तु ज्ञानं आवृत्य ( आच्छाद्य ) प्रमादे उत (अपि ) सञ्जयति ॥ ९॥ अनुवाद। हे भारत! सत्त्वगुण सुखमें तथा रजोगुण कर्ममें संयोजित करता है; और तमोगुण ज्ञानको आवृत करके प्रमाद में ही संयोजित करता है ।। ९ ॥ व्याख्या। सत्वगुण प्रकाशशील है और एक जगह बैठकर सबको प्रकाशित करता है। जिन सबको प्रकाश करता है वे सब बाध्य हो करके प्रकाशकके वशीभूत होते हैं, इसलिये प्रभुता आपही आप आती है। इस प्रकारकी अवस्था भोगको ही प्राकृतिक सुख कहते हैं। इस सुखके साथ सत्त्वगुण मिलन करा देता है। रजोगुण क्रियाशील है, कार्य करनेके लिये प्रेरणा करता है; वह एक जगह पर स्थायी नहीं है । इस गुणकी क्रिया केवल चञ्चलता है। यह गुण कर्म के साथ मिलन करता है। और तमोगुण ( अज्ञानता ), कर्म और Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८२ ____श्रीमद्भगवद्गीता प्रकाशका जो ज्ञान है, उसको छिपा रखकर उचित काजके विपरीत करवाता है, जिसमें अमंगल हो उसोके साथ मिलन करता है। जैसे स्वस्थ शरीरमें मादक द्रव्य प्रवेश कराकर अज्ञान (बेहोश ) होकर पढ़ा रहना; इत्यादि कर्मों को ही प्रभाद कहते हैं। हे भारत ! शुद्ध तमोगुणकी जो कैवल्य स्थिति है, वह इस प्राकतिक तमोगुणमें नहीं है॥४॥ रजस्तमश्चाभिभूय सत्वं भवति भारत । रजः सत्त्वं तमश्चैव तमः सत्त्वं रजस्तथा ॥ १०॥ अन्वयः। हे भारत। सत्त्वं ( सत्त्वाख्यो गुणः ) रजस्तमश्च ( उभावपि ) अभिभूय (तिरस्कृत्य ) भवति ( उद्भवति, स्वकार्ये सुखज्ञानादौ सञ्जयतोत्यर्थ ); रजः ( रजोगुणः ) सत्त्वं तमश्च एव ( उभावपि ) अभिभूय भवति ( स्वकार्ये तृष्णासंगादौ सञ्जयति ), यथा तमः (तम आख्यो गुणः ) सत्त्वं रजश्च ( उभावपि गुणो) अभिभूय भवति ( स्वकार्ये प्रमादालस्यादौ सञ्जयतीत्यर्थः ॥ १० ॥ अनुषाद। हे भारत ! सत्त्वगुण रज और तमोगुण दोनों को अभिभूत करके उद्भत होता है ( सुख ज्ञाना दिमें संयोजनरूप स्वकार्य करता है ), रजोगुण सत्त्व और तमोगुण दोनोंको अभिभूत करके उद्भ'त होता है ( तृष्णा संगादिमें संयोजनरूप स्वकार्य करता है ), और तमोगुण सत्त्व और रजोगुण दोनोंको अभिभूत करके उद्भूत होता है ( प्रमाद आलस्यादिमें संयोजनरूप स्वकार्य करता है ) ॥ १० ॥ व्याख्या। हे भारत ! यह जो तीनों गुणकी बात कही हुई है, यह सब युगपत् उदय होकरके एक कालमें कोई कुछ कार्य कर नहीं सकते। जब सत्त्वका प्राधान्य होता है, तब रजः और तमः दोनों ही दबे रहते हैं। फिर रजोके प्रकाश-समयमें सत्व और तमः अभिभूत रहते हैं । तैसे तमोकी क्रिया कालमें रज और सत्त्व विश्राम भोग करते हैं ॥ १०॥ Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्दश अध्याय सर्वद्वारेषु देहेऽस्मिन् प्रकाश उपजायते । ज्ञानं यदा तदा विद्याद्विवृद्धं सत्वमित्युत ॥ ११ ॥ १८३ अन्वयः । यदा अस्मिन् देहे सर्बद्वारेषु ( श्रोत्रादिषु सर्वेष्वपि द्वारेषु ) ज्ञानं ( शब्दादिज्ञानात्मकः) प्रकाशः उपजायते, तदा उत सत्त्वं विवृद्ध विद्यात् ( जानीयात् ) ॥ ११॥ अनुवाद | जब इस देहकै समुदय द्वार में ज्ञानात्मक प्रकाश उत्पन्न हो, तबही जानना सत्वगुणं विवृद्ध हुआ है ॥ ११ ॥ उतनी ही भोग व्याख्या । दश इन्द्रियोंका दश कार्य हैं, परन्तु विषय पाँच हैं । बार बार भोग करके प्राकृतिक शरीर में इनका किसी एकका भी तृप्ति साधन नहीं होता। जितना भोग किया जाय लालसाकी वृद्धि होती है। इस प्रकार भोग करते चलनेसे शतकोटी ब्रह्मकल्पमें भी भोग - लालसाकी शान्ति न हो करके वृद्धि ही होती चलेगी। इससे तो आवागमन निवारण नहीं होगा । अतएव इन सबसे अत्यन्त निवृत्ति बिना मृत्युके हाथसे अव्याहत पाने का दूसरा उपाय नहीं हैं । ज्ञानेन्द्रियका काम ग्रहण है, कर्मेन्द्रियोंका काज त्याग है । ये सब जितने दिन रहेंगे यह काज ही करते रहेंगे । एक बार जिसको भोग किया हैं फिर जितनी बार उसको भोग करूंगा, प्रथम भोगके रस बिना दूसरी नवीनता उसमें नहीं है । तब यह उच्छिष्ट भोजन करके काल काटने से मतलब ही क्या ? यह ज्ञान जब हृदयको सम्यक् रूपसे अधिकार करेगा, तब ही सत्वगुण का अधिकार है, जानना । सर्वद्वार शब्द अन्तःकरणको समझाता है ॥ ११ ॥ लोभः प्रवृत्तिरारम्भः कर्मणामशमः स्पृहा रजस्येतानि जायन्ते विवृद्धे भरतर्षभ ॥ १२ ॥ अन्वयः । हे भरतर्षभ ! लोभः ( धनाद्यागमे बहुधा जायमानेऽपि यः पुनः पुनः वर्द्धमानोऽभिलाषः ) प्रवृत्तिः ( भोगोच्छा ) कर्मणां आरम्भ: ( भोगेच्छा / Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८४ श्रीमद्भगवद्गीता साधने उद्यमः ) अशमः ( इदं कृत्वेदं करिष्यामी-त्यादिसङ्कल्प विकल्पानुपरमः (स्पृहा) ( दृष्टमात्रेषु वस्तुषु जिघृक्षा ) एतानि (लिङ्गानि ) रजसि विवृद्ध ( सति ) जायन्ते ॥ १२॥ अनुवाद। हे भरतर्षभ ! लोभ, प्रवृत्ति, कर्म समूह का आरम्भ, अशम तथा स्पृहा, यह सब चिन्ह रजोगुण की वृद्धि ह नेसे उत्पन्न होते हैं ।। १२ ॥ व्याख्या। बहुत धनादि होनेसे भी और अधिक पानेके लिये जो लालसा बढ़ती रहती है, उसीका नाम लोभ है। विषय भोग करने वाली इच्छाका नाम प्रवृत्ति है । इच्छा पूरण करनेके लिये उद्यम करने का नाम कर्मारम्भ है। यह करूगा, वह करूंगा, इस प्रकार कोई . किसीसे मनकी तृप्ति न होनेसे जो अशान्ति भोग होती है, उसीका नाम अशभ है। पदार्थ देखते मात्र ही लेनेकी इच्छा होनेका नाम स्पृहा है। जब मनमें इन सब वृत्तियांका उदय हो, तब ही जानना होगा कि रजोगुणकी वृद्धि हुई है ॥ १२॥ अप्रकाशोऽप्रवृत्तिश्च प्रमादो मोह एव च। तमस्येतानि जायन्ते विवृद्ध कुरुनन्दनं ॥ १३ ॥ अन्वयः। हे कुरुनन्दन ! अप्रकाशः ( विवेक-शः ) अप्रवृत्तिः च (अनुद्यमः) प्रमादः (कर्तव्यार्थांनुसन्धानराहित्यं ) मोहः ( मिथ्याभिनिवेशः ) एव च, एतानि तमसि बिवृद्ध सति जायन्ते ॥ १३ ॥ अनुवाद । हे कुरुनन्दन ! अप्रकाश, अप्रवृत्ति, प्रमाद और मोह यह सब चिन्ह तमोगुणकी वृद्धि होनेसे उत्पन्न होते हैं ॥ १३ ॥ व्याख्या। काम काज करनेकी शक्ति सामर्थ्य सब है, परन्तु कैसे करना होता है, यह समझने वाली ज्योति नहीं, ऐसे जड़भावापन्न अवस्थाको अप्रकाश कहते हैं । करनेसे सब कर सकूगा, परन्तु उद्यम नहीं है, मनकी ऐसी गुरुत्व अवस्थाको अप्रवृत्ति कहते हैं। Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८५ चतुर्दश अध्याय मले की ओर दृष्टि न दे करके केवल बुरे काम काजका प्रवाह चलानेका नाम प्रमाद है। __नशा पीकर भूत बनके रहनेका नाम मोह है। हे कुरुवंशका हर्ष बढ़ानेवाले ! इस इस प्रकार अवस्थायोंका उदय जब अन्तःकरणमें प्रकाश होगा, तबही जानना कि तुमको तमो-विकारने घेर लिया है॥ १३ ॥ यदा सस्वे प्रवृद्ध तु प्रलवं याति देहभृत् । तदोत्तमविदां लोकानमलान् प्रतिपद्यते ॥ १४ ॥ अन्वयः। सत्त्वे प्रवृद्ध सति यदा तु देहभृत् ( जीवः ) प्रलयं ( मृत्यु) याति (प्राप्नोति ), तदा उत्तमविदां (महादादितत्त्वविदो ) अमलान् (प्रकाशमयान्) लोकान् प्रतिपद्यते ( प्राप्नोति.)॥ १४ ॥ अनुवाद। सत्त्वगुण की वृद्धिके समय जब ही जीव मर जावेंगे, तब ही वह उत्तमवेत्तागणोंके प्रकाशमय लोकों को पावेंगे ।। १४ ॥ व्याख्या। पहिले कहे हुए सत्त्वगुणके भोगके समयमें कोई शरीरधारी शरीर त्याग करेंगे तो महदादि तत्वविद्गणोंके जो सब प्रकाशमय लोक ( सुख उपभोगके स्थान ) हैं, उन्हीं सब लोकमें वे साधक गमन करेंगे। (८म अः ६ष्ठ श्लोक देखो ) ॥ १४ ॥ रजसि प्रलयं गत्वा कमसंगिषु जायते । तथा प्रलीनस्तमसि मूढ़योनिषु जायते ।। १५ ॥ अन्वयः। रजसि (विवृद्ध सति ) प्रलयं गत्वा फर्मसंगिषु (कर्मासक्त षु मनुष्येषु ) जायते; तथा तमसि (विवृद्ध सति ) प्रलीन: (.मृतः ) मूढ़योनिषु ( पश्वादिषु ) जायते ॥ १५ ॥ अनुवाद। शरीरमें रजोगुण की वृद्धि समयमै मरनेसे कर्मासक्त मनुष्य-लोकमें जन्म लेते हैं। और तमोगुण को वृद्धि कालमें मृत शरीरी पशु आदि मूढ़ योनिमें जन्म लेते हैं ॥ १५॥ Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८६ श्रीमद्भगवद्गीता व्याख्या। शरीरमें रजोगुणकी क्रिया समयमें शरीर त्याग करने से मनुष्यको कर्मके साथ मिलन कराकर पुनर्जन्म देता है अर्थात् मनुष्य लोककी प्राप्ति कराता है। तसे तमोगुणके प्रकाश कालमें मरण होनेसे मनुष्यको पशु पक्षी आदि मूठ योनिमें जन्म लेने होता है (८म अ६ष्ठ श्लोक) ॥१५॥ कर्मणः सुकृतस्याहुः सास्विकं निर्मलः फलम् । रजसस्तु फलं दुःखमज्ञानं तमसः फलम् ॥ १६ ॥ अन्वयः। सुकृतस्य ( सात्त्विकस्य ) कर्मणः सात्विक ( सत्त्व-प्रधानं ) निर्मलं (प्रकाशबहुलं) फलं ( सुखमित्यर्थः ) आहुः ( शिष्टाः ), रजसस्तु ( राजसस्य कर्मणः) दुःखं फलं आहुः; तमसः ( तामसस्य कर्मणः ) अज्ञानं ( मूढत्वं ) फलं आहुः ॥ १६ ॥ अनुवाद। शिष्ट गण कहे हैं कि, सात्त्विक कर्म का फल सत्त्व प्रधान तथा निर्मल, राजस कर्म का फल दुःख और तामस कर्म का फल अज्ञानता ( मुढ़त्व ) है॥१६॥ व्याख्या। सुकृत सात्विक कमका फल निर्मलत्व प्राप्ति ( सुखलाभ) है। राजस कर्मका फल दुःख प्राप्ति ( मनुष्य-लोक में भला बुराका झगड़ा) और तामसिक कर्मका फल अज्ञानता है अर्थात् आहार-निद्रा मैथुन-भयका प्रवाह चलाना। यह प्रवाह नीच जातीय मनुष्यसे लेकर स्थावर पर्यन्त है ॥ १६ ॥ 'सत्त्वात्संजायते ज्ञानं रजसो लोभ एव च । प्रमादमोहो तमसो भवतोऽज्ञानमेव च ॥ १७ ॥ अन्वयः। सत्त्वात् ज्ञानं संजायते ( अतः सात्त्विकस्य कर्मणः प्रकाशबहुलं सुख फलं भवति ), रजसः लोभः एव च संजायते ( तस्य च दुःखहेतुत्वात् तत्पूर्वकस्य कर्मणः दुःख फलं भवति ), तमसः प्रमाद मोहौ भवतः आज्ञानमेव च भवति ( अत: तामसस्य कर्मण: अज्ञानमात्रं फलं भवतीति युक्तमेवेत्यर्थः ) ॥ १७ ॥ Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्दश अध्याय १८७ अनुवाद। सत्त्वगुणसे ज्ञान उत्पन्न होता है। रजोगुणसे केवल लोभोत्पन्न होता है और तमोगुणसे प्रमाद, मोह तथा अज्ञान उत्पन्न होता है ॥ १७ ॥ व्याख्या। सत्त्वगुणका प्रकाश होनेसे “मैं” को समझा देता है। यह “मैं क्या है, उसे जाननेका नाम ही ज्ञान प्राप्ति है। रजोगुणमें पराए द्रव्यको किसी प्रकारसे अपना कर लेनेकी लालसा बढ़ती है। तामसिक अवस्था ही प्रमाद, मोह और अज्ञानताकी लीलाभूमि है ॥१७॥ उध्वं गच्छन्ति सत्त्वस्था मध्ये तिष्ठन्ति राजसाः। जघन्यगुणवृत्तिस्था अधो गच्छन्ति तामसाः ॥ १८ ॥ . अन्वयः। सत्त्वस्थाः ( सत्त्ववृत्ति प्रधानाः ) ऊध्वं गच्छन्ति ( उत्तरोत्तरं ऊर्व सत्यलोकपर्यन्तान् लोकान् प्राप्नुवन्ति ) राजसाः मध्ये तिष्ठन्ति, जघन्यगुणवृत्तिस्थाः ( तमोगुणस्य वृत्तौ प्रमादमोहादौ स्थिता:) तामसाः अधः गच्छन्ति ॥ १८॥ अनुवाद। सत्त्ववृत्ति प्रधान सात्त्विकगण ऊर्ध्व दिशामें गमन करते हैं, रजः प्रधान मनुष्यगण मध्यभागमें रहते है और प्रमाद मोहादि तमोगुण की वृत्तिमें रहनेवाले तामसी जन अधोदिशामें जाते हैं ॥ १८ ॥ व्याख्या। सत्त्वगुणकी सेवा करने वाले साधकगण ऊर्ध्वगति (स्वर्गके निम्नस्तरसे आदि लेके विष्णु देवतके गोलकादि स्थानभोग, ऐसे कि परब्रह्ममें लय पर्यन्त ) प्राप्त होते हैं। इसका लीलाक्षेत्र आज्ञा चक्रसे प्रारम्भ होकर ऊंची दिशामें है। रजोगुणमें रहनेसे वासनाके वशमें रह करके काम काज करना पड़ता है। इसलिये रजोगुण साधनेवाले मनुष्यगण न ऊंचे न नीचे मध्य भागके लोकमें ( कर्मभूमि मनुष्य-लोकमें ) रह करके जन्ममृत्युके अधीन हो करके आवागमन करते रहते हैं। इसका लीलाक्षेत्र अनाहत चक्र है। - जघन कहते हैं कटिदेशको सम्मुख दिशाके निम्न स्थानको। तमोगुणकी लीलाक्षेत्र कामपुरचक्र होनेसे इसको जघन्य कहते हैं । Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८८ श्रीमद्भगवद्गीता मूत्तिमान काम और रति इस चक्रमें निवास करते हैं। यह रति और काम मिलित वृत्तियां जिसके अन्तःकरणमें खेलती रहती हैं, उसको जघन्यगुणवृत्तिस्थ कहते हैं। इसका लक्ष्य ऊर्ध्व दिशामें न रह करके अधो दिशामें रहता है, इसलिये अधोगतिको प्राप्त होता है। (१म अ. १म श्लोककी व्याख्या देखो ) ॥ १८ ॥ नान्यं गुणेभ्यः कर्तारं यदा द्रष्टानुपश्यति । गुणेभ्यश्च परं वेत्ति मद्भावं सोऽधिगच्छति ॥ १० ॥ गुणानेतानतीत्य त्रीन देही देहसमुद्भवान् । जन्ममृत्युजरादुःखैविमुक्तोऽतृतमश्नते ॥ २० ॥ अन्वयः। यदा द्रष्टा (विषकी भूत्वा ) गुणेभ्यः ( बुद्धयाद्याकारपरिणतेभ्यः) अन्यं कर्तारं म अनुपश्यति, गुणेभ्यश्च परं व्यतिरिक्त तत्साक्षिणमात्मानं ) वेत्ति, (तदा) सः (जी घः) मद्भाव ( ब्रह्मत्वं ) अधिगच्छति ( प्राप्नोति ) देही देहसमुद्भवान् ( देहोत्पत्तिबीजभूतान् ) एतान् त्रीन् गुणान् अतीत्य जन्ममृत्युजरादुःखः विमुक्तः सन् अमृतं अश्नुते ( परमानन्दं प्राप्नोति )॥ १९ ॥ २० ॥ ___ अनुवाद। जब जीव द्रष्टा होकरके सब गुण बिना दूसरे किसीको कर्ता रूपसे दर्शन नहीं करते और गुण समूहके अतीत तत्साक्षी स्वरूप आत्माको जान लेते हैं, तब वे ( जीव ) मद्भाव ( ब्रह्मत्व ) प्राप्त होते हैं। देही देहोत्पत्तिका बोज स्वरूप इन तीन गुणोंको अतिक्रम करके जन्म, मृत्यु, जरा दुःखसे विभक्त हो करके परमानन्दको प्राप्त होते हैं ।। १९ ।। २० ॥ __ व्याख्या। जो देख आये इससे समझा गया कि वह तीन गुण ही कार्य, कारण और विषय बन करके रूप बदलते हुए बहुरूपीका खेल खेलता है। बालू, मट्टी, पत्थर आदिमें निर्जीवका और मानुष, पशु, पक्षी आदिमें सजीवका दृश्य दिखलाकर एक जगत् खड़ा करके झगड़ा करता है। इस झगड़ेका कर्ता भी उन तीन गुण बिना और कोई नहीं है। दृढ़ अभ्यासके बलसे जो विद्वान इन तीन गुणोंको Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८६ चतुर्दश अध्याय ही उस समस्त अवस्था और उस अवस्था समूहका स्रष्टा कर्ता रूपसे प्रत्यक्ष करते हैं तथा गुणोंसे अतीत साक्षीस्वरूप आत्माको जानते हैं, वे पुरुष ही उन गुण-व्यापारोंका साक्षी हो करके "मैं” का स्वरूप लाभ करते हैं, अर्थात् मेरे वासुदेव-भाव ( "वासुदेवः सर्वमिति" इस अपरोक्ष ज्ञान) को प्राप्त होते हैं। किस प्रकारसे वासुदेवत्व प्राप्त होते हैं ?–कि उन तीन गुणोंके बनाए हुए स्थूल-सूक्ष्म-कारण शरीर में उस विद्वानको उस परिचित गुण समूह और छिपाकर रख नहीं सकते । उनके सामने उन तीन गुणोंका टूटा हुआ इन्द्रजाल और जुड़ नहीं सकता। देह ही उत्पन्न हो करके जन्म, मृत्यु, जरा, दुःख भोग करवाता है। परन्तु उस देहके उत्पन्न होनेका कारण नष्ट हो जाने से, कार्य फिर प्रकाश नहीं होता। भोगाधारके अभावसे (देह-ज्ञान न रहनेसे ) जन्म-मृत्यु-जरा-दुःखके जो अनुत्थान है, उसीको त्रिगुणातीत स्वरूप प्राप्ति तथा देहीका अमरत्व लाभ वा मुक्ति कहते हैं, वही होता भी है ॥ १६ ॥२०॥ अर्जुन उवाच । कैलिङ्गखीन गुणानेतानतीतो भवति प्रभो। किमाचारः कथं चैतस्त्रिीन गुणानतिवत्तते ॥ २१ ॥ अन्वयः। अर्जुनः उवाच । हे प्रभो! ( देही ) कैः लिङ्ग ( कोदशैरात्मचिह्न:) एतान् त्रोन् गुणान् अतीतः ( अतिक्रान्तः ) भवति? किमाचारः (क अस्य आचारः ) ? कथं ( केन उपायेन ) एतान् त्रान् गुणान् अतिवर्त ते ( अतीत्य बत्तते)? ___ अनुवाद। अर्जुन कहते हैं। हे प्रभो । देही कौन कौन चिह्न द्वारा इन तीन गुणोंसे अतीत होते हैं ! यह पुरुष किस प्रकार आचार विशिष्ट होते हैं ? -कौन उपायसे इन तीन गुणोंको अतिक्रम करके अवस्थान करते हैं ? ॥ २१ ॥ व्याख्या। गुणकर्म-विकारके वशसे चलने फिरनेमें अभ्यस्त साधक गुणातीत अवस्थाका चाल चलन स्थिति और देह धारण करके Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६० श्रीमद्भगवद्गीता अमृत भोग यह सब कैसा है, जाननेके लिये अव्यवहित पूर्वका निजबोधरूप अवस्थाको लक्ष्य करके कहते हैं कि-हे प्रभो ! कैसे उन तीन गुणोंको अतिक्रम करना होता है ? किस लक्षणसे गुणातीत महात्मन् को पहिचाना जाता है ? और उन महात्माओंके आचार व्यवहार किस प्रकार हैं, वही तुम मुझसे कहो ॥ २१ ॥ श्रीभगवानुवाच। प्रकाश प्रवृत्तिञ्च मोहमेव च पाण्डव । न द्वोष्टि संप्रवृत्तानि न निवृत्तानि कांक्षति ॥ २२ ॥ उदासीनवद सीनौ गुणों न विचाल्यते । गुणा वर्तन्त इत्येवं योऽवतिष्ठति नेगते ॥ २३ ॥ समदुःखसुखः स्वस्थः समलोष्टाश्मकाञ्चन। तुल्यप्रियाप्रियो धीरस्तुल्यनिन्दात्मसंस्तुतिः॥ २४ ॥ मानापमानयोस्तुल्यस्तुल्योमित्रारिपक्षयोः। सर्वारम्भपरित्यागी गुणातीतः स उच्यते ॥२५॥ अन्वयः। श्रीभगवान् उवाच। हे पाण्डव ! ( यः ) प्रकाशं च ( सत्त्वकार्य ) "प्रवृत्तिं च ( रजःकार्य ) मोहं च ( तमःकार्य ) एव-(एतानि कार्याणि यथायथ ) संप्रवृत्तानि सन्ति ( स्वतः प्रवृत्तानि सन्ति ) न ( दुःखबुद्धया ) द्वष्टि, निवृत्तानि च सन्ति न ( सुखबुद्धया ) कांक्षति; यः उदासीनवत् (साक्षितया ) आसोनः (स्थितः ) सन् गुणैः (गुणकायें: सुखदुःखादिभिः ) न विचाल्यते, ( अपि तु ) यः "गुणाः (स्वकार्येषु ) वत्तन्ते इत्येवं (मत्वा ) अव तिष्ठति न ईङ्गते (न चलति); यः समदुःखसुखः स्वस्थः ( आत्मनि स्थितः) समलोष्टाश्मकाञ्चनः, तुल्यप्रियाप्रियः धीरः (धीमान् ), तुल्यनिन्दात्म-संस्तुतिः, मानापमानयोः तुल्यः, मित्रारिपक्षयोः तुल्यः, सर्वारम्भ-परित्यागी, स: गुणातीतः उच्यते ॥ २२ ॥ २३ ॥ २४ ॥ २५ ॥ ___भनुवाद। श्रीभगवान कहते हैं। प्रकाश, प्रवृत्ति, मोह इन सब गुणकार्यके संप्रवृत्त होनेसे ( तत्तावत्के प्रति ) जो साधक द्वष नहीं करते; और निवृत्त रहनेसे भी ( तत्तावत्के प्रति ) आकांक्षा नहीं करते, जो साधक उदासीनवत् आसीन रह Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्दश अध्याय १६१ करके गुगसमूहके कार्य द्वारा विचलित नहीं होते, (अपि तु ) गुणसमूह अपने अपने कार्य में ही हैं, इस प्रकार समझ करके स्थिर भावमें अवस्थित रहते हैं, चञ्चल नहीं होते, सुख दुःखमें जिस साधक को समान ज्ञान, जो साधक स्वस्थ (आत्मामें स्थित ), लोष्ट, अश्म और काञ्चनमें जिस साधकका समान ज्ञान, प्रिय और अप्रिय जिनके लिये बरावर है, जो धीर, जिनका निन्दा और प्रशंसा तुल्य ज्ञान, मान और अपमानमें जो साधक तुल्यभावापन्न, मित्र और अरिपक्षमें भी जिनका समान ज्ञान है, और जो साधक सर्व प्रकार उद्यम परित्यागी हैं, वे ही साधक गुणातीत कह करके उक्त होते है ॥ २२ ॥ २३ ॥ २४ ॥ २५ ॥ व्याख्या। हे पाण्डव ! यह जो सत्वका कार्य प्रकाश, रजोका 'प्रवृत्ति और तमोका मोह है, इनमें जो साधक अनुराग वा विराग नहीं करते; गुण भी गुण है और गुणों के कार्यसमूह भी रूपान्तरित गुण हैं। इस प्रकार समझ करके गुणोंके द्रष्टा हो करके जो साधक स्वस्वरूप प्राप्त होनेके लिये प्रवृत्तिका त्याग और कष्ट तथा मूढत्वका लोप करनेके लिये निवृत्तिकी आकांक्षा करें, उन्हींको गुणातीत कहते हैं। ___ जो ऊंचेमें बैठा है उसको जसे नीचेमें बैठ करके कोई छू नहीं सकते, तैसे ही गुण और गुणोंके कार्य से पृथक हो करके जो साधक गुण और गुणोंके कार्य द्वारा बाधा बिघ्न बोध न करें, जो साधक स्वस्थ अर्थात् सदाकाल स्वस्वरूपमें स्थित हैं; सुख, दुःख, लोष्ट (मिट्टी का टुकड़ा), अश्म (पत्थरका टुकड़ा) काञ्चनादिमें भिन्न ज्ञान जिनका मिट गया है। प्रिय और अप्रिय कह करके कोई वृत्ति जिनके अन्तःकरणमें उदय नहीं होती; जिनको निन्दा स्तुति, मान अपमान, शत्र मित्रमें भेद बोध नहीं है, जिस साधकमें सर्व प्रकार प्रारम्भका ही परित्याग हो चूका ( जो किसी प्रकारके काम काजका प्रारम्भ ही नहीं करते ), उन्हींको गुणातीत कहते हैं ॥ २२ ॥ २३ ॥ २४ ॥२५॥ Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२ श्रीमद्भगवद्गीता माञ्च योऽव्यभिचारेण भक्तियोगेन सेवते । स गुणान् समतीत्यैतान् ब्रह्मभूयाय कल्पते ॥ २६ ॥ ब्रह्मणोहि प्रतिष्ठाहममृतस्याव्ययस्य च । शाश्वतस्य च धर्मस्य सुखस्यैकान्तिकस्य च ॥ २७॥ . अन्वयः। यः मां च ( परमेश्वरं ) अव्यभिचारेण भक्तियोगेन सेवते, सः एतान् गुणान् समतीत्य ( सम्यगतिक्रम्य ) ब्रह्मभूयाय ( मोक्षाय ) कल्पते ( समर्थों भवति ), हि ( यस्मात् ) अहं ब्रह्मणः प्रतिष्टा ( प्रतिमा घनीभूतं ब्रह्म वाहं ) तथा अव्ययस्य (नित्यस्य ) अमृतस्य च ( मोक्षस्य ) शाश्वतस्य धर्मस्य च, ऐकान्तिकस्य ( अखण्डितस्य ) सुखस्य च ( प्रतिष्ठा अहं परमानन्दरूपत्वात् ) ॥ २६ ॥ २७॥ अनुवाद। जो साधक मेरी ही अनन्य भक्तियोग द्वारा सेवा करते हैं, वे इन समस्त गुणोंको सम्यक् अतिक्रम करके ब्रह्मस्वरूप लाभ करनेमे समर्थ होते हैं, क्योंकि मैं ब्रह्मकी प्रतिष्ठा ( प्रतिमा ), तथा अव्यय का और अमृतका, शाश्वतधर्म का और ऐकान्तिक सुखका भी प्रतिष्ठा है ॥ २६ ॥ २७॥ व्याख्या। यह जो "मैं" है, जो मैं केवल अकेला है, जिसमें कोई संयोग वा वियोगरूप व्यभिचारका छाप लगाया नहीं जा सकता, ऐसे “मैं” को गुरूपदिष्ट मतसे अव्यभिचारी रखके, व्यभिचार शून्य हो करके जो साधक मिल जानेकी चेष्टा करते हैं, वे साधक समस्त गुणोंको अतिक्रम करके ब्रह्म शब्दका जो अर्थ है वही हो जाते हैं। यह ब्रह्म ऐसा है :-जो केवल है ही है, जिसका कोई परिणाम नहीं, जो अव्यय, जो चिरन्तन, जो धर्म, जो अत्यन्त सुख वही ब्रह्म) है। ____ "ब्रह्मणोहि प्रतिष्ठाह” इस वचनका अर्थ है कि मैं ब्रह्मकी प्रतिमा, अर्थात् घनीभूत ब्रह्म ही मैं वा कूटस्थ चैतन्य हूँ; जैसे धनीभूत प्रकाश को सूर्यमण्डल कहते हैं। तेज वा ताप अदृश्य, परन्तु सर्वव्यापी है, कम वा अधिक परिमाणसे ( सूक्ष्म वा अति महीन हो करके ) सर्व Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६३ चतुर्दश अध्याय पदार्थों में वर्तमान है। वही तेज एक स्थानमें जमते जमते-उष्णता बढ़ते बढ़ते क्रम अनुसार जैसे जम करके घन हो करके ज्योतिर्मयरूप धारण करके अग्निशिखा नाम लेते हैं, तैसे सर्वव्यापी अतिसूक्ष्म अदृश्य चैतन्यसत्त्वा (ब्रह्मपदार्थ) कूटमें धन होकर प्रकाश रूप धारण कर "अहं” नाम ग्रहण करते हैं। इसलिये इस "अह” वा “मैं” को घनचैतन्य कहते हैं। इस कारण करके ही अरूप ब्रह्मकी प्रतिष्ठा (प्रतिमा मूत्ति वा रूप) है "अह" -मैं। ब्रह्म अव्ययस्वरूप, अमृतस्वरूप शाश्वत धर्मस्वरूप और ऐकान्तिक सुखस्वरूप है। परन्तु "अहं" ब्रह्मकी प्रतिमा हूँ। इसलिये परमानन्दरूप यह "अहं"-कूटस्थचैतन्य उत्तम-पुरुष इन सबकी ही प्रतिष्ठा है ॥ २६ ॥ २७ ॥ इति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे __ श्रीकृष्णार्जुन संपादे गुणत्रयविभागयोगो नाम चतुर्दशोऽध्यायः । -१३ Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चदशोऽन्यायः श्रीभगवानुवाच । ऊर्ध्वमूलमधाशाखमश्वत्यं प्राहुरव्ययम् । छन्दांसि यस्य पर्णानि यस्तं वेद स वेदवित् ॥१॥ अनुवाद । ऊर्ध्वमूलं (अव्यक्तमायाशक्तिमत् ब्रह्म ऊवं तन्मूलमस्येति ) अधःशाख ( महदहंकारतन्मात्रादयः शाखा इवास्याधो भवन्तीति ) अश्वथं (क्षणप्रध्वंसिनं संसारवृक्ष) अव्ययं प्राहुः ( अनादिकालप्रवृत्तत्वात् प्रवाहरूपेणाबिच्छेदाच ), छन्दांसि ( वेदाः ) यस्य ( संसारवृक्षस्य ) पर्णानि ( पर्णस्थानीयाः ); यः तं ( एवम्भूत-मश्वत्थं ) वेद, स एव वेहवित् ( वेदार्थवित् ) ॥ १॥ अनुवाद। ऊर्ध्वमूल तथा अधःशाख अश्वत्थको अव्यय कहते हैं, समूह छन्द जिसका पत्र स्वरूप है; उस अश्वत्थको जो जानते हैं, वे हो वेदार्थवित् हैं ॥१॥ व्याख्या। १४ अध्याय २७ श्लोकमें जो "ब्रह्मणोहि प्रतिष्ठाह" वचन कहा हुआ है, वह अहं किस प्रकारका है ? इस शरीरको अश्वत्थ वृक्ष सजाय करके जिससे क्षुद्रबुद्धि जीव उस अहं' शब्दका मर्मार्थ शीघ्र जान सकें निजबोध विचारसे ऐसी चेष्टा होती है। संसार एक वृक्षस्वरूप है। यह वृक्ष जीवमय है । इसलिये ससार का नाम जीवजगत् है। अव्यक्त माया-शक्तिमत् ब्रह्म ही संसारका मूल-कारण है। इस मूल-कारणसे कार्यविस्तार प्रारम्भ होते हुए महतत्त्व, अहंकार, तन्मात्रा प्रभृति कार्यों की विविध शाखा उत्पन्न हुई हैं। वही देव, असुर, गन्धर्व, किन्नर, मनुष्य, पशु, पक्षी, कीट, पतंग प्रभृति नाना प्रकार जीवोंके अधिष्ठान है। अतएव हिरण्यगर्भादि यावतीय जीव संसार-वृक्षकी शाखास्थानीय हैं। इन सब जीवोंके शरीरका ऊल्वे स्थान मस्तक है; उस मस्तकमें ब्रह्मरन्ध्र ही उस मायामत् Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चदश अध्याय १६५ ब्रह्मका स्थान है। उमीसे ही कार्य-विस्तार प्रारम्भ होकरके महत्तत्त्व अहंकार, तन्मात्रा इत्यादि रूपसे उत्पन्न २४ तस्व क्रम अनुसार सप्त स्वर्ग और सप्त पाताल समन्वित तथा हस्त-पद-अंगुलो विशिष्ट स्थूल आकारमें परिणत हो करके शाखा स्वरूपसे अधोदिशामें विस्तृत हुआ है। इसलिये संसारको ( जीवशरीरको ) ऊर्ध्वमूल तथा अध:शाख कहते हैं। जीव निरन्तर परिणामशील है। अभी आज जोते हैं, कल रहेंगे कि नहीं इसका कोई ठौर ठिकाना नहीं है। इस कारण संसारको "अश्वत्य" ( आने वाले प्रभात काल पर्यन्त जिसको स्थिति का निश्चय नहीं) अर्थात् क्षण-विध्वंसी कहते हैं। यह जीव-शरीर सर्वदा ध्वंस होते रहनेसे भी, सदा काल जन्म लेता रहता है, इसलिये इसका और व्यय नहीं-क्षय भी नहीं है। जैसे नदी जलका प्रवाह है। नदीमें थोड़ा सा जल आया, तत्क्षणात् वह समुद्रकी ओर चला गया, उसके स्थानमें तत्क्षणात् फिर उतना जल आ पहुँचा वह भी चला गया, फिर आया, इसी तरह जलके अविछिन्न आने जानेसे नदीका स्रोत (प्रवाह) अखण्ड रहता है, निपटता नहीं; किन्तु अवश्य चही जल उसी स्थान पर नहीं रहता परन्तु नदीका जल प्रवाहाकारमें अव्यय-अक्षय-अनन्त हो करके रहता है। उसी तरह जोक्-जगत् भी जीवके प्रवाहसे अव्यय-अक्षय-अनन्त है। इस कारणसे इस संसारको "अव्यय" कहा जाता है। सब छन्द इस वृक्षके पत्र स्वरूप हैं। छन्द है वेद अर्थात् जाननेको जो कुछ क्रिया। जाननेके विषय दो हैं :-कर्म और ज्ञान । भूतभावके उद्भव करनेवाले विसर्गका नाम कर्म है (८म अः देखो)। अर्थात् प्राकृतिक २४ तत्वोंके अनुलोम और प्रतिलोम प्रकरणमें भीतर बाहर जितने प्रकारके मिश्र अमिश्र क्रिया हो सकें, वे सबही कर्म हैं। इसलिये कर्म ही विज्ञान है । और प्राकृतिक तत्व तथा आत्मतत्त्वका स्वरूप और सम्बन्ध बोध होना ज्ञान है। इस कर्म और ज्ञानको जिससे जाना जाता है, वही वेद Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६६ - श्रीमद्भगवद्गीता है। वेद त्रैगुण्यविषय और ऋक , यजु, साम, अथर्वन् इन चार अंशों में विभक्त है (२य अः ४५ श्लोककी व्याख्या देखो)। वेद इन त्रिगुणमय कर्म और ज्ञानसे संसारको छाह रक्खा है। इसलिये वेद संसार वृक्षके पत्र-स्वरूप है। पत्र वृक्षकी शोभा और सजीवताका परिचायक है; कर्म और ज्ञान भी उसी तरह संसारकी शोभा तथा जीवके जीवत्वका निदर्शक है। पत्र वृक्षकी रक्षाके लिये और छायाकारक है; सूर्यतापसे उत्तप्त प्राणीगण उसी छायेमें आकर शान्ति लेते हैं; परन्तु पत्रोंके आवरणसे महाकाशकी गाढ़ नीलिमाकी मनोमुग्ध करनेवाली अनन्त-विस्तृत अखण्ड महिमा ढंकी रहती है। उसी तरह वेद भी कर्म और ज्ञानरूप छायासे संसारका अस्तित्व बना रखता है तथा जीव उस कर्म और ज्ञानके आश्रयमें आ करके त्रिताप-ज्वालासे शान्त होते हैं, परन्तु वेद त्रैगुण्यविषय होनेसे उस वेदके आश्रयमें रहनेसे निस्वैगुण्य अवस्थाका विमल आनन्द नहीं मिलता-अनन्त अव्यक्त महिमामें मन प्राण लय नहीं होता, त्रिगुणके भीतर प्राकृतिक अधिकारमें ज्ञान और कर्मकी क्रियामें आत्माहारा हो करके रहना होता है। जो भाग्यवान साधक सद्गुरुकी कृपासे आत्मज्ञान लाभ करके ज्ञानदृष्टि द्वारा उक्त रूप मूल-शाखा-पत्रयुक्त संसार-वृक्षको (देहको) जान लिये-यथार्थ रूपसे प्रत्यक्ष कर लिये, वे ही वेदार्थवित् हैं * ॥१॥ अधश्चोर्ध्व प्रमृतास्तस्यशाखा गुणप्रवृद्धा विषयप्रवालाः । अधश्च मूलान्यनुसन्ततानि कर्मानुबन्धीनि मनुष्यलोके ॥२॥ • स्वयं भगवान ही वेदवित् हैं, क्योंकि पश्चात् १४श श्लोकमें है “वेदविदेव चाहं"। किन्तु साधक भी क्रमोन्नतिसे जिस प्रकार क्षेत्रज्ञ पद लाम करते हैं, उसी प्रकार वेदवित् होते है। (७९२ पृ० पादटीका देखो)। Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चदश अध्याय १६७ अन्वयः। तस्य (संसारवृक्षस्य ) शाखाः (शाखास्थानीयाः हिरण्यगर्भादयः जीबाः ) अधश्चोवं प्रसृताः ( जीवानां मध्ये ये दुष्कृतिनः ते अधः पश्वादियोनिषु विस्तारं गताः सुकृतिनश्चोध्वं देवादियोनिषु प्रसृताः ), गुणप्रवृद्धाः ( उपादानभूतः सत्त्वरजस्तमोभिः गुणः स्थूलीकृताः ), विषयप्रवालाः (विषयाः रूपादयः प्रवाला: पल्लवस्थानीया याषां ताः) मूलानि अधश्च (च शब्दादूध्वं च ) अनुसन्ततानि ( विरूढानि, मुख्यं मूलमीश्वरे एव इमानि त्वन्तरालानि मूलानि तत्तद्भोगवासनालक्षणानि ), मनुष्यलोके कर्मानुबन्धीनि ( कर्म एच अनुबन्धी उत्तरभावी येषां तानि)॥२॥ अनुवाद। उसी संसार-वृक्ष की शाखा समूह अधो और ऊर्ध्व दिशामें विस्तृत हैं, गुणत्रय द्वारा प्रवद्वित तथा विषयरूप पल्लव-संयुक्त हैं, मूल सब अधोदिशामें भी विरूढ़ और मनुष्यलोकमें कर्मानुबन्धी (धर्माधर्मलक्षण कम के उत्पादक ) हैं ॥२॥ व्याख्या। वह जो अधाशाखा हाथ और पग इत्यादि पूर्व श्लोक में कही गयी हैं, यह सबही कर्मकरी शक्तिको लक्ष्य करके कही हुई । हैं। यह कर्म दो प्रकारके हैं, भला और बुरा। भला सब ऊध्वगति और बुरा सब अधोगति लिये। भली गति जो लोग लिये, वह लोग मूलाधारसे क्रम अनुसार इस जगतकी सृष्टिकरी शक्तिको अपने कब्जे में लाकर अबाध-आज्ञा पाके ब्रह्मा सज बठे। साधन ही इसका मूल है। और जो लोग अधोगति लिये, वे सब आज्ञाचक्रसे प्रारम्भ करके नीचे दिशामें मनुष्यसे स्थावर पर्यन्त हुए। यह जो होना है, सब सत्त्व रजः तमः तीन गुणकी महिमासे है। वासना समूह इसका मूल है। जिस प्रकार गुणकी वृद्धि, उसी प्रकार विषयका ग्रहण होता है। साधक ! बाहरमेंजो यह शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्धको भोग करते हो, वह सब भी विषय हैं। फिर सुषुम्नाके भीतर ब्रह्मनाडीका आश्रय करके जब तुम सहस्रारमें श्रीगुरुपदमें मिलनेके लिये जाते हो, उस ब्रह्मनाडोके भीतर भी तुमको शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्ध भोग करके जाना होता है। ब्रह्मनाडीके विषय समूह ब्रह्मज्ञान दे करके ब्रह्म में मिला देता है, और बाहरके सब (विषय ) जिसमें कर्मबन्धन Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६८ श्रीमद्भगवद्गीता हो ऐसे अणुको आश्रय कराके मनुष्य-लोकसे अवीचि नरक पर्यन्त भोग कराता है ॥२॥ न रूपमस्येह तथोपलभ्यते नान्तो न चादिर्न च संप्रतिष्ठा। अश्वत्थमेनं सुविरूढमूल मसंगशस्त्रेण हर्न छित्त्वा ॥३॥ ततः पदं तत् परिमार्गितव्यं । यस्मिन् गता न निवर्तन्ति भूयः। तमेव चाद्य पुरुषं प्रपद्य यतः प्रवृत्तिः प्रसृता पुराणी ॥४॥ अन्वयः। इह ( संसारे ) अस्य (संसारवृक्षस्य ) न तथा (ऊर्ध्वमूलत्वादिप्रकारेण ) रूपं, न अन्तः (अवसानं ) न च आदिः, न च संप्रतिष्ठा ( स्थितिः) उपलभ्यतेः सुविरूदमूलं ( अत्यन्तबद्धमूलं) एनं अश्वत्थं असंगशस्त्रेण ( असंगः अहंममतात्यागः तेन शस्त्रेण ) दृढ़ेन ( सभ्यग्विचारेण ) छित्त्वा ( पृथक् कृत्वा ) ततः ( पश्चात् ) यस्निन् ( पदे ) गताः ( प्रविष्टाः ) भूयः (पुनः संसाराय ) न निवतन्ति (नावर्तन्ते ) तत्पदं परिमागितव्यं ( अन्वेष्टव्यं ); यतः ( यस्मात् पुरुषात् ) पुराणी प्रवृतिः (चिरन्तनी संसारप्रवृत्तिः ) प्रसूता (विस्तृता ) तं एव च आद्य पुरुषं प्रपद्य (शरणं व्रजामि इत्येवमेकान्त-भक्त्या अन्वेण्टय्यमित्यर्थः ॥ ३ ॥ ४ ॥ अनुषाद। इस लोकमें इस संसार-वृक्ष का न उस प्रकारका ( ऊर्ध्वमूलत्वादि प्रकार ) रूप, न अन्त, न आदि न स्थिति उपलब्धि होती है; अत्यन्त बद्धमूल इस अश्वत्थ को असंग रूप शस्त्रद्वारा दृढ़ रूपसे छेदन करनेके पश्चात् जिस पदमें गमन करने वाले साधकगण पुनराय लौट नहीं आते, उसी पद का अन्वेषण करना होगा, जहाँसे पुराणो संसारप्रवृत्ति विस्तृत हुई है, उसी आद्य पुरुष को शरण लेता हूं, (इस प्रकार एकान्त भक्ति द्वारा अन्वेषण करना होग) ॥ ३ ॥ ४ ॥ व्याख्या। यह जो कल्पनाका संसार अश्वत्थ वृक्ष बनाया गया, बह जैसे आकाशमें मेघसे गढ़ा हुआ नगर सदृश असत्य है। मेयके Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६६ पञ्चदश अध्याय परिवर्तनसे नगराकार नष्ट हो जानेसे भी अन्तःकरणमें पूर्वदृष्ट नगर का जो छाप लग चुके, वह छाप जसे और मिटाया नहीं जा सकता, बहुकालके बाद प्रयोजन अनुसार स्मृति के सहारेसे अन्तःकरण जैसे उस नगरको अपने क्षेत्रमें फिर दिखला देता है, परन्तु तब (उस समय) उस नगरके रूपका कोई चिह्न भी आँखके सम्मुख शरीरके बाहर विद्यमान नहीं रहता है, मनका खेल मनके भीतर मन ही मनमें जसे सब देख चुके; तैसे उस कल्पित संसार अश्वत्थवृक्षका कोई रूप नहीं, केवल कल्पना ही कल्पना है। इसलिये इसका प्रथम, शेष अथवा मध्यभाग निर्देश किया नहीं जा सकता। जो आदौ नहीं है, उसका मध्यभाग और शेष क्या ? तथापि यह जो अश्वत्थ वृक्ष बनाया गया है, उस मन-गढन्त वृक्षकी छाप अन्तःकरण ले चुका; कालान्तरमें चाहे इस जन्ममें होय, चाहे शतान्ते होय, कभी न कभी स्मृतिके सहारासे उसको फिर उदय करावेगा। दिन जितना अधिक बीतेगा, उतना ही यह कल्पना अन्तःकरण क्षेत्रमें गभीरसे गभीरतर होती रहेगी। तदनुसार इसकी शक्ति भी वृद्धि होती रहेगी। दृढ़ अभ्यासके द्वारा परा वैराग्यके सहायतासे उपेक्षा करते करते जब इस संसारके ऊपर जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्तिमें भी मिलनकी इच्छा न उठेगी, तबही वह सुदृढमूल काल्पनिक स्मृतिका खण्डन होवेगा। उस स्मृतिको खण्डन करनेका उपाय भी वही परा-वैराग्य वा उपेक्षा है। वह परा वैराग्य आज्ञाचक्रके ऊपरसे प्रारम्भ होता है। साधक ! तुम देखो, संसारकी जो कुछ लीला आज्ञाचक्र पर्यन्त पड़ी रह गयी। इस बेर तुम आज्ञाचक्रके ऊपर उठे हो; अब तुम निष्क्रिय हो। यह देखो तुम्हारा स्थूल, सूक्ष्म, कारण शरीर और नहीं है। और तुम प्रकृतिके गर्भके बिम्ब नहीं हो। प्रशान्त असीम जलराशिमें बूद भर तेल फेंक देनेसे सब जलके ऊपरको छाह लेनेके लिये तेलका अणुसमूह जैसा दौड़ता है, तैसे तुम अब असीम विस्तारमें कैसे मिल जाते हो Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०० श्रीमद्भगवद्गीता उसे देखो। यह देखो, विशुद्ध पारद राशिसे भी अधिक क्या एक अपूर्व ज्योति तुम्हारे सामने है। हरि ! हरि! वह देखो! वह ज्योति और कुछ भी नहीं है, तुमहीसे ज्योति बाहर निकलके तुम्हारे पश्चात दिशामें प्रवाहाकारसे दौड़ता है। ज्योतिकी सीमा नहों, कहाँ से निकलती है, तुम भी उसे कहने की इच्छा नहीं रखते। परन्तु तुम घोर नववन सदृश गाढ़तम, अबोधगम्य, ज्ञान और विचारके अतीत क्या एक असीम होने चले। वह असीम ही विष्णुरूप है। विष्णु कहते हैं व्यापक-चैतन्य आत्माको। और वह जो असीम होते जाना है, वही वैष्णवी मार्ग है। विष्णुमें तुम मिलकर विष्णुत्व ले लेते हो इसलिये तुम वैष्णव हो । विष्णुका जो उपासक वही वैष्णव है। अब और एक अपूर्व शोभा देखो। उस नवीन नीरदोपम चतन्यधनसे नीचे दिशामें महत् प्रकाशकी ज्योति दौड़ती है। यही प्रकृति और पुरुषका संयोग है इसके ठीक सन्धिमें अब तुम हो। अच्छी तरह देख कर (प्रत्यक्ष कर ) समझ लो। उस ज्योतिने तुम्हारी जितनी जगह आक्रम कर लिया, उतना ही उसका अधिकार है। और उस अधिकारके भीतर जितना तुम हो तुम्हारा उतना ही उसके संगीका अर्थ प्रकाश करता है। क्या अपूर्व शोभा है यह रोशनी-अन्धकारका एकत्र समावेश ! विपरीत गतिसे जो धारा प्रवाह बहता है, वह सृष्टिमुखी वृत्ति नामसे चिरन्तनी मायाका प्रसारण है। और तुम जो ससारस निवृत्तिको लेकर उठ आये, यही उस प्रवाहकी दक्षिण गति है, इसलिये इस गतिका नाम राधा है। धाराके विपरीत ही "राधा" है । और यह गति आकरके तुममें मिल करके "मैं" हो जाती है; यही कृष्ण है। इसलिये साधकगण कहते हैं-“वामे तड़ितचावंगी राधा दक्ष सुश्यामलं। कृष्ण कमलपत्राक्ष राधाकृष्ण भजाम्यहं ॥” यह जो पद है, यह जो “मैं” पद है, इस 'मैं" में आ पड़नेसे अर्यात संसारी-शरोरका शेष निःश्वास त्याग करके इस "मैं" Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फचदश अध्याय २०१ में आ पहुंचनेसे और पुनः संसार-गति नहीं होती। तुमही यह अनादि पुरुष “मैं” हो, जिस मैं से वह देखो पुराणी महामाया प्रवृत्तिकी प्रसारण करती है। यह पथ ही मुमुक्षु साधकोंके अन्वेषण योग्य है ॥३॥४॥ निर्मानमोहा जितसंगदोषा अध्यात्मनित्या विनिवृत्तकामाः। द्वन्द्व विमुक्ताः सुखदुःखसंज्ञ गच्छन्त्यमूढाः पदमव्ययं तत् ॥५॥ अन्वयः। निर्मानमोहाः ( मानमोहव जिताः ) जितसंगदोषाः (जितः पुत्रादिसंगरूपो दोषो येस्ते) अध्यात्मनित्याः (परमात्मस्वरूपलोचने तत्पराः) विनिवृत्तकामाः (विशेषेण निवृत्तः कामो येम्यस्ते ) सुखदुःखसंज्ञः द्वन्द्वः विमुक्ताः ( सुखदुःखसंज्ञानि शीतोष्णादीनि द्वन्द्वानि तैविमुक्ता8) अतएव अमूढाः (निवृत्ताविद्याः सन्तः ) तत् अव्ययं पदं गच्छन्ति ॥५॥ अनुवाद । जो साधकगण मान तथा मोह वजित हुए हैं जो लोग पुत्रादि -संग रूप दोषको जय किये हैं, जो लोग परमात्म स्वरूप आलोचनमें तत्पर हैं, जिनकी कामनाने विशेष रूप निवृत्ति पायी है, जो लोग सुख दुःख नाम करके द्वन्द्वसे विमुक्त हुए हैं, वे सब अमूढ़ ( अविद्या परिशून्य ) हो करके उसी अव्यय पदको प्राप्त होते हैं ॥ ५ ॥ व्याख्या। “क्रिययोरन्तरं युक्त विश्रामो मानमुच्यते।"-एक क्रियाकी समाप्ति हुई, भविष्यत्में और एककी आशा है, इन दोनोंके बीचमें जो विश्राम, वही मान है; और विश्वजगतकी समस्त क्रियाके शेषमें जो विश्राम है उसीको "निर्मान" कहते हैं। मैं को छोड़कर और किसीमें “मैं” त्व स्थापन करके जो अज्ञानता में मतवाला होके रहना, वही मोह है। "मम माता मम पिता ममेयं गृहिणी गृहं । एतदन्यं ममत्वं यत् स मोह इति कीर्तितः॥" और सत्य “मैं” में रहनेका नाम “निर्मोह" है। Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०२ - श्रीमद्भगवद्गीता मैं को छोड़ करके दूसरे और किसीके साथ मिलनेको इच्छा भी संगदोष है। यह इच्छा अन्तःकरणसे एकदम मिटा करके जो स्थिति, वही "जितसंगदोष" अवस्था है। ____ सबको छोड़ करके बुद्धि जब केवल आत्माको लेकरके विभोर रहती है, उस अवस्थाको "अध्यात्मनित्य” कहते हैं। "मैं” बिना और किसीकी प्राप्ति लालसाका नाम काम है। और समस्त प्राप्ति-इच्छा लय होनेके पश्चात् जो ब्राह्मीस्थिति, वही , "विनिवृत्तकाम” अवस्था है। परस्पर विरुद्ध दोनोंका नाम द्वन्द्व है, जैसे शीत-उष्ण, सुख-दुःख,. राग-द्वेष इत्यादि । इन सबके अत्यन्त विवृत्तिका नाम “द्वन्द्वविमुक्ति" अवस्था है। यह समस्त अवस्था जिनमें अविच्छेद प्रकाश रहता है, वे साधक अमृढ़ नाम पाते हैं। और वह अमूढ़ ही अव्यय तत्पदको लाभ करते हैं ॥५॥ न तद्भासयते सूर्यों न शशाको न पावकः । - यद्गत्वा न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम ॥ ६॥ अन्वयः। तत् ( पदं सूर्यः ) न भासयते (प्रकाशयति ), शशाङ्कः न भासयते, पावकः न भासयते; यत् गत्वा ( प्राप्य ) न निवर्तन्ते ( योगिनः इत्यर्थः ), तत् मम परमं धाम (स्वरूपं ) ॥ ६ ॥ अनुवाद। उस तत्पदको सूर्य प्रकाश कर नहीं सकता, चन्द्र प्रकाश कर नहीं सकता, अग्नि भी प्रकाश कर नहीं सकता, जहां जानसे योगीगण और प्रत्यावर्तन नहीं करते वही हमारा परम धाम ( स्वरूप ) है ॥ ६ ॥ व्याख्या। सूर्य महान् ज्योतिसमष्टि होने पर भी उस तद्विष्णु के परमपदको अपनी ज्योतिसे प्रकाश नहीं कर सकता, चन्द्र भी कर नहीं सकता, अग्नि भी नहीं कर सकती; क्योंकि इन तीनोंमें किसी Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०३. पञ्चदश अध्याय में भी उस तत्पदमें पहुंचने वाली शक्ति नहीं है। परन्तु यह विष्णुका परमपद ही अपने तेजः प्रभावसे उन तीनों ज्योतिष्कों को प्रकाश कर रहा है। इस तद्विष्णुका परमपदको प्राप्त होनेसे संसारमें फिर पुनरावृत्ति नहीं होती, यही “मैं” का परमधाम ( विश्राम स्थान ) है ॥६॥ ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः । मनः षष्ठानीन्द्रियाणि प्रकृतिस्थानि कर्षति ॥ ७॥ अन्वयः। मम (परमात्मनः ) एव अंशः जीवलोके ( संसार ) सनातनः ( पुरातनः ) जीवभूतः (भोक्ता कर्तेति प्रसिद्धः) सन् प्रकृतिस्थानि (प्रकृतौ स्वस्थाने कर्ण शष्कुल्यादौ स्थितानि ) मनः षष्ठानि मनः षष्ठः येषां तानि इन्द्रियाणि श्रोत्रादीनि कर्षति ( आकर्षति ) ॥ ७॥ अनुवाद। जीवलोकमें हमाराही अंश सनातन जीव स्वरूप हो करके प्रकृतिस्थित मन और श्रोत्रादि पञ्च इन्द्रियोंको आकर्षण करता है ॥ ७॥ व्याख्या। जब जीवको चिरन्तन क्रिया आवागमन है, तब जीव परमधाममें जानेसे फिर क्यों न लौट आवेगा? यह बात समझानेके लिये श्री भगवान कहते हैं कि, जीव हमारा ही अंश, तथा हमारा ही मायाभ्रमसे भिन्नभावापन्न हो रहा है; मायाका भ्रम जितने दिन रहेगा, उतने दिन आवागमन चलेगा; असंगरूप शस्त्रसे मायाभ्रमका मूल छेद करते मात्र ही भिन्नभाव मिट जाता है, मेरा अंश “मैं” में ही मिल जाता है और आने जाने नहीं होता। ____ इस भावको दृष्टान्त दे करके समझाया जाता है कि-जैसे एकही , सूर्यरश्मि जलतरंगके ऊपर पड़ करके असंख्य जलसूर्य होता है, तेसे एक परमात्माका प्राकृतिक तरंगमें प्रतिफलित होनेसे इस असंख्य जीव रूपकी सृष्टि हुई है। वह जलसूर्य जैसे जलके वशसे नाचते रहते हैं, तैसे जीव प्रकृति के वशसे मनः पष्ठ इन्द्रिय युक्त हो करके कर्म करता रहता है। फिर जैसे जलतरंग मिट जाने के पश्चात् बहु बिम्ब आपही Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०४ श्रीमद्भगवद्गीता आप लोप हो जाते हैं और जल सूख जानेसे सूर्यका बिम्ब सूर्यमें मिल जाता है, और फिर लौट नहीं आता, तैसे प्राकृतिक तरंग मिट जानेसे जीवका बहुभाव भी मिटकर एक भाव आता है, और प्रकृतिके लय होनेसे जीवरूप बिम्ब उसी परमात्मामें मिल जाता है और पुनरावत्तन नहीं करता। अब बात यह है कि जो अवधिरहित महान है उसका अंश किस प्रकारसे होता है ? तुम "केवल-राम” हो; परन्तु रासधारीकी रामलीलामें जब तुम हनुमान बनकर अभिनय करते हो, तब तुम्हारे देखनेवाले बन्धु बान्धव और तुम अपने केवल-रामत्वको अन्त:करणमें न लेकरके जैसे हनुमान और हनुमानका दर्शन कथन श्रवण करनेका सुख अनुभव करते हैं और करते हो, यह भी तैसे ही है। जैसे घरकी दीवार तोड़नेसे घरके भीतरवाला खण्डित आकाश बोध नष्ट हो करके एक महाकाशका बोध होता है, तैसे। आकाशवत् मैं अखण्ड जैसे, मैं चिरकाल से ही हूँ। प्रकृति के तीनों गुण, ज्ञानेन्द्रिय और मनके साथ मिल करके इन्द्रधनुषाकार सदृश “मैं” में नाना प्रकार आकार दिखला देता है। इस कारण करके अखण्ड “मैं” का खण्ड साजसे ब्रह्माण्डमें जीवका मेला होता है। थोड़ा समय पहिले यही तुम "मैं” रहे थे, फिर अब वही "तुम” मैं हुए, तथापि कुछ भी अदलबदल नहीं हुआ; यही तमझ लेओ और क्या ! ॥ ७॥ शरीरं यदवाप्नोति यच्चाप्युतूकामतीश्वरः। गृहीत्वतानि संयाति वायुर्गन्धानिवाशयात् ॥ ८॥ अन्वयः। ईश्वरः ( देहादीनां स्वामी जीवः) यत् ( यदा ) शरीरं (शरीरान्तरं) अवाप्नोति यत् च अपि ( शरीरं) उत्कामति (त्यजति) तदा आशयात् ( स्वस्थानात् कुसुमादेः सकाशात् ) गन्धान गृहीत्वा वायुः इव एतानि ( मनःपष्ठानि इन्द्रियाणि ) गृहीत्वा संयाति ( गच्छति ) ॥८॥ Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चदश अध्याय २०५ अनुवाद। ईश्वर (देहका स्वामी जीव ) जब शरीर ग्रहण करता है और शरीर त्याग करता है, तब कुसुमादि आशयसे वायु जैसे गन्ध ग्रहण करके ले जाता है, तैसे मनःषष्ठ इन्द्रियोंको ग्रहण करके ले जाता है ॥८॥ व्याख्या। कहाँ फूल सो जानते नहीं, परन्तु वायु जैसे गन्ध लाकर नाक भराकर मतवाला कर देता है, तैसे एक शरीरके अन्त होने पश्चात् वह शरीरकृत सञ्चित कर्म राशिके साथ उन गणत्रय, इन्द्रिय और मनको लेते हुए, देहेन्द्रियोंके अधिष्ठाता ईश्वर ( जीव ), दूसरे शरीरमें प्रवेश करते हैं ॥८॥ श्रोत्रं चक्षुः स्पर्शनं च रसनं घ्राणमेव च । अधिष्ठाय मनश्वायं विषयानुपसेवते ॥ ६ ॥ अन्वयः। अयं ( देहस्वामी जीवः ) श्रोत्रं चक्षुः स्पर्शनं च रसनं घ्राणं एव च ( एतानि पञ्च ) मनश्च ( पष्ठ) अधिष्ठाय ( आश्रित्य ) विषयान् ( शब्दादीन् ) उपसेवते ( उपभुके) ॥९॥ अनुवाद। वह ईश्वर ( जीव ) कर्ण, चक्षु, त्वक्, जिह्वा और नासिका तथा मनको आश्रय करके विषय समूह उपभोग करते हैं ॥९॥ व्याख्या। साधक ! तुम्हारी पहलेवाली बद्धावस्थामें तुम अपनी दृष्टि फेंककर और एक बार देखो। वह जो तुमने परित्वक्त देह छोड़कर नवीन देह लिया, इसमें तुम्हारे त्वम्त्वमें कुछ भी परिवर्तन न हुआ। फिर प्रकृति, प्रकृति-विकृति वा गुणोंमें भी कोई अदल बदल नहीं है; परन्तु परिवर्तन केवल त्रि और पञ्चीकरणमें होता है। जितने जितने करणकी अधिकता होती है, तदनुसार अज्ञानताके गाढ़ आलिङ्गनमें तुम विभोर हो जाते हो। वह देखो तुम्हारे नवीन देहमें नवीन बलसे बलीयान कर्ण, चक्षु, नासिका, जिह्वा और त्वक् को आश्रय करके मन पूर्वापेक्षा कितने तेजसे विषयका उपभोग कर रहा है। श्रवण, दर्शन, स्पर्शन, रसन और घ्राणेन्द्रियोंके आश्रय लेकर Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०६ श्रीमद्भगवद्गीता मन शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्ध इन सब विषयका उपभोग किस 'प्रकारसे करता है ? जैसे बच्चके बालोंमें जटा; धीरे धीरे जटाका मैला निकाल लेनेसे जैसा बाल था तसा ही रहता है, मैला निकल जानेसे बालकी क्षति वा वृद्धि कुछ भी नहीं होती तुम्हारी भी वही दशा है। प्राकृतिक क्रियाको हटा देनेसे तुम जो निलिप्त वही निर्लिप्त रहोगे॥६॥ उत्क्रामन्तं स्थितं वापि भुञ्जानं वा गुणान्वितम् । विमूढ़ा नानुपश्यन्ति पश्यन्ति ज्ञानचक्षुषः ॥ १० ॥ अन्वयः। उत्क्रामन्तं (देहाइ हान्तरं गच्छन्तं ) वा ( अथवा ) स्थितं ( देहे तिष्ठन्तं ) अपि भुजानं ( बिययान् उपलभमानं ) वा गुणान्वितं ( इन्द्रियादि युक्त) [ एवम्भूतमप्येनं जीवं ] विमूढाः न अनुपश्यन्ति, ज्ञानचक्षुष पश्यन्ति ॥ १० ॥ अनुवाद। देहसे देहान्तरमें जानेवाला, देहमें रहनेवाला, विषयभोगमें प्रवृत्त अथवा गुणान्वित ( इन्द्रियादियुक्त ) देहीको विमूढ़गणं देख नहीं सकते परन्तु ज्ञानचक्षुयुक्त मनुष्यगण ही देखते हैं ॥ १०॥ व्याख्या। यह जो गुणान्वित जीवका एक देहसे दूसरे देहमें गमन, देहमें स्थिति और विषयभोग है, विमूढगण ( भोगातुर लोग) उसे देख नहीं सकते। जिनकी ज्ञानचक्षुकी दृष्टि खुल गयी है, वे सब ही देखते हैं। इसका साक्षी तुम हो॥ १०॥ यतन्तो योगिनश्च नं पश्यन्त्यात्मन्यवस्थितम् । यतन्तोऽप्यकृतात्मानो नंनं पश्यन्त्यचेतसः ॥ ११ ॥ अन्वयः। यतन्तः ( ध्यानादिभिः प्रयतमानाः ) योगिनः च एनं ( आत्मानं देहिनं ) आत्मनि (देहे ) अवस्थितं पश्यन्ति यतन्तः ( शास्त्राभ्यासादिभिर्यत्न कुर्वाणाः ) अपि अकृतात्मानः ( अविशुद्धचित्ताः) अचेतसः ( मन्दमतयः ) एनं न पश्यन्ति ॥११॥ Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पचदश अध्याय २०० अनुवाद। प्रयतमान योगीगण हो आत्माको देहमें अवस्थित देखते है, फिर 'प्रयतमान होनेसे भी अविशुद्धचित्त तथा मन्दमति मनुष्य गण इसको (आत्माको) देख नहीं सकते ॥११॥ व्याख्या। जीवका यह शरीर त्याग, शरीर ग्रहण, स्थिति और विषय भोग, यतन ( साधन ) करके योगीजन अपनेमें बाप रहकर अपनेको प्रत्यक्ष करते हैं। परन्तु संसारी अविवेकी जन (अकृतात्मा लोग) सिर पटक करके मरनेसे भी आत्माको देख नहीं सकते; अर्थात् जिनका चित्तशुद्ध न हुआ, इस कारण मति भी स्थिर न हुई, वह लोग शास्त्राभ्यासादि द्वारा यत्न चेष्टा करनेसे भी, उन सबकी अन्तदृष्टि नहीं खुलती इस करके, वह लोग सूक्ष्मातिसूक्ष्म आत्माका ज्यापार कुछ भी दर्शन करने नहीं पाते ॥ ११ ॥ यदादित्यगतं तेजी जगद्भासयतेऽखिलम् । यच्चन्द्रमसि यच्चाग्नौ तत्तेजो विद्धि मामकम् ॥ १२ ॥ अन्वयः। आदित्यगतं यत् तेजः अखिलं जगत् भासयते ( प्रकाशयति ), चन्द्रमसि यत् ( तेजोऽवभासकं वर्तते), अग्नौ च यत् ( तेजो वर्तते) तत् तेजः मामक (मदीयं ) विद्धि (जानीहि ) ॥ १२॥ . अनुवाद। आदित्यगत जो तेज अखिल जगत्को प्रकाश करता है, चन्द्रमें जो तेज रहता है, और अग्निमें भी जो तेज रहता है, वह तेज मेरा ही है जानना ॥१२॥ व्याख्या। साधक ! तुमसे (४ र्थ श्लोकमें ) वह जो ज्योतिप्रवाह बाहर होकरके जगत्को प्रकाश करता है, अहो! तुम जैसे विश्वव्यापक हो, देखो देखो, तुम्हारा वह महाप्रकाश भी तैसे विश्वव्यापी है। मिट्टी, वृक्ष, पत्थरोंके अस्वच्छताके हेतुसे वे सब तुम्हारी उस ज्योतिको खिला नहीं सकते; परन्तु तुम्हारी वह ज्योति, उन सबके भीतर बाहर ऐसी कोई जगह नहीं है जहाँ वर्तमान नहीं है। Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०८ श्रीमद्भगवद्गीता तुम जैसे विष्णु हो, तुम्हारी ज्योति भी तैसे विश्वकोषमें व्याप्त हो रही है । चन्द्र, सूर्य, अग्निकी स्वच्छताके लिये उन सबके शरीरमें तुम्हारी ज्योति खिल उठी है। इस कारणसे तुम जगत्के जीवोंके भ्रम नाशके लिये जैसे कहते हो ... "वह जो आदित्यका तेज (आदित्यानामह विष्णुः ) समस्त जगतको जो प्रभासित करता है, वह जो चन्द्र और अग्निका तेज, वह तेज मेरा ही है जानो"। हरि ! हरि ! क्या परिपूर्णत्व है ! ॥ १२ ॥ गामाविश्य च भूतानि धारयाम्यहमोजसा । पुष्णामि चौषधीः सर्वाः सोमो भूत्वा रसात्मकः ॥ १३ ॥ अन्वयः। अहं ओजसा ( बलेन ) गां (पृथिवीं) आविश्य च अधिष्ठाय च भूतानि ( चराचराणि) धारयामि, रसात्मकः ( रसमयः) सोमो भूत्वा च सर्वाः औषधीः पुष्णामि ( संवर्द्धयामि ) ॥ १३ ॥ अनुवाद। मैं ओजः शक्तिसे पृथिवीके भीतर प्रवेश करके भूत समूहको धारण करता हूँ। और रसमय चन्द्र हो करके सर्व औषधीकी परिपुष्टि साधन करता हूँ॥ १३ ॥ व्याख्या। सूक्ष्म ही स्थूलको धारण कर रहा है। जो जितना अधिक इन्द्रियग्राह्य है वह उतना हो स्थूल है। चक्षु, कर्ण, नासिका, जिह्वा, त्वक इन पाँचों इन्द्रियोंसे पृथिवीका ग्रहण होता है, इसलिये पृथिवी स्थूल है । जल, चक्षु-कर्ण-जिह्वा-त्वक् इन चार इन्द्रियोंसे ग्रहणयोग्य है, इस करके पृथ्वीसे सूक्ष्म है। फिर तेज, चक्षु-कर्ण-त्वक इन तीन इन्द्रियोंके ग्राह्य है इसलिये तेज जलसे सूक्ष्म है। इस प्रकारसे वायु, कर्ण-त्वक इन दो इन्द्रियोंके ग्राह्य होनेसे तेजसे भी सूक्ष्म हैं। और आकाश केवल मात्र कर्णेन्द्रियग्राह्य है इस करके वायुसे भी सूक्ष्म है। मन कोई इन्द्रियग्राह्य नहीं है, इसलिये मन आकाशसे भी सूक्ष्म है ( बुद्धि, चित्त और अहंकार यह तीनों ही मनकी अवस्थान्तर मात्र हैं ) इससे समझा गया कि मन सूक्ष्म है, और आकाशादि पचभूत Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चदश अध्याय २०६ वा पाचभौतिक जो कुछ है वे सब स्थूल हैं । यह मन ही उन पञ्चभूतोंको धारण करके रहते हैं, क्योंकि मन न रहनेसे उन सबका अस्तित्व नहीं रहता। इसलिये कहा गया कि, सूक्ष्म ही स्थूलको धारण करके रहते हैं। फिर “मैं” की तुलनामें मन भो स्थूल है; कारण यह है कि, मन इन्द्रियोंके ग्राह्य न होनेसे भी मनको अनुभव किया जा सकता है; परन्तु “मैं” को अनुभव भी किया नहीं जा सकता (जो अनुभव करने जाता है, सो भी "मैं" हो जाता है)। अतएव मैं सूक्ष्मातिसूक्ष्म हूँ। जो जितना सूक्ष्म है उसको ओजः उतनी अधिक है। पृथ्वीसे जल दशगुण सूक्ष्म है। सुतरां जलकी व्यापकता शक्ति पृथ्वीसे दशगुणी अधिक है। इस प्रकार "मैं" से सूक्ष्म कोई भी नहीं है, इस करके “मैं” की व्यापकता शक्ति सबसे अधिक है। इसलिये मैं सबके भीतर बाहर व्याप्त हूँ; ऐसे रहने ही को धारण करके रहना कहते हैं। अतएव मैं सबको अपनी शक्तिसे धारण कर रहा हूँ, केवल यही बात नहीं, फिर सर्वरसात्मक सोम (चन्द्र) रूपसे अपना रसाणु प्रवेश कराके धान्य, यव, तिल, गेहूँ आदि औषधि (जिनको खाकर जीव क्षुधा-व्याधिसे बचता है ) की पुष्टि भी मैं करता हूँ॥ १३ ॥ . अहं वैश्वानरो भूत्वा प्राणिनां देहमाश्रितः। प्राणापानसमायुक्तः पचाम्यन्नं चतुर्विधम् ॥ १४ ॥ अन्वयः। अहं वैश्वानरः (जठराग्निः ) भूत्वा प्राणिनां देहमाश्रितः ( देहान्तः प्रविश्य ) प्राणापानसमायुक्तः (प्राणापानाभ्यां संयुक्तः ) चतुविधं ( भक्ष्यं, पेयं, लेद्य, चोष्यं चेति चतुःप्रकारं ) अन्नं पचामि ॥ १४ ।। । अनुवाद। मैं प्राणियोंके देहके भीतर वैश्वानर रूपसे प्रवेश करके प्राण और अपानके साथ संयुक्त हो करके चतुर्विध अन्नको परिपाक करता हूँ ।। १४ ।। व्याख्या। भगवान प्राणि-जठरमें वैश्वानर अग्नि (जठराग्नि ) रूप धरके विराजमान हैं। यह अग्नि अपने उद्दीपक प्राण और अपान के साथ मिल करके, चळ-जिसे चबायके खाया जाता है, चोष्य -१४ Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१० श्रीमद्भगवद्गीता जिसे चूसके खाया जाता है, लेह्य-जिसे लेहन (चाट) करके खाया जाता है, पेय-जिसे पीके खाया जाता है, इन चार प्रकारके खाद्य द्रव्यको परिपाक करते हैं। इसलिये यह वैश्वानर अग्नि प्राणीमात्रके देहके आश्रय है । वह अग्नि देहमें सर्वन ताप-संचालन करके जीवनीशक्तिकी रक्षा करती है। अग्नि विकृत होनेसे देह भी विकृत होता है, और अग्निका देहको छोड़ देनेसे देह भी मृत होता है। योगीगण सदाकाल "प्राणापानौ समौ कृत्वा” इस वैश्वानरके तृप्ति साधनके लिये अग्निहोत्र पालन करते हैं ॥ १४ ॥ सर्वस्य चाह हृदि सन्निविष्टो मत्तः स्मृतिर्ज्ञानमपोहनं च । वेदश्च सर्वरहमेव वेद्यो वेदान्तकृत् वेदविदेव चाहम् ॥ १५ ॥ अन्वयः। अहं सर्वस्य च ( प्राणिजातस्य ) हृदि ( बुद्धौ ) सन्निविष्टः, ( अतः ) मत्तः ( एव प्राणिमात्रस्य ) स्मृतिः ज्ञानं अपोहनं च ( तयोः ज्ञानस्मृत्यो अपगमनं च) भवतीत्यर्थः; सबै वेदश्च अहमेव ( परमात्मा ) वेद्यः ( वेदितव्यः ), अहमेव वेदान्तकृत् ( वेदान्तार्थ-सम्प्रदायकृत् ) वेदवित् च ( वेदार्थवित् च ) ॥ १५ ॥ अनुवाद। मैं सब प्राणियोंके हृदयमें सम्यक् रूपसे निविष्ट हूँ, हमसे ही ( प्राणिमात्रकी) स्मृति, ज्ञान और ( इन दोनोंका ) अपगम होता है; सब वेदमें मैं ही वेद्य ( जाननेका वस्तु ), वेदान्तार्थ सम्प्रदायकृत् , और वेदार्थवित् हूं ।। १५ ॥ व्याख्या। सर्व कहनेसे जिन सबको समझावेगा, उन सबकी दो अवस्थायें हैं। एक संघात और दूसरी विलय । इन दोनों अवस्थाओं को विवेक और विचार द्वारा तन्न तन्न करके चले आते आते जहां वह तन्न और न लगेगा, उसीको ठोक मध्य स्थान वा हृदय कहते हैं । "यतो निर्याति विषयो यस्मिन् चैव प्रलीयते । हृदयं तत् विजानीयात् मनसः स्थितिकारणम् ॥” जहाँसे विषय निकलता है, जहां जा करके Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २११ पञ्चदश अध्याय विषय प्रलीनको प्राप्त होता है, उसीको हृदय कहते हैं, वह हृदय मन का स्थिति-कारण है। सबका स्थितिका स्थान मैं बिना और कोई नहीं है। सब अस्थिर है केवल मैं ही स्थिर हूं।, जो "मैं" में आ पड़ता है, वही स्थिर होता है। जल से मिला हुमा दूध सदृश मैं उस सर्वके हृदयमें सन्निविष्ट हूं। मुझको ही आश्रय करके भाग्यवान लोग पूर्व में जो ब्रह्म थे, पश्चात् जीव बनकर खेलनेके लिये घोर श्रान्त हो करके फिर उसी पहले वाली ब्रह्मावस्थाके स्मरणके लिये स्मृति और "अहं ब्रह्मास्मि'-मैं ही ब्रह्म हूं, यह ज्ञान प्राप्त हो करके मुक्ति पाते हैं। फिर दुराचारी पापी लोग मायाके घेरमें उस स्मृति और ज्ञानको नष्ट कर देते हैं । यह दोनों हमारे ही ऊपर होता है, इसलिये स्मृति और ज्ञानका उत्थान-अपोहन भी हमहीमें होता है, कहा गया। यही सर्व लोग साम, ऋक्, यजु, अथर्वण अर्थात् कर्मकाण्ड और ज्ञानकाण्ड द्वारा जाननेको वस्तु मुझको जानते हैं। इसलिये विवत्त-वाद का शेष फल और सब ज्ञानका शेष फल यह दोनों ही मैं हूँ ॥ १५ ॥ द्वाविमौ पुरुषौ लोके क्षरश्चाक्षर एव च । .. क्षरः सर्वाणि भूतानि कूटस्थोऽक्षर उच्यते ॥ १६ ॥ अन्धयः। क्षरश्च अक्षरश्च इमौ द्वौ पुरुषौ लोके (प्रसिद्धौ ); सर्वाणि भूतानि ( ब्रह्मादिस्थावरान्तानि शरीराणि) क्षरः पुरुषः, कूटस्थः (चेतनो भोक्ता) अक्षरः पुरुषः उच्यते ॥ १६ ॥ ___ अनुवाद। क्षर और अक्षर यह दोनों पुरुष लोकमें प्रसिद्ध है; समुदय भूतगण क्षर पुरुष और कूटस्थ अक्षर पुरुष कह करके कहलाते हैं ॥ १६ ॥ व्याख्या। जैसे एक गृहस्थमेंसे एक मूर्ति निमन्त्रणमें जानेसे वहाँके सब किसीको ही जाना मंजूर होता है; तसे एकमात्र भगवान विष्णुमें पुरुष उपाधिका स्पर्श होनेसे विश्वका जो कोई द्रव्य ( ऐसा कि काठी मूठी तक) को भी पुरुष कहनेसे, मिथ्या कहना नहीं होता। Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१२ : . श्रीमद्भगवद्गीता जैसे ज्योतिषकी धातु है। एक प्रकार ब्रह्मासे आदि लेके स्थावरान्त समस्त भूत है "घर" अर्थात नाशमान पुरुष। और एक साक्षात् कूट कचना-जाल राशि स्वरूपा, जहांसे अनन्त संसार बीजका क्षरण होता है, वही माया है। जिस मायाने अनजान भावसे चैतन्यको अपने गर्भमें भर लिया, तथापि चैतन्यको गर्भमें लेनेका ज्ञान उसमें नहीं है, उठाया हुश्रा समुद्र-लवणाम्बु सदृश रहता है, (मायाका ही प्रकाश है, परन्तु क्रिया नहीं इसलिये कूटस्थ-पुरुष संज्ञा है )। ऐसी माया ही अक्षर पुरुष हैं ( ८म मः "कूटस्थ” देखो।। सूर्यसे निरन्तर रश्मिके क्षरण होनेसे भी सूर्य जैसे अक्षर ही रहते हैं मायाका संसार-बीज क्षरण भी उसी प्रकार है। इन दोनोंको ही सोपाधिक पुरुष कहते हैं ॥१६॥ उत्तमः पुरुषस्त्वन्यः परमात्मेत्युदाहृतः । यो लोकत्रयमाविश्य बिभर्त्यव्यय ईश्वरः ॥ १७ ॥ अन्धयः। तु ( किन्तु ) उत्तमः ( उत्कृष्टतमः ) पुरुषः अन्यः ( आभ्यां क्षराक्षराभ्यां अत्यन्तविलक्षणः ) परमात्मा ( परमश्चासौ आत्मा चेति, आत्मत्वेन क्षरादचेतनाद्विलक्षणः परमत्वेनाक्षराच भोक्त पिलक्षण इत्यर्थः) इति उदाहृतः ( उक्त: श्रुतिभिः ), यः ईश्वरः ( ईशनशीलः ) अव्ययश्च (निधिकार एव सन् ) लोकत्रयं भाविश्य विभत्ति ( पालयति ) ॥ १७॥ अनुवाद। परन्तु उत्तम पुरुष (क्षर और अक्षरसे ) मिन्न पृथक् ), तथा परमात्मा नाम करके अभिहित है, जो ईश्वर और अन्यय तथा लोकत्रयमें प्रवेश करके पालन करते है॥१७॥ व्याख्या। उत्-तम पुरुष। उच्चतम, पुरुषमें जिनसे और कोई ऊंचा नहीं है । पुरुष प्रभृति नाम वा रूपके भीतर जो नहीं है, तथापि पुरुषों के ऊपर रहनेके लिये जगत्में लोग जिनको पुरुषोत्तम कहते हैं । जो उस उपाधिप्रस्त दोनों पुरुषसे विलक्षण भिन्न (पृथक् है ), जो Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चदश अध्याय २१३ सर्वभूतमें चैतन्यस्वरूप प्रत्यगात्मा ( परमात्मा ) है, जो पृथ्वी अन्तरीक्ष और स्वर्गको आक्रम करके रहते हुए भी अविद्याकृत देहादि पत्र कोषके अतीत है, जो अपने चैतन्य, बल और शक्तिसे विश्वको धारण करके अव्यय, नियन्ता होकर रहता है, उसीको उत्तम पुरुष कहते हैं। "असंस्पृश्य शरीरेण येन विश्व चिरं धृतम् ।” ॥ १७ ॥ यस्मात्मरमतीतोऽहमक्षरादपि चोत्तमः।। अतोऽस्मि लोके वेदे च प्रथितः पुरुषोत्तमः ॥ १८॥ . अन्वयः। यस्मात् अहं क्षरं ( जड़वर्ग) अतीतः ( अतिक्रान्तः ) अक्षरादपि (चेतनवर्गादपि ) च उत्तमः ( उत्कृष्टतम ऊर्ध्वतमो वा ), अतः लोके वेदे च पुरुषोत्तमः इति प्रथितः ( प्रख्यातः ) अस्मि ॥ १८ ॥ अनुवाद। क्योंकि मैं क्षरोंके अतीत तथा अक्षरसे भी उत्तम हूं, इसलिये लोकजगत् में तथा वेदमें पुरुषोत्तम कह करके प्रख्यात हुआ हूं ॥ १८॥ व्याख्या। मैं उस मायामय भूतादि अश्वत्य वृक्षरूप क्षर पुरुष ( संसार ) को अतिक्रम करके और उस संसार-वृक्षका बीज स्वरूप अक्षर कूटस्थको भी नीचे फेकते हुए ऊंचे रहनेके सदृश रहता हूँ, इसलिये लोक-जगत्में और वेदमें उन दोनों पुरुषोंके ऊपर रहनेके कारण मुझको पुरुषोत्तम नामसे घोषणा करते हैं ॥ १८ ॥ यो मामेबमसंमूढ़ो जानाति पुरुषोत्तमम् । स सर्वविद्भजति मां सर्वभावेन भारत ॥ १६ ॥ अन्वयः। हे भारत ! यः एवं (यथोक्तप्रकारेण) असंमूढः ( निश्चितमतिः सन् ) मां पुरुषोत्तमं जानाति, सः सर्ववित् सर्वभावेन (सर्वप्रकारेण ) मां भजति ॥ १९॥ अनुवाद। हे भारत ! यथोक्त प्रकारसे असंमूढ़ हो करके जो मुझको पुरुषोत्तम कह करके जानते हैं, वे सर्वविद् हो करके सर्व प्रकारसे मुमको भजते हैं ॥ १९ ॥ व्याख्या। हे भारत ! जो भाग्यवान साधक साधन-शक्तिसे माया मोहका भ्रम काटकर इनको (पुरुषोत्तम ) को प्रत्यक्ष करते है Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१४ श्रीमद्भगवद्गीता अर्थात् माया-व्यापारका जाल फाड़ चिर फेंककर इस “मैं” में श्रा पड़ते हैं, वे सर्वविद् हो करके अर्थात् जिसको सब जाननेका जानना कहते हैं उसे ही जान करके "मैं" के भजनमें डूब जाते हैं। अर्थात् सर्व मावमें ही वे साधक अपनेमें इस मैं बिना और कुछ भी देखने नहीं पाते ॥ १६ ॥ इति गुह्यतमं शास्त्रमिदमुक्तं मयानघ । एतद्बुद्ध्वा बुद्धिमान् स्यात् कृतकृत्यश्च भारत ॥२०॥ अन्वयः। हे अनघ ! इति ( अनेन संक्षेपप्रकारेण ) मया इदं गुह्यतमं (अत्यन्तं रहस्यं) शास्त्रं उक्त; हे भारत ! (योऽपि कोऽपि) एतत् ( मदुक्त शास्त्रं.) बुद्ध्वा बुद्धिमान् ( सम्यक ज्ञानी) च ( तथा ) कृतकृत्यः स्यात् ।। २० ॥ अनुवाद। हे अनघ ! इस प्रकार संक्षेपसे मैंने यह गुह्यतम शास्त्र कहा। हे भारत ! इसे समझनेके पश्चात् (जो कोई समझे ) सम्यक् ज्ञानी और कृतकृत्य होता है ।॥ २०॥ व्याख्या। हे निष्पाप! जिससे और गोपनीय कुछ भी नहीं, स्वयं माया भी जिनके प्रकाशसे प्रकाशित है; परन्तु जिसको प्रकाश करनेकी शक्ति नहीं रखती, उसी ब्रह्म-संवादको मैंने तुमसे वाणी विलास सदृश कथन कमसे इस अध्यायमें कहा है। इस संवादमें बुद्धिमान लोग बुद्धिका प्रयोग करके कृतकृत्य होते हैं अर्थात् सब प्रकार करणके पश्चात् जो चिर विश्राम ब्राह्मीस्थिति है, उसे ही पाते हैं; और उनके लिये कर्त्तव्यका अर्थ प्रयोग करनेका अवसर नहीं आता ॥ २०॥ इति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसवादे पुरुषोत्तमयोगो नाम पञ्चदशोऽध्यायः। Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षोडशोऽध्यायः श्रीभगवानुवाच। अभयं सस्वसंशुद्धिर्ज्ञानयोगव्यवस्थितिः। दानं दमश्च यज्ञश्च स्वाध्यायस्तप आर्जवम् ॥ १॥ अहिंसा सत्यमक्रोधस्त्यागः शान्तिरपैशुनम् । दया भूतेष्वलोलुप्त्वं मार्दवं ह्रीरचापलम् ॥२॥ तेजः क्षमा धृतिः शौचमद्रोहो नातिमानिता। भवन्ति सम्पदं देवीमभिजातस्य भारत ॥ ३ ॥ अन्वयः। हे भारत ! अभयं (भयाभावः सत्त्वसंशुद्धिः (चित्तस्य सुप्रसन्नता), ज्ञानयोगव्यवस्थितिः ( आत्मज्ञानोपाये परिनिष्ठा ), दानं (यथाशक्ति संविभागोऽन्नादीनां ), दमश्च ( बाह्य न्द्रियसंयमः ), यज्ञश्च (श्रीतोऽग्निहोत्रादि स्मात्तश्च देवयज्ञादिः), स्वाय्यायः (ऋग्वेदाद्यध्ययनं ), तपः ( शारीरादिः), आर्जवं (अवक्रता); अहिंसा ( परपीड़ावर्जनं), सत्यं ( यथादृष्टार्थभाषणं), अकोधः (ताड़ितस्यापि चित्त क्रोधानुत्पत्तिः ), त्यागः (औदास्यं ), शान्तिः (अन्तःकरणस्योपशमः ), अपैशुनं ( परोक्षे परदोषप्रकाशनं पैशुनं तद्वर्जनं ), भूतेषु ( दौनेषु ) दया, अलोलुपत्वं ( लोभाभावः ), मार्दवं ( मृदुत्वं ), ह्री ( अकार्यप्रवृत्तौ लोकलज्जा ), अचापलं ( व्यर्थक्रियाराहित्यं ) ( तेजः ) प्रागलभ्यं ), क्षमा ( परिभवादिषूत्पद्यमानेषु क्रोधप्रतिबन्धः ), धृतिः ( दुःखादिभिरवसादे चित्तस्य स्थिरीकरणं ), शौचं (बाह्याभ्यान्तरशुधिः), अद्रोहः ( जिघांसाराहित्यं ), नातिमानिता (आत्यन्यतिपूज्यत्वाभिमानाभाषः)-एतानि षड्विंशति प्रकाराणि देवी सम्पदं अभिजातस्य भवन्ति ( देवयोग्यां सात्त्विकी सम्पदमभिलक्ष्य तदाभिमुख्येन जातस्य भाविकल्याणस्य पुसी भवन्तीत्यर्थः ॥१॥२॥३॥ अनुवाद। हे भारत! अभय, चित्तको सुप्रसन्नता, ज्ञानयोगमें अवस्थिति, दान, दम, यज्ञ, वेदाध्ययन, तप, आर्जव, अहिंसा, सत्य, अक्रोध, त्याग, शान्ति, अपै शुन्य, सर्वभूतमें दया, अलोलुपता, मृदुत्ता लज्जा, चपलताविहीनता, तेज, क्षमा, . Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१६ श्रीमद्भगवद्गीता धैर्य, शौच, अद्रोह और अतिमानशून्यता-यह सब देवी सम्पद अभिमुखमें जात मनुष्योंको प्राप्त होते हैं ।। १॥ २॥ ३ ॥ व्याख्या। पूर्वाध्यायके शेष श्लोकमें जो "एतद् बुद्ध्वा बुद्धिमान् स्यात् कृतकृत्यश्च भारत” कहा हुआ है, यहां उसीका परिष्कृति दिखाई जाती है। अर्थात् हम अध्यायके १२श श्लोकमें जो राक्षसी और आसुरी प्रकृतिकी कथा है, उससे मोहन और भवबन्धन होता है। और उस अध्यायके १३श श्लोकमें कथित देवी प्रकृतिसे मुक्ति मिलती है । उस देवी और आसुरी प्रकृतिका आकार कैसा है ? वही कहा जाता है। - "अभयं"-कहते हैं निर्भयको। भय केवल मरनेका है । जोव जब साधन-शक्तिसे जान लेते हैं कि "मैं पुरुषोत्तम हूँ" तब फिर उनको मृत्युभय नहीं रहता। जब अन्तःकरणमें सम्यक् प्रकारसे परवश्वनादि माया-विकारके अनुत्थानके लिये केवल शुद्ध भावका व्यवहार होता है, तबही "सत्त्वसंशुद्धि” अवस्था कही जाती है (१४ अः २य श्लोक)। "ज्ञान"। ज्ञेय वस्तुको समझ लेनेके बाद जो तुष्णोम्भाव (विश्राम अवस्था) हाता है वही ज्ञान है ( अः १म श्लोक, १३ अः ७मसे ११श श्लोक और १४ अः ६ष्ठ श्लोक देखो)। चित्तवृत्तिनिरोधके जो बाद स्थिति है उसे "योग" कहते हैं। इन दोनोंमें निष्ठाका नाम "अवस्थिति" है। इस कारण करके ज्ञानमें और योगमें निष्ठा का नाम "ज्ञानयोगव्यवस्थिति" कहा है। न्यायार्जित धनको सत्पात्र में अर्पण करनेका नाम “दान" है ( १० अ०५म श्लोक)। "दम"-' बहिवृत्तिका निरोध। “यज्ञ"-श्रुति और स्मृति कथित क्रियायाग । वेदादिके अर्थ परिज्ञानका नाम "स्वाध्याय" है। "तपः" -क्रिया विशेषके द्वारा अन्तःकरणको सत्पथमें चलाना। - "आर्जव"सरलता। Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षोड़श अन्याय २१७ "अहिंसा"-जाग्रतावस्था, स्वप्नावस्था प्रारै सुषुप्तिमें अन्तःकरण के भीतर प्राणी-पीड़न वृत्तिका अभाव (१० अः ५म श्लोक )। "सत्य"-अनृतवर्जन । परकृत अनिष्टसे उसका अनिष्ट करनेकी इच्छा अन्तःकरणमें न उठनेको “अक्रोध” कहते हैं। "त्याग'वैराग्य। प्राकृतिक क्रियाकी अत्यन्त निवृत्तिमें जो विश्राम, वही "शान्ति" है। "अपंशुनं"-पराई निन्दा-वर्जन। जीवका कल्याण करनेका नाम “दया" है। "अलोलुपता"-लालसा राहित्य । "मार्दव”-कुटिलता-शुन्य अवस्था। बुरे काम काजकी वृत्ति मनमें उदय होते मात्र आप ही आप उसकी प्रतिषेधक वृत्ति मनमें उठ करके जो अवगुण्ठन भाव आता है, उसीको "ही" वा लज्जा कहते हैं। प्रयोजनसे अधिक चञ्चलता न दिखलानेका नाम "अचपलता" है। "तेजः".-प्रताप; प्राण जाय सो भी कबूल, परन्तु अधिक्षेपादि को (निन्दादि की ) असहन, अर्थात् निन्दा सहन करना होगा, ऐसा कोई काम काज प्राणान्त होनेसे भी न करना ( ऐसा दृढ़ता)। "आमा"-प्रतिफल देनेकी शक्ति रहनेसे भी परकृत अनिष्टमें उपेक्षा करना। "धृति"-धारणावती शक्ति। "शौच" - मनकी स्थिरता ( १३ अः ७म श्लोक)। "अद्रोह"-परजियांसाभाववर्जन । "नातिमानिता”—मैं जैसा अधिकारी हूँ, दूसरेके पास उससे अधिक बड़ाई के लिये आकांक्षा न रखना। ___ यह सब वृत्ति जिस भाग्यवानके अन्तःकरणमें सदा विद्यमान हैं, हे भारत ! उन्होंको देवीसम्पद अभिमुखमें जात कहते हैं ॥१॥२॥३॥ दम्भो दर्पोऽभिमानश्च क्रोधः पारुष्यमेव च । अज्ञानं चाभिजातस्य पार्थ सम्पदमासुरीम् ।। ४ ॥ अन्वयः। दम्भः (धर्मध्वजित्वं), दर्पः (धनजनविद्यादिनिमित्त चित्तस्यौत्सुक्य), - अभिमानश्च ( आत्मन्यतिपूज्यत्वं ), क्रोधः, पारुष्यं ( निष्ठुरत्वं ) अज्ञानं (अवि Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१८ श्रीमद्भगवद्गीता वेकः ) च एव-एतानि आसु सम्पदं ( असुराणां राक्षसानां च या सम्पत्तिस्ता ). अभिजातस्य ( अभिलक्ष्य जातस्य ) भवन्तोत्यर्थः॥४॥ अनुवाद। दम्भ, दर्प अभिमान, क्रोध निष्ठुरता और अधिवेक यह सब आसुरी सम्पद भमिमुखमें जात मनुष्यका होता है ॥ ४॥ व्याख्या। "दम्भ”–अपने सम्मानकी लालसामें धार्मिकता दिखलाना वा दूसरेको वचना करनेके लिये काम काजका अनुष्ठान करना। "दर्प”–अहंकारका भाव दिखलाना। "अभिमान”–धन, विद्या, कुल, श्रात्मीय आदिके सम्बन्धमें अत्यल्प दुःख, क्षोभ, अनादर वा अपमान बोध होनेसे अत्यधिक भाव दिखलाना। कामना प्रतिहत होनेसे अन्तःकरणमें जिस वृत्तिका उदय हो उसीको “क्रोध" कहते हैं। "पारुष्य"-रूढ़ता (कर्कशता)। जो जैसा है उसके विपरीत बोधनका नाम “अज्ञानता" है। हे अर्जुन ! आसुरी सम्पद अभिमुखमें जात अन्तःकरणमें यही सब रहता है ॥ ४॥ दैवी सम्पद्विमोक्षाय निबन्धायासुरी मता। मा शुचः सम्पदं देवीमभिजातोऽसि पाण्डव ॥५॥ अन्वयः। दैवी सम्पद् विमोक्षाय आसुरी ( सम्पद् ) निबन्धाय मता। हे पाण्डव ! माशुचः (शोकं मा कार्षां), यतस्त्वं देवीं सम्पदं अभिजात असि ॥ ५॥ अनुवाद। देवी सम्पद् मोक्षके निमित्त और आसुरी सम्पद बन्धनके निमित्त है। हे पाण्डव ! शोक न करना, तुम दैवी सम्पद अभिसुखमें जन्म लिये हो ॥ ५॥ व्याख्या। देवी-सम्पद्-जात जीव मुक्तिको पाते हैं। और आसुरी-सम्पद्-जात जीव बन्धनमें फंसते हैं। इस समय साधकके अन्तःकरणमें "मैं कौन सम्पमें जात हूँ" यह प्रश्न उठनेसे साधक पापही आप आत्मबोधसे अपने प्रश्नका उत्तर देते हैं; हे पाण्डव ! शोक करनेका कोई प्रयोजन नहीं है। (इस स्थानमें अर्जुनका प्रथम अध्यायवाला विषाद अब दूर हुआ)। तुम देवी-सम्पद्-जात हो,. प्रतएव तुम्हारी मुक्ति अनिवार्य है ॥५॥ Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१६. षोड़श अध्यायः द्वौ भूतसौं लोकेऽस्मिन्दैव आसुर एव च। . देवो विस्तरशः प्रोक्त श्रासुरं पार्थ मे शृणु ॥ ६ ॥ अन्वयः। हे पार्थ । अस्मिन् लोके द्वौ ( द्विप्रकारौ ) भूतसौं (भूताना मनुष्याणां सौं स्वभावौ )-देवः आसुरश्च एव। देवः ( देवसर्गः ) विस्तरशः ( अभयं सत्त्वसंशुद्धिरित्यादिना विस्तरप्रकारेः) प्रोक्तः ( कथितः.) आसुरं मे ( ममः वचनादुच्यमानं ) शृणु ( अवधारय ) ॥ ६ ॥ अनुवाद। हे पार्थ! इस जगत्में दो प्रकारका भूतसर्ग है,-दध और आसुर । दैव विस्तर रूपसे कहा हुआ है, ( अब ) आसुर मुझसे श्रवण करो ॥ ६ ॥ व्याख्या। इस लोक-जगत्में जितने प्रकारके भूत (प्राणी ) हैं,. उन सबका दो प्रकारका सर्ग ( स्वभाव ) है। एक दैवी स्वभाव और दूसरा आसुरी स्वभाव । हम अध्यायका १२ वा श्लोककी राक्षसी और मासुरी दोनों प्रकृतिको ही यहाँ एक बातमें आसुरी सर्ग वा स्वभाव कहा हुआ है। मनुष्यका इन दोनों सर्गको ही सम्पद कह करके वर्णन किया गया है। देवीसम्पद विमुक्तिका कारण है, इसीलिये उपादेय और ग्रहणयोग्य है और आसुरीसम्पद निबन्धका कारण है, अतएव, हेय और त्याज्य है। जो सम्पद दैवी तथा ग्रहणीय है, जिसके रहने से मनुष्य देव-स्वभाव सम्पन्न होते हैं, उसे विस्तार रूपसे सारी गीता में ही कहा हुआ हैं, अर्थात् २य अध्यायमें स्थितप्रज्ञके लक्षणमें, १२ अध्यायमें भक्तके लक्षणमें, १३ वा में ज्ञानके वर्णनमें, १४ वां में गुणा-. तीत पुरुषके लक्षणमें और १६ शके १-३य श्लोकमें समझा दिया गया . है। और जो सम्पद आसुरी है जिसके रहनेसे मनुष्य असुर-स्वभाव सम्पन्न तथा राक्षस स्वभाव सम्पन्न होता है, इसलिये जो त्याज्य हैं उन सबको जानना चाहिये। अतएव अब भगवान उन सबका हो वर्णन करते हैं ॥६॥ Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२० श्रीमद्भगवद्गीता प्रवृत्तिं च निवृत्तिं च जना न विदुरासुराः। न शौचं नापि चाचारो न सत्यं तेषु विद्यते ॥७॥ अन्वयः। आसुराः ( असुरस्वभावाः ) जनाः ( धर्म ) प्रवृत्ति (अधमात् ) 'निवृत्तिं च न विदुः ( न जानन्ति ), अतः तेषु न शौचं न आचारः न च अपि सत्यं 'विद्यते ॥ ७॥ अनुवाद। असुर-स्वभाव-सम्पन्त लोग प्रवृत्ति और निवृत्तिको नहीं जानते, (इसलिये ) उन सबके भीतर शौच नहीं, आचार नहीं और सत्य भी नहीं -रहता ॥ ७॥ व्याख्या। पुरुषोत्तम वा पुनः ब्रह्मत्वको प्राप्त होनेके लिये जो साधन-निष्ठा, उसीको प्रवृत्ति (प्र=सर्वतोभाव + वृत्ति ) कहते हैं । और ब्रह्मत्व प्राप्त होनेके पश्चात् जो सनातन विश्राम, वही निवृत्ति है। जब किसी वृत्तिके उदय होनेका कारण पर्यन्त नष्ट हो जाता है वही निवृत्ति अवस्था है। आसुरी सम्पद-जात अन्तःकरणमें इन दोनोंका हो अभाव है। प्रवृत्ति और निवृत्ति किसको कहते हैं, इसे वह लोग जानते ही नहीं। “शोच"-१३ अः ८म श्लोककी व्याख्या देखो। "आचार"-स्नान आचमनादि व्यवहार। “उपनीय गुरुः शिष्यं शिक्षयेत् शौचमादितः। प्राचारमग्निकार्यच सन्ध्योपासनमेव च ॥" "सत्य"—परहित। आसुरो अन्तःकरणमें शौच, प्राचार, सत्य. :इन तीनोंका ही स्थान नहीं है ॥ ७॥ असत्यमप्रतिष्ठन्ते जगदाहुरनीश्वरम् । अपरस्परसम्भूतं किमन्यत् कामहैतुकम् ॥ ८॥ अन्वयः। ते (आसुरा जनाः ) जगत् असत्यं ( नास्ति सत्यं वेदपुराणदि'प्रमाणं यस्मिन् तादृशं ) अप्रतिष्ठं (नास्ति धर्माधर्मरूपा प्रतिष्ठा व्यवस्थाहेतुर्यस्य तत् ) अनीश्वरं ( नास्तीश्वरः कत्ता व्यवस्थापकश्च यस्य तादृशं) अपरस्परसम्भूतं ( अपरस्परतः अन्योन्यतः स्त्रीसयोमिथुनात् सम्भूतं ) किमन्यत् कामहैतुकम् Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षोड़श अध्याय २२१ ( कारणमस्य नास्त्यन्यत् किञ्चित् किन्तु स्त्रीपुसयोरुभयोः काम एव प्रवाहरूपेण हेतुरस्येत्यर्थः ) माहुः ॥ ८॥ अनुवाद। वे लोग कहते हैं कि, जगत् असत्य, अप्रतिष्ठ, अनीश्वर और अपरस्पर-सम्भूत है; इसका दूसरा और कोई कारण नहीं है, यह कामहेतुक है ॥ ८॥ व्याख्या। होता है, रहता है, जाता है, जिस प्रकार देखता हूँ, यह ऐसा ही है। धर्माधर्म कह करके कोई कुछ नहीं। सत्य और ईश्वर भी कोई नहीं है । स्त्री पु' मैथुनमें काम-केलिसे जगत्की उत्पत्ति मात्र है। शरीरका यत्न और भोग करना ही जगत्में सार्थकता है। आसुरी अन्तःकरणकी इस प्रकार ही धारणा है ॥ ८॥ एतां दृष्टिमवष्टभ्य नष्टात्मानोऽल्पबुद्धयः । प्रभवन्त्युप्रकर्माणः क्षयाय जगतोऽहिताः ॥ ६ ॥ अन्वयः। नष्टात्माः अल्पबुद्धयः (ते आसुराः जना8 ) एतां दृष्टि अवष्टभ्य: ( आश्रित्य ) उग्रकर्माणः जगतः अहिताः (शत्रवः भूत्वा ) क्षयाय प्रभवन्ति ॥ ९॥ अनुवाद। नष्टात्मा अल्पबुद्धिशाली वह सब असुर-स्वभाव सम्पन्न लोग इस प्रकार दृष्टिका आश्रय करके उग्रकर्मा तथा जगत्के शत्रु हो करके क्षयके निमित्त उद्भत होते हैं ॥९॥ व्याख्या। वही असुर-स्वभावसम्पन्न लोग 'नष्टात्मा' अर्थात् वह सब सत्व प्रभाववर्जित रजस्तम गुण करके आबद्ध रहनेसे उन लोगोंके चित्तमें आत्माका अनन्त अव्यय भाव प्रकाश नहीं होता, वे सब स्वभाव-भ्रष्ट हैं, इसलिये वे सब अल्पबुद्धि होते हैं। जो चीज भोग करनेसे एकदम क्षय हो जाय, वही अल्प है, जो कभी भय न होय, वही अनन्त है। आत्माकी तुलनामें यह देह अल्प है। वह लोग "मैं आत्मा हूँ" यह भाव हृदयमें नहीं ले सकते; "देह ही मैं हूँ". . यह धारणा करके देहके सुख-सेवामें ही व्यापृत (रत ) होते हैं। यह देहाभिमान उन लोगोंमें पूर्णमात्रामें रहनेसे वह सब “अल्पबुद्धि"" Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२२ । श्रीमागवद्गीता हैं। इस अल्पबुद्धि प्रयुक्त वह लोग "यह जगत् स्त्री पुरुष संसर्गसे ‘उत्पन्न, काम ही इसका कारण है, इसके अतिरिक्त इसका और कोई दूसरा कारण नहीं.है" इस प्रकार सिद्धान्त दृष्टिका आश्रय करके, 'अर्थात् इस प्रकार नजरसे जगत्को देखता रहता है। इस प्रकार -स्वभावभ्रष्ट अल्पबुद्धि तथा काम-परायण होनेसे वे लोग परलोक और साधनको नहीं मानते, इसलिये वे लोग नाना प्रकारके उप हिंसात्मक कर्ममें प्रवृत्त होते हैं और जगत्का (प्राणिसाधारणका ) अहिताचरण करते हैं। इस कारण करके वे लोग केवल जगत्के क्षय के निमित्त ही जैसे प्रादुर्भूत होते हैं। मृत्यु ही जगत्का क्षय है। अर्थात वे लोग जन्म लेकर बार बार मरते ही रहते हैं; जन्म-मृत्यु रूप क्षयोदयको ही वे लोग भोग करते रहते हैं। इससे वे लोग कभी निष्कृति नहीं पाते। ( पश्चात् १६।२० श्लोक देखो) ॥६॥ काममाश्रित्य दुष्पूरं दम्भमानमदान्विताः। मोहाद् गृहीत्वाऽसद्ग्राहान् प्रवर्त्तन्तेऽशुचिव्रताः ॥ १० ॥ अन्वयः। (ते) दुष्पूरं ( पूरयितुमशक्यं ) कामं आश्रित्य दम्भमानमदान्विताः सन्तः मोहात् असााहान् गृहीत्वा ( अनेन मन्त्रेणतां देवतामाराध्य महानिधीन् साधयाम इत्यादीन् दुराग्रहान् मोहमात्रेण स्वोकृत्य ) अशुचिव्रताः सन्तः (अशुचीनि • मद्यमांसादिविषयानि व्रताणि येषां ते ) प्रवत्तन्ते ॥१०॥ अनुवाद। ( वे लोग ) दुष्पूरणीय कामको आश्रय करके दम्भ, मान और मदयुक्त हो करके मोहवशतः ( इस मन्त्रसे इस देवताकी आराधना करके महानिधि समूह को प्राप्त होऊंगा इत्यादि प्रकार ) दुराग्रह समूहका अवलम्बन करके ( मय मांसादि विषयक) अशुचिव्रतपरायण हो करके (क्षुद्र देवताओंकी आरावनादिमें ) प्रवृत्त होते हैं ॥१०॥ व्याख्या। “असद्ग्राह" = जो सब अाग्रह वा इच्छा अखत् अर्थात् अशुभकर है, मुक्तिमार्गका प्रतिबन्धक स्वरूप है, बैसे फलाना मन्त्र सिद्ध करके स्तम्भन वशीकरण, उच्चाटन प्रभृति सीखूगा, फलाना Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२३ षोडश अध्याय देवताकी अराधना करके प्रचूर अर्थ सञ्चय करूंगा, सर्वज्ञ होऊंगा, "असाध्य साधन करूंगा; इत्यादि प्रकारकी अनित्य सुखकी चेष्टा है। .. "अशुचिव्रताः"-जिन सबका व्रत अशुचि है। व्रत-नियम । किसी विषयमें सिद्धि लाभ करना हो तो आहार व्यवहारादिमें जिस नियमका पालन करने होता है, वही व्रत है। जिस प्रकार आहार व्यवहार द्वारा शरीरमें सत्त्वगुणकी वृद्धि हो, हृदयमें शान्त तेजका सन्चार हो, मन शुद्ध हो करके चञ्चलता ( संकल्प विकल्प ) को त्याग करे और सद् वस्तुको लक्ष्य करनेके लिये समर्थवान हो, वही शुचि व्रत है। जैसे सात्त्विक आहार, सात्त्विक व्यवहार इत्यादि। और जिस प्रकार आहार व्यवहारसे रज और तमोगुण बढ़ता है, मनमें चञ्चलता और मत्तता आती है, अहंकार बढ़ता है, सद्वस्तु लक्ष्य करनेकी शक्ति नहीं रहती, वे सब अशुचि व्रत हैं, जैसे राजसिक 'और तामसिक आहार व्यवहार इत्यादि। दुष्पूरणीय आकांक्षाको आश्रय करके ( जैसे भूत, यक्ष, नायिकादि साधन करके इन्द्रियका भोग चरितार्थ करनेके लिये वासना) दम्भमान-मद मोहित अविवेकियोंके ग्रहणीय जो अशुभ हैं, उन्हें ही ले लेते हैं। और मदिरा, मांस आदि सेवनरूप अशुचि व्रतमें दीक्षित होते हैं ॥ १० ॥ चिन्तामपरिमेयाच प्रलयान्तामुपाश्रिताः। कामोपभोगपरमा एतावदितिनिश्चिताः॥ ११ ॥ आशापाशशतैर्बद्धाः कामक्रोधपरायणाः। ईहन्ते कामभोगार्थमन्यायेनार्थसब्चयान् ॥ १२ ॥ अन्वयः। प्रलयान्तां (प्रलयोमरणमेवान्तो यस्यास्तां ) अपरिमेयां (परिमातुमशक्यां ) चिन्ता उपाश्रिताः ( नित्यचिन्तापरा इत्यर्थः) काभोपभोगपरमाः ( कामाः शब्दादयस्तदुपभोग एव परमो येषां ते ) एतावदिति निश्चिताः (कामोपभोग एव परमो येषां ते ) एतावदिति निश्चिताः (कामोपभोग एव परमः पुरुषार्थो नान्यदस्तीति Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२४ श्रीमद्भगवद्गीता कृतनिश्चयाः ) आशापाशशतः ( आशा एव पाशास्तेषां शतैः ) बद्धाः ( इतस्ततः आकृष्यमाणाः ) कामक्रोधपरायणाः ( कामक्रोधौ परमयनमाश्रयो येषां ते) कामभोगार्थ अन्यायेन ( चौादिना ) अर्थसञ्चयान् ( अर्थानां संचयान् राशीन् ) ईहन्ते ( इच्छन्ति ) ॥ ११ ॥ १२ ॥ अनुवाद। मरण कालपर्यन्त स्थायी अपरिमेय चिन्ताका आश्रय करके कामोपभोग परायण हो करके, कामोपभोग ही परम पुरुषार्थ है, इस प्रकार कृतनिश्चय हो करके हजारों आशापाश करके आबद्ध काम-क्रोध-परायण ऐसे सब आसुरिक लोग काम भोगके लिये अन्याय पूर्वक बहुत बहुत अर्थ संचय करनेकी इच्छा रखते हैं ॥ ११॥ १२॥ · व्याख्या। साधनसे देवताको वशीभूत करके आकाशमें नगर बना करके जलमें, स्थलमें, अन्तरीक्षमें तथा भूगर्भ में प्रवेश करके इन्द्रिय-भोगके चरम करण करूगा, इस प्रकार अपरिमेय चिन्ताको हृदयमें पोषण करते हुए मरणान्त दिन पर्यन्त इसी चेष्टामें ही काल व्यतीत करते हैं। वे उस आशापाशमें जड़ित हो करके (बारंबार विफलतामें ) काम क्रोधके आश्रय लेकर कामभोगकी प्रयोजन लालसामें परस्वापहरणमें ( पराये धनको हरण करनेके लिये ) वन्चनादि अधर्म कार्यमें प्रवृत्त होते हैं ॥ ११ ॥ १२ ॥ इदमद्य मया लब्धमिदं प्राप्ये मनोरथम् ।। इदमस्तीदमपि मे भविष्यति पुनधनम् ।। १३ ।। असौ मया हतः शत्रुहनिष्ये चापरानपि । ईश्वरोऽहमहं भोगी सिद्धोऽहं बलवान् सुखी ॥ १४ ॥ आत्योभिजनवानस्मि कोऽन्योस्ति सदृशोमया। यक्ष्ये दास्यामि मोदिष्य इत्यज्ञान विमोहिताः ॥ १५॥ अनेकचित्तविभ्रान्ता मोहजालसमावृताः । प्रसक्ताः कामभोगेषु पतन्ति नरकेऽशुचौ ॥ १६ ॥ अन्धयः। अद्य मया इदं लब्धं, इदं मनोरथं ( मनस्तुष्टिकरं ) प्राप्स्ये, इदं धनं अस्ति, पुनः भे इदं (धन) भविष्यति, असौ शत्रु: मया हतः, अपरान् ( शत्रून् ) Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षोड़श अध्याय २२५ अपि च हनिष्ये, अहं ईश्वरः, अहं भोगी, अहं सिद्धः ( कृतकृत्यः ) बलवान् सुखी आढ्यः (धनादिसम्पन्नः ) अभिजनवान् ( कुलोनः ) अस्मि, मया सदशः अन्यः कः अस्ति ? ( अहं) यक्ष्ये ( यागेनापि अन्यान भिभविष्यामि ) दास्यामि मोदिष्ये (हर्ष प्राप्स्यामि )-इति ( एवम्प्रकारेण ) अज्ञानधिमोहिताः ( अविवेकभावापन्नाः) अनेकचित्तविभ्रान्ताः ( अनेकषु मनोरथेषु प्रवृत्त चित्त अनेकचित्तं तेन विभ्रान्ताः विक्षिप्ताः ) मोहजालसमावृताः ( मोहमयेन जालेन समावृताः) कामभोगेषु प्रसक्ताः ( अभिनिविष्टाः ) सन्तः अशुचौ नरके पतन्ति ॥ १३ ॥ १४ ॥ १५ ॥ १६ ॥ अनुवाद। आज हमें यह ( मनोरथ ) लाभ हुआ, यह मनोरथ पाऊंगा, यह धन मेरा है, फिर मेरे इतना धन होगा; हमसे यह शत्रु मारे गये, दूसरे शत्रुओंको भी मारूंगा; मैं ईश्वर हूँ, मैं भोगी हूँ, मैं सिद्ध, बलवान, सुखी, धनादिसम्पन्न और कुलोन हूँ, मेरे सदृश दूसरा कौन है ? मैं याग करूंगा, दान करूंगा, आनन्द पाऊंगा। -इस प्रकारको अज्ञानतासे विमोहित वे सब आसुरिक लोग अनेक विषयों में प्रवृत्तचित्त द्वारा विक्षिप्त, मोहजालसे समावृत्त और कामभोगमें आसक हो करके अशुचि नरकमें पतित होते हैं ॥ १३ ॥ १४ ॥ १५ ॥ १६ ॥ व्याख्या। आज हमने इतना (धन) पाया, इससे फलाना मनोरथ पूर्ण करूंगा। इतना (धन ) हमारा है, भविष्यत् में और इतना पाऊंगा तब ही मेरा नाम धनवान होगा। फलाने शत्रुको मैं मार चुका और फलानेको मारूंगा। मैं ईश्वर, मैं भोगी, मैं सिद्ध पुरुष, मैं बलवान, मैं सुखी, धनवान और ज्ञानवान हूँ, मेरे समान और कौन है ? मैं याग यज्ञ रासधारियों को लीलामें इतना खर्च कर सकता हूँ। जो इस प्रकार अज्ञानतासे विमोहित हैं और भी बहुत प्रकारके चित्त विभ्रमसे ( चिन्तादिमें पड़ करके ) श्रावृत, तथा कामभोग-लालसामें आसक्त हो करके कभी जो अपना होनेवाला नहीं, उसको भी अपना निश्चय करके उसके प्रणयमें डूबकर प्रतिक्षण में उस उस प्रकार चिन्तामें मग्न रहते हैं, इन सबके गाढ़ अभ्यासके लिये मृत्युकालमें कामाकारा वृत्तिके उदय होनेसे ("या मतिः सा गतिर्भवेत्" ) अशुचि नरकमें (श्राहार-निद्रा-मैथुन भय-सुलभ योनिमें) -१५ Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२६ श्रीमद्भगवद्गीता पतित होते हैं ( जन्म लेते हैं )। यह सब वृत्ति ही चित्तकी निम्नस्तरमें संसार-नरक मोगका खेल है ॥ १३ ॥ १४॥ १५ ॥ १६ ॥ आत्मसम्भाविताः स्तब्धा धनमानमदान्विताः। यजन्ते नामयज्ञैस्ते दम्भेनाविधिपूर्वकम् ॥ १७ ॥ . अन्वयः। आत्मसम्भाषिताः (आत्मनैव सम्भाषिताः पूज्यता नीता न तु साधुभिः ) स्तब्धाः ( अनम्राः) धनमानमदान्विताः ( धनेन यो मानो मदश्च ताभ्यां समन्विताः ) सन्तः ते ( आसुराःजनाः ) दम्भेन ( धर्मध्वजितया ) नामयज्ञः (नाममात्रैः यज्ञ: ) अविधिपूर्वकं यजन्ते ॥ १७॥ अनुवाद। आपही आप पूज्यताको प्राप्त, अनम्र तथा धनजनित मान और मद्रयुक्त हो करके वे लोग दम्भके साथ नाम मात्र यज्ञ द्वारा अविधिपूर्वक यजन करते हैं ॥ १७ ॥ व्याख्या। वे सब आसुर लोग मानते हैं कि सर्वगुणान्वित मेरे बिना और किसीने भी आज तक जन्म नहीं लिया। धनकी गर्मीसे वह लोग गुरुको भी नहीं मानते, किसीके सामने सिर झुकाने नहीं चाहते। यज्ञका प्रारम्भ करते हैं, परन्तु लोगोंको दिखलाकर अपना नाम बढ़ानेके लिये; श्रद्धा सहकार नहीं करते। अहंकारके वश उन सबका यज्ञ विधिपूर्वक नहीं होता। यज्ञका विहित अङ्ग जो साविकता है, उसे नष्ट करके नाममात्रके लिये वृथा यज्ञ-कर्ता बनते हैं ॥ १७॥ अहंकारं बलं दर्प कामं क्रोधं च संश्रिताः। मामात्मपरदेहेषु प्रद्विषन्तोऽभ्यसूयकाः ॥ १८ ॥ अन्वयः। ( यतः.) अहंकारं बलं दपं काम क्रोधं च संश्रिताः सन्तः अभ्यसूयकाः ( सन्मार्गवत्तिनां गुणेषु दोषारोपकाः ते आसुराः जनाः ) आत्मपरदेहेषु ( आत्मदेहे परदेहेषु चिदंशेन स्थितं ) मा प्रद्विषन्तः [यजन्त इति पूर्वेण सम्बन्धः ] ॥१८॥ Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षोड़श अध्याय २२७ अनुवाद। (क्योंकि ) अहंकार, बल, दर्प, काम क्रोधका आश्चय करके पराये गुणमें दोषको आरोपित करनेवाले वे सब असुर लोग आत्मदेहमें तथा परदेहमें मुमको द्वेष करके ( यजन करते रहते हैं)॥१८॥ व्याख्या। इन सब पासुरिक स्वभावके लोग आप गुणहीन मूर्ख हो करके भी विद्वान और गुणियोंकी मर्यादा अपनेमें ले करके विद्वान और गुणी बनकर, सन्मार्गवत्तियोंके गुणमें दोषका आरोप करते रहते हैं, तथा घोर अविद्याके प्रकाश अहंकार, बल, दर्प, काम और क्रोधका आश्रय करके सर्व अनर्थके मूल होते हैं। ऐसे कि इस जगत् में जितने स्त्री, पुरुष, जीव, जानवर, पैदा हुए हैं, सब उन लोगोंके ही भोग-सुख-चाकरीके लिये सृष्ट हुए हैं ऐसा मानते हैं। एक ही चिदंश जो “मैं” रूपसे उन लोगोंके अपने देहमें तथा पराएके देहमें है, वे लोग उसे नहीं मानते, हृदयमें धारणा भी नहीं कर सकते। अतएव वे लोग अपने देहमें तथा पराएके देहमें स्थित प्रकृत "मैं" का द्वष करते रहते हैं। क्योंकि यह सब असुर प्रकृतिके लोग अपने देह को ही “मैं” मानते हैं, देहके ऊपर ही उन लोगोंकी "मैंत्व” बुद्धि प्रयुक्त होती है; देह छोड़ करके स्वतन्त्र जो एक आत्मा है, वही जो एकमात्र “मैं” शब्द वाच्य और सर्व देहमें समान भावसे विराजमान है, उसे छोड़ करके यह देह (जो दहन होता है ) “मैं” शब्द वाच्य नहीं हो सकता, वे लोग उस वचनको धारणामें भी नहीं ला सकते । इसलिये वे लोग जो कुछ काम काज करते हैं, उसीमें ही "मैं कर्ता, मैं भोक्ता" इस प्रकारकी धारणासे उन लोगोंके अपने देहमें स्थित उसी यथार्थ "मैं” को द्वष करना होता है, और अपनी ही भोग्यवस्तु समझके प्राणी वध और प्राणी पीड़नादि द्वारा पराए देहमें भी उसी "मैं” को द्वष करना होता है। इस कारणसे उन सबकी यजन क्रिया अविधिपूर्वक होती है, विधिपूर्वक नहीं होती ॥ १८ ॥ Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२८ श्रीमद्भगवद्गीता तानहं द्विषतः क्रूरान् संसारेषु नराधमान् । क्षिपाम्यजस्रमशुभानासुरीष्वेव योनिषु ॥ १६ ॥ अन्वयः। अहं [ मां ] द्विषत: तान् क्रूरान् अशुभान् नराधमान् संसारेषु (जन्ममृत्युमार्गेषु ) आसुरीषु एव ( अतिकरासु व्याघ्रसादियोनिषु ) अजस्र ( अनपरतं ) क्षिपामि ( तेषां पापकर्मणां तादृशं फलं ददामीत्यर्थः) ॥ १९॥ अनुवाद। मुझको द्वष करनेवाले उन सब कर अशुभ नराधर्मोको मैं संसारकी आसुरी योनिमें ही निरन्तर फेकता रहता हूँ ॥ १९॥ व्याख्या। "अह" = कूटस्थ चैतन्य वा अक्षर पुरुष। यह अहं ही सर्वक्षेत्रमें क्षेत्रज्ञ है। यह पुरुष ही सर्वभूतमें सम है; इनका कोई द्वष्य नहीं और प्रिय भी नहीं है। (हम अः २६ श्लोक )। यही पुरुष कर्मफल-विधाता है। जिसका जैसा कर्म है उसको वैसा फल देते हैं—केशाप्रका कोटि भागैक भाग भी इधर उधर नहीं होता। यही पुरुष "सर्वस्य हृदि सन्निविष्टः" है; इन्होंसे ही स्मृति, ज्ञान और इन दोनोंका विलय भी होता है ( १५ शमः १५ श श्लोक ); और यह पुरुष ही सर्वनियन्ता ईश्वर रूपसे स्वकीय स्वभावज कर्ममें निबद्ध जीव को तत्तत्कममें भ्रमण करवाते हैं ( १८ अः ६०।६१ श्लोक ) जीव जिस काजका प्रारम्भ करता है, जीवको उसी कर्ममें उसके पूर्वकृत कर्मफल के अनुसार शुभ अशुभ फल देनेके लिये उसकी बुद्धिवृत्तिको तदनुरूप से चलाते हैं। तैसे प्रयाण-कालमें भी जीवको उसके कर्म अनुसार गति देनेके लिये उसके मनमें तदनुरूप भावका स्मरण करा देते हैं। जीव जिस भावको स्मरण करके मरता है, पश्चात् जन्ममें उसी भावको ही प्राप्त होता है। मृत्युकालमें श्रात्मभाव स्मरण होनेसे ही प्राकृतिक अधिकारसे मुक्त होता है; नहीं तो प्रकृतिके गर्भके भीतर जन्ममृत्यु-प्रवाहमें चकर खाता रहता है। इसी प्रकारसे कर्मफल विधान करना ही अन्तर्यानी ईश्वरका कार्य है। Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२६ षोड़श अध्याय __अब बात यह है कि असुर-स्वभाव वाले लोग देहात्माभिमान सम्पन्न, आत्मद्वषी, क्रूरमति तथा अशुभकारी होते हैं। इसलिये प्रयाण-कालमें भगवान उन सबके मनमें देहभावका स्मरण करा देते हैं। इसलिये उन सबको जन्ममृत्युसंकूल संसारमार्गमें देह धारण करना होता है, वे सब पुनः आत्मद्वषी करमति और अशुभकारी होते हैं। बार बार इस प्रकार होते रहनेसे उन सबका क्रम अधोगति दिशामें जाता रहता है। वे सब श्रात्मद्रोही भीषण प्रकृतिके मनुष्यसे क्रम अनुसार व्याघ्र सर्प प्रभृति आसुरी योनिमें पड़ते रहते हैं। इस प्रकारसे वे लोग अपना अपना कर्मफल आप भोगते रहते हैं ॥ १६ ॥ आसुरों योनिमापन्ना मूढ़ा जन्मनि जन्मनि । मामप्राप्येव कौन्तेय ततो यान्त्यधमा गतिम् ॥२०॥ अन्वयः। हे कौन्तेय ! (ते ) मूढाः जन्मनि जन्मनि आसुरी योनि आपन्ना: मां अप्राप्य एव ततः ( तस्मादपि ) अधमा गति ( कृमिकीटादिगति) यान्ति ॥२०॥ अनुवाद। हे कौन्तेय ! वे ( सब ) मूढगण जन्म जन्म आसुरी योनिको प्राप्त होकर, मुझको न पाके उससे भी अधम गतिको प्राप्त होते हैं ॥ २०॥ व्याख्या। हे कौन्तेय ! आसुरी योनिगत वे मूढजन मुझको प्राप्त न होकर हमसे अतीव दूरमें जाकरके मेरी ज्योतिके अन्तरालमें तमोबहुल नीच जन्म लेने लेते निस्तरंग अवोचि-नरकके कीट होकरके रहते हैं । उन सबको फिर "मैं" त्व पानेका उपाय नहीं रहता ॥२०॥ त्रिविधं नरकस्येदं द्वारं नाशनमात्मनः। . कामक्रोधस्तथा लोभस्तस्मादेतत्त्रयं त्यजेत् ॥ २१॥ अन्वयः। कामः क्रोधः तथा लोभः इति इदं त्रिविध नरकस्य द्वार अतएष आत्मनः नाशनं ( नौचयोनिप्रापकं ), तस्मात् एतत्त्रयं [ सर्वात्मना ] त्यजेत् ॥ २१॥ Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३० श्रीमद्भगवद्गीता - अनुवाद। काम, क्रोध और लोभ यह तीन प्रकारके नरकके दरवाजे हैं तथा आत्माके नाशक (नीच योनि प्रापक ) हैं; इसलिये इन तीनों को सर्वथा परित्याग करना चाहिये ॥ २१॥ - व्याख्या। "नरक”-(न-नास्ति, रं=प्रकाश, कं=मस्तक) मस्तकमें आत्मज्योतिका प्रकाश जिस अवस्थामें नहीं रहता वही नरक है; अर्थात् अज्ञानता वा विवेकहीन अवस्था ही नरक है। यह जो नरक है इसके द्वार तीन हैं एक काम, दूसरा क्रोध, और तीसरा लोभ। इस काम, क्रोध और लोभके वश होनेसे ही उस नरक अवस्थाकी प्राप्ति होती है और आत्माका नाश होता है अर्थात् आत्मज्ञान ढंक जानेसे जीवात्माकी अधोगति होती है, नीच योनि प्राप्ति होती है। अतएव यह तीनों वृत्तियां मुमुक्षुओं के लिये त्याज्य हैं ॥ २१॥ एतैविमुक्तः कौन्तेय तमोद्वारैत्रिभिर्नरः । आचरत्यात्मनः श्रेयस्ततो याति परां गतिम् ॥ २२ ॥ अन्वयः। हे कौन्तेय। तमोद्वारैः ( तमसो नरकस्य द्वारभूतैः ) एतैः त्रिभिः (कामादिभिः ) विमुक्तो नरः आत्मनः श्रेयः ( तपोयोगादिक श्रेयःसाधनं ) आचरति ततश्च परां गतिं याति ( मोक्ष प्राप्नोति ) ॥ २२ ॥ अनुवाद। हे कौन्तेय । नरकके द्वार स्वरूप इन तीनोंसे विमुक्त होनेसे ही मनुष्य अपना श्रेयः (कल्याण) आचरण करता है, परागति भी प्राप्त होती है ॥२२॥ व्याख्या। हे कौन्तेय ! काम, क्रोध और लोभ, इन तीनोंके विशेष रूपसे छूट जानेसे ही प्राकृतिक तमोका दरवाजा अतिक्रम हो जाता है। तब सुषुम्नामें प्रवेशाधिकार प्राप्त होनेसे अविरोधी आत्मज्योतिका प्रकाश होता है, और आत्मयोगके आचरण करनेके लिये साधक निःश्रेयस जो परागति है, उसे ही पाता है। ब्रह्ममें मिल करके ब्रह्मत्व लेता है। फिर आने जानेका कोई काम नहीं रहता ॥२२॥ Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षोडश अध्याय २३१ यः शास्त्रविधिमुत्सृज्य वर्तते कामचारतः । * ... न स सिद्धिमवाप्नोति न सुखं न परी गतिम् ॥ २३ ॥ अन्वयः। यः शास्त्रविधि ( वेदविहितं धर्म ) उत्सृज्य ( त्यक्त्वा ) कामचारतः ( यथेष्ट ) वर्तते, सः सिद्धिं ( तत्वज्ञानं ) न अवाप्नोति, न च सुख ( उपशमं ) न च परां गतिं (मोक्ष) अवाप्नोति ॥ २३ ॥ अनुवाद। शास्त्र विधि परित्याग करके, ज' स्वेच्छाचारी होते है, वे सिद्धिको नहीं पाते, सुख नहीं पाते और परागतिको भी प्राप्त नहीं होते ॥ २३ ॥ व्याख्या। शास्त्र अर्थमें वेद, और विधि अर्थमें नियम है। वेदविहित धर्म वा नियमको शास्त्र-विधि कहते हैं। मूलाधारादि सहस्रार पर्यन्त क्रम अनुसार भूः भुवः स्वः महः जनः तपः सत्यं इन सप्त व्याहृति स्थानके ज्ञानको वेद कहते हैं (२ अः४५ श्लोक व्याख्या देखो)। इस वेद वा ज्ञानमें जीवकी आत्मोन्नति साधन होती है । इसलिये शास्त्रविधिका अर्थ आत्मोन्नति सम्बन्धीय वेदके नियम है । वेद ब्रह्माजीके मुख कमलसे उच्चारित हुए हैं; ब्रह्मदेवका वाक्य ही शास्त्र है। सृष्टिकर्ता ब्रह्मा मूलाधार कमलमें ही साधकके नयन गोचरमें आते हैं। सृष्टि के बाद ही सहयज्ञ प्रजागणके ऊपर उनका (ब्रह्माका) प्रथम अनुशासन वाक्य है कि-"देवान् भावयतानेन ते देवा भावयन्तु वः। परस्परं भावयन्तः श्रेयः परमवाप्स्यथः। इष्टान् भोगान् हि वो देवा दास्यन्ते यज्ञभाविताः। तदत्तानप्रदायभ्यो यो भुक्ते स्तेन एव सः।” ३य अः ११ । १२ श्लोक। इस वाक्यमें जीवकी सहज-यज्ञकी कथा ही कही हुई है। यह सहज यज्ञ अर्थात् प्राणायाम क्रिया उस श्लोककी व्याख्यामें समझाया हुआ है। यह वाक्य ही आत्मोन्नति सम्बन्धीय नियम है; यही शास्त्रविधि है। * “कामकारतः" इति पाठान्तरं कामप्रयुक्तः सन् इत्यर्थः ॥ २३ ॥ Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६२ श्रीमद्भगवद्गीता शास्त्रविधि शब्दका और भी एक अर्थ है। जो शासन करता है, उसीको शास्त्र कहते हैं। इस शरीरका शासन-कर्ता वायु है। वायुसे ही शरीरकी क्रिया चल रही है, वायु थोड़ी सी इधर उधर होनेसे फिर शरीर नहीं ठहरता। इसलिये शरीरमें वायु ही शास्त्र है। वायु प्राण-रूपसे जीवकी जीवन रक्षा करता है; यह वायु सम और सूक्ष्म हो करके क्रिया करनेसे जीवको ज्ञान देता है-ब्रह्मत्व देता है, और विकृत होनेसे पागल बनाता है-संसारका कीट करता है। इसलिये शरीरका शासक इस वायुको अपना आयत्त करनेसे ही जीवकी आत्मोन्नति होती है। अतएव इस वायु-क्रियाके सम्बन्धमें जो नियम है वही शास्त्रविधि है; अर्थात् प्राणायाम वा प्राणयज्ञ सम्बन्धीय नियमको ही शास्त्रविधि कहते हैं। यह नियम ब्रह्माजीके उस अनुशासन वाक्य बिना और कुछ भी नहीं है। इस कारणसे शास्त्रविधि शब्दका अर्थ जो कुछ हो, उसका फल एकही है, सहयज्ञ वा प्राणक्रिया का नियम ही शास्त्रविधि है। ब्रह्माजीके मुखसे निकला हुआ यह वेद का विधान है। वेदके गुग्य विषय होनेके कारण भगवान अर्जुनको निस्त्रैगुण्य होनेके लिये उपदेश दिये हैं (२ य अः ४५ श्लोक )। उस उपदेशमें श्रीभगवानने वेद-विधिकी अवहेलना करना नहीं कहा है। वेद-विधि ही निस्वैगुण्य होनेका एकमात्र उपाय है। अंधियारे घरके भीतर अभिलषित चीज देख लेनेके लिये एकमात्र उपाय जैसे दीप ही है, से निस्वैगुण्य होनेके लिये जो एकमात्र उपाय है वह वेद-विधि है। अभीष्ट चीज मिलनेके पश्चात् फिर जैसे उस उजलेका प्रयोजन नहीं रहता, तैसे निस्त्रैगुण्य होनेके पश्चात् फिर उस वेद-विधिसे प्रयोजन * मनुष्य मात्र हा वायुग्रस्त है। जिसको जैसी वायु, वह तैसे ही काज करता है; जसे किसोको साधु होनेके लिये वायु, किसाको बदमाश होनेके लिये वायु इत्यादि प्रकार हैं। इस वायुको ही मनका मक वा प्रवृत्ति कहते हैं ॥ २३ ॥ Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षोड़श अध्याय २३३ नहीं रहता। इसलिये प्रथम साधनमें शास्त्र-विधि त्याग करके जो स्वेच्छाचारी होते हैं, वे भ्रान्त हैं, उनको सिद्धि, सुख, परागति कुछ भी प्राप्ति नहीं होती। षट्चक्रकी क्रिया ही वेदका कर्मकाण्ड और सहस्रार-क्रिया हो ज्ञानकाण्ड हैं। इन दोनों काण्डको साधन द्वारा अतिक्रम न करनेसे गुणातीत निस्त्रगुण्य पद नहीं मिलता। घोड़ेको लांधकर घास खाया नहीं जाता। ३य अ: ११११२वां श्लोककी व्याख्यामें प्राणक्रियाके नियमकी व्याख्याकी हुई है। यहां संक्षेपसे केवल इतना ही कहनेसे होगा कि शरीरके भीतर वायु खींचनेके समय अर्थात् प्रश्वास ग्रहण करनेके समय बाहरवाले आकाशकी विमल वायुको नासारन्ध्र और गलगहर देके वायुपथसे मूलधारमें लाकर उस वायुके साथ साथ गुरूपदिष्ट चित्तपथमें उठकर शक्ति समूहको प्रबोध देते हुए परम शिवमें कुलकुण्णलिनीको मिला करके फिर विपरीत क्रियामें निःश्वास त्यागके साथ "उस वायुको बहिराकाशमें स्थापन करनेको शास्त्रविहित कर्म कहते कहते हैं। इस क्रियाकी संख्या अहोरात्रमें २१६०० बार है। इस विधिसिद्ध क्रियाको परित्याग करके कामाकारा वृत्ति लेके स्वेच्छाचारी हो करके प्रश्वास और निःश्वासका अपव्यवहार जो लोग करते हैं, वे लोग सिद्धि (प्राप्तिकी प्राप्ति ), सुख (ब्रह्मानन्द ), परागति (ब्रह्ममें 'लय ) कुछ भी नहीं पाते ॥ २३ ॥ तस्माच्छास्त्रं प्रमाणन्ते कार्याकार्यव्यवस्थितौ। ज्ञात्वा शास्त्रविधानोक्तं कर्म कत्त मिहाहसि ॥ २४ ॥ अन्वयः। तस्मात् कार्याकार्यव्यवस्थितौ । (कर्तव्याकर्तव्यन्यवस्थायां) ते ( तव ) शास्त्रं (श्रुत्यादिकमेव ) प्रमाणं (ज्ञानसाधनं ); इह ( कर्माधिकारभूमौ ) शास्त्रविधानोक्तं कर्म ज्ञात्वा कत्तु अर्हसि ॥ २४ ॥ Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३४ श्रीमद्भगवद्गीता अनुवाद। उसी कारणसे कार्य तथा अकार्य व्यवस्था सम्बन्धमें शास्त्रहो तुम्हारा प्रमाण है। इस शास्त्र विद्यानोक्त कर्मको जान करके उसे ( साधन ) करनेके लियेयोग्य हो जाओ ॥ २४ ॥ व्याख्या। पूर्व श्लोककी व्याख्या में शास्त्र शब्दकी व्याख्या किया हुआ है। इस श्लोकमें कहा जाता है कि, कार्याकार्य निरूपणमें शास्त्र ही प्रमाण है। इसलिये विशेष करके शास्त्रका परिचय देना आवश्यक है। शास्त्रका परिचय पानेसे ही साधक इस श्लोकका गूढ़भाव हृदयजम कर सकेंगे। पूर्व व्याख्यामें कहा हुआ है कि, वायु शरीरको शासनमें रक्खे हैं,-पचप्राण रूपसे शारीरिक समस्त क्रिया चलाते हैं। इसलिये शरीर में वायु ही शास्त्र है। यह गीतामें है कि “वायुः सर्वत्रगो महान्" (हम अ६ष्ठ श्लोक)। इन्द्रिय वृत्तिसमूह तथा मन, बुद्धि, अहंकार और चित्तकी क्रिया भी वायुक्रियाके वशमें चालित है। इस शरीरमें वायुका शरणापन्न तथा सहचर होनेसे अर्थात् वायुके वशमें क्रिया करते हुए भक्ति-विनम्र हृदय द्वारा क्रम अनुसार वायुको सम और सूक्ष्म करके आयत्ताधीन कर लेनेसे सर्वशास्त्रवेत्ता तथा सर्वज्ञ हुआ जा सकता है, विभूतिभूषण हो करके ब्रह्मत्व लाभ भी किया जा सकता है। प्रश्नोपनिषदका ३य सूत्रमें है "प्राणाग्नय एवेतस्मिन् पुरे जापति" अर्थात् प्राणवायुरूप अग्नि ही इस शरीरमें जाप्रत गुरु है । इस वायुको क्रियाका नाम ही ब्रह्मविद्या है। कारण कि नायु ही ब्रह्म है। तैत्तिरीय उपनिषदमें है-"नमस्ते वायो त्वमेव प्रत्यक्ष ब्रह्मासि त्वामेव प्रत्यक्षं वदिष्यामि ऋतं वदिष्यामि सत्यं वदिष्यामि तन्मामवतु।" वायुका दो गुण है, शब्द और स्पर्श। गुरुगण कहते हैं कि, यदि वायु सूक्ष्म नाड़ीपथमें चालित होय तो, सप्तत्वचा शीतल बोध होती हैं, अव्यक्त स्पर्श सुखसे मनमें आनन्द सञ्चार होता है, और भीतर Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षोड़श अध्याय २३५. नाना प्रकारके शब्दोंका उत्थान होता है, वह सब शब्द क्रम अनुसार नादमें परिणत होता है तथा नादसे अनेक प्रकारकी वाक्यलहरो प्रवाहित होती है। उस वाक्यलहरीमें चित्तको संयत करनेसे श्रुति, स्मृति प्रभृति समग्र ज्ञानविषय सुनने में आ जाता है। यह समस्त ज्ञान शास्त्ररूपी वायुके द्वारा ही उत्पन्न होता है, और उसी ज्ञानसे ही संसार चलता है इस कारण उस श्रुति स्मृतिको भी शास्त्र कहते हैं। दयावान् आर्यऋषिगण उन्हीं ज्ञान समूहको शास्त्र नाम देकरके भिन्न भिन्न प्रन्थाकारमें लिपिबद्ध कर गये हैं। केवल सुननेमें आता है, ऐसा नहीं परन्तु उस नादके भीतरसे एक ज्योति खिल उठती है, उस ज्योतिसे भूत भविष्यतूका व्यापार दर्शनमें भाता है। इस कारण करके वायु साधकको सर्वज्ञ और सर्वदशी करता है, साधकके ज्ञानको भी शासनमें रखता है। यह शास्त्रका परिचय हुआ। यह वायुरूपी शास्त्र कार्याकार्य व्यवस्थामें किस प्रकारके प्रमाण है, उसे अब देखना चाहिये। निश्चय का हेतुको प्रमाण कहते हैं। श्रीमत् शंकराचार्य स्वामी कहे हैं कि, प्रमाण अर्थमें ज्ञान, साधन है। कोई एक विषय कर्तव्य है या अकर्तव्य, उसे जानना हो-निश्चय करना हो तो, शास्त्र हो उस निश्चयका हेतु होता है। कारण कि, शास्त्र अर्थात् शरीरका शासक वायु ही बुद्धिक्षेत्रमें संयत हो करके बुद्धिको सचेष्ट करके विकशित करके कर्त्तव्या-कर्त्तव्यका निरूपण कर देता है। जो लोग साधन-मार्ग में किञ्चिदपि अग्रसर हुए हैं, सो सब साधक वायुकी यह आश्चर्यजनक क्रिया समझ सकेंगे। देखा जाता है कि अस्मदादिके अन्त:करण: ___ * इसलिये व्यवस्था है कि, जो साधक जिस व्रतका अनुष्ठान करेंगे वह साधक उसी सम्बन्धीय शास्त्रका अभ्यास करेंगे; ऐसा होनेसे ही साधक अपने ज्ञातव्य अनुष्ठेय विषयको जान सकेंगे। यत् यत् शास्त्रं समभ्यसेत् तत्तत् व्रतं समाचरेत् ॥ २४ ॥ Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३६ श्रीमद्भगवद्गीता में जाप्रत अवस्थामें साधारणतः जो सब भाव प्रकाश पाता है, आसन करके बठकर क्रिया करनेके समय वायु सूक्ष्मपथमें थोड़ासा प्रवेश करते मात्र ही वे सब भाव और अन्तःकरणमें स्थिर भावसे नहीं रहते। ऐसा भी होता है कि, मन उदास हो जाता है, कुछ भी अच्छा नहीं लगता, एक जगह पर रहनेकी इच्छा नहीं करती, ऐसी अवस्थामें यदि शरीरकी वायुगति घुमाय देओ, वायुके ऊपर मन फेंक के वायुको कूटस्थकी दिशामें चला देओ तो, वायुकी गति घुमनेके साथ ही साथ मनकी पूर्व अवस्थाका परिवर्तन हो जाता है। ज्योंही वायुका सूक्ष्मपथमें चलना प्रारम्भ होता है, त्योंही मनमें एक आश्चर्य-. जनक परिवर्तन होता है; मन बहुव्यापी हो जाता है; कितने कालका कितने प्रकारका भला बुरा भाव सब एक होकर मनके भीतर उदय होता है; मन जैसे उन सब भावको तब एक बार नवीन करके सोच लेता है । कृत-कर्मके संस्कारका ऐसा ही प्रताप है। उसके ऊपर वायु सम हो आनेसे देखनेमें आता है कि, बाहरका भाव और भीतरमें प्रवेश नहीं करता, अन्तःकरण भीतर वाले व्यापारमें ही आकृष्ट रहता है। (इस विषयको अति बालक साधक भी अनुभवसे समझते हैं )। केवल यही नहीं। वायु जब सूक्ष्म होता है-वायुको जहाँ इच्छा हो ले जाया जा सकता है, संयत किया भी जा सकता है, तब देखनेमें आता है कि वायु स्थानविशेषमें अन्तःकरणके भीतर विशेष विशेष भावका उदय करा देता है। ऐसे कि, मनमें कोई कुछ जाननेका प्रबल इच्छा रहनेसे, वायु उसी इच्छाके साथ एकीभूत हो करके चैतन्यमय हो जाता है और मनको लक्ष्यस्थल में स्थिर धीर भावसे अटका कर, कोई जैसे कुछ कह गये, इस प्रकार अशरीरी वाणीसे मनके भीतर जो जाननेका विषय था, उसे कह देता है। वही वाणी कहना तथा मन की वह वाणी सुनना ठीक जैसे विद्युत् चमकके सदृश काज हो जाता है। उस बाणीको सुनते मात्र मन परितृप्त हो जाता है, समझनेमें Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३७, षोडश अध्याय कुछ भी बाकी रहना या कुछ भी सन्देह रहना, ऐसा कुछ भी नहीं रहता। मन उस विषयमें एकदम निःसन्देह स्थिरनिश्चय हो जाता है। उस वाणीकी ऐसी ही शक्ति है । अतएव कार्याकार्य व्यवस्था वा कर्तव्याकर्त्तव्य निरूपण करना हो तो, साधक ! तुम वायुरूपी शास्त्र का आश्रय लो; शास्त्र ही तुमको प्रमाण कर देगा, निश्चय रूपसे कह देगा, कौन कर्त्तव्य और कौन अकर्तव्य है। वायुरूपी शास्त्र ब्रह्मपथको परिष्कार रूपसे दिखला करके तुम्हें ब्रह्माण्डका ज्ञान दे देगा। . कार्याकार्य व्यवस्थामें शास्त्र ही जो प्रमाण वा निश्चयका हेतु है उसे निर्धारण करनेका और भी एक उपाय है । रजः सत्त्व तमः यह तीन गुण और क्षिति, अप, तेज, मरुत् , व्योम इन पांचों तत्वोंकी क्रिया शरीरके भीतर सब समय एकरस बराबर समान नहीं रहती। एक . एक समय एक एक गुण और एक एक तस्वकी क्रिया प्रबल रहती है। प्रत्येक गुण और तस्व कर्मका भिन्न भिन्न फल उत्पन्न करता है। कोई कार्य करनेके समय उस कार्यका फलाफल पहिले जान लेकर कत्र्तव्या * जिस प्रकार शास्त्रज्ञ न होनेसे शास्त्र ( पोथियां ) खोल करके कोई एक विषय प्रमाण किया वा मीमांसा किया नहीं जा सकता, तब शास्त्रज्ञ अध्यापकके पास जा करके शास्त्रका प्रमाण जानकर समझ लेना पड़ता है। उसी प्रकार साधक जितने दिन शास्त्रज्ञ न हो सकते, अर्थात् वायुरूपी शास्त्रको जानकर बूझकर अपने आयत्तमें ला नहीं सकते हैं, उतने दिन साधक प्राण खुल करके अपने अन्तरके भीतर अपने जाननेका विषय देख लेकरके निःसन्देह हो नहीं सकते, उतने दिन गुरुवाक्य ही 'उनका शास्त्र है, गुरुवाक्य ही उनके लिये कार्याकार्य व्यवस्थामें प्रमाण स्वरूप. है। गुरुके मुखका वचन और अन्तरकी वही अशरीरो वाणी एक बिना दो नहीं ; उस अशरीरी वाणीको भी गुरुवाक्य कह करके जानना। क्योंकि वह वायुको ही क्रिया है। वायुही गुरु है। अग्नि द्विजातिका गुरु है, इसलिये उपनिषदें प्राण समूह को अग्नि कहके वर्णन किया है-"प्राणाग्नय एतस्मिन् पुरे जाग्रति"। जगत् भो प्राणमय है- "प्राणोहि भगवानीशः प्राणोविष्णुः पितामहः। प्राणेन धार्यते लोकः सर्व प्राणमयं जगत्" ॥ २४ ॥ Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३८ श्रीमद्भगवद्गीता कर्त्तव्यका निरूपण करना हो तो, शरीरमें उस समय कौन गुण और कौन तत्त्वको क्रिया चलती है, उसे देखनेसे ही जाना जा सकता है। प्रत्येक गुण और प्रत्येक तत्त्वका अलग अलग रंग है, उसीको देख करके ही शरीरमें कौन गुण और कौन तत्त्वकी क्रिया चल रही है सो समझमें आता है। रजः, सत्व, तमः यह तीन गुण त्रिकोणाकारमें तीन विन्दुके रूपसे लक्ष्यमें आते हैं। रजो-विन्दु उस त्रिकोणके वाम दिशाके कोणमें लक्ष्य होता है, उसका नाम वामा और रंग लाल ( रक्तवत्) है। सत्त्व-विन्दु उर्व दिशाके कोणमें दृष्ट होता है, उसका नाम ज्येष्ठा और उसका रंग शुभ्र (ज्योत्स्नावत् ) है। तमोविन्दु दक्षिण दिशाके कोणमें दृष्ट होता है, उसका नाम रौद्री और रंग काला ( दलिताखनवत् ) है। क्षितिका रंग हरिद्रावर्ण, अपका रंग फीका सब्ज, तेजका रंग लाल ( ज्वलन्त अंगारवत् ), मरुत्का रंग जंगाल (धूम्र रंग भी वायु तत्त्वमें दिखाई पड़ता है), और व्योमका रंग आसमानी ( आकाश सदृश नीला) है। वायु ही इन सब रंगों को कूटस्थमें प्रकाश कर देता है। गुरूपदिष्ट नियमसे वायुको खींच करके कूटस्थके ऊपर लक्ष्य करनेसे ही शरीरमें उस वक्त जो गुण प्रबल है उसका विन्दु और जिस तत्त्वकी क्रिया चल रही है उसका रंग देखने में आता है। इसे देख करके ही योगीगण कर्मका फलाफल जान करके कर्त्तव्याकर्त्तव्यका स्थिर करते हैं। क्षितिका रंग देखनेसे समझना होगा कि कर्ममें आशु फल मिल जावेगा, शुभजनक, निरापद है इत्यादि । अपका रंग देखनेसे समझना होगा कि, फल मिलना संदेहजनक है। तेजका रंग देखनेसे समझना होगा कि कर्ममें सिद्धि लाभ नहीं होगा, फल नहीं मिलेगा। मरुत्का रंग देखनेसे समझना होगा कि शुभ हो सकता है, परन्तु ऐसा होनेसे भी वह स्थायी न होगा। व्योमका रंग देखनेसे समझना होगा कि फल फलेगा; परन्तु बिलम्ब करके। तीन गुणके बह जो तीन विन्दु त्रिकोणाकाग्में दर्शन Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षोड़श अध्याय २३६ देते हैं, उनके भीतर जिस गुणकी प्रबलता होगी उसी गुणका विन्दु स्पष्ट होकर उज्ज्वल होगा। शरीरमें रजोगुणका प्रकाश जब देखोगे, तब कर्ममें प्रवृत्त होना चाहिये, धर्म लाभ होवेगा; कारण कि वामा धर्मदायिनी शक्ति है। सत्त्वगुणका प्रकाश जब देखोगे तब केवल अर्थके लिये कर्म करोगे, उसका फल भी मिल जावेगा, इसको छोड़ करके और दूसरे कोई कर्म न करना, कारण कि ज्येष्ठा अर्थदायिनी शक्ति है। और तमोगुणका प्रकाश जब देखोगे, उस समय काम्य कर्मके उद्देशमें यात्रा करनेसे अभीष्ट सिद्धि होगा, क्योंकि रौद्री कामसिद्धिदायिनी शक्ति है। यह तीन विन्दु मिल करके एक होनेसे उस त्रिकोणके केन्द्रस्थलमें श्रीविन्दु प्रत्यक्ष होता है, वह विन्दु मुक्तिदायिनी शक्ति है। साधक एकमात्र वायुको सहायतासे यह सब तस्व दर्शन करते हैं और उन सबका फल जान करके उससे कर्तव्याकर्तव्य स्थिर कर ले सकते हैं। अतएव कार्याकार्य व्यवस्थामें शास्त्र ही प्रमाण है। साधनमें गुरुमुखसे वायु-क्रियाका अनेक प्रकारका रहस्य जाना जाता है; उन सबको व्यक्त करना अनावश्यक है। इस श्लोकके प्रथमार्द्धका अर्थ समझाया गया। अब शेषाद्धका अर्थ समझना होगा। शास्त्र प्रायत्त होनेसे ही ज्ञान लाभ होता है। कौशल द्वारा वायुक्रियाको आयत्त करना ही आत्मोन्नतिका एकमात्र उपाय है। वायुक्रियाको स्वायत्त करनेके सम्बन्धमें प्राणायामादि रूप जो जो नियम हैं, उन्हींको शास्त्रविधान कहते हैं। और अधिकारी भेद करके ( साधकका साधनकी उन्नतिके क्रम अनुसारमें, शरीर-मन शुद्धिके लिये एकके बाद एक करके जो सब क्रिया अनुष्ठान करनेकी व्यवस्था है, उसीको शास्त्रविधानोक्त कर्म कहते हैं। श्रीमत् स्वामी शंकराचार्य जी कहे हैं "इह इति अधिकारभूमिप्रदर्शनार्थ" अर्थात् इस श्लोकमें "इह" शब्द साधककी अधिकार-भूमिको प्रदर्शन करानेके लिये व्यवहृत हुआ है। इस अधिकार-भूमिका विभिन्न स्तर Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४० श्रीमद्भगवद्गीता है इसलिये शास्त्रविधान में विभिन्न प्रकार कर्मका अनुष्ठान करनेकी' व्यवस्था है। जो साधक जैसी अधिकार-भूमिमें खड़ा होगा, उसको तदनुरूप क्रिया करनी होगी। नहीं तो वह भ्रष्ट हो जायेगा। पूर्व श्लोकमें कहा हुआ है कि, "देवान् भावयतानेन" इत्यादिको ही शास्त्रविधि कहते हैं। उस विधिको पालन करनेका साधारण नियम है "असक्तोह्याचरन् कर्म परमाप्नोति पूरुषः” अर्थात् अनासक्त हो करके कर्मका आचरण करना। परन्तु साधक जैसे जैसे साधनफलसे ऊंचेसे ऊंचे क्षेत्रमें उठते रहेंगे, उसके साथ ही साथ उनकी उन्नतिके पथका कण्टक समूह (शत्रुभावापन्न वृत्तियां ) प्रत्यक्ष होते रहेंगे। प्रतिकूल वृत्तिको देखतेही उसका विनाश साधन न करनेसे फिर उठा नहीं जा सकता, उन्नतिमें विघ्न पड़ता है। तब साधक जिस अधिकार-भूमिमें पहुँचे हैं उसी भूमिका अनुष्ठेय कर्मको विशेष रूपसे जानकर उनको उसी कर्मका अनुष्ठान करके शत्रु-विनाश करना होगा। अधिकार-भूमिके उचित कर्मको लक्ष्य करके ही श्रीभगवान् १८श अः में कहे हैं "सहजं कर्म कौन्तेय सदोषमपि न त्यजेत्" इसका अर्थ यथास्थानमें व्याख्या की जावेगी। __ "देवान् भावयतानेन” इत्यादि यह जो आदि शास्त्रविधि है, इस विधि पालनमें विघ्न उपस्थित होनेसे ही उसे दूर करनेके लिये कुछ विधान हैं । यथासमयमें उन सब विधानको परिज्ञात हो करके तदनुरूप कर्म करना पड़ता है। गुरुदेव ही उसे जना देते हैं। साधक असक्त हो करके साधारण नियमसे क्रिया करते हुए भीतर प्रवेश करने का अधिकार लाभ करनेसे श्रीगुरुदेवके पास एकके बाद एक, द्वितीय क्रिया, तृतीय क्रिया, चतुर्थ क्रिया प्रभृति विविध क्रिया और उसके साथ साधनकी विशेष प्रकारकी सुविधाके लिये ईडापिंगला-शोधन क्रिया, प्रन्थिभेद क्रिया प्रभृति नानाविध क्रिया ज्ञात हो करके उन सबका अभ्यास करते हैं। उसमें विघ्न विनाश होकरके आत्मोन्नतिके. Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षोड़श अध्याय २४१ साथ ही साथ भिन्न भिन्न प्रकारकी विभूति लाभ होती रहती है। उन सब क्रियाके अनुष्ठान करनेके नियममें किंचित् विशेषत्व है। कारण उन सब क्रियामें गुरूपदेश मतसे श्वासके ऊपर चेष्टाका प्रयोग करना होता है, श्वासको क्रम अनुसार दीर्य करना होता है, वायु धीरे धीरे अपिच बहुत जोरसे खौचना फेंकना होता है; निश्वास प्रश्वासकी मध्यवती स्थिति कालको बढ़ाना पड़ता है, श्वासको कमी कण्ठसे कभी तालुसे खींचना फेंकना होता है। इन समस्त क्रियामें अभ्यस्त होनेसे नाड़ीपथ समूह परिष्कार हो करके साधन-मार्ग निष्कण्टक होता है और मृत्युकालमें मृत्युयन्त्रणासे अधीर हो करके मात्मच्युत होनेकी सम्भावना भी दूर होती है। अब देखना चाहिये कि, गीतावर्णित साधक अर्जुन किस प्रकार अधिकारभूमिमें बर्तमान है। अर्जुन साधनमें क्षत्रियचूड़ामणि, अब युद्धके लिये रथारूढ़ हो करके धर्मक्षेत्र कुरुक्षेत्रमें शत्रुओंके सम्मुखीन होकर धनुः उत्तोलन किये ही थे; परन्तु शस्त्र सम्पात् प्रारम्भ होने ही के समय "अहं ममेति” संसार-मोहमें मोहित हो करके शोकाकुल होनेसे शर सहित धनुः को परित्याग करके राजस वृत्तिको भी त्याग करके तमोगुण ( प्राकृतिक तमो ) के आकर्षणमें पड़ करके किंकर्तव्यविमूढ़ हुए हैं। इसलिये सत्त्वगुणमूत्ति श्रीभगवान् आत्मज्ञानालोकसे उनका मोह दूर करते हैं, कहते हैं कि "इह शास्त्रविधानोक्तं कर्म ज्ञात्वा कत्त अर्हसि"; "सहजं कर्म कौन्तेय सदोषमपि न त्यजेत्”। अर्थात् तुम क्षत्रिय हो, तुममें सत्त्वमिश्रित रजोगुण प्रधान है; क्षत्रियोंकी कीलाभूमि समर-क्षेत्रमें तुम समरार्थ ागत हो। तुम यह जो अधिकार-भूमिमें दण्डायमान हो, इसमें तुम्हारा स्वभावज कर्म है “शौर्य, तेज, धृति, दाक्ष्य, युद्ध में अपलायन, दान और ईश्वरभाव"। यही शास्त्रविधानोक्त कर्म है। इस कर्मके बिना तुम्हारा और कोई दूसरा श्रेयः नहीं है। यदि तुम अपने इस स्वभावज कर्मको त्याग करके -१६ Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४२ श्रीमद्भगवद्गीता अब तमोगुणके आश्रयमें मोहप्रस्त हो जाओ, तो "अधोगच्छन्ति तामसाः" इस वचन अनुसार तुमको अधापतित होना होगा। अतएव अब शौर्या, तेज, धृति इत्यादिका अवलम्बन करके यथानियम से प्राण-चालन क्रिया करते रहो। सूक्ष्म प्राणरूप शर-सन्धानसे प्रतिकूल वासना वृत्ति समूहको विनष्ट करो ॥२४॥ इति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्र श्रीकृष्णार्जुन संपादे देवासुरसम्पद्विभागयोगो नाम षोड़शोऽध्यायः। Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तदशोऽध्यायः अर्जुन उवाच । ये शास्त्रविधिमुतमृन्य यजन्ते श्रद्धयान्विताः । तेषां निष्ठा तु का कृष्ण सत्त्वमाहो रजस्तमः ॥ १॥ अन्वयः। अर्जुनः उवाच । हे कृष्ण ! ये शास्त्रविधि उत्सृज्य तु ( किन्तु) श्रद्धया अन्विताः सन्तः यजन्ते, तेषां निष्ठ' ( स्थितिः ) का ( कीदृशी) ? सत्त्वं रजः आह तमः? ( तेषां तादृशी देवपूजादि-प्रवृत्तिः किं सत्त्वसंश्रिता रजःसंश्रिता तमःसंश्रिता वेत्यर्थः ) ॥ १॥ अनुवाद । अर्जुन कहते हैं । हे कृष्ण | जो लोग शास्त्रविधिको परित्याग करके, परन्तु श्रद्धासे युक्त हो करके यजन करते हैं, उन सबकी निष्ठा किस प्रकारको है? –सत्त्व, रजः अथवा क्या तमः है ? ॥ १॥ व्याख्या। साधक अब अपने मन ही मनमें विचारका प्रश्न करते हैं। -ब्रह्ममार्गमें वायु-चालनके साथ ही साथ चुड़ेला, महाकाल से आदि ले करके ब्रह्मा, विष्णु, महेश्वर ऐसे कि- सस्व-रज-तम-गुणा . महाशक्ति पर्यन्त असंख्य देव-देवीकी मूर्ति दर्शनमें आती है। कितने अशरीरी वाणीका (श्रुतिका ) प्रमाण, इस जन्ममें करनेकी तो बात ही नहीं-ध्यानमें लानेका भी अवसर नहीं मिला, ऐसे ऐसे विषय स्मरणमें (स्मृति ) आते हैं। बड़े बुड्ढे जिसे दर्शन किए हैं, श्रवण किये हैं, परन्तु मैं ने न कभी देखा न सुना, ऐसी प्राचीन (पुराण) कया, कितनी गाथा ( गायत्री आदि छन्द ) भी जाप्रत प्रत्यक्ष प्रमाण देखता हूँ। परन्तु इसके एक भी बाहर नहीं है। जब यह सब देखता हूँ, सुनता हूँ, अनुभव करता हूँ, समझता हूं, तब मन जैसे उन विषयों में मिलके तन्मयी भावमें रहता है। वह जो श्रद्धान्वित यजन है, इससे Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री . २४४ श्रीमद्भगवद्गीता शास्त्रविधि (गुरुप्रदर्शित वायु चालनके उपदेश ) को उल्लंघन (परित्याग ) करा देता है; क्योंकि ब्रह्मनाड़ीके ठीक बीचमें रहने न दे करके इन सबके साथ संस्पर्शदोष लगाता है ( ५ म अः १० म लोक )। यह जो यजन-निष्ठा ( देवदेवीकी उपासना और तत्तद्विषय में तन्मयी हो करके रहना ) है, यह निष्ठा ( श्रद्धा ) सत्व, रजः, अथवा तमः है ? हे कृष्ण ! सो तुम मुझसे कहो ॥ १ ॥ श्रीभगवानुवाच । त्रिविधा भवति श्रद्धा देहिनां सा स्वभावजा । सात्त्विकी राजसी चैव तामसी चेति तां शृणु ॥२॥ अन्वयः। देहिनां श्रद्धा स्वभाषजा ( स्वभावः पूर्वसंस्कारस्तस्माज्जाता ), सा (श्रद्धा) सात्त्विकी राजसी च तामसी च इति त्रिविधा एव भवति; तां ( इमां त्रिविधां श्रद्धा ) शृणु ॥२॥ अनुवाद। देहियोंकी श्रद्धा स्वभावज है; वह सात्त्विकी, राजसी और तामसी तीन प्रकारकी होती हैं। उन्हें श्रवण करो ॥२॥ व्याख्या। निजबोधसे विचारका सिद्धान्त करते हैं। देहियोंका आजन्म अभ्याससे जो भला बुरा कर्म-संस्कार उत्पन्न होता है, उसी को उन सबका स्वभाव कहते हैं। उस स्वभावके भीतर सत्त्व, रज, तम यह तीनों गुण रहते हैं। जिस गुणको ले करके जो देही जन्म ग्रहण करते हैं, उनकी श्रद्धा भी तदनुसार रूप दिखाती है। यह तीनों प्रकारकी श्रद्धा कैसी है उन्हें तुम सुन लो॥२॥ सत्त्वानुरूपा सर्वस्य श्रद्धा भवति भारत । श्रद्धामयोऽयं पुरुषो यो यच्छ्रद्वः स एव सः ॥३॥ अन्वयः। [ननू श्रद्धा सात्त्विक्येव तथापि रजस्तमोमिश्रितत्वेन सत्वस्य पियात् श्रद्धाया अपि त्रैविध्यं घटते इत्याह सत्त्वेति । ] हे भारत ! सर्वस्व Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तदश अध्याय २४५ (विवेकिनोऽधिवेकिनो वा लोकस्य ) श्रद्धा सत्त्वानुरूपा ( सत्त्वतारतम्यानुसारिणो ) भवति; अयं पुरुषः ( संसारी जीवः ) श्रद्धामयः (श्रद्धाविकारः त्रिविधया श्रद्धया विक्रियत इत्यर्थः), यो यच्छ्दः ( याद्दशी श्रद्धा यस्य ) स एव सः ( ताइशश्रद्धायुक्तः ) ॥३॥. अनुवाद। हे भारत ! सबकी श्रद्धा सत्त्वानुरूपा होती है। यह पुरुष श्रद्धामव है; जो यादशी श्रद्वासे युक्त है वह तादृश होता है ॥ ३॥ .. व्याख्या। हे भारत ! पुरुष जिस अवस्थामें रह करके गुरूपदिष्ट पथमें वायु-चालन नहीं कर सकते, उस अवस्थामें-शास्त्रमें (वायुचालनमें ) रहनेसे जो अद्भुत विवेक ज्ञानका उदय होता है,वह ज्ञान उनमें नहीं रहता उनमें केवल गुणके वश करके श्रद्धा (कार्यकरी शक्ति ) रहती है। सत्त्वगुणकी अधिकतासे सास्विकी श्रद्धा, रजोगुणकी अधिकतासे राजसी श्रद्धा और तमोगुणकी अधिकतासे तामसी श्रद्धा प्रकाश पाती है। क्योंकि, पुरुषके अन्तःकरणको जब जो जो गुण अधिकार कर बैठते हैं, पुरुष तब उन्हीं गुणोंका श्रद्धामय होता है ॥३॥ . यजन्ते सात्त्विका देवान् यक्षरक्षांसि राजसाः। प्रेतान् भूतगणांश्चान्ये यजन्ते तामसा जना ॥४॥ अन्वयः। सात्त्विकाः ( सत्त्वनिष्ठाः) देवान् यजन्ते ( पूजयन्ति), राजसाः यक्षरक्षांसि ( यक्षान् राक्षसांश्च ) यजन्ते, अन्ये तामसाः जनाः प्रेतान् भूतगणान् च ( सप्तमातृकादींश्च ) यजन्ते ॥ ४ ॥ अनुवाद । सात्त्विक व्यक्तिगण देवतादिकी पूजा करते हैं, राजस व्यक्तिगण यक्षरक्षको पूजते हैं, और अन्यान्य तामस व्यक्तिगण प्रेत और भूतोकी पूजा करते हैं ॥ ४ ॥ व्याख्या। पुरुष सात्त्विकी श्रद्धाके उदय कालमें देव देवीकी, राजस श्रद्धाके उदय होनेसे यक्ष और राक्षसकी, तथा तामसी श्रद्धाकी क्रिया समयमें भूत-प्रेतकी पूजा करते हैं ॥४॥ Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४६ श्रीमद्भगवद्गीता अशास्त्रविहितं घोरं तप्यन्ते ये तपो जनाः। दम्माहंकारसंयुक्ताः कामरागबलान्विता ॥५॥ कर्षयन्तः शरीरस्थं भूतग्राममचेतसः । माञ्चैवान्तःशरीरस्थं तान् विद्वर यासुरनिश्चयान् ॥ ६ ॥ अन्वयः। दम्माहंकारसंयुक्ताः कामरागबलान्विताः ( कामोऽभिलाषः राग मासक्तिः बलमाग्रहः एतरन्विताः ) सन्तः ये अचेतसः (अविवेकिनः ) जनाः शरीरस्थं भूतग्रामं ( करणसमुदायं) अन्तःशरीरस्थं ( अन्तर्यामितया देहमध्ये स्थितं ) मां च एव कर्षयन्तः ( कृशं कुर्वन्तः ) अशास्त्रविहितं घोरं (प्राणिनामात्मनश्च पौड़ाकरं ) तपः तप्यन्ते (कुर्वन्ति ), तान् प्रासुरनिश्चयान् (प्रासुरः प्रतिकरः निश्चयः येषां तान् ) विधि ॥५॥६॥ ___ अनुवाद । दम्भ और अहंकार संयुक्त तथा अभिलाष, आसक्ति और आग्रहसे युक हो करके जो सब अधिवेकी विवेकविहीन व्यक्तिगण शरीरस्थ करणसमूहको एवं शरीर मध्यमें ( अन्तर्यामी रूपसे ) स्थित मुझको भी कृश करके अशास्त्रविहित घोर (आत्म तथा प्राणी पीड़ाकर ) तपस्या करते हैं, उन सबको आसुरनिश्चय (अतिकरका ) करके जानना ॥ ५॥ ६॥ . व्याख्या। दम्भ =कपटता, अहंकार=मैं बड़ा हूँ यह ज्ञान, कामराग= संकल्प-सम्भव अनुराग, बल-शक्ति ; इन सबको आश्रय करके जो सब अविवेकी पुरुष तपका आचरण करते हैं, शरीरको शुष्क क्षीण अकर्मण्य कर डालते हैं, मैं जो शरीरका अन्तरात्मा हूँ, मेरे अनुशासनको नहीं मानते, मुझको भी क्षीण करते हैं, वे सब आसुरभावापन्न हैं। मुझको भी क्षीण करते हैं इस वचनका अर्थ यह है कि, वे लोग दाम्भिक और अहंकारी तथा कामनापरायण होनेसे कामनापूरणके लिए वे लोग अपनेसे जो उपाय स्थिर करते हैं, उसे ही क्रिया करते हैं, शास्त्रकी कथा ग्राह्य नहीं करते; मारे अहंकारके निश्चय कर लेते हैं कि, वे सब जो करते हैं, समझते हैं वही ठीक है उनके सम्मुख और किसीमें सूझ बूझ है ही नहीं। इस प्रकार कामना के वशमें रह करके मन विषयासक्त होनेसे उन सबका अन्तःकरण Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तदश अध्याय २४७ विषय-चिन्तासे मलिन होता है, सुतरां उन सबकी प्रतिफलन-प्रतिभा शक्ति नष्ट होती है, बोधशक्ति स्थूल होती है, धारणा विलुप्त होती है, ज्ञानेन्द्रिय समूह सूक्ष्म पदार्थक प्रहणमें असमर्थ होते हैं। उनके अन्तःकरण इस प्रकार मलिन हो जानेसे आत्मज्योति उसे फिर उसे आलोकित नहीं कर सकती, वरन् क्रम अनुसार क्षीण होती जाती आहारस्त्वपि सर्वस्य त्रिविधो भवति प्रियः। यज्ञस्तपस्तथा दानं तेषां भेदमिम शृणु ॥७॥ अन्वयः। सर्वस्य अपि ( जनस्य ) पाहारः तु (अन्नादिः) त्रिविधः प्रियः भवति, तथा यज्ञः तपः दानं ( एतानि त्रिविधानि भवन्ति ), तेषां इमं ( वक्ष्यमाणं) भेदं शृणु ॥७॥ ___ अनुवाद। सबको आहार भी तीन प्रकारके प्रिय हैं, तद्रूप यज्ञ तप और दान भी ( तीन प्रकारका ) है; उन सबका भेद अब श्रवण करो ॥ ७ ॥ व्याख्या। यह जो तीन सत्वामें तीन प्रकारका पुरुष कहा हुआ है, सत्त्वा अनुसार उन सबको आहार, यज्ञ, तप, और दान भी तीन प्रकारके प्रिय होते हैं। उसे मैं कहता हूँ, सुनो ॥ ७ ॥ ____ * यथार्थतः आत्मा कदापि क्षीण नहीं होती, आत्मा सदाकाल अक्षय अव्यय है। जैसे कांचके चिमनीके भीतर दीप शिखा जलते रहनेसे चिमनीकी स्वच्छतासे बाहर साफ ज्योतिका प्रकाश होता है, और चिमनीको मलिनतासे बाहरको ज्योतिमें मृदुता आती है; चिमनी स्याही अधिक जम जावे तो ज्योति बाहर नहीं फैलती; चिमनीके भीतरपाली दीप शिखाको ज्योति जैसे हीन निस्तेज मालूम होती है; परन्तु दीप शिखा कदापि ज्योतिहीन नहीं होती, वह बराबर चिमनीके भीतर समान जलती रहती है, कांचके आवरणकी स्वच्छता और मलिनतासे आलोक शिखाकी ज्योतिका तारतम्य होता है; आत्मामें भी ठोक तैसे, अन्तःकरण वा चित्तको शुद्धता और अशुद्धतासे आत्म-ज्योति सतेज, निस्तेज अथवा क्षीण अनुभवमें आती है॥५॥६॥ Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४८ श्रीमद्भगवद्गीता आयु सत्त्वबलारोग्य सुखप्रीतिविवर्द्धनाः। रस्याः स्निग्धाः स्थिरा हृद्या आहाराः सात्त्विकप्रियाः ॥८॥ अन्वयः। आयुःसत्त्वबलारोग्यसुखप्रीतिविर्वद्धनाः ( आयुर्जीवनं सत्त्वमुत्साहः बलं शक्तिः आरोग्यं रोगाराहित्यं सुखं चित्तप्रसादः प्रीतिरमिरुचिः आयुरादीनां विवद्धनाः विशेषेण वृद्धिकराः ते ) रस्याः ( रसवन्तः ) स्निग्धाः ( स्नेहयुक्ताः) स्थिरा: ( देहे सारांशेन चिरकालावस्थायिनः ) ह्रयाः ( दृष्टिमात्रादेव हृदयङ्गमाः ) एवम्भूता आहाराः ( भक्ष्यमोज्यादयः सात्त्विकप्रियाः ) ॥८॥ अनुवाद। आयु, सत्त्वबल, आरोग्य, सुख और प्रीति वृद्धिकारक, रसयुक्त, स्निग्ध, स्थिर और हृद्य आहार सात्विकगणोंको प्रिय हैं ॥८॥ व्याख्या। आयु = जन्म और मृत्यु के बीचमें जो व्यवधान समय है। सस्वबल =जो सत्व, न्याय, धर्म, भक्ति, महत्व पवित्रतादि उत्पन्न करती है वैसी शक्ति। आरोग्य स्वास्थ्य। सुख = जिसके मिलनेसे और कुछ भी पानेकी इच्छा नहीं हतो। प्रीति = हर्ष। यह सब जिससे बढ़ता है। रस्या=रस शब्दमें शुक्र धातु, उस शुक्रधातु को जो बढ़ाता है उसीका नाम रस्या है; यथा, -दुग्धादि, "सद्य वीर्यकरो दुग्धं”। स्निग्धा = जिससे शरीरमें कुछ भी गर्मी उत्पन्न नहीं होती, तथा जो शरीरको स्निग्ध रख करके मज्जाको बढ़ाता है; यथा,-धृत, दुधकी मलाई, नवनीत, तण्डुल, यव, तिल इत्यादि। स्थिरा-औषधि, जिसे खानेसे औषधका काम करता है। जैसे स्तन्य दुग्ध, परोरा, परोराकी पत्ती, इशु-दण्ड इत्यादि । हृद्या जिससे बुद्धिकी क्रियाशक्ति (निश्चयकरणी शक्ति) बढ़ती है; यथा, ब्राह्मीशाक, हिलमोचिकाशाक, थानकुनिशाक, इत्यादि। और सुमिष्ट फल इक्षुचीनी, परमान्न तण्डुल-दुग्ध-घृत-चीनी संयोग करके वो Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तदश अध्याय २४४ अन्न पकाया जाता है, घृतसिक्त अन्न आदि सत्त्वगुणके वृद्धिकारक हैं। यह सब खाद्य सत्त्वगुणी लोगोंको प्रिय है ॥८॥ कम्ललवणात्युष्णतीक्ष्णरुक्षविदाहिनः । आहारा राजसस्येष्टा दुःखशोकामयप्रदाः ॥६॥ अन्वयः। कट वम्ललवणात्युष्णतीक्ष्णरुक्षविदाहिनः (अतिकटु निम्बादिः, अत्यम्लः, अतिलक्षणः, अत्युग्णः, अतितीक्ष्णोमरिचादिः, अतिरुक्षः कङ्ग के द्रवादिः अतिविदाही सर्षपादिः एवम्विधाः ) आहाराः राजसस्य इण्ठाः ( प्रियाः) दुःखशोकामयप्रदाः (दुःख तात्कालिकहृदयसन्तापादि, शोकः पश्चाद्भाविदौमनस्यं, आमयो रोगः एतान् प्रददति प्रयच्छन्तीति तथा ) ॥९॥ अनुवाद। अतिकटु-अम्ल-लवण-उष्ण-तीक्ष्ण-रूक्ष-विदाही आहार समूह राजस लोगोंको प्रिय हैं, (परन्तु) ये दुःख शोक और रोग-व्याधिको प्रदान करते हैं ॥॥ व्याख्या। कटु=तिक्त, निम्ब चिरायता आदि । अम्ल खट्टा, इमली कच्चा आम आदि। लवण । अत्युष्ण =अतिशय गरम, जैसे चा आदि। तीक्ष्ण लाल मिर्चा आदि । रुक्ष -भुनाचावल, भूनाचना आदि स्नेहशून्य द्रव्य । विदाही= जिसके खानेसे शरीरके भीतरसे ब्वाला उठती है; जैसे हींग, सर्षप, राई आदि। यह सब रजोगुणी मनुष्योंके प्रिय खाद्य हैं। इससे दुःख, शोक, व्याधि उत्पन्न होती हैं ॥६॥ यातयामं गतरस पूतिपय्युषितञ्च यत् । उच्छिष्टमपि चामेध्यं भोजनं तामसप्रियम् ॥ १० ॥ अन्वयः। यत् यातयामं ( यातो यामः प्रहरो यस्य पक्कस्यौदनादेः तत् शैल्यावस्था प्राप्तमित्यर्थः) गतरसं (निस्पीड़ितसारं ) पूती ( दुर्गन्ध) पय्युषितं (दिनान्तरपक्क ) अपिच उच्छिष्ट ( अन्यभुक्तावशिष्ट) अमेध्यं च ( अभक्ष्यं च) ( तादृशं ) भोजन (भोज्यं ) तामसप्रिय ( तामसस्य प्रियं)॥१०॥ Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५० श्रीमद्भगवद्गीता अनुवाद। जो यातयाम ( एक प्रहर पूर्वके रन्धन किया हुआ), निरस, दुर्गन्ध, पर्युषित ( बासी ), तथा उच्छिष्ट और अमेध्य ( अभक्ष्य ) है, इस प्रकारके भोजन ही तामसी मनुष्योंके प्रिय खाद्य हैं ॥ १० ॥ व्याख्या। यातयाम = एक प्रहर काल अतीत हुई रसोई । गतरस रसहीन सुखा भात, सुखी हुई रोटी आदि । पूति= सड़ा हुआ, दुर्गन्ध विशिष्ट खाद्य; अचार आदि। पर्युषित =दूसरे रोजको पकाई हुई रसोई (बासी)। उच्छिष्ट = भूक्तावशिष्ट (जूठा )। अमेष्य = अपवित्र, दुष्पाच्य। यह समस्त तमोगुणी लोगोंके प्रिय खाद्य हैं । शरीरमें जब जो गुण वर्तमान रहेगा, तब उसीके अनुसार खाद्यमें रुचि उत्पन्न होगी, जानना ॥१०॥ अफलाको क्षिभिर्यज्ञो विधिदिष्टो य इज्यते । यष्टव्यमेवेति मनः समाधाय स सात्त्विकः ॥ ११ ॥ अन्वयः। अफलाकाक्षिभिः ( फलाकांक्षारहितैः पुरुषैः ) यष्ठव्यं एष (वज्ञानुष्टानमेव कायं नान्यत् फलं साधनीयं ) इति ( इत्येवं ) मनः समाधाय ( एकानकृत्वा ) विधिदिष्टः ( शास्त्रविहितः ) यः यज्ञः इज्यते ( अनुष्ठीयते ) सः सात्त्विकः ( यज्ञः) ॥११॥ अनुवाद। फलाकांक्षारहित पुरुषगण “यज्ञानुष्ठान ही कर्तव्य" है इस प्रकारके भावमें मनको एकाग्र करके शास्त्रविहित जिस यज्ञका अनुष्ठान करते हैं, उसीको सात्त्विक यज्ञ कहते हैं ॥११॥ व्याख्या। ब्रह्मनाड़ीके भीतर वायु चालन करनेके समय जब समस्त ( सर्व नाम करके कथित जो कुछ है ) मिट जाता है तब ही फलको आकांक्षा नहीं रहती। इसीको ब्रह्मयज्ञ, अर्थात् ब्रह्माग्निमें मायाकी आहुतिकरणरूप यज्ञ कहते हैं। गुरुका उपदेश चाहिये, और वह उपदेश भी शास्त्रसम्मत होना चाहिये, फिर उसको अपने शरीर के भीतर अनुभव प्रत्यक्ष करना चाहिये, इन तीनोंके एकत्र समावेश Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तदश अध्याय २५१ को ( एकत्र अवस्थानको ) विधिदिष्ट कहते हैं। इसी प्रकारसे मनको समाधान करके, अर्थात् मनको मिला करके, जो पुरुषार्थकी चेष्टाकी जाती है, उसीको सात्विक यज्ञ कहते हैं ॥ ११ ॥ अभिसन्धाय तु फलं दम्भार्थमपि चैव यत्। इज्यते भरतश्रेष्ठ तं यज्ञं विद्धि राजसम् ॥ १२ ॥ अन्वयः। हे मरतश्रेष्ठ । अपितु फलं अभिसन्धाय ( उद्धिश्य ) दम्भायं एव च (स्वमहत्त्वख्यापनाय ) यत् इज्यते तं यज्ञं राजसं विद्धि ॥ १२ ॥ अनुवाद। हे भरतश्रेष्ठ । परन्तु फलको उद्देश करके स्वमहत्त्व प्रचार करनेके लिये जो यज्ञ अनुष्ठित होता है, उस यज्ञको राजस यज्ञ कहते हैं ।। १२ ।। व्याख्या। हे भरतकुलश्रेष्ठ ! फलके ऊपर लक्ष्य करके दम्मके साथ जो यज्ञ किया जाता है, उसको राजस यज्ञ कहते हैं। जैसे मैं वृद्ध हूँ, प्रतिष्ठित पण्डित, ब्राह्मण भी हूँ; काश्यपके मकानमें ब्राह्मण समूहका निमंत्रण हुआ, सूर्यदेव डूबने वाले हैं; समस्त ब्राह्मण हमारी अपेक्षा कर रहे हैं; मैं बड़ी पूजा अनुष्ठान करने वाला हूं, यह कथा लोकमें प्रचार करनेके लिये दरवाजा बंद करके ठाकुरद्वारेमें बैठ कर हाथके नखसे पांवके नखका मैला साफ कर रहा हूँ। ऐसे ऐसे कार्य रजोगुणसे उत्पन्न होते हैं ॥ १२ ॥ विधिहीनमसृष्टान्न मन्त्रहीनमदक्षिणम् । श्रद्धाविरहितं यज्ञं तामसं परिचक्षते ॥ १३ ॥ अन्वयः। विधिहीनं ( शास्त्रोक्तविधिशून्यं ) असृष्टान्नं ब्राह्मणादिभ्यः असृष्ट न निष्पादितं अन्नं यस्मिन् तं ) मन्त्रहीनं अदक्षिणं श्रद्धाविरहितं यज्ञं तामसं परि-- चक्षते ( कथयन्ति शिष्टाः ) ॥ १३ ॥ अनुवाद । शास्त्रोक्त विधिशून्य, ब्राह्मणादिको अन्नदान शून्य, मन्त्रविहीन, . दक्षिणा विहीन तथा श्रद्धासे भी रहित यज्ञको तामस थज्ञ कहते है ॥ १३ ॥ Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीमद्भगवद्गीता व्याख्या। जिस यज्ञमें श्रद्धाके साथ भोजनादि तृप्तिकर व्यवस्था नहीं, जिस यज्ञमें मन्त्रादिसे आहुति नहीं, जिसमें दक्षिणाकी व्यवस्था नहीं, केवलमात्र आतिशबाजी जलाकर वुड़वकीया गुलमचाना है, . वैसे वैसे कार्यको तामस यज्ञ कहते हैं ॥ १३ ॥ देवद्विजगुरुप्राज्ञपूजनं शौचमाजवम् । ब्रह्मचर्य्यम हिंसा च शारीरं तप उच्यते ॥ १४ ॥ अन्वयः। देवद्विजगुरुप्राज्ञपूजनं शौचं आजवं ब्रह्मचर्य अहिंसा च शरीरं तपः उच्यते ॥ १४ ॥ अनुवाद। देव, द्विज, गुरु और प्राज्ञ पुरुषोंको पूजा, शौच, सरलता, ब्रह्मचर्य तथा अहिंसा-इन सबको शारीरिक तप कहते हैं ॥ १४ ॥ व्याख्या। ब्रह्ममार्गसे पीछे हट करके जब देवतोंका, गुरुमूर्ति का, ऋषियोंकी मूर्तिका दर्शनसे तन्मयीभावमें मिल करके रहा जाता है, तब ही देव, गुरु तथा प्राज्ञ पूजन होता है। और जब अपनी मूर्तिके दर्शनसे विभोर हो करके मिल जाता हूँ, तब ही द्विजपूजन होता है। उस समयमें स्थूल शरीरका कुछ भी भान नहीं रहता, तथापि आत्ममूत्ति में आसक्ति रहनेके कारण द्विज कहते हैं। एक जन्ममें जिनके दो जन्म होते हैं वे ही द्विज हैं, जैसे रेशमकीट और उस कीटका प्रजापति ( पतङ्ग) है। इस अवस्थामें मन एक वस्तुको लेकर बैठ रहता है। वह जो स्थिति है उसीको शौच कहते हैं। सरलता ही सरलता भासमान रहता है इसलिये आर्जव है। शुक्रधातु शीतल रहनेसे ब्रह्मचर्य होता है। उस समय मन पर-पीड़न करने का उद्वग नहीं लेता, इसलिये अहिंसा है। इस अवस्थामें सर्व विषयसे साधककी शरीर-पालन क्रिया अक्षुण्ण रहती है, इसलिये इस · अवस्थाको शारीरिक तप कहते हैं ॥ १४ ॥ Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५३ सप्तदश अध्याय अनुदूगकरं वाक्यं सत्यं प्रियहितच यत्। स्वाध्यायाभ्यसनचव वाङमय तप उच्यते ॥ १५ ॥ अन्वयः। अनुद्वेगकरं वाक्यं सत्यं प्रियहितश्च यत् ( श्रोतुः प्रियं हितश्च परिणामे सुखकरं ) स्वाध्यायाभ्यसनं च एव ( वेदाभ्यासश्च ) वाड मयं तपः सच्यते ॥१५॥ अनुवाद। अनुगकर वाक्य, और जो सत्य प्रिय एवं हितकर है, तथा वेदाभ्यास-इन सबको वाङमय तप कहा जाता है ।। १५ ॥ व्याख्या। जब सच्ची बात, लोगोंकी प्रिय और हितकर कथा,, तथा किसीका उद्वग न हो ऐसी कथा श्राप ही आप मुहसे बाहर होती हैं, तब हो संयतवाक् अवस्था कही जाती है। जब "देह मैं हूँ" यह बोध मिटकर सर्वभूतात्मभूतात्मामें (व्यापक चैतन्यमें ) मिल कर व्याप्ति लेके बैठ रहता हूँ, तब ही स्वाध्याय शब्दका अर्थ प्रकाशित होता है। 'स्व' शब्दमें स्वर्ग, स्तर, वा ईश्वर रूपका नामान्तर, और अध्याय शब्दमें प्राप्तिक व्याप्ति (क्रियाकी परावस्था) है। इन सबके क्रियाकालमें मुहसे कथा बाहर आनेसे भी अधिक कथा कहनी नहीं होती, इस करके संयतवाक हुआ जाता है, और व्याप्तावस्था ले करके बैठ रहनेसे कथा कहनेका अक्सर नहीं आता 'इसलिये संयतव क् हुअा जाता है। इसलिये इस प्रकार अवस्थाको वाङमय तप कहते हैं ॥ १५ ॥ मनःप्रसादः सौम्यत्वं मौनमात्मविनिग्रहः । भावसंशुद्धिरित्येतत्तपो मानसमुच्यते ॥ १६ ॥ अन्वयः। मनःप्रसादः ( मनसः प्रशान्तिः) सौम्यत्वं ( अकरता) मौनं (मुने यो मननमित्यर्थः ) आत्मविनिग्रहः ( मनसः विषयेभ्यः प्रत्याहारः ) भावसंशुद्धिः ( व्यवहारे मायाराहित्यं ) इत्येतत् मानसं तपः उच्यते ॥ १६ ॥ अनुवाद। मनकी प्रसन्नता, सौम्यभाव ( अकरता ), मौन, आत्मविनिग्रह, - भाषसंशुद्धि इन सबको मानस तप कहा जाता है ॥ १६ ॥ Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीमद्भगवद्गीता व्याख्या। मनःप्रसादः मनकी उद्वगहीन प्रसन्न अवस्था। "सौम्यत्व" अन्त:करण चतुष्टयका स्थिर भावमें अवस्थान। जिस अवस्थामें (मरण, मूछा तथा अज्ञानताको आश्रय न करके ) कथा कहनेकी क्रिया प्रलीन रहती है, उसीको “मौन" अवस्था कहते हैं। आत्मामें स्थिति (अपनेमें आप रहना ) "आत्मविनिग्रह"। अन्त:करणका मायाविकार-भोग कट जाकर जो स्वभावमें अवस्थान है वही "भावसंशुद्धि" अवस्था है। इन सबको मानसिक तप कहते हैं ॥१६॥ . श्रद्धया परया तप्तं तपस्त त्रिविध नरः।। अफलाकाक्षिभिर्युक्तः सात्विकं परिचक्षते ॥ १७॥ अन्धयः। अफलाको क्षिभिः ( फलाकांक्षाशून्यैः ) युक्तः ( एकाग्रचित्तः) नरैः 'परया (श्रेष्ठया) श्रद्धया तप्तं ( अनुष्ठितं ) तत् त्रिविध तपः सात्त्विकं ( सत्त्व"निवृत्त) परिचक्षते ( कथयन्ति शिष्टाः) ॥१७॥ अनुवाद। फलकांक्षाशून्य एकाग्रचित्त मनुष्योंसे पराश्रद्धाके साथ अनुष्ठित इस त्रिविध तपको सात्त्विक तप कहते हैं । १७ ।। व्याख्या। वह जो कायिक, वाचिक, मानसिक तीन प्रकारके तपकी कथा कही हुई है, उसके भीतर फलाकांक्षाको छोड़ करके जो निराश समाधि-स्थितिकी चेष्टा है उसीको सात्त्विक तप कहते हैं ॥१७॥ सत्कारमानपूजार्थं तपो दम्भेन चैव यत्। क्रियते तदिह प्रोक्तं राजसं चलभध्र वम् ॥ १८ ॥ अन्वयः। सत्कारमानपूजार्थ ( सत्कारः साधुकारः साधुरयं तपस्वी ब्राह्मणः इत्येवमर्थ, मानो माननं प्रत्युत्थानाभिवादनादिस्तदर्थ, पूजा पादप्रक्षालनार्चनाशयितृप्तादिस्तदर्थच ) दम्भेन चैव यत् तपः क्रियते, तत् चलं ( अनियतं ) अध्रुवं (क्षणिक) तपः इह राजसं प्रोतं ॥१८॥ Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तदश अध्याय . अनुवाद। सत्कार, मान और पूजाके लिये दम्भ पूर्वक जो तप अनुष्ठित होता है, वही अनित्य और क्षणिक तप इस लोकमें राजस कहके उक्त होता है ॥ १८॥ - व्याख्या। लोक दिखौआ पूजाका आयोजन, उपवासका आडम्बर, बहुतसे लोग इकठे होकरके शिवरात्रिका अनुष्ठान करते हैं; परन्तु खुद भण्डार घरमें छिपकर पेट भर लेते हैं। चन्दरोजके वास्ते बाहर नाम प्रतिष्ठा प्राप्त करनेके लिये इस प्रकार उपवासकी जो तपस्या परलोकका हितवर्जित और अनिश्चित है, इस तपस्याको राजस तप कहते हैं ॥ १८ ॥ मुढग्राहेणात्मनो यत् पीड़या क्रियते तपः। . परस्योत्सादनार्थ वा तत्तामसमुदाहृतम् ॥ १६ ॥ अन्वयः। मूढ़ग्राहेण (अविवेककृतेन दुराग्रहेण ) आत्मनः पोड्या परस्य ( अन्यस्य ) उत्सादनार्थ वा ( विनाशार्थमभिचाररूपं ) यत् तपः क्रियते तत् तामसं उदाहृतम् ( कथितं ) ॥ १९॥ अनुवाद। अविवेककृत दुराग्रह पूर्वक देहादिको पीड़ा देकरके जो तप किया जाता है, किम्बा दूसरेका विनाश साधनार्थ जो तप किया जाता है उसको तामस तप कहते है॥ १९॥ व्याख्या। विचारबुद्धिविहीन मूर्ख सदृश फलानेको निवंश बिना किये जलग्रहण नहीं करूंगा, यह कह कर अपने शरीरको उपवास द्वारा सुखाकर तापन करना वा अभिचारादि (मारण उच्चाटन प्रभृतिके ) प्रयोग करनेका नाम तामस तपस्या है ॥ १६ ॥ दातव्यमिति यद्दानं दीयतेऽनुपकारिणे । देशे काले च पात्रे च तद्दानं सात्त्विकं स्मृतम् ॥२०॥ अन्वयः। यत् दानं देशे ( पुण्यक्षेत्रे ) काले च ( संक्रान्तिग्रहणपादौ ) अनुपकारिणे ( प्रत्युपकारासमर्थाय ) पात्रे च ( भाचारनिष्ठाय इत्यर्थः) दातव्यं इति दीयते, तत् दानं सात्त्विकं स्मृतं ॥ २० ॥ Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीमद्भगवद्गीता - अनुवाद । “दान करना उचित है यह विवेचना करके जो दान पुण्यदेशमें पुण्यकालमें अनुपकारी सत्पात्रको दिया जाता है, उसी दानको सात्त्विक दान कहते है ॥२०॥ व्याख्या। सत्पात्र ( ब्रह्म ), देश (योगशास्त्रका विष्णुपद ), काल (क्रियाकी परावस्था); इन देश काल और अनुपकारी पात्रमें (ब्रह्ममें क्रियाकी सम्भावना नहीं, इसलिये प्रत्युपकार भी नहीं है ) जो मायिक असत् अवस्तुकी प्रक्षेप-इच्छा (दान ) है, उसीको साविक दान कहते हैं ॥२०॥ यत्त प्रत्युपकारार्थ फलमुद्दिश्य वा पुनः । दीयते च परिक्लिष्टं तद्दानं राजसं स्मृतम् ।। २१॥ . अन्धयः। यत् तु प्रत्युपकारार्थ फलं ( स्वर्गादिकं ) उद्दिश्य वा पुनः परिक्लिष्ट च (चित्तक्लेशयुक्त यथा भवत्येवंभूतं ) दीयते, तत् दानं राजसं स्मृतं ॥ २१ ॥ अनवाद। परन्तु जो दान प्रत्युपकार प्राप्तिको इच्छासे किम्बा फलाकांक्षाके लिये अथवा चित्तके क्लेशके साथ दिया जाता है, उस दानको राजसदान कहा जाता है॥२१॥ व्याख्या। क्रियाकालमें कच्चे अभ्यासके लिये ब्रह्ममार्गसे भ्रष्ट हो करके देव, ऋषि, पितृगणमें मिलकर समाधि लेनेसे जो आत्मसमर्पण होता है, वह कष्टका दान है। क्योंकि परिश्रम तो किया ब्रह्ममें लयके लिये, परन्तु आत्मसमर्पण हुआ देव, ऋषि तथा पितृलोकमें। इसका फल हुमा स्वर्गादि भोगके बाद पुनः संसारमें प्रवेश; फिर यही दुःख सुख हंसी रोलाईकी झगड़ा। इसलिये इस प्रकारके दानको राजस दान कहते हैं ।। २१॥ . अदेशकाले यहानमपात्रेभ्यश्च दीयते । असत्कृतमवज्ञातं तत्तामसमुदाहृतम् ॥ २२ ॥ अन्वयः। अदेशकाले अपात्रेभ्यश्च यत् दानं दीयते तत् असत्कृतं ( सत्कारशून्यं ) अवज्ञातं ( पात्रतिरस्कारयुक्त ) दानं तामसं उदाहृतम् ॥ २२॥ Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तदश अध्याय २५७ अनुवाद। जो दान अदेशमें, अकाल में और कुपात्रको दिया जाता है, उस सत्कारशून्य पात्रतिरस्कारयुक्त दानको तामस दान कहते हैं ॥ २२ ॥ व्याख्या। जगत्में ( प्रदेशमें ) जब बाहरका विषय लेके मतवाला रहता हूँ ऐसे समयमें (अकालमें , भोग्य वस्तुमें (अपात्रमें ) भोगातुर हो करके ( असत्कृत ) जो आत्मसमर्पण ( आत्माको अवज्ञा करके तदाकारत्व लेना) उसको तामस दान कहते हैं ॥२२॥ ॐ तत्सदिति निर्देशों ब्रह्मणविविधः स्मृतः। ब्राह्मणास्तेन वेदाश्च यज्ञाश्च विहिताः पुरा ॥२३॥ तस्मादोमित्युदाहृत्य यज्ञदानतपःक्रियाः। प्रवर्त्तन्ते विधानोक्ताः सततं ब्रह्मवादिनाम् ॥ २४ ।। अन्वयः। ॐ तत् सत् इति त्रिविधो ब्रह्मणः ( परमात्मनः ) निर्देशः (नाम्ना व्यपदेशः ) स्मृतः, तेन ( त्रिविधेन ब्रह्मणो निर्देशन ) ब्राह्मणाश्च वेदाश्च यज्ञाश्च पुरा (सृष्ट्यादौ ) विहिताः ( विधात्रा निमिताः सगुणीकृता इति वा )। तस्मात् ब्रह्मवादिना ( वेदवादिना ) विधानोकाः ( शास्त्रोक्ताः) यज्ञदानतपक्रियाः सततं ऊँ इति उदाहृत्य ( उच्चायं ) प्रवत्तन्ते ॥ २३ ॥ २४ ॥ अनुवाद। ॐ तत् सत् ये तीन प्रकारके ब्रह्मके निर्देश (नाम ) कहे गये हैं, उससे ब्राह्मणगण, वेदसमूह तथा सकल यज्ञ पुराकालमें विहित (निमित्त किम्घा सगुणीकृत ) हुए हैं। इसलिये सर्वदा ब्रह्मवादियोंके शास्त्रोक धर्म यज्ञ दान तपः क्रिया (ऊँ ) इस मन्त्रको उच्चारण करके प्रारम्भ होते हैं ॥ २३ ॥ २४ ।। व्याख्या। जैसे गो शब्द कहनेसे शृंग, लांगूल, चारों पद, और गलकम्बल (गलेमें लटकता हुआ कम्बलाकृति मांस ) युक्त एक पशुकी स्मृति आती है, तैसे ॐ तत् सत् इन तीनोंके प्रत्येक शब्द ही मनमें ब्रह्मभाव लानेका ( निर्देशक ) बीज (ब्रह्मका नाम ) है। इस ॐ तत् सत् द्वारा स्रष्टाने ब्राह्मण, वेद और यज्ञोंको सृष्टिकालमें निर्देश कर दिया है। इसलिये ब्रह्मवादी लोग (जो लोग ब्रह्मको लेकर आलो -१७ Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५८ श्रीमद्भगवद्गीता चना करते हैं ) यह दान तपः क्रियामें प्रवृत्त होनेके समय पवित्रता और पूर्णत्व रक्षाके लिये ॐ शब्द का उच्चारण करके विधानोत कार्यारम्भ करते हैं ॥ २३ ॥ २४ ॥ तदित्यनभिसन्धाय फलं यज्ञतपःक्रियाः। दान क्रियाश्च विविधाः क्रियन्ते मोक्षकांक्षिमि ॥२५॥ अन्वयः। तत् इति उदाहृत्य मोक्षकांक्षिभिः फलं अनभिसन्धाय ( फलाभिसन्धिमकृत्वा ) विविधाः यज्ञतपःक्रिया दानक्रियाश्च कियन्ते ॥ २५ ॥ अनुवाद। “तत्" यह शब्द उच्चारण करके मोक्षाकांक्षिगण फलाभिसन्धि त्याग करके विविध प्रकारके यज्ञ, तप और दानरूप क्रियाका अनुष्ठान करते हैं ॥ २५॥ व्याख्या। और जो लोग मुमुक्षु हैं वे लोग तत् शब्द उच्चारण करके फलकी आकांक्षा छोड़ कर केवल मुक्तिके लिये उस प्रकारके यज्ञ, दान, तप और विविध क्रियाका आचरण करते रहते हैं ॥२५॥ सद्भावे साधुभावे र सदित्येतत्प्रयुज्यते। प्रशस्ते कर्मणि तथा सच्छब्दः पार्थ युज्यते ॥ २६ ॥ यज्ञे तपसि दाने च स्थितिः सदिति चोच्यते । कर्मचैव तदर्थीयं सदित्येवाभिधीयते ॥२७॥ अन्वयः। सद्भावे ( अस्तित्वे ) साधुभावे च ( साधुत्वे ) सत् इत्येतत् ( पदं ) प्रयुज्यते। हे पार्थ । तथा प्रशस्ते ( मांगलिके ) कर्मणि सच्छब्दः युज्यते। यज्ञे तपसि दाने च स्थितिः ( तात्पर्येणावस्थानं ) सत् इति च उच्यते, तदर्थीयं ( ईश्वरार्थीयं ) फर्म चैत्र सत् इति अभिधीयते ॥ २६ ॥ २७॥ अनुवाद। सत्भावमें और साधुभावमें 'सत्' यह पद प्रयुक्त होता है; हे पार्थ ! प्रशस्त ( मांगलिक ) कर्ममें भी सत् शब्द युक्त होता है। यज्ञमें, तपस्यामें और Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तदश अध्याय २५६ दानमें जो स्थिति है वह भी सत् कह करके कथित होती है; तदर्थीय (भगवत् प्रोत्यर्थ अनुष्ठित ) कर्म भी सत् कह करके कथित होता है ॥ २६ ॥ २५॥ . . व्याख्या। सत्भाव और साधुभाव, ये दोनों एक ही वस्तु है; स- क्षीण श्वास, आ आसक्ति, ध-धृति, और उ= स्थिति; सूक्ष्मश्वासमें आसक्ति देनेसे स्थिति जब धारणा हो जाती है, तब ही साधु शब्दका अर्थ खुलता है। इसलिये सद्भाव वा साधुभाव कहनेसे कैवल्य स्थितिको समझाता है। और उस प्रकार स्थितिके लिये जो कर्म ( मुक्तिमार्गमें वायु-चालन ) है, हे पार्थ! उसे भी सत् नाम देते हैं। उसी तरह यज्ञ, तप और दानमें जो स्थिति होती है, चचलता मात्र नहीं रहती है उसे भी सत् कहते हैं; और उस यज्ञ, तप और दानके लिये जो (ब्रह्ममार्गमें ) वायुका चालन होता है बह भी सत् समाजमें सत् शब्दसे अभिहित होता है ॥ २६ ॥२७॥ अश्रद्धया हुतं दत्तं तपस्तप्तं कृतश्च यत् । असदित्युच्यते पार्थ न च तत् प्रेत्य नो इह ॥२८॥ अन्वयः। हे पार्थ । अश्रद्धया हुतं ( हवनं ), दत्त ( दानं ), तपस्तप्तं (निर्वत्तितं ), यत् च ( अन्यदपि) कृतं तत् असत् इति उच्यते, (यतः ) तत् न च प्रेत्य ( लोकान्तरे न फलति विगुणत्वात् ) नो इह (न चास्मिन् लोके फलति अयशस्करत्वात् ) ॥ २८ ॥ अनुवाद। हे पार्थ ! अश्रद्धासे हुत यज्ञ, प्रदत्त दान, निवंतित तपः, और दूसरे जो कुछ कृत हों वे सब ही असत् कह करके कथित होते हैं ( कारण कि ) वे (विगुणत्व हेतु ) न लोकान्तरमें फल प्रदान करते हैं और ( अयशस्करत्व हेतु) न इस लोकमें फल प्रदान करते हैं ॥ २८ ॥ व्याख्खा। हे अर्जुन ! जिस होम, दान तपके जड़में ही अविश्वास (जैसे हमारा होम यज्ञमें विश्वास नहीं, परन्तु घर की स्त्रियों Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६० . श्रीमद्भगवद्गीता की प्रेरणासे मुमको करना पड़ता है, इस प्रकार मनका भाव) है, उसको असत् कहते हैं । वह असत् क्रिया इह और परकालमें (वधिर को सुस्वर सुनाकर सुखी करने के सदृश ) भी कोई मंगल नहीं दे सकती ॥ २८ ॥ रजस्तमोमयीं त्यक्त्वा श्रद्धा सरवमयी श्रितः । तत्वज्ञानेऽधिकारी स्यादिति सप्तदशे स्थितं ॥ -श्रीधर इति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्याया योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुन संवादे श्रद्धात्रयविभागयोगो नाम , सप्तदशोऽध्यायः Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टादशोऽध्यायः अर्जुन उवाच । संन्यासस्य महाबाहो तत्वमिच्छामि वेदितुम्। त्यागस्य च हृषीकेश पृथक् केशिनिसूदन ॥ १ ॥ अन्वयः। अर्जुनः उवाच। भो हृषीकेश ( सर्षेन्द्रियनियामक ) ! हे हाबाहो! केशिनिसूदन] संन्यासस्य त्यागस्य च तत्त्वं ( यथात्म्यं ) पृथक् ( विवेकेन ) वेदितु इच्छामि ॥ १ ॥ अनुवाद। अर्जुन कहते हैं। हे हृषीकेश ! हे महाबाहो केशिनिसूदन ! मैं संन्यासका और त्यागका तत्त्व पृथक् पृथक् रूपसे जाननेकी इच्छा करता हूँ ॥१॥ : व्याख्या। प्रथम अध्यायसे सप्तदश अध्याय पर्यन्त गीता शास्त्रमें जो जो कथा कही हुई हैं, उन्हींकी संक्षिप्त समालोचना वा उपसंहार इस अष्टादश अध्यायमें है। योग शब्दके भीतर दो प्रकारके भाव हैं, एक संन्यास भाव और दूसरा त्याग भाव। सचराचर संन्यासी अथवा त्यागी कहनेसे अन्तःकरण उन दोनोंका अर्थ एक हो करके मान लेता है। यह मान लेना ही सच्चा है, अथवा उसमें और किसी प्रकारका प्रभेद है ? इसे जाननेके लिये साधकके मनमें प्रश्न उठा। हे केशिनिसूदन ! केश शब्दमें आवरक, लोम, जो छिपाके रखता है। आवरणशक्तिको केशि कहते हैं, जो आवरणशक्ति ज्ञानको आच्छादन कर रखती है। केशिनिसूदन अर्थात् जो स्वप्रकाश है, ज्ञानकी आवरणशक्तिका विनाशक है। प्रश्न अज्ञानता जनित होता है; उसी अज्ञानताके नाशके लिये केशिनिसूदन कह करके सम्बोधन किया हुआ है, अर्थात् दैत्यहारी। दैत्य कहते हैं व्यभिचारी क्षत्रियको Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६२ श्रीमद्भगवद्गीता क्रिया-अवस्था ही साधककी क्षत्रिय अवस्था है। "क्षतात् त्रायते इति क्षत्रिय"। क्षत असम्पूर्णताको कहते हैं । इस असम्पूर्णत्वसे जो त्राण पा करके परिपूर्णत्व लेनेकी चेष्टा करते हैं, उन्हींको क्षत्रिय कहते हैं। इस क्षत्रिय-अवस्थामें अर्थात् क्रियाकालमें प्रश्न उठनेसे क्रियामें व्यभिचार आ पहुँचा । उस व्यभिचारके विनाशके लिये साधक विष्णु के शरणागत हुए, अर्थात् निजबोधमें लक्ष्य किए। सुतरां इन्द्रिय समूह संयत हो गए, और फिर साधकको अपने वशमें नहीं ला सके। इस कारणसे हृषीकेश शब्दका व्यवहार किया हुआ है। हृषीकेश - हृषी का इन्द्रिय समूह + ईश-नियन्ता। इस अवस्थामें संन्यास और त्यागका मर्मार्थ समझनेकी चेष्टा होती है। हे महाबाहो ! (जानने का जो कुछ है, सो समस्त ही निजबोधका आयत्ताधीन है, इसलिये महाबाहु शब्द व्यवहार हुआ है ) तुम मुझको संन्यास और त्यागका सार तत्त्व ( पृथकता) समझा दो ॥ १॥ श्रीभगवानुवाच । काम्यानां कर्मणां न्यासं संन्यासं कवयो विदुः । सर्वकर्मफलत्यागं प्राहुस्त्यागं विचक्षणाः ॥२॥ अन्वयः। श्रीभगवान् उवाच । काम्यानां कर्मणां न्यासं ( परित्यागं ) संन्यास कवयः ( पण्डिताः ) विदुः ( जानन्ति ); सर्वकर्मफलत्यागं ( सर्वेषां काम्यानां नित्यनैमित्तिकानां च कर्माणां फलमात्रत्यागं) त्यागं विचक्षणाः ( निपुणाः पण्डिताः) प्राहुः ( कथयन्ति ) ॥ २॥ अनुवाद। श्रीभगवान् कहते हैं। कविगण काम्य कर्म समूहके परित्यागको ही संन्यास कह करके जानते हैं; विचक्षणगण सर्व प्रकार कर्भके फलके त्यागको ही त्याग कहते है॥२॥ व्याख्या। 'श्रीभगवानुवाच' अर्थात् निजबोधसे मीमांसा । Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६३ अष्टादश अध्याय शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्ध ये सब कामनाकी वस्तुएं हैं, इसलिये इन सबको काम्य कहते हैं। कर्म-ब्रह्ममार्गमें वायुचालन। तब ही हुआ, ब्रह्ममार्गमें वायुका चालन भी होता है, पुनः खिसककर विषयपञ्चका स्मरण भी करा देता है; ऐसी मिलित अवस्थाका नाम काम्यकर्म है। (६ष्ठ अः २६ श्लोक )। जहां एक वस्तु दो बार देखनेमें नहीं आती, प्रतिक्षणमें ही नूतन उत्पत्ति होतो है, ऐसे स्थान में जो लोग रहते हैं, उन्हें लोग कवि कहते हैं। वह कविगण ऊपर कहे हुए काम्यकमके नाशको ही संन्यास कह करके जानते हैं। उस संन्यासका आकार इस प्रकार है-ब्रह्ममार्गमें वायुका चालन होता है, वायुके साथ मिला हुआ मन भी आया जाया करता है; परन्तु मनका लक्ष्यस्थल जो विष्णुपद है, उस लक्ष्यको मन छोड़ नहीं देता; इस अवस्थाका नाम संन्यास है। (क्रियावान् साधकको यह अवस्था । अच्छी तरह मालूम है )। और सर्वकर्मफलत्याग क्या ?-न, जब मन क्रिया करते करते उदास ( गांजा पीनेके बाद जैसे मूढ़ अवस्था आती है तैसे ) हो गया, क्रिया और मनके ख्यालमें नहीं है, मन कूटस्थमें अटक पड़ा है, विष्णुपदसे विचलित नहीं होता-आया जाया भी नहीं करता; परन्तु अभ्यासके गुणसे ब्रह्ममार्गके सब स्थानों में ही वायुचालन होता है, अभी भी बन्द नहीं हुआ; अर्थात् नित्य (ब्राह्मीस्थिति ) नैमित्तिक ( परावस्था भोग ) कर्ममें (प्राणचालनका) कोई बाधा नहीं, तथापि मन किसीमें लिप्त नहीं; ऐसी अवस्थाका नाम कर्मफलत्याग अवस्था है। जो साधक इस अवस्थामें जितने अधिक काल तक रह सकते हैं वे साधक उतने अधिक त्यागी हैं। और निरन्तर वास करनेवालेकी आख्या ही त्यागी है। जिस साधकको प्रकृति-पुरुषके ऊपर अबाध हकशक्तिका प्रक्षेप स्थायी हुई है, उन्हींको विचक्षण कहते हैं। वे लोग उस ऊपर कहे हुए अवस्थापन्न साधकों को त्यागी कहते हैं ॥२॥ Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६४ श्रीमद्भगवद्गीता त्याज्यं दोषवदित्येके कर्म प्राहुर्मनीषिणः । यज्ञदानतपाकर्म न त्याज्यमिति चापरे ॥३॥ अन्वयः। एफे मनीषिणः कर्म दोषषत् इति ( हेतोः ) त्याज्यं प्राहुः; अथवा व मं दोषवत् ( दोषो यथा रागादिस्त्यज्यते तथा ) त्याज्यं इति प्राहुः। अपरे च यज्ञदानतपःकर्म न त्याज्यं इति प्राहुः ॥ ३ ॥ अनुवाद। कोई कोई मनीषि कहते हैं कि कर्म दोषयुक्त अतएव त्याज्य (किंवा कर्म रागादि दोषवत् त्याग करना उचित ) है; अपर कोई कोई कहते हैं कि, यज्ञ दान तपः कम त्याज्य नहीं हैं ॥ ३ ॥ व्याख्या। जो साधक मनको अपने वश में ला चुके उन्हें मनीषि कहते हैं। वह मनोषिगण ब्राझीस्थितिका रसास्वाद करके कर्मके (प्राणचालनके ) कम्पनको भी अच्छा मानते नहीं। इस कारणसे उनके लिये कर्म भी त्याज्य है, कहते हैं। और अपर लोग ( दूसरे), जिनका मन उतना वशीभूत नहीं हुआ है, वे सब कहते हैं कि यज्ञा दान, तप, क्रिया यह सब त्यागकी वस्तु नहीं हैं ॥ ३ ॥ निश्चयं शृणु मे तत्र त्यागे भरतसत्तम । त्यागोहि पुरुषव्याघ्र त्रिविधः संप्रकीर्तितः॥४॥ अन्वयः। हे भरतसत्तम । तत्र त्यागे निश्चयं मे ( मम वचनात् ) शृणु ( अवधारय ); हे पुरुषव्याघ्र । त्यागः हि त्रिविधः संप्रकीत्तितः ॥ ४ ॥ अनुवाद। हे भरतसत्तम । उसी त्यागके विषयको निश्चय करके हमारे वचनसे श्रवण करो। हे पुरुषश्रेष्ठ ! त्याग भो त न प्रकार कह करके कीतित है ॥ ४॥ व्याख्या। हे भरतकुल-पावन पुरुषश्रेष्ठ ! ऊपर जो त्यागकी कथा कही हुई है, वह त्याग भो तीन प्रकारका है। उसकी मीमांसा कहता हूँ, श्रवण करो ॥४॥ Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टादश अध्याय यज्ञदानतप कर्म न त्याज्यं कार्य्यमेव तत्। यज्ञोदानं तपश्चैव पावनानि मनीषिणाम् ॥५॥ अन्वयः। यज्ञदानतपः कर्म न त्याज्यं, तत् कार्यम् एष ( करणीयमेव ); यज्ञः दानं तपश्च एव मनीषिणाम् ( विवेकिनां ) पावनानि (चित्तशुद्धिकराणि) n५॥ अनुवाद । यज्ञ, दान, तप कर्म परित्याज्य नहीं है, वे सब अवश्य कर्तव्य है। यज्ञ, दान और तप ही मनीषि लोगोंका चित्तशुद्ध करनेवाला है ॥५॥ व्याख्या। मनको ले करके रहनेसे यज्ञ, तप, दान, यह सब कर्म छोड़ करके रहा नहीं जाता। संस्कार से आप ही आप करा देता है। क्योंकि विवेकियोंके अन्तःकरण शुद्धि करनेकी उपादान ही ( मसाला ) यज्ञ, दान और तप है ॥५॥ एतान्यपि तु कर्माणि संगं त्यत्तवा फलानि च। कर्तव्यानीति मे पार्थ निश्चितं मतमुत्तमम् ॥ ६ ॥ अन्वयः। हे पार्थ! अपि तु एतानि कर्माणि संगं (कत्त त्वाभिनिवेशं) फलानि च त्यक्त्वा कर्तव्यानि इति में निश्चितं उत्तम मतं ॥ ६॥ .. अनुवाद। हे पार्थ ! परन्तु इन सब कर्मों का अनुष्ठान संग और फलको त्याग करके करना चाहिये। यही हमारा निश्चित उत्तम मत है ।। ६॥ __ व्याख्या। जैसे एक हाथी के पगके परिधिके भीतर समस्त पगका स्थान होता है, तैसे एक ब्रह्ममार्गमें वायु-चालन होनेसे समस्त यन्त्र, दान और तपका कर्म ही सम्पन्न होता है, अथच संग अर्थात् इच्छारूपिणी मायाका संस्रव न रहनेके कारण कर्मफलमें लिप्त होना नहीं पड़ता। इसलिये कहा गया कि, संग ( कर्मफलेच्छा) परित्याग करके यज्ञ, दान, तपः कर्म करना हो निश्चय कर्त्तव्य है। हे पार्थ! हमारा श्रेष्ठ अभिप्राय यही है। (२य ः४५४६ श्लोक, ३य : श्लोक ५म : १० श्लोक हम अः २०।२१ श्लोक)॥ ६॥ : Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६६ श्रीमद्भगवद्गीता नियतस्य तु संन्यासः कर्मणो नोपपद्यते । मोहात्तस्य परित्यागस्तामसः परिकीत्तितः॥७॥ अन्वयः। नियतस्य ( नित्यस्य ) कर्मणः तु सन्यासः ( परित्यागः ) न उपपद्यते; मोहात् तस्य परित्यागः तामसः परिकीत्तितः ॥ ७॥ ___ अनुवाद। किन्तु नित्यकर्मका परित्याग करना कत्तव्य नहीं है; मोहवशतः उसका परित्याग तामस कह करके कौत्तित होता है ॥ ७॥ व्याख्या। फलाकांक्षा-रहित कमका उपदेश करनेसे कर्मत्यागका उपदेश नहीं किया गया। अविवेकी मूखंगण मोहके वशसे जिस कर्मका त्याग करते हैं, उसको तामस त्याग कहते हैं ॥७॥ दुःखमित्येव यत्कर्म कायफ्लेशभयास्यजेत् । स कृत्वा राजसं त्यागं नैव त्यागफलं लभेत् ॥८॥ अन्वयः। दुःख इति एष ( मत्वा ) यत् कर्म कायक्लेशभयात् ( शरीरदुःखभयात् ) त्यजेत् सः राजसं त्यागं कृत्वा त्यागफलं (ज्ञाननिष्ठालक्षणं ) न एव लभेत् ॥ ८॥ - अनुवाद। दुःख बोध करके कायक्लेश भयके लिये जो की कमका परित्याग करता है, वह राजस त्याग करके त्यागफल (मोक्ष ) लाभ नहीं कर सकता ॥ ८॥ व्याख्या। [ लाभ नहीं, व्योपारका सार बखेड़ा है ] । वह जो फलाकांक्षा-रहित कर्मका उपदेश है, उस मतके कर्ममें आदि, अन्त और मध्य युक्त कुछ भी नहीं मिलता। केवल निकम्मे बैठे बैठे आकाश धोनेके काम है। ऐसे खाली बैठे बैठे शरीरमें जड़त्व आता है और इसी अवस्थामें कालान्तर प्राप्त होनेसे शरीर अस्वस्थ्य हो जाता है, इत्यादि कल्पित भय करके जो सब लोग उस कर्मको परित्याग करते हैं, उन सबको एकको छोड़कर दूसरे कर्मको करना ही पड़ता है, परन्तु ब्राह्मीस्थिति वा ब्रह्मज्ञान जो उस महत् त्यागके Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टादश अध्याय २६७फल है उसे वे लोग नहीं पाते। उनके त्यागको राजस त्याग कहते हैं ।। ८॥ कार्यमित्येव यत्कर्म नियतं क्रियतेऽर्जुन । संगं त्यक्त्वा फलं चैव स त्यागः सात्विको मतः ॥ ६ ॥ अन्वयः। हे अर्जुन ! यत् कर्म कार्यम् इति एव ( बुध्वा ) संगं फलं च एक त्यक्त्वा नियतं क्रियते, सः त्यागः सात्त्विकः मतः ॥ ९ ॥ अनुवाद। हे अर्जुन ! जिस कर्मको अवश्य कर्तव्य बोध करके, संग और फल परित्याग करके, नियत अनुष्ठान किया जाता है ( उसमें जो त्याग है ) उसी त्यागको सात्त्विक त्याग कहते हैं ।। ९॥ व्याख्या। बाहर अभ्यासके कारणसे ज्ञानेन्द्रियों और कर्मेन्द्रियों का जो कुछ कार्य होता जाता है, भीतर अनासक्त भावसे ब्रह्मनाड़ीका प्राण-चालन भी होता चला जाता है, यह जो संयत क्रिया है, इसमें कर्मफलमें कोई आसक्ति नहीं रहती, मैं त्याग करता हूँ, यह कह करके त्यागमें भी आसक्ति नहीं रहती। हे अर्जुन ! इस प्रकार त्याग को ही सात्विक त्याग कहते हैं ॥ ६॥ . न द्वष्ट्यकुशलं कर्म कुशलेनानुषज्यते । त्यागी सत्त्वसमाविष्टो मेधावी छिन्नसंशयः ॥१०॥ अन्वयः। त्यागी ( सात्त्विकत्यागी ) सत्त्वसमाविष्टः ( सत्त्वेन आत्मानात्मविवेकविज्ञानहेतुना समाविष्टः संव्याप्तः संयुक्तः ) अतएव मेधावी ( मेधया आत्मज्ञानलक्षणया प्रज्ञया संयुक्तः, स्थिरबुद्धिरित्यर्थः ) अतएव छिन्नसंशयः (छिन्नः संशयः मिथ्याज्ञानं यस्य सः) भूत्वा अकुशलं ( दुःखावहं ) कर्म न द्वष्टि कुशले च ( सुखकरे कर्मणि ) न अनुषज्जते ( प्रीतिं न करोति ) ॥ १०॥ अनुवाद। त्यागीगण सत्त्वसमाविष्ट, स्थिरबुद्धि और छिन्नसंशय होनेसे दुःखकर कर्मके प्रति द्वष नहीं करते तथा सुखकर कर्मों से प्रीति भी नहीं करते ॥१०॥ Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६८ श्रीमद्भगवद्गीता व्याख्या। सत्भाव-व्यन्जक शब्दको सत्स्व कहते हैं अर्थात् जो सत्य, न्याय, धर्म, दया, भक्ति, महत्व, पवित्रतादि उत्पन्न करता है। अर्थात् आत्मा। इस आत्मामें जो अभिनिविष्ट हैं, जो अपनेमें आप रह कर के अन्तःकरणमें दूसरा और किसीका ग्रहण नहीं करते, उन्हें सस्वसमाविष्ट कहते हैं । आत्मस्वरूप ही नित्य है, तदतिरिक समस्त ही अनित्य है इसे निश्चय करके जो पुरुष समस्त अनित्यको वर्जन कर चुके, उन्हींको त्यागी कहते हैं। स्मृतिशक्तिमान मेधावी है; अर्थात् मैं ब्रह्म बिना और कुछ नहीं हूँ, इस स्मृतिमें जिनको कम्पन नहीं आता उन्होंको मेधावी कहते हैं। ऐसे ऐसे अवस्थापन्न साधकको संशय मात्र भी नहीं रहता। इसलिये ये लोग अहितकर कर्मों से । द्वेष, और हितकर कर्म करनेके लिये साजसज्जा नहीं करते ॥ १० ॥ न हि देहभृता शक्यं त्यक्तू कर्माण्यशेषतः । यस्तु कर्मफलत्यागी स त्यागीत्यभिधीयते ॥ ११ ॥ अन्वयः। देहभृता ( देहाभिमानवता ) अशेषतः ( निःशेषण ) कर्माणि त्यक्त न शक्यं । ( तस्मात् ) यस्तु कर्मफलत्यागी स एव त्यागी इति अभिधीयते ॥ ११॥ अनुवाद। देहाभिमानी पुरुष निःशेष रूपसे समस्त कर्मका त्याग करनेमें समर्थ नहीं होते। ( इस कारण ) जो पुरुष कर्मफलत्यागी हैं वे ही त्यागी कह करके अभिहित होते हैं। ११॥ व्याख्या। जो सब मनुष्य शरीरको ही “मैं” निश्चय करके बैठे हैं, ब्रह्ममार्गमें वायुचालन करनेका अधिकार नहीं रखते, बाहरके विषय ले करके ही कारबार करते रहते हैं; ऐसे अज्ञानियोंको 'देहभृत्' कहते हैं। वे लोग 'मैं कर्ता” सज करके कर्मों का त्याग करने नहीं सकते और कर्म-बन्धनमें फंस जाते हैं। और जो लोग विवेकी हैं, वे लोग कर्मफल त्याग करके कर्म करनेसे त्यागी नाम प्राप्त कर लेते हैं। ( २य अः २१ श्लोक ) ॥ ११ ॥ Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टादश अध्याय २६६ . अनिष्टमिष्टं मिश्रच त्रिविध कर्मणः फलम् । भवत्यत्यागिनां प्रेत्य नतु संन्यासिनो क्वचित् ॥ १२ ॥ अन्वयः। अनिष्टं ( नारकित्वं ) इष्ट ( देवत्वं ) मिजं च ( मनुष्यत्वं ) एवं त्रिविधं कर्मणः फलं अत्यागिनां ( सकामानामेव ) प्रेत्य ( परत्र, शरीरपातादूर्व) भवति; तु ( किन्तु ) संन्यासिनो ( परमार्थसंन्यासिनो कर्मफलत्यागिना ) न क्वचित् अपि भवति ॥ १२ ॥ अनुवाद। अनिष्ट, इष्ट और मिश्र, कर्मके यह तीन प्रकारके फल अत्यागियों को शरीरपातके पश्चात् प्राप्त होते हैं, किन्तु संन्यासियोंको कहीं भी नहीं मिलते ॥ १२॥ व्याख्या। भला, बुरा और भलाबुरा मिला हुश्रा यह जो तीन प्रकारका कर्मफल है इसके भले फलले देवत्व प्राप्ति, मन्द फलसे नरक भोग और मिश्र फलसे मनुष्यत्व प्राप्ति होती है। जो लोग अत्यागी अर्थात् कामनापरायण हैं उन्हें यह सब फल परत्र अर्थात् परजीवन में भोगने पड़ते हैं। परन्तु जो लोग संन्यासी अर्थात् कर्म-फलत्यागी हैं उन सबको यह सब कर्मफल स्पर्श भी नहीं कर सकते। क्योंकि "तत् कुरुष्व मदर्पणम्” इस वचनके अनुसार उनके सर्वकर्म भगवानमें समर्पित होनेसे वे लोग कर्मबन्धनसे मुक्त हैं। उनके शरीर धारण करके चलने फिरनेसे अजानतः जो कुछ पाप होता है, जो लोग उनकी निन्दा करते हैं, वे निन्दकगण ही उस पापको ग्रहण करते हैं। और जानतः वे जो पुण्य करते हैं, जो लोग उनकी प्रशंसा करते हैं, वे लोग उस पुण्यके फलको ग्रहण करते हैं । इसलिये कर्मफलत्यागियोंकी मुक्ति ही मुक्ति निश्चय है ॥ १२ ॥ पञ्चतानि महाबाहो कारणानि निबोध मे। सांख्ये कृतान्ते प्रोक्तानि सिद्धये सर्वकर्मणाम् ॥ १३ ॥ अन्वयः। हे महाबाहो ! सर्व कर्मणा सिद्धये ( निष्पत्तये ) साख्ये कृतान्ते Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७० श्रीमद्भगवद्गीता ( वेदान्ते ) प्रोक्तानि एतानि (वक्ष्यमाणानि ) पञ्च कारणानि मे ( मम वचनात् ) “निबोध ( जानीहि) ॥ १३ ॥ अनुवाद। हे महाबाहो। सर्वकर्मणां सिद्धये (निष्पत्तये ) सांख्ये कृतान्त ( वेदान्तमें ) कथित, ये वक्ष्यमाण पांच कारण हमारे वचनसे अवगत हो जाओ ॥ १३ ॥ व्याख्या। हे महाबाहो ! जिस शास्त्रसे ( तन्न तन्न करते हुए त्याग करते करते तत्त्व समूहका क्षय होनेके बाद ) आत्मज्ञानका उदय होता है, उसे सांख्य कहते हैं। और जो शास्त्र अविद्या, अध्यारोप, अपवाद द्वारा समस्त प्रपन्च की अनित्यताको समझाकर आत्माका . नित्यत्व दिखाता है, उसीको कृतान्त वा वेदान्त कहते हैं। - ____ ज्ञातव्य पदार्थ समूहको जिस शास्त्रसे संख्या की जाय, जाना जाय, उसे सांख्य कहते हैं अर्थात् वेदान्त। “कृतान्त”—यह शब्द सांख्यका ही विशेषण है। कृत अर्थात् जिसे किया गया-कर्म, इस कर्मका अन्त ( परिसमाप्ति ) जिससे होता है वही कृतान्त है, कर्मान्त वा वेदान्त सिद्धान्त। इसमें "यावानर्थ उदपाने” “सर्व कर्माखिलं पार्थ ज्ञाने परिसमाप्यते” इन सब वचनों के द्वारा आत्मज्ञानकी उत्पत्ति होनेके पश्वात् जो सर्वकर्मको निवृत्ति होती है, वही दिखाया गया। और उस आत्मज्ञानके लिये सर्वकर्मके निष्पत्तिके पांच कारण उक्त हैं। उन्हीं पाँच कारणोंको जानना आवश्यक है। भगवानने पश्चात् श्लोकमें उसे प्रकाश किया है ॥ १३ ॥ भधिष्ठानं तथा कर्ता करणञ्च पृथग्विधम् । विविधाश्च पृथक् चेष्टा देवं चैवात्र पचमम् ॥ १॥ . अन्वयः। अधिष्ठानं ( शरीरं ) तथा कर्ता ( उपाधिलक्षणो भोक्ता ) पृथविध ( नानाप्रकारं द्वादशसंख्यं ) करणं च (श्रोत्रादिकं), विविधाः पृथक् च ( कार्यतः स्वरूपतश्च पृथकभूताs) चेष्टाः ( प्राणापानादीनां व्यापाराः) अत्र (एतेषु ) एव पञ्चमं देवं ( चक्षुरायनुग्राहकादित्यादि सर्वप्रेरकोऽन्तर्यामी वा) ॥ १४ ॥ Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टादश अध्याय १२७१ अनुवाद । अधिष्ठान, कत्ता, पृथविध करण, नानाविध पृथक् चेष्टा, और इन -सबके भीतर पञ्चम स्वरूप देव है ।। १४ ॥ व्याख्या। अधिष्ठान-जिसको "मैं' मान करके बैठा हूँ अर्थात् यह देह। कर्ता-उपाधिलक्षणसे मिलित भोक्ता। अर्थात देह, इन्द्रिय मन आदिका कोई भी मैं नहीं हूँ यह सब प्रत्येक ही मैंसे पृथक है। परन्तु अज्ञानताके कल्याणसे (आकाशमें प्रलेपके सदृश) इनके साथ जैसे मिलकर एक हो करके "मैं" सज लिया हूँ (जैसे "मैं सोचता हूँ"; मैं कभी नहीं सोचता, मन ही सोचता है; परन्तु मनके साथ मिल करके मन ही जैसे "मैं" बन गया है; यह जो हेल मेल भाव है इसी प्रकार )। पाँच कर्मेन्द्रिय, पाँच ज्ञानेन्द्रिय, मन और बुद्धि यह बारह करण हैं। विविध चेष्टा-४६ उन्चास वायुके आकर्षण विकर्षण और मिलनसे नाना प्रकार क्षयोदयका प्रकाश है। दैव अदृष्ट वा पूर्वकृत कर्मफलको कहते हैं ॥ १४ ॥ शरीरवाङ मनोभिर्यत् कर्म प्रारभते नरः। न्याय्यं वा विपरीतं वा पञ्चैते तस्य हेतवः ॥ १५॥ अन्वयः। नरः शरीरवाङ मगोभिः यत् न्माय्यं ( धम्यं शास्त्रीयं ) विपरीतं वा (अधर्म्य अशास्त्रीयं ) कर्म प्रारभते ( करोति), तस्य ( सर्वस्य कर्मणः) एते पञ्च हेतवः ( कारणानि ) ॥ १५॥ अनुवाद। मनुष्य शरीर, वाक्य और मनके द्वारा न्याय्य वा विपरीत जो कर्म करता है, उसके ये पांच कारण हैं ॥ १५॥ व्याख्या। शरीर, वाक्य और मनके द्वारा मानव न्याय और अन्याय जितने प्रकार के काजका प्रारम्भ करते हैं, उन सब कर्मों का इन पांच बिना और कोई दूसरा कारण नहीं है ॥ १५ ॥ Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५२ श्रीमद्भगवद्गीता तत्रैव सति कर्तारमात्मानं केवलन्तु यः । पश्यत्यकृतबुद्धित्वान्न स पश्यति दुर्मतिः ॥ १६ ॥ अन्वयः। तत्र ( सर्वस्मिन् कर्मणि) एवं ( एते पञ्च हेतव इत्येवं सति यः केवलं ( निरुपाधिमसंगं) आत्मानं कतारं पश्यति, अकृतबुद्धित्वात् ( असंस्कृतबुद्धित्वात् ) स दुर्मतिः ( सम्यक् ) न पश्यति ॥ १६ ।। अनुवाद। उस विषयमें ( सर्व प्रकार कर्मके सम्बन्धमें) इस प्रकार होनेसे भी ( इन पांचके हेतु होने से भो ) जो पुरुष निरुपाधि असंग आत्माको कर्तारूप मान करके दर्शन करता है, वह दुर्मति असंस्कृत बुद्धि हेतु सम्यक् देखने नहीं पाता ॥१६॥ व्याख्या। मैं आत्मा, केवलराम, नित्य, शुद्ध, बुद्ध मुक्त और निष्क्रिय हूँ। कहे हुए उन पांचोंका कोई हेतु भी मुझको छू नहीं सकता। परन्तु जो लोग चर्मचक्षुके देखनेसे "मैं देखता हूँ" हाथकी करनीसे "मैं करता हूँ" मनकी गढ़ाई में "मैं गढ़ता हूँ", बुद्धिके निश्चय करनेसे "मैं निश्चय करता हूँ” इस प्रकार सोचते हैं, अपनेको ( आत्मा को) कर्ता बनाते हैं, वे लोग अकृतबुद्धि (देहात्माभिमानी) तथा दुर्मति हैं ( उन सभोंकी मति वा मन जन्म-मृत्यु प्रदान करने वाला हेतुको ले कर रहता है, वे अपनेमें आप नहीं रह सकते, आत्मासे दूर रहते हैं)। इसलिये अपनेको देख करके भी देखने नहीं पाते, दूर दूरमें फिरते रहते हैं ॥ १६ ॥ यस्य नाहंकृतो भावो बुद्धिर्यस्य न लिप्यते । हत्वापि स इमान् लोकान्न हन्ति न निबध्यते ॥ १७॥ अन्वयः। यस्य अहंकृतो भावः ( अहंकर्ता इत्येवंभूतोऽभिप्रायः ) न (अस्ति), यस्य बुद्धिः न लिप्यते ( इष्टानिष्टबुद्ध या कर्मसु न सज्जते ) स इमान् लोकान् ( सर्षानपि प्राणिनः) हत्वा अपि न हन्ति, न च ( तत्फलेः) निबध्यते ( बन्धन प्राप्नोति ) ॥ १७ ॥ Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टादश अध्याय २७३ अनुवाद। जिसका अहंकृत भाव नहीं है, जिसकी बुद्धि लिप्त नहीं होती, वह पुरुष इन समस्त लोकोंको हनन करके भी हनन नहीं करता और ( तत्फल में ) निबद्ध भी नहीं होता ॥ १७ ॥ - व्याख्या। जिस पुरुषको क्रिया द्वारा "मैं" भाव निश्चय हो चुका, जिसकी बुद्धि अपनेको कर्त्ता कह करके स्वीकार करने के लिये अवसर नहीं पाती, जो अपने में ही अच्युत भावसे आप रहता है, आदि-अन्त-मध्ययुक्त किसीमें लिप्त नहीं होता; उसके शरीरके हिलने डोलनेसे (जैसे सो रहा हूँ बिछौनेमें खटमल काटता है, करवट ले लिया, निद्राके आवेगसे खटमल मर गये ) इस लोक-जगत्में ऐसे ऐसे हत्याके कार्य हो जानेसे भी वह हननकर्ता नहीं होता, वा वधके लिये कर्मफलके बन्धनमें नहीं फंसता ( २य अः १७ से २१ श्लोक तक देखो)॥ १७ ॥ ज्ञानं ज्ञेयं परिज्ञाता त्रिविधा कर्मचोदना । करणं कर्म कर्तेति त्रिविधः कर्मसंग्रहः ॥ १८ ॥ अन्वयः। ज्ञानं ( इष्ठसाधनमेतदिति बोधः ) ज्ञेयं ( इष्टसाधनं कर्म ) परिज्ञाता ( एतद्ज्ञानाश्रयः) एवं त्रिविधा कर्मचोदना ( कर्मप्रवृत्तिहेतुः) करणं ( साधकतम ) कर्म ( कत्त रीप्सिततमं ) कर्ता व ( क्रियानिवत्तकः ) इति त्रिविधः कर्मसंग्रहः ( कर्म संगृह्यते अस्मिन् इति कर्मसंग्रहः करणादित्रिविध कारक क्रियाश्रय इत्यर्थः ) ॥ १८ ॥ .. अनुवाद। ज्ञान, ज्ञेय और परिज्ञाता, ये तीनों धर्मप्रवृत्तिके हेतु हैं; करण, कम और कर्ता ये तीन प्रकारके कर्मसंग्रह अर्थात् क्रियाके आश्रय हैं ॥ १८॥ . व्याख्या। जैसे घट एक कार्य है, इसका हेतु है-कुम्भकार ( कर्ता ), मृत्तिका ( अधिष्ठान ), कुलालचक्र दण्ड आदि ( करण ), हस्तसञ्चालनादि क्रिया (चेष्टा ) और कुम्भकारके घट निर्माणका संस्कार (देव)। घटको निर्माण करनेके लिये ये पांचों प्रयोजनीय हैं। परन्तु इन पांचोंके रहनेसे ही क्या घट तैयार होता है ? अर्थात् -१८ Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७४ श्रीमद्भगवद्गीता मृत्तिका, चक्र, कुम्भकार, उसकी क्रियाशक्ति और संस्कार रहनेसे भी अगर वह घट न गढ़े क्या तौभी घट बन सकता है ? घट निर्माण कार्यमें अगर उसको कोई प्रेरणा करे तबही घट हो सकता है, नहीं तो नहीं हो सकता। इसलिये कहा हुआ है कि कार्य होनेके लिये ये पांचों हेतु और उस कार्यका प्रेरयिता रहना चाहिये। वह प्रेरयिता कौन है ?-ना, ज्ञान, ज्ञेय और परिज्ञाता। "मेरा फलाने द्रव्यका प्रयोजन है" यहां वह प्रयोजन बोध ही "ज्ञान" है, द्रव्य "ज्ञेय" है, और मैं “परिज्ञाता" हूँ। अगर वह द्रव्य हमारा आवश्यक न होय तो क्या उसके लिये मैं चेष्टा करू ? इसलिये ज्ञान, ज्ञेय और परिज्ञाता ये सब कर्ममें नियुक्त ( वाध्य ) करते हैं। और जब हमें फलाना द्रव्य आवश्यक निश्चय हो गया, तब चक्षु-कर्ण-हस्त-पदादि की संचालनरूप क्रिया द्वारा मैंने उसे कर लिया; यहां वह चक्षु कर्णादि "करण' हैं, संचालन क्रिया ही “कर्म" है, और मैं "कर्ता" हूँ। इसलिये कहा गया है कि करण, कर्म और कर्त्ता ये सब कार्यके आश्रय हैं, अर्थात् इन तीनों के ऊपर कार्य निर्भर करता है ॥ १८ ॥ ज्ञानं कम च कर्ता च त्रिधव गुणभेदतः। प्रोच्यते' गुणसंख्याने यथावच्छृणु तान्यपि ॥ १६ ॥ अन्वयः। गुणसंख्याने ( गुणाः सम्यक् कार्यभेदेन ख्यायन्ते प्रतिपाद्यन्तेऽस्मिन्निति गुणसंख्यानं सांख्यशास्त्रं तस्मिन् ) ज्ञानं कर्म च कर्ता च गुणभेदतः (प्रत्येक सत्त्वादिगुणभेदन ) त्रिधा एव प्रोच्यते, तान्यपि (ज्ञानादीनि वक्ष्यमाणानि ) यथावत् ( यथाशास्त्रं ) शृणु ॥ १९॥ अनुवाद । सांख्यशास्त्रमें ज्ञान, कर्म और कर्ता प्रत्येक ही सत्त्वादि गुणभेद करके तीन प्रकार के कथित हैं; उन्हें यथाशास्त्र ( कहता हूँ ) श्रवण करो ॥ १९॥ व्याख्या। गुणोंको सम्यक् रूपसे जिससे जाना जाय वही गुणसंख्यान, अर्थात् सांख्यशास्त्र है। उस सांख्यशास्त्रमें सत्व, रज और Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का सव 'अष्टपदश अध्याय तमोगुणका ज्ञान, कर्म और फर्त्ता ये तीन जिस आकारसे अंकित हुए हैं, उन्हें मैं एक एक करके तुमसे कहता हूँ, सुनलो ॥ १६ ॥ सर्वभूतेषु येनैकं भावमव्ययमीक्षते । अविभक्तं विभक्तेषु तज्ज्ञानं विद्धि सात्त्विकम् ॥२०॥ __ अन्वयः। येन ( ज्ञानेन ) विभक्त षु ( परस्परं व्यावृत्तषु ) सर्वभूतेषु ( ब्रह्मादिस्थावरान्तेषु ) अविभक्त ( अनुस्यूतं ) एकं अव्ययं ( निर्विकारं भावं ) परमात्मतत्त्वं ईक्षते, तत् ज्ञानं सात्त्विकं विद्धि ॥ २० ॥ अनुवाद ।, जिसके द्वारा विभक्त सर्वभूतों में एक अव्यय अविभक्त भाव परिदृष्ट होता है उसी ज्ञानको सात्त्विक जानना ॥ २० ॥ व्याख्या। यह जो मायासे आदि लेकरके स्थावरान्त पर्यन्त आकाश, वायु, अग्नि, जल, मृत्तिका, स्वेदज, अण्डज, उद्भिज्ज, जरायुज प्रजाको पृथक् पृथक् भाक्से देखते हो, यह सबही विनाशी हैं । जो विनाशी है वही अनित्य है। इन सबके परिणाममें जो है, वही नित्य और अव्यय है। सुतरां यह जो पृथक् भाव है, यह केवल नाम और रूपके लिये पृथक्ता दिखाई पड़ता है, असलमें एक बिना दो नहीं है। जब इस ज्ञानका उदय होगा, तबही उसे सात्त्विक कह करके जानना ॥ २० ॥ पृथक्त्वेन तु यज्ज्ञानं नानाभावान् पृथग्विधान् । वेत्ति सर्वेषु भूतेषु तज्ज्ञानं विद्धि राजसम् ॥२१॥ अन्वयः। तु ( किन्तु ) यज्ज्ञानं सर्वेषु भूतेषु पृथविधान् नानाभाषान् पृथक्त्वेन वेत्ति, तज्ज्ञानं राजसं विद्धि ॥ २१ ॥ अनुवाद। परन्तु जिस ज्ञानसे सर्वभूतोंमें पृथविध नाना भाव समूहको पृथक रूपसे जाना जाता है, उस ज्ञानको राजस जानना ॥ २१॥ व्याख्या। जिस ज्ञानसे दृश्यमान पदार्थों के प्रत्येकको पृथक रूपसे समझ लेता है, उस ज्ञानको राजस ज्ञान जानना ॥२१॥ Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . २७६ श्रीमद्भगवद्गीता यत्तु कृत्स्नवदेकस्मिन् कार्ये सक्तमहैतुकम् । अतत्त्वार्थवदल्पञ्च तत्तामसमुदाहृतम् ॥ २२ ॥ अन्वयः। यत् तु.( ज्ञानं ) एकस्मिन् कार्ये ( देहे प्रतिमादौ वा) कृत्स्नषत् (परिपूर्णवत् ) सक्त ( एतावानेवात्मा ईश्वरो वेत्यभिनिवेशयुक्त) अहैतुकं ( हेतुवजितं ), अतत्त्वार्थवत् ( परमार्थालम्बनशून्यं ) अल्पं च (तुच्छं अल्पविषयत्वात् अल्पफलत्वाच्च ), तत् ( ज्ञानं ) तामसं उदाहृतम् ॥ २२ ॥ अनुवाद। और जो ज्ञान एक कार्य में ( देहमें वा प्रतिमादिमें ) परिपूर्णवत् आसक्त ( अर्थात् यही आत्मा वा ईश्वर है इस प्रकार अभिनिवेशयुक्त), हेतुष जित, परमार्थालम्बनशून्य, और अल्प है, उसोको तामस ज्ञान कह करके जाना ।। २२ ।। व्याख्या। यह क्षुद्र भोगायतन शरीर ही मैं हूँ, और जगत्में जो कुछ दृश्य पदार्थ हैं, वे सब ही हमारे भोगके लिये हैं; जो ज्ञान इस सिद्धान्तको उत्पन्न करता है, जो ज्ञान विचार-युक्ति विहीन, परमार्थलक्ष्य-भ्रष्ट और संकीर्ण है, उसे तामस ज्ञान कहते हैं ॥ २२॥ नियतं संगरहितमरागद्वषतः कृतम् । अफलप्रेप्सुना कर्म यत्तत् सात्त्विकमुच्यते ॥ २३ ॥ अन्वयः। यत् नियतं (नित्यतया विहितं ) कर्म अफलप्रेप्सुना ( निष्कामेण कत्रों ) संगरहितं ( अभिनिवेशशून्यं यथा स्यात् तथा ) अरागद्वेषतः कृतम् , तत् कर्म सात्त्विक उच्यते ॥ २३ ॥ अनुवाद। नित्यरूप करके विहित जो कर्म निष्काम कर्ताके द्वारा संगरहित हो करके तथा रागद्वेष वजित हो करके कृत होय, उसको सात्त्विक कर्म कहा जाता है॥ २३॥ ___ व्याख्या। जब संस्कार वश करके अबाधतः ब्रह्ममार्गमें प्राणका चालन होता रहता है; इच्छा, अनुराग वा द्वषका छुआछूत नहीं रहता है, अधिक क्या-कर्मफलको आशाका उदय भी नहीं होता, उमीको सात्विक कर्म कहते हैं ॥ २३ ॥ Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टादश अध्याय २०७ यत्तु कामेप्सुना कर्म साहंकारेण वा पुनः। क्रियते बहुलाथासं तद्राजसमुदाहृतम् ॥ २४ ॥ अन्वयः। तु यत्कर्म कामेप्सुना ( फलं प्राप्तुमिच्छता ) साहंकारेण वा ( अहंकार. युक्त न कर्ता वा ) क्रियते, पुनः बहुलायासं ( यत् पुनः अतिक्लेशयुक्त ) तत् ( कर्म ) राजसं उदाहृतम् ॥ २४ ॥ अनुवाद । किन्तु जो कर्म फलकामौ वा अहंकारी मनुष्योंके द्वारा अनुष्ठित होता है, और जो अति क्लेशयुक्त है उसको राजस कर्म कहते हैं ॥ २४ ॥ व्याख्या। हमारे मकानमें गोबर गणेशको पूजा है, इन्द्रके नन्दनवनसे नील कमल लानेके लिये आदमो दौड़ा, गाजे बाजेके शब्द से गांव भर अस्थिर हो गया, इस प्रकार नाम जाहिर करनेवाले कर्म को राजस कर्म कहते हैं ॥ २४ ॥ अनुबन्ध क्षयं हिंसामनपेक्ष्य च पौरुषम् । मोहादारभ्यते कर्म यत्तत्तामसमुच्यते ॥ २५ ॥ अन्वयः। अनुबन्ध ( पश्चात् भावि शुभाशुभं) क्षयं ( वित्तक्षयं ) हिंसा (परपीड़ां ) पौरुषं च ( स्वसामाथ्यं ) अनपेक्ष्य ( अपर्यालोच्य ) यत् कर्म मोहात् ( अविवेकतः ) आरभ्यते, तत् तामसं उदाहृतम् ।। २५ ॥ अनुवाद। पश्चात्भावि शुभाशुभ, क्षय, परपीड़ा, स्वसामर्थ्यकी पर्यालोचनां न करके मोहके वशसे जिस कर्मका प्रारम्भ किया जाता है, उसको तामस कर्म कहते हैं ॥ २५॥ व्याख्या। फल क्या होगा उसका ठौर ठिकाना नहीं, अपनी सामर्थ्य न समझ करके, शत्रको मारनेके लिये उपवास करके श्मशान जगाता हूँ. विधि नहीं मन्त्र नहीं ( मन जो संकल्प-विकल्परूप चचलताको लिया है, वह चञ्चलता जिससे त्याग होती है उसीको मन्त्र कहते हैं। यह कर्म गुरूपदेश सापेक्ष है ); ऐसे जो अझनतामय कर्म हैं; उनको तामस कर्म कहते हैं ॥२५॥ Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५८ . ____ श्रीमद्भगवद्गीता .. मुक्तसंगोऽनहंवादी धृत्युत्साहसमन्वितः। सिध्यसिध्योर्निर्विकारः कर्ता साविक उच्यते ।। २६ ॥ . अन्वयः। मुक्तसंगः ( त्यक्ताभिनिवेशः ) अनहंवादी (नाहं वदनशीलः गर्वोक्तिरहितः ) धृत्युत्साहसमन्वितः (धेर्योद्यमाभ्यां संयुक्तः ) सिध्यसिध्यो निविकारः ( आरब्धस्य कर्मणः सिद्धावसिद्धौ च हर्षविषादशून्यः ) कर्ता सात्त्वि उच्यते ॥ २६ ॥ अनुवाद। संगरहित, अनहंवादी ( अहं इस प्रकार गर्वोक्ति रहित ), धेय्यं और उत्साहसे युक्त, सिद्धि और असिद्धि में हर्ष विषादरूप विकार शून्यः कर्तागण सात्त्विक कहके उक्त होते हैं ॥ २६ ॥ व्याख्या। जिस साधकके क्रिया कालमें इच्छाका उद्रेक नहीं होता, [ मैं कह करके अभिमान नहीं रहता, जिसका मन ब्रह्ममार्ग में ही बंधा रहता है, प्रति क्रममें ही जो साधक विस्तारतामें मिल जानेके लिये अग्रसर होता है, सिद्धि वा असिद्धिः नाक विकार जिसके अन्तःकरणको स्पर्श नहीं कर सकता, ऐसे अवस्थापन्न साधक को सात्त्विक कर्ता कहते हैं। (अन्तःकरण जब विशाल तृष्णासे बंधा रहता है, ऐसी दरिद्रावस्थाको असिद्धावस्था कहते हैं; और प्राप्ति की प्राप्ति सिद्धावस्था है। इस प्राप्तिकी प्राप्तिका बोध जब तक रहता है तब तक उसे विकार जानना, स्वरूप में स्थिति हो जानेसे उसको फिर विकार कहा नहीं जाता ) ॥ २६ ॥ रागी कर्मफळप्रेप्सुलुब्धो हिंसात्मकोऽशुचिः। हर्षशोकान्वितः कर्ता राजसः परिकीर्तितः ॥ २७ ॥ अन्वयः। रागी ( पुत्रादिप्रोतिमान् ) कर्मफलप्रेप्सुः ( कर्मफलकामी ) लुब्धः ( परस्वाभिलाषी ) हिंसात्मकः ( मारकस्वभावः ) अशुचि: (विहितशौचशून्यः ) हर्षशोकान्वितः (लामालाभयोहर्षशोकाभ्यां समन्वितः ) कर्ता राजसः परिकीत्तितः ॥ २७॥ Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टादश अध्याय २७६ अनुवाद । विषयानुरागी, कर्मफलकामी, लुब्ध, हिंस्रस्वभाव, अशुचि, लाभालाभमें हर्षशोकयुक्त कर्ताको राजस कर्ता कहते हैं ।। २७॥ व्याख्या। जिनके अन्तःकरणमें अनुराग, कमफलकी आकांक्षा, परद्रव्यमें लोभ, तीर्थादि सत्कार्यमें व्ययकुण्ठता, स्वार्थोद्धारके लिये परपीड़न, अन्तर-शौच जो मनकी स्थिरता है, उसका अभाव, बाहरमें अनाचार, भोगादि काञ्चन प्राप्तिमें हर्ष, अप्राप्तिमें शोक, यह सब विद्यमान रहता है; उनको राजस कर्ता कहते हैं ॥२७॥ अयुक्तः प्राकृतः. स्तब्धः शठो नैष्कृतिकोऽलसः । विषादी दीर्घसूत्री च कर्त्ता तामस उच्यते ॥ २८॥ अन्वयः। अयुक्तः ( अनवहितः ) प्राकृतः ( विवेकशून्यः ) स्तब्धः ( अनम्रः) शठः ( शक्तिगूहनकारी ) नैष्कृतिकः ( परापमानी ) अलसः (अनुद्यमशीलः) विषादी ( शोकशीलः, सर्वदा अवसन्नस्वभावः ) दीर्घसूत्री च कता तामसः उच्यते ॥२८॥ अनुवाद। अयुक्त (असावधान ), विवेकशून्य, अनम्र, शठ, परापमानकारी, अलस, विषादयुक्त और दीर्घसूत्री का तामस कह करके उक्त होते हैं ॥ २८॥ व्याख्या। जो एक विषयमें अधिकक्षण स्थिर नहीं रह सकता, बालक सदृश चपल बुद्धिवाला, विवेकशून्य, नम्रताशून्य, पेटके भीतर कुछ और मुह पर कुछ और कहनेवाला, थोडासा अपना स्वार्थ पूरण करनेके लिये जो दूसरेकी तैयार रोटीमें धूर डालता है, आलसी, सर्वदा जैसे नमककी किरती डूब गयी ऐसे विषण्ण होके रहता है, अभी जो कर्त्तव्य करना चाहिये-दस बीस दिनमें भी सो नहीं करता, ऐसे कर्त्ताको तामस कर्ता कहते हैं ॥ २८ ॥ बुद्धर्भेदं धृतेश्चैव गुणतस्त्रिविध शृणु। प्रोच्यमानमशेषेण पृथकत्वेन धनञ्जय ॥२६॥ अन्वयः। हे धनजय। बुद्धः धृतेश्च एव गुणतः त्रिविध भेदं पृथकत्वेन (विवेकतः ) अशेषेण प्रोच्यमानं ( कथ्यमानं ) शृणु ॥ २९ ॥ Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८० श्रीमद्भगवद्गीता अनुवाद। हे धनञ्जय ! बुद्धि और धृतिके सत्त्वादि गुणानुसार तीन प्रकारका जो भेद पृथग्भावमें अशेष रूपसे कहा जाता है, उसे सुनलो ॥ २९ ॥ व्याख्या। साधक ज्ञानकाण्डकी चरम सीमामें पहुँच गये; अब अपने कर्मविहीन निष्क्रियपदमें बैठके श्रात्मभावस्थ हो करके देखते हैं कि सप्त्वादि तीनों गुणके प्रभेदसे जगत्का जो कुछ है, यह सब तीन प्रकारके हुए हैं, उनके भीतर उन्नतिकामी साधकका सत्व ही अवलम्बनीय है; क्योंकि “ऊवं गच्छन्ति सस्वस्थाः मध्ये तिष्ठन्ति राजसाः अधो गच्छन्ति तामसाः"। जगतकी सब चीजमेंसे ही उस सात्त्विक भावको चून लेनेके लिये आत्मभावस्थ हो करके जाननेका अवसर प्राप्त होनेसे साधक सबमें ही तीन प्रकारके भाव लक्ष्य कर लेते हैं। ज्ञान, कर्म और कर्त्ताके गुण भेदसे तीन प्रकारका भाव देख चुके, अब बुद्धि और धृतिका त्रिविध भाव देखते हैं। इस बुद्धि और धृतिको जय कर लेनेसे प्राप्तिका विषय वा जाननेका विषय कुछ भी बाकी न रहेगा। विशुद्ध बुद्धि युक्त होनेसे ही विषय तथा राग और द्वेषका त्याग हो कर शान्त अवस्था आती है, पराभक्तिका उदय होता है, उससे ही अहं स्वरूपमें प्रवेश लाभ होता है और मोक्ष होती है। साधक अर्जुन जो उस विशुद्ध बुद्धिके जयमें सामर्थ्यवान है, यह उनके धनन्जय नामसे ही प्रकाशित है (१०म अः ३७ श्लोककी व्याख्या देखो); इसलिये यहां उनके धनजय नामका उल्लेख करके कहा गया कि-हे धनञ्जय, सत्त्व, रज और तम गुणानुसार बुद्धि और धृतिकी भिन्नता तीन प्रकारकी कैसे हैं, उन्हें अलग अलग विशेष रूपसे तुमको कहता हूँ सुन लो ॥ २६ ॥ प्रवृत्तिब्च निवृत्तिञ्च कार्याकार्ये भयाभये । बन्ध मोक्षं च या वेत्ति बुद्धिः सा पार्थ सात्त्विकी ॥३०॥ अन्वय : हे पार्थ ! प्रवृत्तिं च निवृत्तिं च कार्याकाव्ये भयाभये बन्ध मोक्षं च या वेत्ति, सा सात्त्विको बुद्धिः ॥ ३० ॥ Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८१ अष्टादश अध्याय अनुवाद। हे पार्थ! प्रवृत्ति और निवृत्ति, कार्य और अकार्य, भय और अभ य, तथा बन्ध और मोक्षको जिससे जाना जाता है वही सात्त्विक बुद्धि है ॥३०॥ व्याख्या। प्रवृत्ति (१६ अः ७ श्लोक) निवृत्ति (१६ अः ७ श्लोक ); "कायं"-अपूर्व, जिसे वि.या नहीं गया, करना होगा; और "अकार्य"-जिसे कर चुके, करना नहीं होगा; "भय”–मरणका स्मरण; "अभय"-"मैं अमर हूँ" यह निश्चय ज्ञान; "बन्ध"-जीवभाव; "मोक्ष'-ब्रह्मज्ञानाधिकार । हे पार्थ! जो बुद्धि इन सबको निश्चय करा देती है उसको सात्त्विकी बुद्धि कहते हैं ॥ ३०॥ यया धर्ममधर्म च काय्यं चाकार्य्यमेव च । अयथावत् प्रजानाति बुद्धिः सा पार्थ राजसी ॥३१॥ अन्वयः। हे पार्थ! यया धर्म अधर्म च कार्य च अकार्य एव च अयथावत् ( सन्देहास्पदत्वेन ) प्रजानाति, सा राजसी बुद्धिः ।। ३१ ॥ अनुवाद। हे पार्थ! जिससे धर्म और अधर्म तथा कार्य और अकार्यको अयथावत् जाना जाता है, वही राजसी बुद्धि है ॥ ३१॥ व्याख्या। हे पार्थ! "धर्म" ... ( हम अः २य श्लोक देखो), "अधर्म"-तद्विपरीत, "कार्य” और “अकार्य”– ( पूर्व श्लोक देखो ); इन सबकी सत्यता प्रतिपादनमें जो भ्रम ला देती है, संशय उठा देती है ( अविश्वासिनी बुद्धि ), ऐसी बुद्धिको राजसी बुद्धि कह करके जानना ॥३१॥ अधर्म धर्ममिति या मन्यते तमसावृता । सर्वार्थान् विपरीतांश्च बुद्धिः सा पार्थ तामसी ॥ ३२ ॥ अन्वयः। हे पार्थ ! तमसावृत्ता सती या अधर्म धर्म इति ( मन्यते जानाति) सर्वार्थान् च (सर्वानेव ज्ञेयपदार्थान्) विपरोतान् एव मन्यते, सा तामसो बुखिः ।। ३२ ।। __ अनुवाद। हे पार्थ । तमसाच्छन्न हो करके जो अधर्मको धर्म कह करके मान लेती है तथा सकल अर्थको हो (ज्ञेय पदार्थको ही) विपरीत निश्चय कर लेती है, बहो तामसी बुद्धि है ॥ ३२॥ . Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८२ श्रीमद्भगवद्गीता व्याख्या। हे पार्थ! जिस बुद्धिसे धर्मको अधर्म, अधर्मको धर्म, ऐसे हो सब जानने के विषयोंको विपरीत ज्ञानसे समझा देती है, ऐसी अज्ञानाच्छन बुद्धिको तामसी बुद्धि कहते हैं ॥ ३२ ॥ धृत्या यया धारयते मनःप्राणेन्द्रियक्रियाः। योगेनाव्यभिचारिण्या धृतिः सा पार्थ सात्त्विकी ॥३३॥ अन्वयः। हे पार्थ ! योगेन (चित्त काग्रयण हेतुना ) अव्यभिचारिण्या (विषयान्तरमधारयन्त्या ) यया धृत्या मनःप्राणेन्द्रिय क्रियाः (मनसः प्राणस्य इन्द्रियाणाञ्च क्रियाः) धारयते ( नियच्छन्ति ), सा सात्त्विकी धृतिः ।। ३३ ॥ अनुवाद। हे पार्थ ! चित्त काग्रय हेतु अव्यभिचारिणी, जिस धृतिके द्वारा मन, प्राण और इन्द्रियों की क्रिया समूह धृत ( नियमित ) होती हैं, उसीको सात्त्विकी धृति कहते हैं ॥ ३३॥ व्याख्या। मैं जो जीव बन करके इस जगत-प्रपळचमें मतवाला हो रहा हूँ, मेरा मेरा करता हूँ, मेरा यह भाव जागतिक भाव है, और जिसमें "मेरा" शब्द न चले, केवल "मैं" ही मैं, वही मेरा विस्तार ब्रह्मभाव है। इन दोनों भावोंके एकत्रीकरणका नाम “योग” है। गुरूपदिष्ट क्रियासे मेरा इस संकीर्ण जागतिक भावको समेट करके विस्तार “मैं” में मिलाकर मन, प्राण और इन्द्रियोंकी क्रिया समूहका निरोध करके जो अव्यभिचारी ( निष्पन्दन ) स्थिति है, उस स्थितिकी परिपाकको अर्थात् उसमें अधिक समय तक अटक रहनेको सात्त्विको धृति कहते हैं ॥३३॥ यया तु धर्मकामार्थान् धृत्या धारयतेऽर्जुन । प्रसंगेन फलाकांक्षी धृतिः सा पार्थ राजसी ॥ ३४ ॥ अन्वयः। हे पार्थ ! हे अर्जुन ! तु ( किन्तु ) यया धृत्या धर्मकामार्थान् धारयते (न विमुञ्चति ) प्रसंगेन ( यप्य यस्य धर्मादेः धारणप्रसंगस्तेन तेन प्रसंगेन ) फलाकांक्षी ( च भवति ), सा राजसी धृतिः ॥ ३४ ॥ Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टादश अध्याय २८३ अनुवाद । हे पार्थ ! हे अर्जुन ! परन्तु जिस धूतिसे ( मनुष्य ) धर्म, काम और अर्थको धारण करते हैं तथा प्रसंग क्रमसे फलाकांक्षी होते है, उसीको राजसी धृत्ति कहते है ॥ ३४ ॥ व्याख्या। और जब वह मन, प्राण और इन्द्रियोंकी क्रिया, मुक्तिमार्ग-वहिष्कृत धर्म-अर्थ-कामकी आलोचना करके, भोग लालसा की तृप्तिमें मतवाला रहती है, हे पार्थ! यह जो धृति है, इसीको राजसी धृति कहते हैं ॥ ३४ ॥ यया स्वप्नं भयो शोकं विषादं मदमेव च । न विमुञ्जति दुर्मेघा धृतिः सा पार्थ तामसी ॥३५॥ अन्वयः। हे पार्थ! यया दुर्मेधाः (कुत्सित्मेधाः पुरुषः ) स्वप्नं ( निद्रा ) भयं शोकं ( संतापं ) विषादं ( अवसादं ) मदं एव च न विमुञ्चति (धारयत्येव ), सा तामसी धृतिः ॥ ३५॥ अनुवाद। हे पार्थ ! जिस धृतिसे दुर्मेधागण निद्रा, भय, सन्ताप, विषाद और मदको परित्याग नहीं कर सकते, उसीको तामसी धृति कहते हैं ॥ ३५ ॥ - व्याख्या। और जब जाग्रत तथा स्वप्नावस्था में स्वप्न, भय, शोक, विषाद और मदको ले करके मैं बैठा रहूँ, एकको भी छोड़ तो मेरा जैसा सर्वनाश होगा, ऐसा मालूम होता है, ऐसी जो आत्महाराधारणावती शक्ति है, हे अर्जुन ! इसीको तामसी धृति कहते हैं ॥३५॥ सुखं त्विदानी त्रिविध शृणु मे भरतर्षभ ! ... अभ्यासाद्रमते यन्न दुःखान्तं च निगच्छति ॥ ३६ ॥ अन्धयः। हे भरतर्षभ ! इदानीं तु त्रिविध ( सुखं सुखस्य त्रैविध्यं ) मे शृणु, यत्र ( यस्मिन सुखे ) अभ्यासात् रमते (परमानन्दं लभते ) दुखान्तं च निगच्छति ( प्राप्नोति ) ॥ ३६॥ Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८४ श्रीमद्भगवद्गीता ____ अनुवाद। हे भरतर्षभ ! अब त्रिविध सुख का विषय मुझसे सुनो, अभ्यासके फल करके जिससे परमानन्द लाभ होता है तथा दुःखके अन्तकी प्राप्ति होती है ॥ ३६॥ व्याख्या। भगवान अब अर्जुनको सुखका विषय कहते हैं कि, सुख भी सत्त्वादि गुणभेद करके तीन प्रकारका है। सुख चीज क्या है? –सोई कहते हैं, कि जिसमें अभ्यासके फलसे परमानन्द लाभ होता है और दुःखका अवसान होता है, वही सुख है। अब विचार करके समझ लेना चाहिये कि अभ्यास और दुःख किसको कहते हैं। "तत्र स्थितौ यत्नोऽभ्यासः”-चित्तको स्थिर रखनेके लिये यत्नको अभ्यास कहते हैं। क्लेशका नाम दुःख है। यह तीन प्रकारका है, आध्यात्मिक, आधिदैविक, और आधिभौतिक। परमात्मसंग न पानेसे जो क्लेश होता है वही आध्यात्मिक दुःख है ( यह मानसिक है ); दैवप्रतिकूलतासे अर्थात् पूर्वकृत सञ्चित कर्मफलकी प्रतिबन्धकता के कारण कर्ममें सिद्धि न पानेसे वा विघ्न होनेसे जो क्लेश होता है वहो आधिदैविक दुःख है (यह शारीरिक और मानसिक है ); और वात पित्त कफादिके प्रकोपसे जो क्लेश होता है वह आधिभौतिक है ( यह शारीरिक है )। भगवान कहते हैं, इन सब दुःखोंका अन्त होकर जिससे परमानन्द लाभ होता है, वही सुख है; परन्तु सुख भी गुणभेद करके कैसे तीन प्रकारका भाकार धारण करता है, सो कहता हुँ, सुनो ॥ ३६॥ यत्तदने विषमिव परिणामेऽमृतोपमम् । तत्सुखं सात्त्विकं प्रोक्तमात्मबुद्धिप्रसादजम् ॥ ३ ॥ अन्वयः। यत् तत् ( किमपि ) अग्रे (प्रथमं ) विषमिव ( दुःखावहमिव ) परिगामे तु अमृतोपमं ( अमृतसदृशं ) आत्मबुद्धिप्रसादजम् ( आत्मविषया बुद्धिरात्मबुद्धिः, तस्या प्रसादो रजस्तमोमयत्यागेन स्वच्छ तयावस्थानं ततोजातं), तत् सात्त्विकं सुखं ॥ ३७॥ Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टादश अध्याय . २८५ - अनुवाद। जो पहले विषवत् परन्तु परिणाममें अमृतसदृश तथा आत्मबुद्धिके • प्रसादसे उत्पन्न है, वही सात्त्विक सुख है ॥ ३७॥ व्याख्या। भगवान सात्त्विक सुखकी अवस्था व्यक्त करनेका कोई एक निर्दिष्ट शब्द न पाकर कहते हैं कि, जो "तत्" अर्थात् उसी प्रकार, जिसे भुक्तभोगीगण भोग करके जानना होता है, बातसे व्यक्त किया नहीं जाता। जो सुख पहिले विषवत् है, क्योंकि ज्ञान, वैराग्य, ध्यान, समाधि प्रभृतिको साधन करनेके लिये विशेष कष्ट भोग करना पड़ता है; परन्तु जो परिणाममें अमृत सदृश होता है, क्योंकि ज्ञान वैराग्यादिके परिपाकमें जो आनन्द-वैभव लाभ होता है, उसकी सीमा नहीं-शेष नहीं-और क्षय भी नहीं है, वह अनन्त-अमृत है। और जो आत्मबुद्धिके प्रसादसे उत्पन्न है, अर्थात् बुद्धि आत्मामें पड़के रजस्तमोके संस्रव विहीन होकर निर्मल स्वच्छभाव धारण करने के पश्चात् उत्पन्न होता है। उसी सुखको सात्त्विक सुख कहते हैं ॥ ३७॥ विषयेन्द्रियसंयोगाद् यत्तदप्रेऽमृतोपमम् । परिणामे विषमिव तत्सुखं राजसं स्मृतम् ॥ ३८ ॥ अन्वयः। विषयेन्द्रियसंयोगात् ( विषयानो इन्द्रियाणां च संयोगात् ) यत् तत् (प्रसिद्ध) अग्रे अमृतोपमं परिणामे विषमिव तत्सुखं राजसं स्मृतम् ॥ ३८ ॥ अनुवाद। विषय और इन्द्रियोंके संयोगसे जो सुख (प्रसिद्ध प्रकार, साधारण का परिज्ञात ) पहिले अमृत सदृश होता है, परन्तु उसका परिणाम विषवत् है, वह सुख राजस करके कथित है ॥ ३८ ॥ व्याख्या। और विषय तथा इन्द्रियोंके संयोगसे जो सुख उत्पन्न होता है, सब कोई जिसका रस भोग करके जान लेते हैं, जो पहिले अमृत सदृश (जैसे कामिनी काधन आदिका व्यवहार और भोग) परन्तु जिसका फल विषवत है, जैसे बल, वीर्य्य, रूप, प्रज्ञा, मेधा, Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८६ श्रीमद्भगवद्गीता धन, स्वास्थ्य उत्साहादिकी हानि करके यौवनमें जराप्रस्त बनाता है, आपात सुख देकरके दुःख प्राप्ति कराता है, उसीको राजस सुख कहते हैं ॥ ३८॥ यदन चानुबन्धे च सुखं मोहनमात्मनः। . निद्रालस्यप्रमादोत्थं तत्तामसमुदाहृतम् ॥ ३६॥ अन्वयः। यत्सुख अग्रे च ( प्रथमक्षणे ) अनुबन्धे च ( पश्चादपि ) आत्मनः 'मोहनं ( मोहकरं ) निद्रालस्यप्रमादीत्थं, तत् तामसं उदाहृतम् ॥ ३९॥। अनुवाद। जो सुख पहले भी आत्माका मोहकर पश्चात्में भी आत्माका मोहकर तथा निद्रा आलस्य और प्रमादसे उत्पन्न है, उसीको तामस सुख कहते हैं ॥३९॥ न्याख्या। जो सुख आत्महारा कराके (बुद्धिको ढांक देकर) निद्रा, आलस्य और प्रमादके साथ मिलन कराता है, जैसे हमउमर हमजोली लोग दल बांधकर खानेवाली चीज लेकर बनभोजको गये, धतूरेके बीज भांगके साथ मिलाके पीसकर पी लिया, कितनी कथा, कितनी वार्ता, कितनी हंसी, कितना आनन्द भोग करते करते मारे नशाके बेहोश हो गये, कुत्ते गीदड़ आके खानेकी चीजें सब खा गये; हमलोग सबेरे उठकर रूखे सूखे मुंहसे मकान लौट आये। इस प्रकारके सुख भोगको तामस सुख कहते हैं ।। ३६ ॥ न तदस्ति पृथिव्यां वा दिवि देवेषु वा पुनः। सत्वं प्रकृतिजैमुक्तं यदेमिः स्यास्त्रिभिगुणैः ॥४०॥ अन्वयः। पृथिव्यां दिवि वा देवेषु वा पुनः तत् सत्त्वं ( प्राणिजातं ) न अस्ति यत् प्रकृतिजैः (प्रकृतिसम्भवैः ) एभिः त्रिभिः (सत्त्वादिभिः ) गुणः मुक्त स्यात् ॥ ४० ॥ . अनुवाद । पृथिवीमें किम्वा स्वर्गमें ऐसे कि देवतोंके भीतर भी ऐसा कोई प्राणो नहीं है, जो प्रकृतिजात इन तीन गुणोंसे मुक्त है ॥ ४० ॥ Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टादश अध्याय २८७ व्याख्या। हे अर्जुन ! यह जो संसार-वृक्षका रूपक कल्पनामें ऊर्ध्वमूलादि कहा हुआ है, जिसको दृढ़ असंग शस्त्रसे छेदन करने होता है, इस भुवन-कोषमें भूरादि सत्यलोकका प्रत्येक स्वर्ग में प्राणिजात वा 'अप्राणिजात ब्रह्मादि देवता, मानुष, ऐसे कि स्थावरान्त पर्य्यन्त जो कुछ है, सो सबही गुणमयी प्रकृतिके गुण-विकारसे उत्पन्न है। किसी स्थानका कहीं ऐसा कुछ नहीं है जो इस सत्त्व, रज और तमको परित्याग करके वा उनसे पृथक् होकर रह सकता है। त्रिगुणके कोई एकके अति सूक्ष्मांश भी रहनेसे संसार-कारण-निवृत्तिकी प्राप्ति नहीं होती। सर्ववेद श्रुति स्मृतिका एक ही उपदेश जानना ॥४०॥ ब्राह्मणक्षत्रियविशां शूद्राणान्च परन्तप । कर्माणि प्रविभक्तानि स्वभावप्रभवैगुणैः ॥ ४१ ॥ अन्धयः। हे परन्तप.! ब्राह्मणक्षत्रियविशां (ब्राह्मणानां क्षत्रियानां वैश्यानां च ) शूद्राणां च कर्माणि स्वभावप्रमः ( पूर्वजन्मसंस्कारप्रादुर्भूतैः ) गुणैः प्रविभक्तानि ॥४१॥ अनुवाद। हे परन्तप ! ब्राह्मण-क्षत्रिय-वैश्यादियोंका तथा शूद्रोका कर्म समूह स्वभाव-प्रभव गुणोंके द्वारा प्रविभक्त हैं ॥ ४१ ॥ व्याख्या। अगर क्रिया, कारक, फल प्रभृति तथा प्राणिजात सब ही त्रिगुणात्मक हैं तो जीवकी मुक्ति कैसे हो सकती है ? अर्जुन इस प्रकार प्रश्न न कर सकें इस संकल्पसे भगवान से भी कह देते हैं; कहते हैं कि, स्व स्व अधिकारके विहित कर्म समूहके द्वारा परमेश्वरकी आराधना करनेसे तत्प्रसादलब्ध ज्ञानसे मोक्ष होती है। यही सर्वगीतार्थसार है। यही सारसंग्रह इस श्लोकका "ब्राह्मण क्षत्रिय विशा" से प्रारम्भ करके अध्यायकी समाप्ति पर्यन्त दिखाया हुआ है। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्रोंका सकल कर्म पृथक् पृथक् रूपसे विभाग किया हुआ है। यह विभाग स्वभाव-प्रभव गुण द्वारा किया Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८८ ___श्रीमद्भगवद्गीता हुआ है। स्वभाव-प्रभव गुण द्वारा विभागका शब्दार्थ जरा अच्छी तरह समझना होगा। स्वभाव-ईश्वरकी प्रकृति वा त्रिगुणात्मिका माया है। यह प्रकृति तीन प्रकारको क्रिया-शक्तिको प्रकाश करती है, एकका नाम सत्त्व, दूसरेका नाम रजः और तीसरेका नाम तमः है। इन तीनोंको गुण कहते हैं। सुतरां स्वभावप्रभव गुणका अर्थ सत्व, रज और तम यह तीन गुण हैं। जगत्की जो क्रियाएं हैं वे सब इन तीन गुणोंसे ही सम्पन्न होती हैं। इन तीनोंमेंसे कोई परस्पर पृथक् हो करके क्रिया नहीं कर सकता, क्रिया क्या करेगा, पृथक् तो हो ही नहीं सकता। इन तीनोंके परस्पर मिलन तथा मिश्रणके विविध विन्याससे ही विभिन्न प्रकारकी क्रिया उत्पन्न होती है। उस मिलन तथा मिश्रणमें अगर तीन गुण समानांश हों तो साम्यावस्था होनेके कारण कोई क्रिया ही नहीं होती; उन सबके विषम अंशके मिलनमिश्रणसे ही जागतिक जो कुछ क्रिया होती है। सृष्टिके प्रारम्भसे ही गुणत्रयके विविध मिश्रणसे चार प्रकारके वर्ण वा श्रेणी सृष्टि हुई हैं। प्रथम श्रेणीमें सत्त्वप्रधान, अपर दो गुण सत्त्वके अधीनमें अभिभूत हैं। द्वितीय श्रेणीमें सत्त्वमिश्रित रजः प्रधान, तमः अभिभूत है। तृतीय श्रेणीमें तमः मिश्रित रजः प्रधान सत्त्व अभिभूत है। और चतुर्थ श्रेणीमें रजः मिश्रित तमः प्रधान, तथा सत्त्व अभिभूत है। जीव प्रवाह इन चार श्रेणियोंमें विभक्त हैं। प्रथम श्रेणीका जीव ब्राह्मण, द्वितीय श्रेणीका जीव क्षत्रिय, तृतीय श्रेणीका जीव वैश्य और चतुर्थ श्रेणीका जीव शुद्र है। तीनों गुणोंकी ही स्व स्व पृथक् क्रियाशक्ति है; परन्तु वह मिश्र अवस्थामें मिश्रण-क्रियाके तारतम्यानुसार उन चारों श्रेणियोंमें चार प्रकारसे परिणत होती है । सुतरां ब्राह्मण श्रेणी का कर्म एक प्रकार, क्षत्रिय श्रेणोका कर्म एक प्रकार, वैश्य श्रेणीका कर्म एक प्रकार, और शद्र श्रेणीको कर्म एक प्रकारका है। इसलिये कहा हुआ है कि ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र गणोंका सकल कर्म स्वभाव-प्रभव गुणसे प्रविभक्त हैं। Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टादश अध्याय २८६ स्वभाव-प्रभव शब्दका और भी विशेष अर्थ है। जीव स्व स्व कर्मफलसे भला बुरा जन्म लेता है। जीव जब एक देह छोड़ करके देहान्तर ग्रहण करता है तब पूर्ववाला मनःषष्ठ इन्द्रियोंको लेकरके जाता है, अतएव उसके पूर्वजन्मवाला संस्कार उसमें रह जाता है। उसी संस्कार वशसे परजन्ममें उसमें उस गुण-क्रियाका संक्रम होता है, अर्थात् चार श्रेणियोंमेंसे किसी एक श्रेणीका गुण पाता है। उस पूर्वसंस्कारको ही स्वभाव कहते हैं; उस स्वभावके वशसे जिस श्रेणीका गुण लाम करता है वही स्वभाव-प्रभाव गुण है। इसलिये कहा जाता है कि, जीव, ब्राह्मणादि जो कोई श्रेणी भुक्त हो, उसका कर्म पूर्व जन्मके संस्कारसे उत्पन्न गुण द्वारा विभक्त है। मूल श्लोकमें ब्राह्मण क्षत्रिय वैश्य एक समासबद्ध हैं और शूद्र पृथक् है। इससे ब्राह्मणादि वर्गत्रय जो द्विज तथा वेदाधिकार-सम्पन्न हैं वही सूचित हुआ है, और शूद्र वेदाधिकार वर्जित होनेके कारण समासमुक्त नहीं हुआ ॥४१॥ शमोदमस्तपः शौचं क्षान्तिराजवमेव च । ज्ञानं विज्ञानमास्तिक्यं ब्रह्मकर्म स्वभावजम् ॥ ४२ ॥ अन्वयः। शमः (चित्तोपरमः ) दमः (बाह्य न्द्रियोपरमः ) तपः ( पूर्वोक्त शारोरादि ) शौचं ( वाह्याभ्यन्तरं ) क्षान्तिः (क्षमा ) आजवं ( अवक्रता ) ज्ञानं (शास्त्रीयं ) विज्ञानं ( अनुभवः ) आस्तिक्य ( अस्ति परलोक इति निश्चयः ) एव च स्वभावजं ब्रह्मकर्म (ब्राह्मणस्य स्वभावात् जातं कर्म ) ॥ ४२ ॥ ___ अनुवाद। शम, दम, तपः, शौच, क्षमा, आर्जव, ज्ञान, विज्ञान तथा आस्तिकता हो ( वेद और ईश्वर में विश्वास ) ब्राह्मणका स्वाभावज कर्म है ॥ ४२ ॥ व्याख्या। पूर्व पूर्व जन्मोंके कर्म-संस्कारकी निर्मलतासे स्वाभावतः शम, दम, तप, शौच, शान्ति, आर्जव ज्ञान, विज्ञान आदि (पहले जो व्याख्या कर चुके) और वेद तथा ईश्वरका अस्तित्व -१६ Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६० श्रीमद्भगवद्गीता स्वीकार आप ही आपसे जिनके अन्तःकरणमें प्रकाश पावेगा, वे ही ब्राह्मण कह करके अपनेको मान लेंगे, और उनको इन्हीं सब पाचरणोंसे मुक्तिलाभ होगा॥ ४२ ॥ शौय्यं तेजो धृतिर्दाक्ष्य युद्धे चाप्यपलायनम् । दोनमीश्वरभावश्च क्षात्रं कर्म स्वभावजम् ॥४३॥ अन्वयः। शौय्यं ( पराक्रमः ) तेजः (प्रागल्भ्यं ) धृतिः (धयं ) दाक्ष्य (कैशलं ) युद्धच अपि अपलायानं ( अपराङ मुखता ) दानं (औदार्य ) ईश्वरभावश्च (नियमनशक्तिह) स्वभाव क्षात्रं कर्म ( क्षत्रियस्य स्वाभाविकं कर्म ) ।। ४३ ॥ अनुवाद। शौर्य, तेज, धृति, दक्षता, युद्ध में अपलायन, दान और ईश्वरभाव ये सब क्षत्रियों के स्वाभाविक कर्म हैं ॥ ४३ ॥ व्याख्या। आठों पहर लड़े सो शूरा। अर्थात् अष्ट प्रहर युद्ध (क्रिया ) करनेसे भी जो शक्ति क्लान्त होने नहीं देती, उसी महाशक्तिका नाम शौर्य है। तेजः-शत्रुतापन शक्ति, ( ससैन्य प्रकृतिको अपने वशमें लाना)। जिस शक्तिसे अवसाद मात्र नहीं आता है, वही धृति वा धारणावती शक्ति है, ( आज्ञाचक्रके ऊपर उठ कर परम शिवमें अविच्छेद कर लक्ष्य स्थिर रखना। कारणके साथ कार्यका परिणाम फल प्रत्यक्षवत् हृदयमें विद्यमान रहना ही दक्षता है। युद्धक्षेत्रमें चाहे जैसी अवस्था आ पड़े, उससे विमुख न होकर सम्मुखीन रहना ही अपलायन है, (आज्ञाचक्रसे मूलाधारमें उतर आना, पुनः सामने उठ जाना, बांसकी सीढ़ीमें मजूरोंके चढ़ने उतरनेके सदृश है )। दान - त्याग स्वीकार। और वेद-ईश्वरमें विश्वास, अर्थात् प्रभुत्व स्वीकार करण और प्रभुत्व स्वीकार करवानेका भाव। यह सब कर्म क्षत्रियों के स्वभावज हैं। इन सबके आचरणसे ही उनकी ऊर्ध्वगति होती है ॥४३॥ Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टादश अध्याय २६१ कृषिगोरक्ष्यवाणिज्यं वैश्यकर्म स्वभावजम् । परिचर्यात्मकं कर्म शूद्रस्यापि स्वभावजम् ॥ ४४ ॥ अन्वयः। कृषिगोरक्ष्यवाणिज्यं ( कृषिः गोरक्ष्यं पशुपाल्यं वाणिज्यं १ क्रयविक्रयादिः) स्वभावजं वैश्यकर्म; परिचर्यात्मकं ( शुश्रुषास्वभावं) कर्म शूद्रस्य अपि स्वभावजम् ॥ ४४ ॥ अनुवाद। कृषि गोरक्ष्य और वाणिज्य यह सब कर्म वैश्योंके स्वभावज है; परिचयात्मक कही शद्रोंके स्वभावज कर्म है ।। ४४ ।। व्याख्या। क्षेत्र कर्षण करनेका नाम कृषि है। इस शरीररूप क्षेत्रमें प्रश्वास और निश्वासरूप कर्षण (गुरूपदेशसे ) यथाविधि करने से सुफल होता है। गोरक्ष्य गो शब्दमें पृथिवी अर्थात् यह सम्यक शरीर है। इसकी रक्षा करनेका भ्रम मनमें रखना (परन्तु यह शरीर उत्पादिभंगुर है, कभी भी रक्षा न होगी) सुपथमें चलनेवाला मनके वशमें इन्द्रियों को रखना ही गोरक्ष्य है। वाणिज्य = अपना लाभ रख करके लेनदेन करना-कुछ लेना कुछ देना। इस प्रकार फलाकांक्षाके साथ क्रिया करना जिस साधकका संस्कारज अभ्यास है वही वैश्यपद वाच्य है। तथापि यह पुरुष द्विज है ( १७ अ: १४ श्लोक )। क्रिया करते रहनेसे कालान्तरमें इसीसे वह क्रमोन्नति और मुक्तिको पावेगा। और स्त्री-पुत्रादि-संसारमें गाढ़ आसक्त क्रिया करनी नहीं चाहते। भयके मारे कर सकते नहों तथापि इन तीन प्रकारके साधकोंकी सेवा करनेके लिये जिनका मन सदाकाल चाहता है, उन्होंको शूद्र कहते हैं। यह सुमतिमान लोग भी उस प्रकारकी सेवा करते रहनेसे साधकोंके साथ प्रसंग क्रममें आत्मतत्त्व ज्ञानका सम्भाषण सुनते सुनते परम कल्याण लाभ करते हैं ॥४४॥ Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६२ श्रीमद्भगवद्गीता स्वे स्खे कर्मण्यभिरतः संसिद्धिं लभते नरः। स्वकर्मनिरतः सिद्धि यथा विन्दति तच्छृणु ॥ ४५ ।। अन्वयः। स्वे स्वे कर्मणि ( स्वस्वाधिकारविहिते कर्मणि ) अभिरतः ( परिनिष्ठितः तत्परः ) नरः संसिद्धिं ( ज्ञानयोग्यता ) लभते। स्वकर्मनिरतः (स्वकर्मपरिनिष्टितः ) यथा (येन प्रकारेण ) सिद्धि विन्दति ( तत्त्वज्ञानं लभते ) तत् ( तत्प्रकारं ) शृणु ॥ ४५॥ अनुवाद । स्व स्व ( अधिकार विहित ) कर्ममें रत मनुष्य गण सिद्धिलाम करते हैं। स्वकर्ममें निरत मनुष्य जिस प्रकारसे सिद्धिलाभ करते हैं उसे श्रवण करो॥४५॥ व्याख्या। साधक पहिले ही अपनेको परीक्षा कर देखेंगे कि वे आप कौन है ? साधकका मन अपनेको जो वर्ण कह कर स्वीकार करेगा, साधक उसी अनुसार कर्म कार्यका अनुष्ठान करेंगे। सर्व वर्ण से ब्राह्मण बड़ा है इस कारण अपर तीन वर्णको ब्राह्मणोचित कर्मों का अनुष्ठान करना उचित नहीं। अपने अपने वर्ण अनुसार कर्ममें प्रवृत्त हो करके ठीक अपने ऊपर वाले वर्णके आचरणसे अपनेको उन्नत करने के लिये चेष्टा करेंगे। एकको उल्लंघन करके कूदकर बड़े होनेकी चेष्टा न करनी चाहिये। इस प्रकार अनुष्ठानमें रत होनेसे संसिद्धि ( परम कल्याण ) लाभ होती है। किस प्रकारसे कल्याण लाभ होता है उसे पर श्लोकमें ही कहा जाता है, सुनो ॥४५॥ यतः प्रवृत्तिभूतानां येन सर्वमिदं ततम् । स्वकर्मणा तमभ्यर्य सिद्धि विन्दति मानवः ॥४६॥ अन्वयः। यतः ( अन्तर्यामिणः परमेश्वरात् ) भूतानां (प्राणीनां ) प्रवृत्तिः ( उत्पत्तिः चेष्टा वा भवति ), येन ( आत्मना ) इदं सर्व ( विश्वं ) ततं ( व्याप्तं ), तं ( ईश्वरं ) स्वकर्मणा अभ्यर्च्य ( पूजयित्वा ) मानवः ( मनुष्यः ) सिद्धि विन्दति (लभते ) ॥४६॥ Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टादश अध्याय २६३ अनुवाद। जिनसे प्राणियोंका प्रवृत्ति, जिनसे यह समस्त व्याप्त है, उनकी स्वकर्म द्वारा अर्चना ( पूजा ) करके मानव सिद्धिलाभ करते है ।। ४६ ।। व्याख्या। भगवान एक अद्वितीय है। भगवान सर्वान्तर्यामी और सर्वव्यापी है। वह जगत्कारण है, इसलिये उन्होंसे प्राणियोंकी प्रवृत्ति अर्थात् उत्पत्ति है, और वही एक मात्र कर्मफल-विधाता है, इस कारण करके उन्हींसे प्राणियोंकी प्रवृत्ति अर्थात् चेष्टा है। अर्थात् कर्मबद्ध जीव कृतकर्मके फल भोगनेके लिये उन्होंके अनिवार्य विधानसे यथोचित कुलमें जन्म लेते हैं और तदनुरूप मानसिकवृत्ति भी पाते हैं। __ भगवान गुणकर्मके विभाग अनुसारसे ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र इन चार वर्ण वा श्रेणीकी सृष्टि किये हैं और प्रत्येक वर्णका स्वभावज कर्म भी निर्देश कर दिये हैं। मनुष्य जो ब्राह्मणादि वर्णमें जन्म ग्रहण करता है, वह अपने अपने कर्मफल से होता है; परन्तु फलविधाता ईश्वरके विधानसे अपना सञ्चित कर्मफल भोग करनेके लिये ही जन्मग्रहण करता है। शरीर धारण होनेसे ही जो सब सचित कर्म फल देनेके लिये उन्मुख होते हैं, उन सबका नाम प्रारब्ध कर्म है अर्थात् जो कर्म फलनेको प्रारम्भ हुआ है। शरीर ही प्रारब्ध कर्मका समष्टि है। प्रारब्ध-कम भोग किये बिना क्षय प्राप्त नहीं होता। परन्तु वह भोग अनासक्त हो करके करनेसे ही "असक्तबुद्धिः सर्वत्र" होनेसे ही, कर्म क्षय होता है, नहीं तो आसक्त वा द्वषयुक्त हो करके करनेसे पुनः कर्म-बन्धनमें फंसना होता है। इसलिये रागद्वष विहीन हो करके प्रारब्ध भोग और कर्मानुष्ठान करनेकी व्यवस्था है। सुतरां ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र चाहे किसी कुलमें जन्म हो जाय, प्रारब्ध भोगना ही पड़ेगा। साधु हो, चाहे असाधु हो, प्रारब्धके हाथसे किसीका छूटकारा नहीं है। प्रारब्ध अपने ही कर्मका फल है, इसलिये इसे स्वकर्म कहते हैं। अगर मैंने शूद्र कुलमें जन्म लिया है, Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६४ श्रीमद्भगवद्गीता तो समझना होगा कि यह हमारे ही कृतकर्मका फल तथा ईश्वरका विधान है। यह मनमें निश्चय करके शूद्रके कर्म वा प्रवृत्तिके ऊपर घृणा न करके वा अनुरक्त न हो करके मुझको अम्लानमुखसे उसी कर्मका अनुसरण करना होगा। वह शूद्र कर्मही तब (उस समय ) हमारा स्वकर्म है। जिस वर्णमें जन्म लेऊंगा उसी वर्णका कर्म ही मेरा स्वकर्म होगा। अनासक्त भावसे स्वकर्ममें निरत रह करके पुरुषकारका अवलम्बन करके उसी सर्वान्तर्यामी सर्वव्यापीकी अर्चना करनी हंगी, मन-प्राणको गुरूपदिष्ट नियमसे उन्हींमें फेंकना होगा; ऐसा होनेसे ही मैं क्रमोन्नति लाभ करके शुद्धचित्त होकर सिद्धिलाभ करूंगा। मानवके सिद्धिलाभका यही एक उपाय है, अर्थात् स्वकर्ममें रहकर ईश्वराराधन करना। सकल वर्णका यही एक नियम है। परन्तु मैं जिस किसी वर्णमें जन्म क्यों न लू, यदि उस वर्णके कर्मों को घृणा करते हुए त्याग करके दूसरे वर्णके कर्म करू, अहंकारके वशसे "मैं भी तो मनुष्य हूँ" यह विचार करके ऊंचे वर्णके समान होने जाऊं, तो ईश्वराराधना ही करूं, और योगयाग जो कुछ करू', मेरा कमबन्धन छिन्न होना तो दूर रहा कर्मबन्धन अधिक से अधिक बढ़ता ही रहेगा। क्योंकि, बाहर लोगों के पास मैं खूब बहादुरी लेनेसे भी मेरा मन मुझको छोड़ेगा नहीं; कालान्तर में वह हमारे चित्तमें हमारी वह घृणा और अहंकारका संस्कार उठाकर संशय तथा शोचनाका उद्रेक करावेगाही, और मृत्युकालमें भी मुझको उस संस्कारके आकर्षणमें फेंकेगा। सुतरां तब मुझको कदर्थ बन्धनकी फांसमें बंधा रहना होगा और १६ अः १६ श्लोक अनुसार संसारकी आसुरी योनिमें निक्षिप्त होना होगा। भगवान एक मात्र भक्तिके वश हैं। भक्तिमार्गमें अधिकारी भेद नहीं है। क्योंकि इसमें किसी विशेष क्रियाका अनुष्ठान नहीं है जिसमें विशेष प्रकारकी शक्ति तथा सामर्थ्यका प्रयोजन होगा। इसमें Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टादश अध्याय २६५ केवल सरल मनका दृढ़ विश्वास चाहिये। सुतरां सब कोई स्व स्व वर्णाश्रमके कर्ममें रत रह करके भक्ति साधन कर सकते हैं । इस भक्ति बल करके "त्रियो वैश्यास्तथा शूद्रास्तेऽपि यान्ति परी गतिम्”। स्व स्व कर्ममें अर्थात् अपने अपने वर्णाश्रमके कर्ममें निर्विकार भावसे रत रह, करके ही भक्तिकी साधना करनी होती है, अन्यथा नहीं होती;"लज्जा घृणा भय माहीं, एक रहते होना नाहीं"। अगाध जलमें पड़नेसे जैसे जल ही का आश्रय लेकर तीर लक्ष्य करके तैरते हुए तीर पर आना होता है, तब जल त्याग होता है, जलके आश्रय बिना जल त्यागका जैसे दूसरा उपाय नहीं है, उसी तरह स्वकर्मका आश्रय और ईश्वरको लक्ष्य करके तदर्चनामें रत होना होता है, तब कर्मत्याग होता है। ___ असली बात यह है कि मानवको सिद्धिलाभ करना हो तो उन्हें दो कार्य करने होंगे:-एक मान और अपमान बोध न करके "असक्तबुद्धिः सर्वत्र" होकर स्वकर्ममें निरत रहना है; और दूसरा उस प्रकारसे सर्वान्तर्यामी सर्वव्यापी भगवानकी अर्चना करना। यह अर्चना अति उदार भावकी अर्चना है। यहां श्रीभगवानने आराध्य देवताके किसी नाम, रूपका उल्लेख नहीं किया; केवल वर्णना करके कह दिया कि “यतः प्रवृत्तिभूतानां येन सर्वमिदं ततम्”। इसमें विन्दुमात्र भी साम्प्रदायिक भाव नहीं है। प्रवृत्ति शब्द व्यवहारसे समझा जाता है कि, योगानुष्ठानसे निवृत्तिमार्गका अनुसरण करना ही इस अर्चनाका उपाय है। इसलिये कार्यतः चेष्टा करनी चाहिये। सचेष्ट क्रियानुष्ठान द्वारा उसी सर्वव्यापी सर्वशक्तिकारण सर्वान्तर्यामीकी अर्चना करनेसे ही सिद्धि प्राप्ति होती है ॥ ४६ ॥ श्रेयान स्वधर्मो विगुणः परधर्मात् स्वनुष्ठितात् । स्वभावनियतं कर्म कुर्वन्नाप्नोति किल्बिषम् ॥ ४७ ॥ अन्वयः। स्वनुष्ठितात् ( सम्यगनुष्ठितात् ) परधर्मात् विगुणः स्वधर्मः श्रेयान ; स्वभावनियतं स्वभावजं ) कर्म कुर्वन् किल्बिषम् न आप्नोति ॥ ४७ ॥ Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६६ श्रीमद्भगवद्गीता अनुवाद। सु-अनुष्ठित परधर्मसे विगुण स्वधर्म श्रेयस्कर है; स्वभावज कर्म करके कोई पापको प्राप्त नहीं होता ।। ४७ ॥ व्याख्या। यहां स्वभावज कर्म वा स्वकर्मका नाम ही स्वधर्म है । अत एव स्वभावज ब्रह्मकर्म ही ब्राह्मणका स्वधर्म है; स्वभावज क्षात्रकर्म ही क्षत्रियका स्वधर्म है, स्वभावज वैश्यकर्मही वैश्यका स्वधर्म है, और शूद्रका स्वभावज कर्म ही शूद्रका स्वधर्म है। यह जो चार वर्ण हैं, इन चार वर्गों में प्रत्येक वर्गके धर्मके पास अपर तीन वर्णके धर्म परधर्म हैं। विगुण अर्थमें सदोष हैं। साधक अर्जुन युद्धमें गुरुज्ञाति समन्वित प्रतिपक्षको बध करने की क्रिया विगुण अर्थात् सदोष वा पापात्मक स्थिर करके भिक्षाटन वृत्तिको सु-अनुष्ठित अर्थात् निरुपद्रव शान्तिमय और निर्दोष कह करके स्थिर किये हैं। परन्तु "गुणदोषदृशिर्दोषः गुणस्तूभयवर्जितः” अर्थात् दोष देखना भी दोष है और गुण देखना भी दोष है, दोष गुण कुछ भी न देखना ही गुण है, इस बातको अर्जुन धारणामें नहीं लाये; उसने युद्ध में शत्रुबध करनारूप स्वधर्म में दोष देखा और भिक्षाटनरूप परधर्ममें गुण देखा। इसलिये श्रीभगवानने उसको वर्णधर्म लक्ष्य कराके कहा कि "परधर्म सुअनुष्ठित होनेसे भी ( उससे ) विगुण स्वधर्म श्रेयस्कर है" क्योंकि वह जो स्वधर्मके प्रति दोष दर्शन और परधर्ममें गुण दर्शन है, वह क्रिया अहंकारकी है, अहंकार कर्मबन्धनको दृढ़तर करता है, और यदि पुनः अहंकारके वश स्वधर्म त्याग किया जाय, तो दोष गुणके संस्कारमें चिरबद्ध होना पड़ता है। मृत्युकालमें मन उस संस्कारको चित्तमें जागरुक करके तदनुरूप भावका स्मरण करवा देता है। सुतरां भावातीत हो करके मुक्तिपदकी प्राप्ति न होनेसे संस्कार-बन्धनसे भवघोरमें घूमना ही पड़ता है। इसलिये श्रीभगवान कहते हैं कि, दोष गुण न देख करके "असक्तबुद्धिः सर्वत्र” हो करके स्वकर्ममें रह करके उसी सर्वनियन्ताकी अर्चना करनेसे सिद्धि प्राप्ति होती है। स्वभावज कर्म के मुक्तिपदी का स्मरण करवा इस संस्कारको संस्कारमें Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टादश अध्याय २९७ करनेसे पापस्पर्श नहीं होता, क्योंकि स्वभावज कर्म जैसा ही हो वह तो अपने ही कृतकर्मका फल है और अब प्रारब्धरूप घरके खड़ा हुआ है; अतएव अनासक्त भोग बिना उसका क्षय होना ही नहीं है। इसलिये परधर्मसे स्वधर्म श्रेयस्कर है। इस अध्यायमें श्रीभगवान साधक अर्जुनको साधनके चार वर्णकी अवस्था लक्ष्य कराकर वर्णधर्म अनुसार उनको स्वधर्म में प्रवृत्त करते हैं। साधनके उसी वर्णधर्म अनुसार ही यह व्याख्या की गई है। ( पर श्लोककी व्याख्या देखो)। तृतीय अध्यायमें स्वधर्म और परधर्मकी जिस प्रकार व्याख्याकी हुई है उसके प्रति भी साधकको लक्ष्य रखना चाहिये। क्योंकि फलमें दोनों ही एक है। इसलिये वह व्याख्या भी यहाँ दी गई है। विगुणः विगत गुणः, निस्त्रगुण्य ( २य अ ४५ श्लोक ), अर्थात् गुणत्रयके लयके पश्चात् जो ब्राह्मी स्थिति है वही स्वधर्म है, उसमें सम्पूर्ण अटक रहने में असमर्थ होकर समाधि भंगके बाद उतर कर पुनः परिश्रम करके समाधि लेनेकी आवागमन क्रिया भी श्रेयः है, परन्तु परधर्म अर्थात् प्राकृतिक धर्म सुन्दर रूपसे अनुष्ठान करना, अर्थात् केवल विषयाकारा वृत्ति लेकरके निरन्तर रहना श्रेयः नहीं है। और वह ब्राह्मीस्थिति प्राप्त होने के लिये जो क्रिया कर रहा हूँ (उस समय ब्रह्ममें लक्ष्य रहनेके कारण ) उसको स्वभावनियत कर्म कहते हैं। इस अवस्थामें गुणत्रयका संस्रव रहनेसे भी प्रकृतिके वशमें नहीं जाना होता; प्रकृतिके वशमें जाना ही पाप है। (३य अः ३५ श्लोक; ५म अः १० श्लोक देखो ) ॥४७॥ सहजं कर्म कौन्तेय सदोषमपि न त्यजेत् । सर्वारम्भा हि दोषेण धूमेनाग्निरिवावृताः॥ ४८ ॥ अन्वयः। हे कौन्तेय ! सदोषं अपि सहजं ( जन्मना सह एव उत्पन्नं, स्वभाव Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६८ श्रीमद्भगवद्गीता विहितं इत्यर्थः ) कर्म न त्यजेत् , हि ( यस्मात् ) धमेन अग्निः इव सबारम्भा दोषण आवृताः॥४८॥ ___ अनुवाद । हे कौन्तेय ! सदोष होनेसे भी सहज कर्म त्याग करना न चाहिये, क्योंकि धमद्वारा ( आवृत) अग्निवत् सर्वकर्म ही प्रारम्भमें दोषोंसे आवृत रहते हैं ।। ४८ ॥ __ व्याख्या। सहज-जन्मके साथ जात इस अर्थमें सहज । जन्म कौन कर्म उत्पन्न होता है ? प्राणक्रिया हो जन्मके साथ जन्मती है। इसलिये प्राणक्रियाको सहज कम कहते हैं। जीव जबतक मातृग में रहता है, तबतक उसके निश्वास प्रश्वासकी स्वतंत्र क्रिया नहीं रहती, मातृशरीरकी क्रियासे ही नाड़ी सहयोगसे उसके शरीरमें प्राणक्रिया सम्पन्न होती रहती है। उस समय उसके शरीरमें प्राणप्रवाह अति सूक्ष्माकारसे उसकी ब्रह्मनाड़ीमें बहता रहता है। उसीसे सप्तधातुका पुष्टि साधन होता है । भूमिष्ठ होते मात्र ज्योंही नासारन्ध्रमें निश्वास प्रश्वासकी क्रिया प्रारम्भ होती है, त्योंही अन्तरका प्राणप्रवाह उस नासारन्ध्रके प्रवाह के साथ मिल करके क्रम अनुसार बहिर्मुख होता है। इसके साथ ही साथ स्वप्नवत पूर्व स्मृति विलुप्त होती है, वाह्य विषयोंके संयोगमें आकर मोहित हो जाता है। इसलिये योगसाधन का उद्देश्य ही है उस प्राणप्रवाहको पुनः अन्तर्मुख कर देना; क्योंकि प्राण अन्तर्मुख होनेसे हो मोहका विनाश होता है, स्मृति जागरुक होती है, और आत्मज्ञानोदयसे जगत् आनन्दमय होता है। प्राणका वह अन्तमुख प्रवाह ही सहज कर्म है। वह अन्तर्मुख प्राणप्रवाह विषयसंस्पर्शमें आकर क्रमानुसार बहिर्मुख हो गया है। श्रीगुरुदेव योगदीक्षा संस्कार के समय उस प्रवाहको अन्तर्मुख कराकर अखण्ड मण्डलाकार तत्पदका दर्शन करा देते हैं। परन्तु उस प्रवाहका यह परिवर्तन अधिक क्षण स्थायी नहीं होता, विक्रम-ताड़नसे शीघ्र ही पुनः घुम जाता है । सुतरां उसके लिये आप स्वयं साधन करना पड़ता Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टादश अध्याय २६६ है। उस प्रवाहको पुनः अन्तमुख करनेकी चेष्टामें पहले पहल बहुत ही आयास स्वीकार करना पड़ता है, यह सुखसे नहीं होता; और प्रथम प्रथम यह चेष्टा ठीक भी नहीं होती। विषयाकर्षणसे टक्कर खाके बाहर आना पड़ता है। उसी प्रायासको उसी विधिरहित चेष्टाको ही 'दोष' कहा हुआ है। इसलिये श्रीभगवान अर्जुनको कहते हैं कि, सदोष होनेसे भी सहज कर्म (अन्तमुखमें प्राणचालन ) को त्याग करना न चाहिये; क्योंकि कोई काज भी प्रारम्भकालमें निर्दोष नहीं होता वरन् दोषाच्छन्न रहता है, जैसे अग्नि उत्पन्न काल में धूमाच्छन्न रहती है। ___ यह तो सीधी बात हुई। श्रीमत् शंकराचार्य जी कहे हैं कि सहज कर्म ही स्वधर्म है और श्रीधर स्वामी कहे हैं कि स्वभावविहित कर्म ही सहज कर्म है। ४२ श्लोक से ४८ पर्यन्त श्लोकमें चार वर्गका प्रविभक्त कर्म और उन्हीं कर्मों के फलविधानके परिचयसे देखने में आता है कि स्वभावज कर्म, स्वकर्म, स्वधर्म और सहज कर्म एकही वस्तु के विभिन्न नाम मात्र हैं। अब देखना होगा कि ब्रह्मकर्म, क्षात्र-- कर्म इत्यादि चार वर्णके स्वभावज कमको सहज कर्म क्यों कहा जाता है। ___ श्रीधर स्वामी कहे हैं कि स्वभाव विहित कर्म ही सहज कर्म है । देखा जाता है कि, मनुष्योंके स्वभाव ( शरीर-मनकी अवस्था ) का परिवर्तनके साथ ही साथ प्राण-क्रियाका भी परिवर्तन होता है, अर्थात् मनुष्योंका स्वभाव ( शरीर-मनको अवस्था ) जब जिस प्रकार होता है, प्राणक्रिया भी उसी की अनुगामिनी होती है; मानो उसके साथही साथ नवीन जन्म लेती है। इसीलिये स्वभावविहित कर्मको सहज कर्म कहते हैं। स्वभावानुगामी प्राणकर्म तात्कालिक दोषाश्रित होनेसे भी उसे त्याग करना न चाहिये क्योंकि त्याग करनेसे बिन होगा। जैसे शोकावेगमें भीतर ही भीतर वायुवेग इतना Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०० श्रीमद्भगवद्गीता 'अधिक होता है कि घन घन दीर्घ निःश्वासरूप धारण करके बाहर आने चाहता है, चिल्लाय करके रोनेकी प्रवृत्ति उत्पन्न करता है; भयके आवेगसे अन्तरमें प्राण संकुचित होकर हृदयको कम्पायमान कर देता है, छाती धड़कती रहती है; आनन्दके आवेगसे अनन्तरमें प्राण स्फीत होकर खूब हंसी ला देता है; यह सबही प्राणके स्वभावविहित कर्म हैं। इन सब कर्मो को त्याग ( दमन ) करनेसे शरीरमें व्याधि उत्पन्न होगी। उसी तरह प्रगाढ़ चिन्ताके समय प्राणक्रिया स्थिर हो जाती है; अनेक क्षण बैठ करके क्रिया करनेसे प्राणप्रवाह संयत हो जाता है, शरीरको भी संयत करता है। इस समय यदि किसी आवेगसे चन्चल हो करके कोई काज करने जाओ और प्राणवाहको सरल होनेका साक्काश न दो तो तत्क्षणात मस्तकमें चक्कर आकर तुम्हें गिरा देगा। इस प्रकार सामान्यसे सामान्य उदाहरणसे समझा जाता है कि, स्वभावकी क्रिया प्राणकी क्रिया जिस प्रकार प्रारम्भ होती है उसे दोषमुक्त समझनेसे भी त्याग करना न चाहिये, प्राणकी तात्कालिक क्रियाका अनुवर्तन करते हुए उसी क्रियाको बदल कर उसे त्याग करना ही युक्तियुक्त है। अब देखना चाहिये कि साधकको साधन-जीवनमें उनके स्वभावानुयायी सहज कर्मका किस किस प्रकारके भावसे परिवर्तन होता है। "जन्मना जायते शूद्रः संस्कारात् द्विज उच्यते"-इस वचनसे जाना जाता है कि, जबतक संस्कार अर्थात् उपनयन न हो तबतक शूद्र अवस्था रहती है। उपनयनको अन्तर्ड ष्टि भी कहा जा सकता है। अस्मदादिका इन दोनों चक्षुओंसे अन्तविषय लक्ष्य नहीं होता. इसलिये श्रीगुरुदेव दीक्षाकालमें अस्मदादिके भ्रमध्यमें एक दिव्यचक्षु खोल देते हैं। उसे ही उपनयन कहते हैं । उस चक्षुसे बाहरकी ओर देखा नहीं जाता, भीतर ही भीतर ताकनेसे उसमें अनेक विषय दिखाई पड़ते हैं। उस चक्षुकी हकशक्ति साधारणतः आवरणसे ढकी Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टादश अध्याय ३०१ है। दीक्षाके पश्चात् अभ्यास द्वारा उस प्रावरणको हटाना पड़ता है। आवरणको हटा सको तो उस चक्षुसे भूत, भविष्यत् तथा वर्त्त-.. मान सब देखा जाता है। शास्त्रमें उस चक्षुको दिव्यचक्षु, तृतीय नेत्र, ज्ञानचक्षु, प्रज्ञाचक्षु प्रभृति नाना नामसे वर्णना किया है। गुरुदेव उस चक्षुको खोल देते हैं, इस कारण गुरु प्रणाममें है-"चक्षुरुन्मीलितं येन तस्मै श्रीगुरवे नमः।" . संस्कार होनेके पश्चात् हो शूद्रत्व जाकर द्विजत्व आता है। इस संस्कारको द्वितीय जन्म कहते हैं। एक जन्म मातृगर्भसे वहिर्जगत्में भूमिष्ठ होना है, और दूसरा जन्म दीक्षासंस्कार द्वारा संस्कृत होना है, जिससे बहिर्विषय छोड़ करके अन्तर्जगत्का विषय लक्ष्य होता रहता है। जैसे मातृगर्भसे जन्म होनेसे प्राणक्रिया अन्तर्मुख गति छोड़ करके बहिर्मुख गति लेती है, अर्थात जन्मके साथही साथ उसका भी जन्म होता है, उसी संस्कार द्वारा द्विज होने से ही प्राणक्रिया भी उसके साथ ही साथ रूपान्तरित हो करके क्रम अनुसार अन्तर्मुख होती रहती है, मानो उसका भी नवीन रूपसे जन्म हुआ। वह भी जन्मके साथ ही साथ जन्मती रहती है, कारण द्विजत्वके ब्राह्मणादि विभिन्न स्तर अनुसारसे इस सहज क्रियाका भी प्रकार भेद होता है। प्राणकी बहिर्मुख गतिसे जैसे विषयाकारा वृत्तिका उदय होता है उसी प्रकार प्राणके अन्तमुख गति लेनेके साथ ही साथ भिन्न भिन्न प्रकारकी वृत्तिका उदय होता है, और तदनुरूप भिन्न भिन्न प्रकारके कर्मों का अनुष्ठान करना पड़ता है। वे सब कर्म तात्कालिक प्राणक्रियाके पोषक तथा बर्द्धक हैं; इसलिये वे सब अवश्य कर्त्तव्य कर्म हैं। इस कारण उन्हें भी सहज कर्म वा स्वभावज कर्म कहते हैं। प्रत्येक साधकको ही साधन-जीवनमें शूद्र, वैश्य, क्षत्रिय और ब्राह्मण पर पर क्रमोन्नत यह चार अवस्था भोगनी होती है। प्रत्येक अवस्था के प्राणक्रियाके उपयोगी पृथक् पृथक् स्वभावज कर्म विहित हैं। उन Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०२ . श्रीमद्भगवद्गीता सब कर्मों को त्याग करना न चाहिये; त्याग करनेसे उन्नत अवस्था लाभ नहीं होती। · उन सब कर्मों को पर पर अनुष्ठान कर जानेसे ही उन्नत अवस्थामें उठा जाता है और अनुष्ठानके फलसे वे सब कर्म क्रम अनुसार श्राप ही आप त्याग भी होते रहते हैं। नहीं तो स्वेच्छासे उनका त्याग करनेसे पतन होता है । __ साधकको क्रिया-वर्जित-अवस्था ही शूद्रावस्था है। इस अवस्थाका सहज वा स्वभावज कर्म परिचर्यात्मक है। इस अवस्थाके परिचा वा सेवा द्वारा अपर तीन अवस्थाओंका पोषण होता है। परिचर्या है शरीरको शौचाचारमें रखना, उपयुक्त परिमाण अंग चालना करना, शरीरको परिमित सात्त्विक आहार देना, शरीरको वातातापसे रक्षा करना, उपयुक्त आश्रय बनाना इत्यादि, अर्थात् ६ अः १७ श्लोक अनुसार युक्तभावमें शारीरिक क्रिया सम्पन्न करना। यह सबही तदर्थीय कर्म होनेके कारण इसमें बाधकता नहीं आती। इस परिचार्यात्मक कर्म द्वारा शरीरको साधनानुकूल करना होता है। __क्रियाकाल ही साधककी द्विज अवस्था है। क्रियाको प्रथम अवस्था ही उनका वैश्य भाव है, द्वितीय वा मध्यम अवस्था क्षत्रिय भाव है और शेष अवस्था ब्राह्मण भाव है। साधनकी यह तीन अवस्था है। “प्रथम अवस्थाका स्वभावज कर्म कृषि, गोरक्ष्य तथा वाणिज्य है। यह तीनों कर्म क्रियाके प्रथमसे ही साथ ही साथ चलते रहते हैं। समझने में सुभीतेके लिये इन तीनों कर्मों को पृथक पृथक् रूपसे वर्णन किया जाता है। आसनमें "सम कायशिरोप्रीवं” हो करके बैठकर श्वासकी क्रिया के साथ शरीरका अधोगामी वेगको ऊर्ध्वमें आकर्षण करके तथा मेरुदण्ड और सर्व शरीरको दृढ़ और संयत करके हृदयमें अनाहत चक्रके ऊपर निर्भर करना होता है। यह आसन सुचारुरूपसे आवद्ध न होने "पर्यन्त वायुके सहयोगसे शरीरको रीतिमत कर्षण करके (कस लेके) Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टादश अध्याय ३०३ मेरुदण्डका पर्व समूहको परस्पर दृढ़बद्ध करना होता है, उसके साथ ही साथ छः चक्रमें मन्त्रबीजको यथानियमसे अर्पण (वपन ) करना होता है। यह सब क्रिया ही कृषि है। तत्पश्चात गोरक्ष्य है। गो अर्थ में इन्द्रिय है। इन्द्रिय इग्यारह हैं;-पाँच ज्ञानसाधन, पांच कर्मसाधन, और एक मन। इन सब इन्द्रियोंको संयत भावसे रखना होता है। गुह्य, लिंग और पादको यथा नियमसे आसनके द्वारा संयत करके पाणिको भी ज्ञानमुद्रा द्वारा अथवा गुरूपदिष्ट मतासे अन्य प्रकारसे आबद्ध करके रसनाको उलटकर स्वस्थानमें रखना होता है। ज्ञानेन्द्रियोंके साथ मनको भ्रमध्यमें कूटस्थमें ( ६ अः २६ श्लोक के नियम अनुसार ) वशमें लाके आबद्ध करना होता है। इस प्रकार करनेके बाद देखना होगा कि किसी इन्द्रियमें कष्ट वा यन्त्रणा अनुभूति न हो, क्योंकि "स्थिरसुखमासन"-आसन स्थिर तथा सुखदायक होना चाहिये। किसी स्थानमें यन्त्रणा होते रहनेसे क्रियामें 'विघ्न होता है। सयत्न चेष्टा द्वारा आसनमें दृढ़ अभ्यस्त होना होता है, कारण कि साधनमें आसन ही मातृस्वरूप है। यह गोरक्ष्य हुआ। तत्पश्चात् वाणिज्य है। वाणिज्य प्राणका व्यवसाय है। आत्ममन्त्रसे मिला हुआ प्राणको देवगण बड़ा प्यार करते हैं। साधकको भी भवपारमें जाना होगा; परन्तु अपरिचित देश, रास्ता भी अज्ञानान्धकारसे आच्छन्न हैं, कुछ सहाय सम्बलका प्रयोजन है; इसलिये साधक एक कृपावान् महाजनके (गुरुके ) सहारेसे प्राणमें मन्त्र मलना सीखकर तथा ब्रह्मलोकको जानेका रास्ता-घाटका सन्धान जानकर, निर्दिष्ट दिशामें लक्ष्य स्थिर रखकर मन्त्र मिला हुआ प्राणको लेकर ब्रह्ममागेके छः स्थानोंमें देवतोंके साथ प्राणका व्यवसाय करते रहते हैं। भली वस्तुका भला मोल होता है। जो जैसी कृति है उसकी वस्तु भी वैसी ही होगी। देवगण भले प्राणको पानेसे अधिकसे अधिक सन्तुष्ट होते हैं तथा नियमित रूपसे मन्त्र मला हुआ प्राणको Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०४ श्रीमद्भगवद्गीता ( बन्धी ) पाते रहनेसे सुप्रसन्न होते हैं। प्राणके बदले में वे (देव) लोग ज्ञान देते हैं. अालोक देते हैं, रास्ता दिखा देते हैं और सहायक होते हैं। इस प्रकारसे परस्परकी भावना द्वारा परम श्रेय लाभ होता है। यही वाणिज्य है। क्रियाको प्रथम अवस्थामें इन तीनों कर्मों को करना पड़ता है। श्वास आप ही आप स्वभावतः जैसे बहता है उसी के वशमें रह करके कौशल द्वारा उसमें आत्ममन्त्रका संयोग करके वाणिज्य करना होता है, अर्थात् आत्ममन्त्र और हंसको परस्पर समन्वित करके छों चक्रमें यथा नियमसे प्राणक्रिया (प्राणायाम ) करना होता है, श्वासके ऊपर किसी प्रकारका वेगका प्रयोग करना न चाहिये। शिक्षार्थी साधक जितने दिन इन तीनों कर्मों में न अभ्यस्त होंगे, जितने दिन आसन स्थिर और सुखकर न होगा और रसना उलट कर गलगह्वरके भीतर तालु कुहरमें न जावेगी, उतने दिन इस क्रियाको करेंगे। और शिक्षित साधक क्रियामै बैठके जबतक भीतर एक स्वच्छन्द भावको नहीं पायेंगे और श्वास सरल, सूक्ष्म और सबल न होगा, तथा कूटस्थमें लक्ष्य स्थिर न होगा तबतक इस क्रियाको करेंगे। स्वभावके वशमें रह करके श्वासके ऊपर किसी प्रकार वेगका प्रयोग न करके यह जो तीनों कर्म हैं, इस प्रकार कर्म न करनेसे उन्नति होती ही नहीं; पुनः इस प्रकार कर्मका त्याग करके पहिलेही श्वासके ऊपर वेग प्रयोग करके तेज प्रकाश करनेकी चेष्टा करनेसे, नाड़ीपथ समूह सरल न होनेसे वायुका वेग वहां पहुंचकर बाधा पाकर उन सबको विकृत करके शरीरको व्याधिग्रस्त करेगा। क्रियाकी प्रथम अवस्था ही मृदु भावकी साधन है; इस साधनसे शक्ति सञ्चय होने के बाद तब तीव्र भावकी साधन करना होता है। बहुतेरे लोग क्रिया की इस प्रथम अवस्थाका मृदुभावका साधनको दोष मानते हुए उसमें अभ्यस्त न होकरके भी अपनी बुद्धिसे तीव्रभावकी साधन करने लग जाते हैं, श्वासके ऊपर वेग प्रयोग करते हैं, श्वासको संयत करते हैं, Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टादश अध्याय ____३०५ दीर्घ करते हैं, रुद्ध करते हैं, अर्थात् क्रियाकी मध्यम अवस्थाका कर्म करने लगते हैं, अन्तमें विपरीत फल पाते हैं, शिर:-पीड़ादि व्याधिग्रस्त होते हैं। इसलिये गुरूपदेश "सहजं कर्म कौन्तेय सदोषमपि न त्यजेत्” इत्यादि है। . जब क्रियाकी इस प्रथम अवस्थाका कर्म आयत्त हो पाता है तथा श्वास क्रम अनुसार आपही आप सूक्ष्म, दार्थ और वेगशाली होता है, तब शिक्षार्थी साधक गुरुके पास द्वितीय क्रियाको प्राप्त होते हैं और शिक्षित साधक क्रियाको मध्यम अवस्थाका काम करनेमें प्रवृत्त होते हैं। मध्यम अवस्थाही साधकका क्षत्रियभाव हैं। इस अवस्थाका स्वभावज कर्म शौर्या, तेज, धृति, दाक्ष्य, युद्ध में अपलायन, दान और ईश्वरभाव है। यही अवस्था साधक जीवनमें कठोर-अवस्था है। प्रथम अवस्थाके कर्ममें नाड़ीपथ समूह परिस्कार होनेसे इस अवस्था में साधकको गुरूपदेश अनुसार श्वासके ऊपर वेग प्रयोग करना पड़ता है, वायुको विभिन्न नाडीपथमें चलाना पड़ता है, तेज सहकारसे साधन-क्लेश सहना होता है, कृतित्व और दक्षता प्रकाश करके विवेक वैराग्यादि के सहारेसे विषय-वासनानुकूल काम, क्रोध और लोभादि वृत्तिकै प्रबल आक्रमणको अटकाना पड़ता है, किसी प्रकारसे भी पीछे पाँव हटाना न चाहिये । इस प्रकारसे क्रिया करनेसे काम क्रोधादिको जय किया जाता है और क्रम कसे शरीर-राज्यके अनेक स्थान भायत्तमें आते हैं, नाना प्रकारकी विभूति लाभ होती हैं। विभूति लाभ होनेसे आसक्त होकरके उस विभूतिको भोग करना न चाहिये। भोगसे बन्धन होता है, उन्नति नहीं होती, सर्वत्र अनासक्त रह करके समस्त भगवानको समर्पण करते हुए चले जाना पड़ता है; यही दान है। यह जो भोग-बन्धनमें न पा करके अनासक्त भावमें रहना है, इससे प्राकृतिक शक्तिके ऊपर सर्वत्र आत्मप्रभाव विस्तार हो जाता है; यही ईश्वरभाव है। गीतोक्त साधक अर्जुन इस मध्यम अवस्थाकी -२० Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . ता ३०६ श्रीमद्भगवद्गीता क्रियामें प्रवृत्त है। उसने इस घोर कम अवस्थाकी कठोरता देख करके निश्चय कर लिया कि, क्रियाका शेष अवस्थाका शम दमादि कर्म ही उत्तम है; वह अच्छी शान्तिमय अवस्था है (अर्थात् सहस्रार क्रिया, गुरुमुखगम्य ), उस अवस्था में पञ्चतत्त्वोंके साथ कोई भी सम्बन्ध नहीं रहता, अथच दर्शन, श्रवण, मनन आदि द्वारा विश्वज्ञान (विज्ञान ) जाना जाता है; षट्चक्रमें कोई चेष्टाही नहीं रहती, कोई आधिपत्यभी नहीं रहता। मन यहच्छालाभसन्तुष्ट होता है। इस यहच्छालाभसन्तुष्ट अवस्थाको लक्ष्य करके ही अर्जुन ने कहा कि "श्रेयो भोक्तुं भक्ष्यमपोह लोके"। अर्जुन जो घोर कर्मावस्थाको परित्याग करके ज्ञानावस्थामें जाना चाहते हैं, उनकी वह इच्छा वृथा है; क्योंकि, घोर कर्मके अनुष्ठान बिना उस ज्ञानावस्थामें रहा नहीं जाता, प्रकृतिके वशसे उतरकर उनको कर्म में नियुक्त होना ही पड़ेगा। यही समझानेके लिये यह गीता है । श्रीभगवान कहते हैं “सहजं कर्म कौन्तेय सदोषमपि न त्यजेत्' साधनकी इस मध्यम अवस्थामें साधक कूटस्थ चैतन्यको लक्ष्य करके उभय वृत्तियों के बीचमें खड़े हुए हैं, उनका रास्ता सब परिस्कार है, गाण्डीवमें छिला ( गुण ) चढ़ाया हुआ है, अर्थात् मेरुदण्ड जितनी दूर संयत और संकुचित होना चाहिये सो हुआ है, उसमें अति तीक्ष्ण शर भी योजित हुआ है, अर्थात् मेरुमध्यगत श्वास अति सूक्ष्म और तीव्र हुआ है, अब जहां इच्छा अबाधतः निक्षेप किया जा सकता है और जिसको इच्छा भेद भी किया जा सकता है। इस अवस्थामें शौर्य्य तेजादि बिना दूसरी और कोई क्रिया नहीं है। वही इस समय का सहज कर्म है। अब यदि साधक शौर्य तेजादिके द्वारा उस तीव्र सूक्ष्म श्वासका यथोपयुक्त व्यवहार न करके उसको त्यागपूर्वक सहस्रार में ब्रह्मःमके अनुष्ठानमें प्रवृत्त होने जायेंगे तो, वह हो नहीं सकता। क्योंकि वह तीव्र सूक्ष्म श्वासकी क्रिया जो अब प्रारब्धरूपसे Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०७ अष्टादश अध्याय खड़ी हुई है बिना भोगके उसका क्ष्य नहीं होगा। इच्छा द्वारा त्याग करनेसे कर्म त्याग नहीं होता। प्राकृतिके वशसे अवश होकरके स्वभावज कर्म में और भी निबद्ध होना होता है; अनासक्त क्रियाके फलसे कम आपही आप त्याग होता है। इच्छाका प्रयोगसे बन्धन ही होता है, मुक्ति नहीं होती। इसलिये श्रीभगवान पश्वात् कहे हैं कि “कत्त नेच्छसि यन्मोहात्करिष्यस्यवशोऽपि तत्”। इसी कारण अब उपदेश करते हैं कि "असक्तबुद्धिः सर्वत्र" हो करके और "स्वकर्मनिरतः” हो करके ईश्वरकी अर्चना करते चलो, ऐसा होनेसे ही सिद्धिलाभ होगी। सहज कर्म सदोष होनेसे भी उसको त्याग करना न चाहिये, क्योंकि, वही उन्नतिका एक मात्र पन्थ है। जैसे आवश्यकीय अन्नादि प्रस्तुत करनेका एक मात्र उपाय अग्नि है; परन्तु अग्नि प्रज्वालन करना हो तो स्वभावसिद्ध धूम होना अनिवार्य है इस कारण जैसे अग्नि त्याज्य नहीं है, बसे सर्व कर्म ही प्रारम्भ कालमें दोषाच्छन्न रहते हैं, इसलिये सहज कर्म सदोष होनेसे भी त्याज्य नहीं है। प्राणचालन जीवका सहजात कर्म है। विषयके साथ मिल कर के ही दोष युक्त हुआ है इसलिये यह कर्म परित्याग करनेका नहीं है । जैसे धूआँ अग्निको ढांक रखता है, वैसे सर्वो का. प्रारम्भ ( स्पर्श ) दोषके द्वारा इस कर्म के ब्रह्ममार्गमें विचरण-द्वार ढका हुआ है। अग्नि थोड़ा बलवान होनेसे ही जसे धूएको निकाल कर निजस्वरूप प्रकाश 'करती है, सहजात कर्म भी तसे गुरुप्रदर्शित मार्गमें विचरण करके प्राकृतिक मायाजालको निकालकर स्व स्वरूप में स्थापन करता है ॥४८॥ असक्तबुद्धिः सर्वत्र जितात्मा विगतस्पृहः। . नैष्कर्म्यसिद्धिं परमां संन्यासेनाधिगच्छति ॥ ४६॥ अन्वयः । सर्वत्र असक्तबुद्धिः ( असक्ता संगरहिता बुद्धिरन्तःकरणं यस्य सः) जितात्मा (निरहंकारः) विगतस्पृहः (निराकांक्षः ) संन्यासेन (कर्मासक्ति Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०८ श्रीमद्भगवद्गीता फलयोस्त्यागलक्षणेन ) परमा नैष्कर्म्यसिद्धि ( सर्वकर्मनिवृत्तिलक्षणां सत्त्वशुद्धि ) अधिगच्छति ( प्राप्नोति) ॥ ४९ ॥ अनुवाद। सर्व विषयमें अनासक्तचित्त, निरहंकार तथा स्पृहाशून्य मनुष्य ( कर्मासकि और कर्मफलका त्यागरूप ) संन्यास द्वारा परम नष्कर्म्यसिद्धिको प्राप्त होते हैं ॥ ४९ ॥ व्याख्या। श्रीभगवान पहले ही कहे हैं कि स्वकर्म द्वारा ईश्वराचना करनेसे मानव सिद्धिलाभ करता है। किस प्रकारसे स्वकर्म साधन करेगा और किस प्रकारकी सिद्धि लाभ भी करेगा, वही बात समझानेके लिये कहते हैं कि सर्वत्र अनासक्त होकर कर्मका अनुष्ठान करो, जितात्मा और स्पृहाशून्य हो करके अर्चना करो, ऐसा होनेसे ही परमा नैष्कर्म्यसिद्धि अर्थात् सर्वकर्म-निवृत्तिरूप सत्वशुद्धिको प्राप्त होंगे; अर्थात् जिसकी बुद्धि पुत्र दारा गृहादिको सार कह करके निश्चय नहीं करती, क्रिया विशेष द्वारा मन-बुद्धि-अहंकार-चित्त जिसके अपने आयत्त हो चुके, जिसको किसी प्रकार भोगरागमें इच्छा मात्रका उद्रेक नहीं होता; वही पुरुष ( सर्वनाशका) द्वारा उत्कृष्ट नैष्कर्म्यसिद्धि (ब्राह्मी स्थिति ) को पाता है (३ य अः ४ श्लोक देखो)॥४६॥ सिद्धि प्राप्तो यथा ब्रह्म तथाप्नोति निबोध मे। समासेनैव कौन्तेय निष्ठा ज्ञानस्य या परा ॥५०॥ अन्वयः। हे कौन्तेय ! सिद्धि ( नंष्कर्म्यसिद्धि ) प्राप्तः सन् यथा (येन प्रकारेण) ब्रह्म आप्नोति तथा (तत्प्रकारं ) समासेन एव ( संक्षेपेणवं ) मे ( मम वचनात् ) निबोध, या (या प्रतिष्ठा ब्रह्मप्राप्तिः) ज्ञानस्य परानिष्ठा ( पर्यवसानं परिसमाप्तिरित्यर्थः) ॥५०॥ अनुवाद। हे कौन्तेय ! सिद्धि प्राप्त होकर फिर जिस प्रकारसे ब्रह्म प्राप्त होता है, उसे संक्षेपमें हमसे सुन लो, जो (जो ब्रह्मप्ताप्ति ) ज्ञान की परानिष्ठा ( चरम परिसमाति) है॥५०॥ Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टादश अध्याय ३०६ व्याख्या। अति कठोर संयमके द्वारा ब्रह्मसंस्पर्श सुखका अभ्यास करते करते एक असीम उदारता आश्रय करता है, उससे इस नवद्वार युक्त शरीरमें निवास करके अन्तःकरणके साथ मिल करके इन्द्रियादिका जो कुछ कर्म होता है वह उस उदारतामें और अटक रहनेका स्थान नहीं पाता जैसे रुजु दरवाजामें एकके भीतरसे प्रवेश करके फिर दूसरे दरवाजेसे सीधा निकल जानेके सदृश निकल जाकर अन्तःकरणसे बहुत दूरमें जा पड़ता है। सुतरां अन्तःकरणमें क्रियाशक्तिको उत्पन्न नहीं कर सकता। उस क्रियाशून्य अन्तःकरणमें साधकका जो निरन्तर अवस्थान है, वही नैष्कर्म्यसिद्धि है। ब्रह्ममें जैसे निर्लिप्तता चिरविद्यमान है, उसी प्रकार इस साधकमें भी है। किस किस साधनसे यह निष्ठा-स्थिति होती है, हे कुन्तीपुत्र ! तुमको उन्हें संक्षेपमें कहता हूँ सुन लो। ( ५ म अः १३ श्लोक ) ॥ ५० ॥ बुद्धया विशुद्धया युक्तो धृत्यात्मानं नियम्य च। शब्दादीन्विषयांस्त्यक्ता रागद्वषो व्युदस्य च ॥५१॥ विविक्तसेवी लध्वाशी यतवाकायमानसः। ध्यानयोगपरो नित्यं वैराग्यं समुपाश्रितः ॥ ५२ ॥ अहंकारं बलं दपं काम क्रोधं परिप्रहम् । विमुच्य निर्ममः शान्तो ब्रह्मभूयाय कल्पते ।। ५३ ॥ अन्वयः। विशुद्धया ( सात्त्विकया ) बुद्धया युक्तः धृत्या ( सात्त्विक्या ) आत्मानं ( तामेव बुद्धिं ) नियम्प च (निश्चलां कृत्वा ) शब्दादीन् विषयान् त्यक्त्वा रागद्वेषौ च युदस्य (परित्यज्य ), विविक्तसेवो (विजनदेशावस्थायी ) लध्वाशी ( मितभोजी ) यतवाक्कायमानसः ( संयतवाग्देहचित्तो भूत्वा) नित्यं (सर्वदा ) ध्यानयोगपरः ( ध्यानेन यो योगो ब्रह्मसंस्पर्शस्तस्मिस्तत्परः सन्) वैराग्यं ( धानाविच्छेदपथं पुनः पुनः दृष्टादृष्टेषु विषयेषु वैतृष्ण्यं ) समुपाश्चितः ( सम्यगाश्वितो भूत्वा ), अहंकारं बलं दपं कामंोधं परिग्रहं विमुच्य (विशेषण त्यक्त्वा) निर्ममः सन् शान्तः ( परमामुपशान्ति प्राप्तः ) ब्रह्मभूयाय ( ब्रह्माहमिति नैश्चत्येनावस्थानाय ) कल्पते ( योग्योमवति ) ॥५१॥ ५२ । ५३ ॥ Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१० श्रीमद्भगवद्गीता अनुवाद । विशुद्ध ( सात्त्विक ) बुद्धि युक्त हो करके, धृति द्वारा ( उसी ) बुद्धि को निश्चल करके, शब्दादि विषय समूहको त्याग करके ( तद्विषयक ) राग द्वेष परित्याग करके, विविक्तसेवी, मितभोजी, संयतवाग्देहचित्त और नित्य ध्यानयोगमें तत्पर होके वैराग्यका सम्यक् प्रकारसे आश्रय करके अहंकार, बल, दर्प, काम, क्रोध और परिग्रहको विशेष रूपसे त्याग करके, निर्मम हो करके परमो पशान्ति प्राप्त साधक ब्रह्म होनेके ( मैं ब्रह्म हूं इस ज्ञानमें निश्चल रूपसे अवस्थान करनेका ) योग्य होते हैं ।। ५३ ॥ ५२ ।। ५३॥ _व्याख्या। जिसकी बुद्धि विशुद्ध अर्थात् अात्मस्वरूप बिना और सब किसीको उपेक्षा करती है, ग्रहण नहीं करती; जिसकी धृति स्व स्वरूप बिना और किसीमें नहीं रहती; जिसका देहाभिमान संयत (आयत्ताधीन ) हो चुका अर्थात् कभी भी देह "मैं" हूं कह करके स्मृति नहीं उठती; शब्दादि विषय समूह शरीर धारणोपयोगी क्रियामात्र करता है, तदतिरिक्त और कुछ भी नहीं करता। राग-प्रीति, द्वष-अप्रीति, यह दोनों ही जिसके अन्तःकरणसे परित्याग हो चुके, जो पुरुष केवल मात्र शून्यागार, नदीतीर, पर्वत, श्मशानकी निर्जनता सर्वदा अन्तःकरणमें भोग करता है अर्थात् मूलाधारसे आज्ञाचक्रको भेद करके केवल ब्रह्मनाड़ीका मध्य स्थान देकर आवागमन करता है, चित्रा, वना, वा सुषुम्नामें से किसीके स्पर्शमें लिप्त नहीं होता (विविक्तसेवी ); जो लघु आहार करता है वा जिसकी आशा (प्राप्तीच्छा ) लघु है अर्थात् एकमात्र ब्रह्म बिना और किसीको नहीं चाहता; जिसका वाक्य, शरीर, मनोवृत्ति “यत" हैं अर्थात स्व स्व क्रिया त्याग कर चुके; चिन्ता मात्रके विलयसे जो निष्कामता-स्थिति होती है अर्थात् मिलनेकी वस्तु ब्रह्ममें मिल करके तदाकारत्व लेनेसे जो निरन्तर अवस्थान होता है, सर्वदा उसीमें जो तत्पर ( रत ) है; इहकाल परकालमें भोगमात्रके ऊपर जिसकी उपेक्षा (विराग) है; और जिसका अहंकार =में कर के अभिमान, बल = जिस किसी प्राकृतिक पदार्थकी (अवस्तुकी ) ग्रहण-शक्ति, दर्प = कूदके बड़ा होनेका Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टादश अध्याय . ३११ संस्कार, काम= विषयाकारा वृत्ति, क्रोध= कामना प्रतिहत होनेसे जिस वृत्तिका उदय होता है, परिग्रह = जितनेसे चलता है उतनेसे अधिकका ग्रहण-यह सब एक दम त्याग हो चुके; ऐसे निर्मम ( अर्थात् हमारे कहनेका कुछ भी जो पुरुष अन्तःकरणमें ग्रहण नहीं करता, वहो) स्थिर धीर साधक ब्रह्मत्व लाभ के योग्य होता है ॥५१॥ ५२ ॥ ५३॥ ब्रह्मभूतः प्रसन्नात्मा न शोचति न कक्षति । समः सर्वेषु भूतेषु मद्भक्तिं लभते पराम् ॥ ५४।। अन्वयः। [ब्रह्माहमिति नैंश्चल्येनावस्थानस्य फलमाह ब्रह्मति ] ब्रह्मभूतः ( ब्रह्मण्यवस्थितः ) प्रसन्नात्मा (प्रसन्नचित्तः ) न ( नष्ट ) शोचति न च (अप्राप्तं ) कांक्षति, सर्वेषु भूतेषु समः सन् परां ( उत्तमा ज्ञानलक्षणां चतुर्थी ) भद्भक्तिं ( मयि परमेश्वरे भक्ति भजनं ) लभते। [आतादीनां भक्तानां मध्ये ज्ञानिनः भक्तिरेव परा] ॥ ५४॥ अनुवाद । ब्रह्ममें अवस्थित प्रसन्नचित्त मनुष्य ( नष्ट द्रव्योंके लिये ) शोक नहीं करता, ( अप्राप्त वस्तुओंके लिये ) आकांक्षा भी नहीं करता, सर्वभूतमें सम होकरके मद्विषयिणी पराभक्ति लाभ करता है ॥ ५४॥ व्याख्या। पूर्व पूर्वोक्त प्रकारसे समाधि-साम्य साधनमें जो साधक ब्रह्मसंस्पर्श सुखका अनुभव कर चुका उसे ब्रह्मविद् वा ब्रह्मभूत कहते हैं। 'प्रसन्नात्मा'-प्र=सर्वतोभावसे, सन्न =गमन; जो सर्वतोभावसे आत्मामें गमन कर चुका, अर्थात् आत्मामें अवस्थान कालमें जिसमें किसी प्रकार मायिक संस्कारका स्फुरण नहीं होता, उसे ही "प्रसन्नात्मा" कहते हैं। इस प्रकार अवस्थापन्न साधकोंका अन्तःकरणमें शोचना अर्थात् चित्तकी क्रियाशक्ति प्रकाश पाता ही नहीं, तथा आकांक्षा अर्थात् ब्रह्म बिना अन्य कोई मायिक द्रव्यकी प्राप्ति लालसा भी नहीं रहती। निस्तरंग स्थितिके लिये विषमताका Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१२ श्रीमद्भगवद्गीता उदय हो नहीं सकता, सुतरां सर्वभूतका अस्तित्व है कि नहीं इसका बोध न रहनेसे समही सम भासमान रहता है इस कारणसे गुरुवाक्य में अटल विश्वाससे लब्ध फल जो "मैं ब्रह्म हूँ" ज्ञान, उसे ही पाता है। (६ अः ३२ श्लोक, ७ अः १६ श्लोक ) ॥५४॥ भत्त्या मामभिजानाति यावान् यश्चास्मि तत्वतः। ततो मां तत्त्वतो ज्ञात्वा विशते तदनन्तरम् ॥ ५५ ।। । अन्वयः। भक्त्या ( तथा च परया भक्त्या) यावान् ( सर्वव्यापी) यश्चास्मि ( सच्चिदानन्दघनः) तथाभूतं मां तत्त्वतः अभिजानाति; ततः मां ( एवं ) तत्त्वतः ज्ञात्वा तदनन्तरं ( तस्य ज्ञानस्योपरभे सति ) मां विशते ( परमानन्दरूपो भवतीत्यर्थः) ॥५५॥ अनुवाद। ( उस परा ) भक्ति द्वारा मैं जिस प्रकार ( सर्वव्यापी ) तथा जिस प्रकार ( सच्चिदानन्दधन ) हूं उस प्रकारसे मुझको तत्त्वत: अवगत होते हैं, तत्पश्चात् मुझको उस प्रकारसे तत्त्वत: जान कर उस ज्ञानके उपरम होनेके बाद हममें प्रवेश करते हैं ।। ५५॥ व्याख्या। यह जो "मैं" अहं-उपाधिके द्वारा पृथक् पृथक् अनेक “मैं” की सृष्टि किया हूं देखते हो, गुरुवाक्यके ऊपर अटल विश्वाससे क्रिया करते हुए चित्तरूप आकाशको धोते धोते जब वह समस्त पृथक् "मैं" मिट जा करके सर्वोपाधि वजित द्वतात शून्य एकरस चैतन्यधन अजर, अमर, अनन्त, जान कर इस "मैं" के बिना और दूसरे "मैं" का स्थान नहीं है यह समझ करके संशय रहित होंगे, तबही ''मामभिजानाति" अर्थात् क्षेत्रज्ञ रूपसे आपही अपनेको देख लेंगे, अन्तःकरणमें विरुद्धवादका स्थान फिर न होगा। जहां जितना जल है उन समस्तको ही समुद्रका जल समझ करके, पृथक् पृथक श्रात्माका Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टादश अध्याय ३१३ पृथकत्व स्वीकार नहीं रहेगा। तत्त्व, प्रकृति, माया आदिका भ्रम एकबारगी उड़ जावेगा ( जैसे कपूर )। इसीको ही "तत्त्वतोज्ञात्वा" जानना। इसके बाद साधक विस्तार होनेका क्रम लेकर मिल जाने चलते हैं, जैसे दो नौका में पग दिया हूँ, एक नौकासे पगको उठा लेनेसे ही तत्क्षणात् एकही नौकाका आश्रय हो जाता है, उसी प्रकार जानना ॥ ५५ ॥ सर्वकर्माण्यपि सदा कुर्वाणो मद्वयपाश्रयः । मत्प्रसादादवाप्नोति शाश्वतं पदमव्ययं ॥ ५६ ॥ अन्वयः। [स्वकर्मभिः परमेश्वराराधनादुक्त मोक्षप्रकारं उपसंहरति सर्वकर्माण्येति । ] सदा सर्वकर्माणि कुर्वाणः अपि मद्वयपाश्रयः ( अहं वासुदेव ईश्वरो व्यपाश्रयो यस्य सः मय्यपितसर्वात्मस्वभाब इत्यर्थः ) मत्प्रसादात् शाश्वतं (अनादि) अव्ययं ( नित्यं सर्वोत्कृष्ट ) पद अवाप्नोति ।। ५६ ॥ अनुवाद। सर्वदा सकल प्रकारका कम करके भी "मद्वयपाश्रयः" साधक मेरे प्रसादसे शाश्वत अव्यय पदको प्राप्त होते हैं ॥ ५६ ।। • व्याख्या। मैं वासुदेव ब्रह्म, सबका आश्रय हूं; परन्तु आप खुद निराश्रय हूँ; ऐसे "मैं" का कार्य कर्म भी सब निराश्रय है। इसलिये कहता हूँ कि, जितना ही कर्म हो निराश्रय होकर ऐसे अटक रह जा सकने से इस “मैं” की प्रसन्नतासे शाश्वत जो अव्यय पद है, वह अभ्यास द्वारा आपही आप आ जाता है ॥ ५६ ॥ चेतसा सर्वकर्माणि मयि संन्यस्य मत्परः । - बुद्धियोगमुपाश्रित्य मच्चित्तः सततं भव ॥ ५७ ॥ अन्वयः। सर्वकर्माणि ( दृष्टादृष्टार्थानि ) चेतसा (विवेकबुद्धया ) मयि ।ई वरे ) संन्यस्य ( यत्करोषि यदश्नासि इत्युक्तन्यायेन समl) मत्परं ( अहं वासुदेवः परः प्राप्यः पुरुषार्थो यस्य सः त्वं मत्परः सन् ) बुद्धियोगं ( व्ययसायात्मिकया Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१४ श्रीमद्भगवद्गीता बुद्धया योगं ) उपाश्रित्य सततं ( सर्वदा कर्मानुष्ठान कालेऽपि ब्रह्मार्पणं ब्रह्म हविः इति : न्यायेन ) मच्चित्तः भव ॥ ५ ॥ अनुवाद। तुम विवेकबुद्धि द्वारा सव कर्मको “मैं" में अर्पण करके मत्परायण हो कर बुद्धियोगके आश्रय पूर्वक मच्चित्त हो जाओ ॥ ५ ॥ व्याख्या। पहिले १४ श्लोकमें जो बारह करणकी कथा कही हुई है उन करण समूहसे जो कुछ किया जाय, उन सबका ही नाम सर्व कर्म है। उस कर्म समूहको चित्तमें फेंक देनेसे ही नीचेवाला करण और कर्मों के अभावका नाम ही बुद्धियोग है। बुद्धियोगके पश्चात् चित्तक्षेत्रमें केवल कर्म समष्टिका संस्कार रहता है। चित्तके द्वारा उस कर्मसंस्कारको "मैं' में फेंकनेसे ही कर्मसंस्कार दग्ध हो जाता है। कर्मसंस्कारके दग्ध होनेके बाद चित्त "चित्” में अर्थात् “मैं” में पड़ करके "चित्” हो जाता है। इसलिये कहता हूँ कि, तुम ऐसी बुद्धियोगका आश्रय करके, सर्व कर्मको चित्तके सहारेसे “मैं” में फेंक. के नाश करके अविच्छेद रूपसे मच्चित्त हो जाओ ।। ५७ । मञ्चित्तः सर्वदुर्गाणि मत्प्रसादात् तरिष्यसि । अथचेत्स्वमहंकारान्न श्रोष्यसि विनंक्ष्यसि ॥ ८ ॥ अन्वयः। मच्चित्तः सन् मत्प्रसादात् सर्वदुर्गाणि ( सर्वाण्यपि दुर्गाणि दुस्तराणि सांसारिकदुःखानि ) तरिष्यसि; अथचेत् ( यदि ) त्वं अहंकारात् ( पण्डितोऽहमिति ज्ञातृत्वाभिमानात् ) न श्रोष्यसि ( मदुक्तं न अहिष्यसि ) तहिं विनंक्ष्यसि (पुरुषार्थात् भ्रष्टो भविष्यसि ) ॥ ५८॥ अनुवाद। मच्चित्त होनेसे मेरे प्रसादसे समुच्चय दुर्गसमूह ( दुस्तर सांसारिक दुःख समूह ) से तर जाओगे; और यदि तुम अहंकारके वश ( हमारी कथा ) न सुनोगे, तो बिनष्ट होगे ॥ ५८॥ व्याख्या। चित्त 'मैं" में आकर पड़नेसे ही मेरे प्रसादको पाता है; मेरा प्रसादभुक्त चित्त ही मच्चित्त है। इस अवस्थामें "सर्वदुर्ग" Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टादश अध्याय ३१५से पार हो जाओगे, अर्थात् अनिर्मल सृष्टिमुखी चित्तमें जिस चिच्छायाको धर रखा था, चित्तकी निर्मलता हेतु वह छाया-धरने-- बाला घेरा कट जावेगा। सुतरां संसार बीजका स्पर्शदोष मिट जावेगा, तुम भी मुक्त हो जाओगे, मायासे तर जाओगे। और यदि तुम अहंकारका आश्रय करके यह उपदेश न सुनोगे, ग्रहण न करोगे. तो मरोगे अर्थात् जन्म-मृत्यु भोग करते रहोगे ॥५८ ॥ यदहंकारमाश्रित्य न योत्स्य इति मन्यसे । मिथ्यैव व्यवसायस्ते प्रकृतिस्त्वां नियोक्ष्यति ॥ ५६ ॥ अन्वयः। अहंकारं आश्रित्य ( मदुक्तं अनाहत्य केवलमहंकारमवलम्व्य ) न योत्स्ये ( युद्ध न करिष्यामि ) इति यत् मन्यसे ( चिन्तयसि निश्चयं करोषि ) ते व्यवसायः (निश्चयः ) मिथ्या एव, ( यस्मात् ) प्रकृतिः (क्षत्रस्वभावः ) त्वां नियोक्ष्यति ( युद्ध प्रपतयिष्यत्येव ) ॥ ५९॥ ___ अनुवाद । अहंकारका आश्रय करके "युद्ध न करूंगा" यह जो मनमें धारणा करते हो, तुम्हारा यह व्यवसाय ( चेष्ठा ) निश्चयही मिथ्या ( वृथा ) है, क्योंकि, प्रकृति तुमको ( युद्ध में ) अवश्य नियुक्त करेगी ॥ ५९॥ व्याख्या। यदि तुम अहंकारका आश्रय करके 'युद्ध (क्रिया ) न करूगा' मनमें यह निश्चय करके बैठ रहो तो, यह तुम्हारा क्रिया न होगा। तुम क्षत्रिय हो, तुम्हारी प्रकृति तुमसे युद्ध ( क्रिया) कराये बिना नहीं छोड़ेगी, तुम भी बिना किये रह नहीं सकोगे ॥ ५६ ॥ स्वभावजेन कौन्तेय निबद्धः स्वेन कर्मणा । कत्तु नेच्छसि यन्मोहात् करिष्यस्यवशोऽपि तत् ॥६० ॥ ... अन्वयः । हे कौन्तेय । स्वभावजेन ( स्वभावः पूर्व कर्मसंकारस्तस्जातेन ) स्वेन (स्वीयेन ) कर्मणा ( शौर्यादिना ) निबद्धः ( यन्त्रितः त्वं ) मोहात् यत् ( कर्म ) कत्त न इच्छसि तत् ( कर्म ) अवशोऽपि ( परवश एव ) करिष्यसि ॥ ६ ॥ Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीमद्भगवद्गीता ___ अनुवाद। हे कोन्तेय ! तुम स्वभावज स्वकीय कर्म द्वारा निबद्ध हो, मोहघशतः जिसे करनेको इच्छा नहीं करते हो, अवश्य उसे करना हो पड़ेगा ॥ ६ ॥ व्याख्या। जिसका स्वभाव जिस प्रकारका है, वह तदनुयायी वर्म करनेके लिये बाध्य है। अविवेकके मोहमें पड़ करके करनेकी इच्छा न रहनेसे भी उसका स्वभाव उसको अवश ( वशीभूत ) करके करा देता है। अतएव अर्जुन जो युद्ध न करनेकी इच्छा करते हैं, यह मिथ्या है, क्योंकि उनका पूर्व जन्मार्जित क्षत्रियस्वभाव उनको न छोड़ेगा; वर्मफलविधाता ईश्वरकी इच्छासे यथा समयमें वह प्रबल होकर के उनको अवश करके उनकी इच्छाको अभिभूत करके उनको स्वभावज कर्ममें ( युद्ध में ) नियुक्त करावेगाही। उसी स्वभावज कर्म को स्व इच्छासे सचेष्ट होकर करनेसे कर्मबन्धन क्षय होता है और अनिच्छासे स्वभावके वशमें अवश होकर करनेसे वह बन्धन और जटिल होता है। इसलिये भगवान पहले ही कहे हैं कि "स्वकर्मणा तमभ्यर्च्य सिद्धि विन्दति मानवः", और एकादश अध्यायमें कहे हैं कि 'निमित्तमात्रं भव सव्यसाचिन्' ( इसकी व्याख्या देखो)। ऐ। अवश होकर अनभिलषित काज करना किस प्रकारका है उसे ‘क्रियाका एक अभिज्ञताका उदाहरण देकर कहता हूँ जिससे भुक्तभोगी साधक समझ लेंगे। रात्रिमें सोते हुए निद्रा जाना अस्मदादिका आजन्म स्वभाव है। मनमें निश्चय कर लिया कि आज सोने न जाऊंगा, सारी रात्रि क्रिया करूंगा। यह ठीक निश्चय करके मन भलीभांति उद्यमसे क्रिया करने लग गया। बहुत क्षणके बाद क्रियामें आपही आप एक प्रकारको ढिलाई पड़ती है, मनका उद्यम भी तब थोड़ा कम हो जाता है । उस समय स्वभाव मनके भीतर उदय होता है, मनको कैसे आच्छन्न कर फेंकता है, मन अभिभूत हो जाता है तब वह मनको युक्ति देता रहता है कि 'यह तो मार दिया गया, क्रिया करनेसे ही तो सारी रात किया जा सकता है, क्रिया सारी रात Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टादश अध्याय ही करनी होगी, सोना तो है नहीं, पर बहुत क्षण क्रिया की गई, अब दो चार क्षण के लिये थोड़ा लम्बे पड़के शरीरको जड़ताको नष्ट कर लेनेसे अच्छा होगा, दो एक मिनट के बाद ही उठ करके पुनः क्रिया का प्रारम्भ किया जावेगा।" स्वभावकी यह सल्लाद और युक्ति क्षण भरके भीतर ही तब मनमें अकाट्य होता है। किस प्रकार अकाट्य होता है इसे जो भोग चुके हैं वही समझेंगे। उसी युक्ति के अनुसार ज्योंही एक क्षणके लिये लम्बे पड़के करवट लिया, बस त्योंही सब कर्म नष्ट हो गया, स्वभावका जं जैकार हो गया, प्रगाढ़ निद्रामें एक बारगी प्रभात हो गया। सब मिट्टो ! निद्रासे उठनेके पश्चात् अनुशोचना होती है कि 'हाय, हाय, क्यों सो गये थे ?' इसलिये 'युक्त-- स्वप्नावबोध' होनेका विधान है। सोना अवश्य होगा, इसलिये इच्छा पूर्वक सोकर निद्रा लेलो, तत्पश्चात् उठा, उठकर क्रिया करो; ऐसा करनेसे ही क्रम अनुसार निद्रा जय होगी; नहों तो एकबारगी निद्रा नहीं लेऊंगा, यह कहनेसे ही स्वभाव क्योंकर छूटेगा। वह अवश्य अपने वशमें लाके निद्रामें डाल देगा, उसमें उतना परिश्रम सब व्यर्थ होगा और अनुशोचना भोग करनी पड़ेगी। इसलिये भगवान अर्जुन को बार बार कहते हैं कि “स्वकर्मणा तमभ्यर्च्य सिद्धि विन्दति मानवः" अर्थात् स्वभावज कर्म के अनुष्ठान द्वारा ईश्वरकी अर्चना करनेसे सिद्धिलाभ होती है, क्रम अनुसार स्वभाव अतिक्रम हो जाता है, स्ववश हुआ जाता है। इसलिये भगवान अर्जुनको इस श्लोकमें कहते हैं कि "तुम अभी तक स्वभावज कर्ममें निबद्ध रहे हो, स्वभावको अतिक्रम कर नहीं सके अतएव स्वाभाविक कर्म करनेकी इच्छा न करनेसे भी स्वभाव तुमसे उसे करावेगाही। अतएव स्वभावके वशमें रहकर "असक्तबुद्धिः सर्वत्र" हो करके क्रिया करते चलो, स्वभाव आपही आप बदल जावेगा ॥६॥ Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१८ श्रीमद्भगवद्गीता ईश्वरः सर्वभूतानां हृदेशेऽर्जुन तिष्ठति । भ्रामयन् सर्वभूतानि यन्त्रारूढानि मायया ॥ ६१ ॥ अन्वयः। हे अर्जुन ! ईश्वरः ( अन्तर्यामी नारायणः ) मायया ( निजशक्त्या) सर्वभूतानि यन्त्रारूढानि इव ( इव शब्दोऽत्र द्रष्टव्यः यथा दारुयन्त्रमारूढानि कृत्रिमाणि भूतानि सूत्रधारो लोके भ्रामयति तद्धत् ) भ्रामयन् ( तत्तत्कर्मसु प्रवत्त यन् ) सर्वभूतानां हृद्देशे ( हृदयमध्ये ) तिष्ठति, यद्वा यन्त्रारूढानि ( यन्त्राणि शरीराणि आरूढानि अधिष्ठितानि ) सर्वभूतानि ( देहाभिमानिनो जीवान् ) भ्रामयन् सर्वभूतानां हृह शे तिष्ठतीत्यर्थः ॥ ६१ ॥ अनुवाद । हे अर्जुन | ईश्वर माया द्वारा सर्वभूतको यन्त्रारूढ़वत् भ्रमण कराकर सर्वभूतोंके हृद्देशमें अवस्थान कर रहे हैं। ( अथवा, ईश्वर शरीररूप यन्त्रा"धिष्ठति भूत समुदायको अर्थात् देहाभिमानी जीव समूहको माया द्वारा भ्रमण कराकर सर्वभूतोंके हृदय मध्यमें अवस्थान करते हैं ) ॥ ६१ ॥ व्याख्या। भगवान पूर्व दो श्लोकमें सांख्यादि मत अनुसार "जीवकी प्रकृतिपरतन्त्रता तथा स्वभावपरतन्त्रताकी कथा कह चुके हैं। अब इस श्लोकमें स्वमत प्रकाश करते। कहते हैं कि, सर्वभूत ही ईश्वर परतन्त्र है; ईश्वर सर्वभूतोंके हृदय में अवस्थान करके माया द्वारा सर्वभूतोंको घुमाते हैं । ५६, ६०, ६१ श्लोकमें भगवानके वचनका भावार्थ प्रकार है। - "हे अर्जुन ! तुम तो पहिले प्रकृति के वशीभूत हो अर्थात् पूर्वकृत कर्मफलसे जिस प्रकार धातुसे तथा जिस प्रकार सांचेमें तुम्हारा देह, मन गढ़ा हुआ है, कार्यकालमें उसी प्रकार भावकी क्रिया करनेके लिये तो तुम बाध्य हो; परन्तु उसे छोड़ कर दूसरे आजन्म अभ्यासके द्वारा शरीर-मनको जिस प्रकार कर्ममें अभ्यस्त किये हो, उस अभ्यस्त म्वभावज कर्मको छोड़कर दूसरा कर्म करना अब तुम्हें असम्भव है, क्योंकि तुम उसीमें निबद्ध हो, इच्छा न करनेसे भी अवश हो करके उसे तुमको करना ही पड़ेगा। इस प्रकृति तथा स्वभावज कर्म द्वारा जीव तो निबद्ध ही है, परन्तु उसे छोड़ कर वही Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टादश अध्याय ३१६ कर्मफलविधाता ईश्वर--वही इच्छामय–जिसकी इच्छाशक्ति वा मायासे ही इस जगत्की सब कुछ क्रिया चल रही है जिससे ही भूतगणोंकी प्रवृत्ति और जिसके द्वारा यह समुदय व्याप्त है वह-वही सर्वान्तर्यामी सर्वव्यापी पुरुष सर्व हृदयमें -ब्रह्मादि स्थावरान्त पर्यन्त समुदय माथि कोंमें कार्यप्रवृत्तिरूपसे अवस्थित रह करके स्थावर जंगम समुदायको स्व स्व कर्ममें नियुक्त करता है। यह कार्यप्रवृत्ति ही माया है। उसकी मायाके हाथसे परित्राण किसका है ? वह माया दुरत्यया है उसके वशमें कार्य करना ही पड़ेगा। अतएव तुम्हारा और किसी तरहसे भी निस्तार नहीं है, इस प्राकृतिक स्वभावज कर्म को बिना किये रह नहीं सकते। अतएव ( परश्लोकमें कहते हैं ) तुम "तमेव शरणं गच्छ” उसका आश्रय करो, एकमात्र उसीके प्रसादसे तुम पराशान्ति पाओगे। अपनी इच्छासे "श्रेयो भोक्तु भैक्ष्यमपीह लोके” यह कह कर कर्मान्तरमें जानेसे शान्ति नहीं पाओगे। . साधक ! अव एकबार निज साधनके प्रति लक्ष्य करो। तुम्हारे साधन मार्गमें मूलाधारादि पाँच चक्रमें क्षिति, अप, तेज, मरुत्, व्योम इन पाँच भूतोंमें ही तुम विचरण करते हो। यही सब सर्वभूत हैं । ईश्वर परमात्मा वा परमेश्वर इन सर्वभूतोंके हृदेशमें अर्थात सब चक्रों के ठीक केन्द्रस्थलमें अवस्थित है। मूलाधारादि चक्रपञ्चकके भीतर, सुषुम्ना-वज्रा-चित्राके भीतर जो ब्रह्माकाश है, जिसको ब्रह्मनाड़ी कहा जाता है, वही सर्वभूतोंके भीतर ब्रह्मका स्वरूप विकाश है, वही ईश्वर है, उसीकी ईशनशीलतासे वा शासनसे, उसीके आश्रयसे वा उसके अस्तित्व हेतु पञ्चतत्त्व स्व स्व धर्म अनुसार कर्म करते हैं। सुतरां क्षिति, अप प्रभृति पाँच स्थानके चक्रका ही केन्द्रस्थल कूटस्थ है; किन्तु सब कूटस्थ ही समसूत्र हो करके, आज्ञा चक्रके केन्द्रके साथ युक्त रहने के कारण तथा आज्ञाके नीचे मोहिनी प्रकृतिका आकर्षण अधिक होने से उस आज्ञाचक्रमें ही लक्ष्य स्थिर करनेकी आज्ञा है, इसलिये कूटस्थ Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२० श्रीमद्भगवद्गीता कहनेसे आज्ञाचक्रके केन्द्रस्थलको हो समझाता है। उस आज्ञास्थित कूटस्थको लक्ष्य करके सर्वभूतोंके हृद्देशसे अर्थात् ब्रह्मनाड़ीके भीतरसे मनका आवागमन विधान मतमें क्रिया कर सकनेसे ही "सर्वभावसे उसकी शरण लेना" होता है। “ईश्वर माया द्वारा घुमाते हैं", यह जो कहा हुआ है, यह ईश्वर कौन है ? और माया भी कौन है ? महर्षि पतञ्जलि कहते हैं-"क्लेशकर्मविपाकाशयैरपरामृष्टः पुरुषविशेषः ईश्वरः” अर्थात् अविद्यादि पन्चक्लेश, धर्माधर्म रूप कर्म, कर्म-फलरूप विपाक, और चित्तस्थित फलानुकूल संस्कार ( आशय ) जिसको स्पर्श नहीं कर सकते, वही विशेष पुरुष ही ईश्वर है । साधक ! यह अविद्यादि पञ्चक्लेश प्रभृति कैसी है उसे समझ लो । (१) अविद्या ।-जो जैसा नहीं है, उसको वैसा समझाकर जो स्थिर विश्वास करा देती है, वह अविद्या है; जैसे यह जगत् अनित्य है। जो जाता है, जिसमें परिवर्तन होता है, वही अनित्य है। तुम्हारा यह शरीर उस शैशव अवस्थासे बदलते बदलते बुढ़ापेमें आ चुका यही परिणाम है। और तुम्हारा वह शिशु, बाल, पौगण्ड, किशोर, यौवन, प्रौढ़ अवस्था समूह जो भर गये ( और वे फिर न आवेंगे), तथापि तुम सोचते हो 'मैं बड़ा होता हूँ, मैं जैसे अमर हूँ। इस भ्रान्ति ज्ञान वा मिथ्या ज्ञानको अविद्या कहते हैं । (२) अस्मिता।-दो अत्यन्त भिन्न द्रव्यको जिस अज्ञानतासे एक अभिन्न करके समझा देती है. उसीको अस्मिता कहते हैं। जैसे पुरुषचेतन्य, भोक्ता है, और बुद्धिसत्त्व-जड़, भोग्य हैं; ये दोनों अत्यन्त भिन्न पदार्थ हैं तथापि इन दोनोंका अभिन्न एक ज्ञान जो करा देती है, वही अस्मिता है। यह अस्मिता हो हृदयप्रन्थि है; जिससे "मैं" और "मेरे" इन दोनों अत्यन्त भिन्न पदार्थों को मोहवशसे अभिन्न एक समझाकर रखती है। Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२१ अष्टादश अध्याय (३) राग। कभी किसी स्थानमें मैंने मिठाई खा कर सुख पाया है, पुनः उसी मिठाई खानेकी तृप्तिको पानेके लिये जो कामना है, वही राग है, अर्थात् विषयभोगके प्रति अनुराग वा आकांक्षा । (४) द्वष।-एक बार एक कष्ट भोगनेके बाद जबही वह कष्ट मनमें उदय होगा तत्क्षणात उसपर जो विरक्ति भाव आता है, अर्थात् फिर कभी उसे भोगनेमें न आवे, ऐसी जो वृत्तिका उदय होता है, उसीका नाम द्वष है। (५) अभिनिवेश। पूर्व जन्ममें मैं मर चुका था, उस समय मरणका महाकष्ट भोग किया था, वही संस्कार चित्तमें छा रहा है इस कारण अगर कोई मुझे मरने कहे तो उस पूर्व कष्ट भोगकी जो अस्फुट स्मृति मनमें भयका सञ्चार कराती है, उसीको अभिनिवेश कहते हैं। यह पाँच क्लेश हैं। ___ धर्म और अधर्म नामक क्रियाको कर्म कहते हैं । (८म अध्यायमें कर्मकी व्याख्या देखो)। कर्मफलका नाम विपाक है। चित्तमें जो कर्मजात फल अंकित रहता है, उसीको आशय वा संस्कार कहते हैं। यह सब जिनको स्पर्श नहीं कर सकते ऐसे निलिप्त जो है उसी पुरुष विशेषको ईश्वर कहते हैं। वह सगुण है, परन्तु गुणक्रियाके साथ लिप्त नहीं है, उसमें यही विशेषता है । वह सच्चिदानन्द स्वरूप है । ___ माया क्या है, यही समझानेकी चेष्टा अब की जाती है। -ईश्वर इच्छामय है, उसकी इच्छाशक्तिका नाम माया है। इसलिये माया भी इच्छामयी है । यह इच्छाशक्ति वा माया अव्यक्त है। इसका स्वरूप कह करके प्रकाश किया नहीं जा सकता; कारण कि जो कुछ कहा जावेगा वही नास्ति हो जावेगा, कुछ भी समझा नहीं जावेगा। "मा”-नास्ति वाचक शब्द है, "या"-अस्ति वाचक शब्द; इन दोनों अर्थके मिलनसे जो होता है, वही माया है, अर्थात् निर्णयके अतीत पदार्थ। -२१ Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२२ श्रीमद्भगवद्गीता मायाका स्वरूप समझा नहीं जा सकता, क्योंकि वह अव्यक्त है। तथापि कार्य देख कर जिस प्रकार अनुमान किया जा सकता है, ऋषिगण तद्र प मायाके स्वरूपबोधक थोड़ा-सा कार्यात्मक नाम दिये हैं; जैसे-“सा माया पालिनी शक्तिः सृष्टिसंहारकारिणी", "अघटनघटनपटीयसी", "सा माहेश्वरी शक्तिः ज्ञानरूपातिलालसा, व्योमसंज्ञा पराकाष्ठा" इत्यादि । जैसे तेज वा उष्णत्व पदार्थ अब्यक्त है, उसके स्वरूपका किसी प्रकार वर्णन की नहीं जा सकती तथापि देखनेमें आता है कि अव्यक्त तेज वा उष्णत्व घनीभूत होनेसे ही व्यक्त हो करके अग्नि होती है, दाहशक्ति-सम्पन्न होती है, और उष्णत्वके संयोगसे पदार्थमें वेग उत्पन्न होता है, तरल पदार्थके आणविक आकर्षणके दूर होनेसे मूल उपादान समूह परस्पर पृथक् हो जाते हैं, और सकल पदार्थ हो उत्तप्त होता है इत्यादि, इस प्रकारकी क्रिया द्वारा ही तेजका स्वरूप जितना हो सके उतना समझा जाता है, माया सम्बन्धमें भी उसी तरह है, कार्य द्वारा कारणका स्वरूप निरूपण किया जाता है । इसीसे समझा जाता है कि, माया त्रिगुणमयी है अर्थात् उत्पत्ति, स्थिति, और लय इन तोन क्रियाशक्ति स्वरूपा है। मायाकी क्रियाशील अवस्था ही प्रकृति है। __ यह माया जब ब्रह्ममें मिलकर निष्क्रिय अवस्थामें रहती है, तब माया ब्राह्मीशक्ति है। अन्नशब्दमें ब्रह्म, परिपूर्ण है; उस परिपूर्णकी आश्रयीभूता शक्ति भी परिपूर्णा वह करके 'अन्नपूर्णा' नामक है। निष्क्रियावस्थामें शक्तिका प्रकाश नहीं है, इसलिये माया भी तब विभू ( सर्वमूर्त संयोगिनी) होती है। ज्योंही माया सृष्टिमुखी वृत्ति लेती है तत्क्षणात् उसकी शक्ति (प्रसूति ) नाम पड़ता है। शक्ति जहां है कार्य भी वहीं है। ज्योंही कार्यका प्रारम्भ हुआ तत्क्षणात् उसका नाम प्रकृति हुआ। प्रकृतिने १, २, ३, ४, ५, ६, ७, ८, ६ को प्रसव किया। यह समस्त ही पृथक् खण्ड, नानाभाव है। इस नानात्वका Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टादश अध्याय ३२३ विराम वा अपलाप हो प्रलय, ग्रास वा शून्य (०) है। प्रसव अर्थात सृष्टि व्यक्त है और प्रास अर्थात् प्रलय अव्यक्त है। इन दोनोंका नाम जन्म और मृत्यु है। जिन्होंने जन्म लिये वे ही सब सर्व (जो है ) हुए; और जो सब मर गये वे सब भूत (जो गये हैं ) हुए। ( सवौं की अव्यक्त अवस्था ही भूत, और भूतोंकी ब्यक्त अवस्था ही सर्व है)। अज्ञानीकी दृष्टि में यह परिवर्तन दृश्य होनेसे भी ज्ञानीके चक्षुमें मूलतः एक ब्रह्म ही ब्रह्म भासमान विस्तारता है। वह निर्लिप्त ईश्वर गुणमयी मायाके ( मिथ्याके ) साथ मिल करके ( सगुण ब्रह्म बन करके ) मायाके द्वारा उस सर्व-भूतोंके हृदयमें (ठीक बोचमें ) रहकर, उन सबको जन्म-मृत्युरूप कालचक्रके अधीन बनाकर भ्रमण करवाते हैं। वह इच्छामय ईश्वरने इच्छा प्रभावसे विश्व ब्रह्माण्डको सृजन किया है अर्थात् वह स्वयं इस विश्वाकारको धारण किया है। जैसे एकमात्र बीजसे एक वृक्ष उत्पन्न होता है और फिर उसी वृक्षसे हजारों बीज उत्पन्न होते हैं, उसी प्रकार एक ईश्वरसे उत्पन्न इस विश्ववृक्षसे असंख्य जीव उत्पन्न हुए हैं। विश्वबीज ईश्वर है, विश्व माया-विकार है, और विश्वजात बीज जीव है। एकमात्र इच्छा-बीजसे ही हजारों इच्छाबीज उत्पन्न होते हैं, सुतरां ईश्वर जैसे इच्छामय है, जीव भी उसी तरह इच्छामय है। प्रभेद यह है कि ईश्वर उस इच्छाशक्तिके आश्रय और जीव उस इच्छाशक्तिका आश्रित है-मायागर्भसे आवृत है। माया लालसा-स्वरूपिणी, कर्म-स्वरूपिणी तथा ज्ञान-स्वरूपिणी है; संक्षेपमें कहा जाता है कि माया लालसा-कर्मज्ञानमयी है। माया विकृत होकर चौबीस तत्वामिका प्रकृति रूप धरके विश्वसाजमें सजने से इस लालसा-कर्म-ज्ञानका प्रवाह चलता रहता है। उस लालसासे कर्म, कर्मफल और कर्मसंस्कार तथा प्राकृतिक विकृत ज्ञान वा पञ्चक्लेश उत्पन्त होते हैं, अर्थात् पतञ्जलिका क्लेश, कर्म, विपाक और Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२४ श्रीमद्भगवद्गीता आशय उत्पन्न होते हैं। लालसाके प्रभावसे यह जो असंख्य बीजस्वरूप जीव उत्पन्न होते हैं वे सब क्लेश, कर्म, विपाक और आशय द्वारा मण्डित हैं, और ईश्वर उन सबसे अस्पृष्ट है। ईश्वरकी दो अवस्थाएं हैं, सगुण और निर्गुण। निगुण अवस्था का नाम ब्रह्म है, तब माया वा इच्छाशक्ति प्रलीन रहती है, जैसे दूध में मक्खन, अर्थात निश्चष्ट अवस्था। सगुण अवस्था सचेष्ट अवस्था है, तब मायाका विकाश होता है; सगुण अवस्था ही ईश्वर है। माया विकाश हो करके विकृत होती है, वह माया-विकार ही २४ तत्त्व और क्लेश-कर्म-विपाक-आशय रूपमें परिणत होता है। माया-विकार द्वारा ईश्वर असंस्पृष्ट है। सगुण अवस्थामें ईश्वर माया-विकाश सहयोगसे माया-विकारोत्पन्न कर्मका फल-विधाता है; वह ईश्वर खुद आप निर्विकार और अव्यय है। जीव ईश्वरकी इच्छासे ही उत्पन्न हुए हैं, सुतरी इच्छामय हैं; उनमें भी स्वतन्त्र स्वाधीन इच्छा बलवती है। जीव अपने स्वतन्त्र स्वाधीन इच्छाको परिचालन करनेके लिये जिस प्रकार कमके सम्पर्कमें आ पड़ता है तदनुरूप फल भोग करता है; उस फलका विधान वह ईश्वर सर्वव्यापी तथा सर्वान्तर्यामी रूपमें अवस्थित होकरके ही करता है। अर्थात् जीव अपनी इच्छासे चल करके भी ईश्वरकी इच्छा वा माया द्वारा अवश होकर कृतकर्मका फल भोगनेमें बाध्य होता है। जब तक जीव अपनी स्वाधीन इच्छासे विषय-मार्ग पर चलेगा, तब तक उसका कर्म सृष्टि होता ही रहेगा और उन कर्मों का फल उसको भोगना ही पड़ेगा। यदि जीव स्वतन्त्रभावको त्याग करके अपनी स्वाधीन इच्छा और लालसाका स्रोत उलटा घुमा कर उस ईश्वरको लक्ष्य करे, उनकी शरण ले, तो उस शरण लेना रूप कर्मफलसे ईश्वरका प्रसाद पावेगा, वह भी ईश्वर-भावप्राप्त होकर प्रकृतिवशी होवेगा स्वामीपद प्राप्त होगा और वह क्लेशकर्म-विपाक-आशयसे असंस्पृष्ट रहेगा। वही शान्ति अवस्था-मुक्ति Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टादश अध्याय .. ३२० अवस्था है। इसलिये भगवान परश्लोकमें अर्जुनको कहते हैं "तमेव शरणं गच्छ सर्वभावेन भारत" । * ॥ ६१॥ * बहुतेरे लोग कहते हैं कि "ईश्वर जो कराते हैं वही मैं करता हूँ, फिर पाप पुण्य क्या? मैं कुछ भी नहों, ईश्वर ही सब है"। एक पक्षसे यह बात अच्छी है, भक्तिके लक्षण प्रकाश करता है, परन्तु पक्षान्तर में अज्ञानताका परिचय देता है। सृष्टि क्यों हुई, ईश्वरका सृष्टि करने का उद्देश्य क्या है, पाप पुण्य कर्म-विभाग क्यों हुआ ?. इत्यादि प्रकारके "क्या" और "क्यों" लेकर अब तर्क उठानेका प्रयोजन नहीं है। ईश्वर जो कराते हैं मैं वही सब करता हूं, ऐसा कि वह अस्मदादिके चिन्तास्रोत पर्यत चलाते हैं, यह कथा सम्पूर्ण ठीक नहीं है। कारण जीव तो स्वयम्भू नहीं है कि ऐश्वरिक भाव वा गुण उसमें कुछ न रहेगा; जीवकी सत्ता ईश्वरसे पृथक नहीं है; वेदान्त कहते हैं "जीवः ब्रह्मव केवलं"; कारणसे कार्य रूपमें हो जोवकी सृष्टि होती है। जगत् में देखा जाता है कि एक जातीय बीजसे भिन्नजातीय बीज उत्पन्न नहीं होता; धान्यसे धान्य, यवसे यव, उसी तरह पशु बीजसे पशु, मनुष्य बीजसे मनुष्य, इस प्रकार होता ही चला आया है। कारणके साथ कार्यका सादृश्य , सर्वदा हो रहता है। सर्व जीवमें ही देखा जाता है कि, प्रत्येक जीव ही जैसे स्वाधीन भावमें रहनेको और स्वाधीन भावमें कार्य करनेको इच्छुक है। यह स्वाधीन होनेकी इच्छा कहांसे आई ? यहां ही कार्यके साथ कारणका सादृश समझना होगा। कारण है सृष्टिकर्ता ईश्वर, वह प्रकृतिवशी, स्वाधीन है, उसकी वह स्वाधीन वृत्ति हा कार्यरूपसे विस्तार होते होते प्रकृतिगर्भके जीवमें संजात हुई है। प्रकृतिगभं है कर्मराज्य। इस कमराज्यमें जीव क्लेश-कर्म-विपाक-आशयसे आवृत रहनेसे कर्म .. किये विना रह नहीं सकता, उस स्वाधीन इच्छावृत्तिके परिचालनसे ही कर्म करता है, ईश्वर उसी कर्मफलमें उसको आबद्ध करके फलभोग करवाते हैं। इस स्वाधीन वृत्तिके रहनेसे हो भगवान अर्जुनको उपदेश करते हैं कि "स्वकर्मणा तमभ्यच्य सिद्धि विन्दति मानवः” अर्थात् ईश्वरकी विधानमतामें स्वकर्म ( कृतकर्म फलको ) भोग करते करते स्वाधीन इच्छा परिचालनसे विचारबुद्धिका अवलम्बनसे "उसकी" अर्चना करनी होती है, इस प्रकार करनेसे ही सिद्धिलाभ होगा अर्थात् पतञ्जलि उक्त क्लेश, कर्म, विपाक और आशयरूप आवरण भेदसे स्वाधीन अवस्था-मुक्त अवस्थाको प्राप्ति होगी। यदि ऐसा होता कि, जीवकी स्वाधीन इच्छावृत्ति नहीं है, वह (जीव) Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२६ श्रीमद्भगवद्गीता तमेव शरणं गच्छ सर्वभावेन भारत । तत्प्रसादात्परा शान्ति स्थान प्राप्स्यसि शाश्वतम् ॥६२ ।। अन्वयः। हे भारत ! सर्वभावेन ( सर्वात्मना ) तं ( ईश्वरं ) एव शरणं ( आश्रयं ) गच्छ ( आश्रय ), तत्प्रसादात् ( ईश्वरानुग्रहात् ) परां शान्ति ( उत्तमामुपरति) शाश्वतं ( नित्यं ) स्थानं च ( परमेश्वरं मम विष्णोः परमं पदं ) प्राप्स्यसि ।। ६२ ।। अनुवाद। हे भारत ! सर्वतोभावसे उनका ही आश्रय ग्रहण करो उनके अनुग्रहसे पराशान्ति और नित्य स्थानको प्राप्त होगे ॥ ६२ ॥ व्याख्या। हे भारत ! ( भा= दीप्ति, रत ) हे चक्षुष्मान् ! तुम उन सर्वो के साथ जब जिस अवस्थामें जितना व्यवहार करोगे उन समस्तको ही समुणा ऐसीशक्ति प्रकृति, प्रकृति-विकृति, और विकार का कार्य यह निश्चय करके उन सबके साथ न मिल करके अनुलोभसे हृदयस्थ ब्रह्ममार्गको आश्रय कर आज्ञामें कूटस्थ चैतन्य ईश्वर में मिलने के लिये अग्रसर हो जाओ। जब तुम्हारा यह अभ्यास घन से धनतम हो जावेगा, तब शाश्वत (अव्यय ) पदमें जो पराशान्ति "ब्राह्मी.. स्थिति" है, उसे तुम पाओगे। इस श्लोकके इस “शरणं गच्छ” और ६३ श्लोकके "यथेच्छसि तथा कुरु” इस वाक्यद्वयसे भगवान् अच्छी तरह समझा देते हैं कि, सर्वतोभावमें पुतलियों सदृश ईश्वरके हाथका खिलौना है, तो भगवान वह उपदेश न देते। वह आपही करवा लेते । ऐसा नहीं है और ईश्वर तो निर्विकार है उसका अपना, पराया, भला, बुरा बोध तो है नहीं, वह सगुण अवस्थामें कर्मरूपो और कर्मफलविधाता है, उसी फलविधाता रूपसे ही वह कर्मफल भोग कराके ही जीवको नचाता है। अज्ञजीव जितने दिन इस नाचनेको नहीं समझ सकते उतने दिन तक नाचते रहते हैं, तत्पश्चात् ज्ञान होनेके बाद समझ लेनेसे ही उसको पकड़ लेते हैं। उसको पकड़नेका फल करके उस नाचनेसे-भवघोरमें चक्कर खानेसे निष्कृति पाते हैं, शान्ति लाभ करते हैं। ६१ ॥ Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टादश अध्याय ३२७ जीव प्रकृतिपरतन्त्र, स्वभावपरतन्त्र और ईश्वरपरतन्त्र होनेसे भी इच्छा विषयमें उसको स्वातन्त्र्य है। इसलिये अजुनको "तमेव" पद द्वारा "मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते," "मामेकं शरणं ब्रज' इत्यादि वचनोंके "मां" को लक्ष्य कराते हुए, “गच्छ” "कुरु” प्रभृति सामर्थ्यसूचक क्रिया द्वारा पुरुषकार अवलम्बन करनेका उपदेश दे दिये हैं ॥ ६२॥ इति ते ज्ञानमाख्यातं गुह्याद् गुह्यतरं मया । विमृश्यैतदशेषेण यथेच्छसि तथा कुरु ॥ ६३ ।। अन्वयः। इति ( अनेन प्रकारेण ) ते ( तुभ्यं ) मया (सर्वज्ञ नेश्वरेण ) गुह्यात् (गोप्यात् ) गुह्यतरं ( अतिशयेन गुह्य रहस्यनित्यर्थः) ज्ञानं प्रख्यातं ( उपदिष्ट ), एतत् ( मयोपदिष्ट गीताशास्त्रं ) अशेषेण विमृश्य ( पर्यालोच्य ) यथा इच्छसि तथा कुरु। ( एतस्मिन् पर्यालोचिते सति तष मोह निवत्तिष्यत इति भावः ) ॥ ६३ ॥ ___ अनुवाद। तुमको मैंने यह गुद्यसे भी अतिशय गुह्य ज्ञानका उपदेश किया; इसकी अशेष रूपसे पर्यालोचना करके जिस प्रकार इच्छा हो उसी प्रकार करो ॥ ६३॥ · व्याख्या। जीव की प्रकृतिपारतन्त्र्य, स्वभावपारतन्त्र्य, ईश्वरपारतन्त्र्य और स्वातन्त्र्य सम्बन्धमें जो कहा गया, वह अति गोपनीय ज्ञान है, कारण यह है कि कार्य करके तदवस्था प्राप्त न होनेसे इसका स्वरूप उपलब्धि नहीं होता; मुखको वाणीसे समझना ( समझ लिया है ऐसा समझना) कल्पनामें ही रह जाता है, उससे काम नहीं चलता। इसलिये भगवान कहते हैं-"यह जो गोपनीयसे अतिशय गोपनीय ज्ञान (चित्तक्षेत्रसे भी ऊपरकी कथा ) मैं तुमको कह चुका, बार-बार इसको आलोचना करके सिद्धान्तमें उपनीत होने से तुम्हारी जिस इच्छाका उदय होगा (इच्छाका नदय होगा ही नहीं ), तुम वही करो।” अर्थात् आज्ञाके ऊपर उठ करके यह जीव, ईश्वर और माया विषयक ज्ञानको पालोचना करके चरम सीमामें Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२८ श्रीमद्भगवद्गीता पहुँचनेसे ही आत्मज्ञानप्रभावसे देखने पाओगे कि, जितने दिन इच्छाप्रवाह प्राकृतिक विषयमें दौड़ता है, उतने दिन अज्ञानता हेतु कर्मबन्धनमें चक्कर खाना ही होता है, परन्तु उस इच्छा प्रवाहको प्रकृति के आश्रय ईश्वरमें फेंकनेसे भोगद्वारा कर्मसमूह क्षयको प्राप्त होते हैं, और बन्धन नहीं रहता, शान्तिमय ईश्वरभाव वा मुक्तावस्थाको प्राप्ति होती है। आलोचनाके फलसे यह ज्ञान प्रत्यक्ष होते मात्र इच्छाप्रवाह उस ईश्वरमें अर्पित होता है; तब "स्वकर्मणा तमभ्यर्च्य सिद्धि विन्दति मानवः" इस वचनानुरूप इच्छा बिना दूसरे किसी प्रकारकी इच्छा करनी ही होती नहीं। प्रत्यक्ष देख करके पुनः इच्छा करके बन्धनकी प्रार्थना कौन करे! इसलिये भगवान कहते हैं "अशेष आलोचनाके बाद तुम जिस प्रकार इच्छा करोगे उसी प्रकार करना" ॥ ६३ ॥ सर्वगुह्यतमं भूयः शृणु मे परमं वचः। इष्टोऽसि मे दृढ़मिति ततो वक्ष्यामि ते हितम् ॥ ६ ॥ अन्वयः। भूयः मे सर्व गुह्यतमं ( परमं ) वचः शृणु, ( त्वं ) मे दृढ़ ( अत्यन्तं) इष्टः ( प्रियः ) असि इति ततः ( तेन कारणेन ) ते ( तव ) हितं ( परं ज्ञानप्राप्तिसाधनं ) वक्ष्यामि ( कथयिष्यामि ) ॥ ६४ ॥ अनुवाद। पुनराय हमारा सर्वगुह्यतम परम वाक्य श्रवण करो, तुम हमारे अतिशय प्रिय हुए हो, इसलिये तुम्हारा हित कहता हूँ ।। ६४ ।।। व्याख्या। भगवानके पास कोई प्रिय भी नहीं, अप्रिय भी नहीं। भगवान कर्मफल-विधाता है; जिसका जैसा कर्म उसको वैसा फल देता है। और उसको जिस भावसे जो ग्रहण करता है वह भो उसको उसी भावसे ही ग्रहण करता है-"ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम्" । अर्जुन भगवानको अत्यन्त प्यार कर चुके, इसलिये भगवान भी उसको अत्यन्त प्यार करते हैं। प्याररूप कर्मके फलसे Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टादश अध्याय ३२६ प्यारको देते हैं, "शिष्यस्तेऽहं शाधि मां त्वां प्रपन्नम्” बोल करके शिष्यत्व स्वीकार करके अकपट आत्मसमर्पण करनेके फलसे परमहित का उपदेश करते हैं। अति गभीर गीताशास्त्रका अशेष रूपसे पर्यालोचना करनेमें कदापि अर्जुन असमर्थ हो जायं, इसलिये कृपा करके भगवान आपही आप उसका सार संग्रह करके परवती दोनों श्लोक में कहते हैं। इस श्लोकका भावार्थ यह है :-सब गोपनसे भी अतिशय गोपन जो 'मैं' का रहस्य है, 'मेरे शब्दका अर्थ पोषण करे ऐसे किसीके साथ छुआछूत रहनेसे जिसका प्रकाश नहीं होता, (प्राकृतिक किसी पदार्थके साथ थोड़ासा भी संस्रव रखनेसे जो खिलता नहीं गोपन रहता है, वही गुह्यतम है ) ऐसा श्रेष्ठ संवाद पुनः मैं तुमको तुम्हारे हितके लिये कहता हूँ; क्योंकि एतावत् काल तक तुम 'मैं' की इष्ट साधनामें अटल स्थिर रहनेसे 'मैं' के अति प्रिय हुए हो। (१२ अः ५३ से २० श्लोक तक देखो)।। ६४॥ मन्मना भव मद्भक्तो मयाजी मां नमस्कुरु । मामेवैष्यसि सत्यं ते प्रतिजाने प्रियोऽसि मे ॥ ६५ ॥ अन्वयः। मन्मना ( मच्चित्तः ) भव, मद्भक्तः ( मद्भजनशीलः ) भव, भद्याजो ( मद्यजनशीलः ) भव, मां नमस्कुरु, मां एव एष्यसि ( प्राप्स्यसि ); ( त्वं ) मे प्रियः असि, ( अतः ) ते ( तुभ्यमहं ) सत्यं ( यथा भवत्येवं ) प्रतिजाने (प्रतिज्ञा करोमि ) ॥ ६५॥ अनुवाद। मन्मना हो जाओ, मद्भक्त हो जाओ, मयाजी हो जाओ, मुमको नमस्कार करो। ऐसा करनेसे मुझको ही प्राप्त होगे, तुम हमारे प्रिय हुए हो, ( इसलिये ) तुमको मैं सत्य प्रतिज्ञा करता हूं ॥ ६५ ॥ . व्याख्या। भगवान अभी कुछ देर पहले कहे हैं कि "तमभ्यर्च्य सिद्धि विन्दति मानवः” अतएव “तमेव शरणं गच्छ”; अब कहते हैं "मन्मना भव” इत्यादि । इससे भगवान यह समझाते हैं कि, "वह Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीमद्भगवद्गीता 'तं,' जिसे ईश्वर कहा हूँ-जिससे भूतगणोंकी प्रवृत्ति,-जिससे यह समस्त व्याप्त, वही 'त' ही यह 'म'; वही मैं-'सोऽहं" हूँ।” यह 'सोऽहं' ज्ञान सर्वगुह्यतम है। किसीसे भी यह ज्ञान समझाया नहीं जा सकता। उस अवस्थाको प्राप्त न होनेसे इसको समझा नहीं जाता; यह निजबोधरूप है। निजबोध ज्ञान ही गुह्य है, क्योंकि भाषामें व्यक्त होनेका विषय नहीं है। निजबोधरूप ज्ञान जितने हैं उनके भीतर पुनः यह सबसे गुह्यतम है, क्योंकि यही है चरम सबसे ऊपर; इसके बाद ही अहं मिट जाता है, फिर बोध्य बोधन नहीं रहता। बातही बातमें 'सोऽहं' ज्ञान उपदेश करके सर्वगीतार्थ सारभूत उसी ज्ञानप्राप्तिसाधनका सारसंग्रह करके इस श्लोकमें प्रकाश कर दिये हैं। दिखाते हैं कि इस साधनके पर-पर चार क्रम हैं। प्रथम, "मन्मना भव"-'मैं' में अर्थात् कूटस्थ चैतन्यमें मनः संयोग करो। द्वितीय, "मद्भक्तः भव”—मेरे भक्त हो जाओ, एकमात्र 'मैं' में अनुरक्त हो जाओ, अर्थात् “मैं” में मन संयोग करनेके बाद "मनः यतः यतः निश्चरति ततस्ततः नियम्यैतत् आत्मनि एव” वश करलो, मनके अनुराग आसक्तिको एकमात्र कूटस्थमें फेंको, दूसरे किसीमें मन न देना। तृतीय, "मद्याजी भव"-मन्त्र सहयोगसे मेरी पूजा करो, अर्थात मेरा जो मन्त्र प्रणव है, वही प्रणव उच्चारण करो, उसके साथ ही साथ आत्मा-मन-प्राणको “मैं” में आहूति दे दो। तत्पश्चात् चतुर्थ "मां नमस्कुरु”—“मैं” को नमस्कार करो, कर शिरः संयोग पूर्वक "मैं" के सम्मुख में नत हो जाओ अर्थात् पूर्वोक्त तीन क्रमके बाद "मैं” के समीपस्थ तथा समपदस्थ हो करके "मैं' में स्थिर नेत्रसे ताकते रहके क्रियाशक्ति और ज्ञानशक्तिको युक्त करो-निश्चेष्ट करो; इस क्रियामें दोनों शक्ति जबही युक्त होवेंगी तबही साम्यभाव आवेगा, केवलेन्द्रिय भी निष्क्रिय होगा, दृश्य न रहेगा, अदर्शन Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टादश अध्याय ३३१ आवेगा; अभ्यास पक्का न होने पर्यन्त यह दर्शन अदर्शन बार-बार आवागमन करेगा; यही नमस्कार है, इसीको किया करो। तत्पश्चात् पञ्चम वा शेष फल, "भाम एव एष्यसि” ... "मैं” को ही प्राप्त होओगे, “मैं” में आपड़के मिल करके "मैं” हो जाओगे-"सोऽह" अवस्था पाओगे। यह एकबारगी ध्र व सत्य कथा है, इसके इधर-उधर और नहीं है। प्रिय होनेसे यह होवेगाही। ___ इस श्लोकका सरल भावार्थ यह है। --मनका काज संकल्पः ( पकड़ना ) और विकल्प ( छोड़ना है। मनको विषयसे छुड़ाकर "मैं' में लगा दो। भक्त अर्थात् उपासक जैसे उपास्य देवतामें मनप्राणको फेंक करके मिलकर तदाकारत्व लेते हैं, तुम भी उसी प्रकार "मैं" में मन-प्राणको मिला कर (क्रिया गुरूपदेशगम्य ) "मैं' हो जाओ। “मैं” को पूजामें मतवाले हो जाओ अर्थात् "मैं" मय हो जाओ। “मैं” को ही नमस्कार करो ( समान समानमें बराबरमें नमस्कार होता है ) अर्थात् आत्मामें आत्माका मिलन कर दो। मैं सत्य प्रतिज्ञा करके कहता हूँ कि, हे “मैं” के प्रिय ! तुम “मैं” हो जाओगे, तुम्हारी मुक्ति अवश्यम्भावी है ।। ६५ ॥ सर्वधर्मान् परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज ।। अहं त्वां सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः ॥ ६६ ॥ अन्वयः। सर्वधर्मान् ( मद्भक्त्येव सर्व भविष्यतीति दृढ़ विश्वासेन विधिकैङ्कयं ) परित्यज्य (त्यक्त्वा ) मामेकं शरणं व्रज ( मदेकशरणो भव ); अहं त्वां सर्वपापेभ्यः मोक्षयिष्यामि; मा शुचः ( एवं वर्तमानः कर्मत्यागनिमित्त पापं स्यादिति शोक मा कार्षीः ) ।। ६६ ।। • अनुवाद। सर्व धर्म परित्याग करके एक मेरी शरण लो, मैं तुमको सर्व पापसे मुक्त करूंगा; शोक न करना ।। ६६ ।। Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३२ श्रीमद्भगवद्गीता व्याख्या। "धर्म"-संस्कृत भाषामें यह एक बहु विस्तृतार्थसम्पन्न शब्द है। यह क्रम अनुसार विस्तार अर्थ से विशेष-विशेष अर्थ में प्रयुक्त होकर चला आता है। धृ धातुमें मन् प्रत्यय करके धर्म शब्द सिद्ध हुआ है। धातुगत अर्थमें, जिसे धारण करके रहा जाय वही धर्म है, इस प्रकार अर्थ होता है । इस अर्थमें ( १म अर्थ ) स्वयं आदि पुरुष सृष्टिकर्ता विधाता हो धर्म है, कारण उसीको धारण करके यह विश्व स्थित है। सुतरां ( २य अर्थ ) इस विश्वव्यापार परिचालनके लिये वह जो विधान किया है, अर्थात् जिस विधानका आश्रय करके विश्वकी क्रिया चल रही है, वह भी धर्म ( विश्वविधान ) है। उसी प्रकार (३य अर्थ ) वह विधातृपुरुष जीवका (विशेषतः मनुष्योंका) कर्म और कर्मफलके सम्बन्धमें जो विधान किया है, जिससे पाप और पुण्य नाम करके दो प्रकारका कर्मफल विभाग किये हुए हैं, उसको भी धर्म कहते हैं। पुनः ( ४र्थ अर्थ) पुण्यके फलसे जीव क्रम अनुसार निकटवर्ती हो करके स्वयं धर्मका (विश्वविधाताका ) स्वरूप प्राप्त होता है इसलिये पुण्यको भी धर्म कहते हैं, और पापफल करके जीव धर्मसे क्रमशः बहुदूरमें निक्षिप्त होता है इसलिये पापको अधर्म कहते हैं। इसी प्रकारके क्रम अनुसार (५म अर्थ ) धर्मशास्त्रानुयायी आचार भी धर्म नामसे चला आता है। विधिविहित विधानका नाम धर्म कह करके, उसीके, अनुकरणसे (६ष्ठ अर्थ) सामाजिक व्यवहारिक विधानको भी धर्म कहते हैं; इसलिये स्मृति प्रभृति व्यवहार शास्त्र को धर्मशास्त्र कहा जाता है। (७ म अर्थ ) विशेष विशेष विधानको भी धर्म कहते हैं ; जैसे वीरधर्म, राजधर्म, गार्हस्थ्यधर्म, संन्यासधर्म, पातिव्रत्यधर्म इत्यादि। * इस अर्थका पोषक स्वरूप एक पौराणिक श्लोक है।"धारणाद्धर्ममित्याहुः धर्मोधारयते प्रजाः । यः स्याद्धारणसंयुक्तः स धर्मो नरपुंगव ।" Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टादश अध्याय ३३३ यह धर्म शब्दका अर्थ हुआ। जिसे पकड़के रहा जाता है इस आदिम अर्थमूलसे धर्म शब्द स्वभाव, गुण, कर्तव्यकर्म इत्यादि नाना प्रकारके विशेष विशेष अर्थों में भी प्रयुक्त होता है; जसे स्वभाव अर्थ में, जीवधर्म, मनुष्यधर्म, स्त्रीधर्म, पुरुषधर्म, मनोधर्म इत्यादि ; गुण अर्थमें, वायुका धर्म, जलका धर्म इत्यादि प्रत्येक द्रव्यके गुणका नाम धर्म है। इस श्लोकमें यह जो "सर्वधर्म" शब्द है, इसका अर्थ विशेष रूप से समझना होगा। इसके लौकिक अर्थकी आलोचना करके पश्चात् आध्यात्मिक अर्थकी बालोचना की जावेगी। अर्जुन प्रथम अध्यायमें कहे हैं कि “इन आततायियोंकी हत्या करनेसे अस्मदादिका कुलझयकृत तथा मित्रद्रोहजनित पाप होगा, सनातन कुल-धर्म नष्ट होगा, धर्म नष्ट होनेसे अधर्मकी वृद्धि होगी, उससे शाश्वत जाति-धर्म और कुल धर्म उत्सन्न जावेगा।” द्वितीय अध्यायमें कहे हैं कि “मैं धर्मसंमूढ़चेता हुआ हूँ, मैं तुम्हारा शिष्य हूँ, जो श्रेयः हो वही मुझको उपदेश करो" अर्जुन का मनोभाव है कि गुरु-ज्ञाति-मित्रोंको बध करनेसे उन लोगोंका ( पाण्डवोंका ) धर्म अर्थात् पुण्य क्षय होकर पाप होगा और कुल धर्म तथा जाति-धर्म उत्सन्न होनेसे भी पाप उन्हीं लोगोंको असर करेगा। श्रीभगवान शिष्य अर्जुनकी धर्मलोपाशंका तथा पापभय दूर करके उनको परम कल्याण साधनके लिये कहते हैं “सर्वधर्मान् परित्यज्य"-समुदय धर्म अर्थात् पाप-पुण्य सिद्धान्त करने वाले जो सब विधान हैं, कुलरक्षाका जो विधान ( कुलधर्म ) है, और जातिरक्षाका जो विधान ( जातिधर्म) है, और भी जिन सब धर्म-पालनार्थ तुम कातर हुए हो, उन सबके सम्बन्धीय सब धर्म-सब विधान-सब प्रकारका विधि निषेध त्याग करके, 'मामेकं शरणं व्रज'–केवल मात्र हमारी शरण लेलो, अर्थात् मैं तुम्हारा गुरु हूँ, गुरुवाक्य ही धर्म है, उसी मेरा वाक्य अनुसार-मैं Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३४ श्रीमद्भगवद्गीता जिस प्रकार कार्य करनेके लिये उपदेश देता हूँ एकमात्र उसी उपदेश अनुसार, वही हमारा 'स्वकर्मणा तमभ्यर्य' इत्यादि और 'तमेव शरणं गच्छ' वाक्यके अनुसार कम करते चलो। तुम जितने प्रकारके पापकी आशंका और भय करते हो; उन समुदय पापसे मैं तुमको मुक्त करूगा-मैं तुम्हारे सकल प्रकारके कर्म-बन्धनको मोचन करूंगा। शोक और न करो-पापग्रस्त होओगे इस आशंकासे और विषण्ण न होओ। ___ यह लौकिक अर्थ हुआ। अब योगशास्त्रविहित आध्यात्मिक अर्थ क्या है वह देखा जाता है। मूलाधारादि पाँच चक्रके क्षिति आदि पांच भूतका नाम सर्व है। शब्द, स्पर्श, रूप, रस, और गन्ध ये पाँच विषय ही उन पांच भूतोंका धर्म हैं। अतएव भोग्य विषयको ही सर्वधम कहते हैं । और सर्वपाप क्या ?-ना, उन सर्वधर्मों के सम्पर्कमें रह करके जिन सब कर्मों की सृष्टि होती है, वह सब सुकृति ही हो चाहे दुष्कृति ही हो जिसके फलसे स्वर्गादि भोग वा नरकादि भोग होता है, अर्थात् जिसमें फलभोग बन्धन है, वह सब कर्म ही सर्वपाप हैं। पाप मैलाको-मनकी चचलताको कहते हैं, जो आत्माको मलिन कर रखता है, विषयावरण से ढक रखता है, विषय अतिक्रम होने देता नहीं, बांध रखता है, उसे पाप कहते हैं। कर्म ही जीवको सुख-दुःख रूप संसारबन्धनमें बांध रखता हैं। इसलिये विषय-सम्पर्कित कर्मको ही सर्वपाप कहते हैं। श्रीभगवान कहते हैं 'सर्वधर्मान्परित्यज्य' अर्थात् पञ्चचक्रके भीतर कर्मयोग द्वारा जो सब क्रिया करनेकी व्यवस्था है, जिससे भूतशुद्धि होती है, देवयजन करना होता है, नाना प्रकार द्रव्ययज्ञका अनुष्ठान करना होता है, जिससे केवल सुकृति सञ्चय होता हैविभूति लाभ होती है, उन समुदय विषयवटित कर्मयोगका व्यापार को परित्याग करके 'मामेकं शरणं ब्रज' अर्थात् हमारे वचन अनुसार Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टादश अध्याय ३३५ एकमात्र ब्रह्मसूत्रका अवलम्बन करके शौर्य तेजादि स्वकर्मानुष्ठान द्वारा अविद्या अस्मिता प्रभृतिको नाश करके दान और ईश्वरभाव द्वारा शाम्भवीका प्रयोग करके एकबारगी "मैं” की-कूटस्थचैतन्य की-ईश्वरकी शरण लो; ऐसा होनेसे वह जो सर्वपाप है, जो तुमको विषयबन्धनसे बांधके भवघोर में फेंक कर बार-बार जन्म मृत्यु भोग करवाता है-लालसा रूपिणी मोहिनी शक्तिके मोहमें आत्महारा कर के अात्मविस्मृत करता है, उसी सर्वपापसे मैं तुमको मुक्त करूंगा। तुम कृतकर्मके फलसे अनेक बार दगा खाये हो, भोगबन्धनसे कातर हुए हो, इसलिये तुम इस उपस्थित साधन-समर के व्यापारमें फिर उस सर्वपापमें लिपट न जाओ यह विचार करके शोकके मारे विह्वल हुए हो; परन्तु 'मैं' की शरण लेनेसे तुम्हें उस पापमें लिपटना न होगा। कारण कि 'मैं' की शरण लेनेसे अर्थात् विषयमुखी इच्छा प्रवाहको घुमा देकर, ईश्वरमें --कूटस्थचैतन्यमें -एक अद्वितीय अहं स्वरूपमें फेंकनेसे 'मायामेतां तरन्ति'-इस मायाविकारका अधिकार पार हो जाता है। सुतरां कर्मराशि जितनी ही सचित रहें, वे सब कालक्रम करके प्रारब्ध रूपसे जब भोग देनेको आवेंगी, तब उस जीवको मायाविकारके अधिकारके भीतर प्राप्त न हो करके, आश्रयविहीन होकर, आपही आप ध्वंसको प्राप्त होंगे; 'मैं' की शरणमें रहनेसे 'नलिनीदलमम्बुवत्' पापम्पर्श नहीं होता। अतएव तुम्हारे शोकका कारण नहीं है, शोक मत करना । साधकके समझने के सुविधाके लिये इस आध्यात्मिक भावको ही प्रकारान्तर करके व्यक्त किया जाता है सर्वधर्मान् =सों का धर्म खण्डभाव, संकीर्णता, नानात्व लेना है। वह नानात्व लेनाको दूर कर देनेसे ही मैं ही-मैं एक अखण्ड विस्तार होता है। तुम इस अखण्ड “मैं" का आश्रय करलो। इसके होनेसे ही तुम्हारा संकीर्ण खण्डभाव जो "तुम" है वह मिट जावेगा। Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३६ श्रीमद्भगवद्गीता अखण्ड “मैं” होनेसे ममत्व-प्रसूति जो अहं भाव है, वह भी उड़ जावेगा। सुतरी नानात्वमें ( नाना रूप सर्वमें ) भ्रमण और "तुम" से “मैं” को मिलानेका घोर परिश्रम जो अश्रेष्ठ कर्मयोग है उसके विश्रामसे कृतान्त सिद्धान्त जो नैष्कर्म्य सिद्धि (दुःखका अत्यन्त निवृत्ति ) मुक्ति है, उसे वह अखण्ड "मैं" तुमको देवे ही करेगा। तुम्हारे शोक करनेका और कोई कारण नहीं है ॥ ६६ ।। इदं ते नातपस्काय नाभक्ताय कदाचन । न चाशुश्रूषवे वाच्यं न च मां योऽभ्यसूयति ॥ ६ ॥ अन्वयः। इदं ( गीतार्थतत्त्वं ) ते ( त्वया ) अतपस्काय ( तपोरहिताय धर्मानुष्ठानहीनाय ) न वाच्यं, न च अभक्ताय ( गुराधीश्वरे च भक्तिशून्याय ) कदाचन ( कदाचिदपि ) वाच्यं, न च अशुश्रषवे ( परिचर्यामकुर्वते ) वाच्यं, मां (वासुदेवं परमेश्वरं ) यः अभ्यसूयति ( मनुष्यदृष्ट्या दोषारोपेण निन्दति ) ( तस्मै ) च न वाच्यं ॥ ६॥ ___ अनुवाद। इस गीतार्थतत्त्वको तपोरहित मनुष्योंसे तुम न कहना, अभक्तसे कदाच न कहना, शुश्रु षाविहीन व्यक्तिसे भी न कहना, और मुझको जो असूय करता है उससे भी न कहना ॥ ६७ ॥ व्याख्या। १७ अध्यायका १४ श्लोकोक्त शारीर तपः, १५ श्लोलोक्त वाङमय तपः, और १६ श्लोकोक्त मानस तपः जिसमें नहीं है अर्थात् इन सबसे जो घृणा करता है उसको अतपस्क कहते हैं; गुरुवाक्यमें और ईश्वरमें जिसका विश्वास नहीं है, उसको प्रभक्त कहते हैं; उपासनाके लिये, सेवा के लिये, श्रवणके लिये अनिच्छुकको अशुश्रूषु कहते हैं; और "मां” अर्थात मुझ “मैं” को जो द्वष करता है, ( मेरे कहनेसे जिस किसीको समझा जाता है उनमेंसे किसीके ऊपर अनुराग करनेसे ही "मैं" से द्वष करना होता है ) वह हमारा अभ्यसूयाकारी है। यह गीतार्थत स्व जिसे मैंने तुमको कहा है, उन लोगों को न कहना कहना नहीं चाहिये ॥ ६७ ॥ Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टादश अध्याय ३३७ य इदं परमं गुह्य मद्भक्तष्वभिधास्यति । - भक्ति मयि परां कृत्वा मामेवैष्यत्यसंशयः ॥ ६८ ॥ अन्वयः। यः परमं गुह्य इदं ( केशवार्जुनयोः संवादरूपं ग्रन्थं, गीताशास्त्रं ) मद्भक्त षु अंभिधास्यति ( मद्भक्तभ्यो वक्ष्यति ), सः मयि परां भक्तिं कृत्वा असंशयः सन् मा एव एष्यति ॥ ६॥ अनुवाद। जो पुरुष परमगुह्य इस गीता शास्त्रको मेरे भक्तगणोंसे कहेंगे, वे पुरुष हममें पराभक्ति करके संशयशून्य होकर हमको ही प्राप्त होवेंगे n ६८॥ - व्याख्या। जो इस गुप्ततम गुरुशिष्य सम्वाद रूपसे कथित गौताशास्त्रको. “मैं” के भक्तको अर्थात् “मैं” होनेके लिये जो लालायित है, उसको समझाकर उस भक्तका भक्ति "मैं" में दृढ़ करा देगा, वह भी उस अभ्यास और साधनके बलसे शरीरका शेष निःश्वास त्यागके समय “मैं” में पड़कर “मैं” हो जायेगा। इसमें कुछ भी संशय नहीं है ॥ ६८॥ न च तस्मान्मनुष्येषु कश्चिन्मे प्रियकृत्तमः। भविता न च मे तस्मादन्यः प्रियतरो भुवि ॥ ६६ ॥ अन्वयः। मनुष्येषु ( मध्ये ) तस्मात् ( मद्भक्त भ्यो गीताशास्त्रव्याख्यातुः सकाशात् ) अन्यः कश्चित् मे प्रियकृत्तमः ( अत्यन्तं परितोषकर्ता ) न च (अस्ति), मुवि तस्मात् अन्यः मे प्रियतरः न च भविता ( भविष्यति ) ॥ ६९ ॥ अनुवाद। मनुष्योंके भीतर उससे दूसरा कोई हमारा अधिक प्रिय नहीं है, पृथिवीमें उसको छोड़कर दूसरा कोई प्रियतर होगा भी नहीं ॥ ६९ ॥ व्याख्या। जीव जब मनुष्य शरीर धारण कर साधनबलसे यह "मैं" होता है, तब भूत भविष्यत् वर्तमानमें उससे "मैं" का प्रिय होनेका पिसीका और उपाय नहीं है; क्योंकि, वह आप भी जैसे मायावशी हुआ, दूसरेको भी उसी तरह मायावशी होनेका अधिकार देकर उनका उद्धार किया ॥ ६ ॥ Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३८ श्रीमद्भगवद्गीता अध्येष्यते च य इमं धयं संवादमावयोः। ज्ञानयझेन तेनाहमिष्टः स्यामिति मे मतिः ॥ ७० ॥ अन्वयः। यः च आवयोः (श्रीकृष्णार्जुनयोः ) इमं धम्यं ( धर्मादनपेतं ) संवादं अध्येष्यते ( जपरूपेण पठिष्यति ), तेन (सा) अहं ज्ञानयज्ञ न ( सर्वयज्ञभ्यो श्रेष्ठेन यज्ञन ) इष्टः (पूजितः ) स्याम् ( भवेयम् ) इति मे मतिः (निश्चयः) n७० ॥ अनुवाद। जो पुरुष हम दोनोंके इस धर्मयुक्त संवादका अध्ययन करेंगे, ज्ञानयज्ञ द्वारा उनसे मैं पूजित होऊंगा, इस प्रकार हमारा निश्चय है ॥ ७० ॥ व्याख्या। जो भाग्यवान इस प्रश्नोत्तररूप निजबोध विचार (केशवार्जुनसंवाद ) का अध्ययन (मनन, निदिध्यासन ) करेंगे, ज्ञानाग्निमें उनकी अज्ञानता भस्म हो जावेगी, अर्थात् ज्ञानयज्ञ द्वारा "मैं" पूजित (अचित ) होनेसे चिरकल्याण जो मुक्ति है, वह निश्चय होगी; यही हमारा मति ( हमारे मन की कथा ) है ॥ ७० ॥ श्रद्धावाननसूयश्च __शृणुयादपि यो नरः। सोऽपिमुक्तः शुभांल्लोकान् प्राप्नुयात् पुण्यकर्मणाम् ॥ ७१ ॥ अन्वयः। यः नरः श्रद्धावान् (श्रद्दधानः ) अनसूयश्च ( असूयावजितः ) सन् इमं ग्रन्थं ) शृणुयात् अपि ( अपि शब्दात् किमुतार्थज्ञानवान् ) सोऽपि (पापात् ) मुक्तः सन् पुण्यकर्मणां शुमान् लोकान् प्राप्नुयात् ॥ १॥ अनुवाद। जो नर श्रद्धायुक्त और असूयावजित होकर इस संवादको श्रवण मी करते हैं, वे भी (पापसे ) मुक्त होकर पुण्यकर्मा लोगोंके शुभलोक समूहको प्राप्त होते हैं। ७१॥ व्याख्या। भगवान ६८वें श्लोकमें भगवद्गतको गीता उपदेश करनेका फल और ७०वें श्लोकमें गीतापाठका फल कह करके इस श्लोक " में गीता श्रवणका फल कहते हैं । Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टादश अध्याय ३३६ जो लोक श्रवणका अधिकारी हैं, श्रद्धा और विश्वासके साथ संशयशुन्य मनसे यदि यह संवाद श्रवण करें तो, वे भी पापमुक्त होकर पुण्यवान होंगे, और इस ज्ञानकी शक्तिसे मायापाशको काटते हुए शुभलोक (ज्ञानियोंके लोक ) को प्राप्त होवेंगे। "शृणुयादपि” इस “पदके 'अपि' शब्दका भाव यह है कि, श्रद्धायुक्त और द्वषवर्जित हो करके केवल सुननेसे ही पापमुक्त होकर सद्गति लाभ होती है, अर्थको समझ लेनेसे जो फल फलेगा उसकी और कया क्या है ? ॥ १ ॥ कञ्चिदेतच्छ तं पार्थ त्वयैकामेण चेतसा। कञ्चिदज्ञानसंमोहः प्रणष्टस्ते धनन्जय ॥ ७२ ॥ अन्वयः। हे पार्थ ! त्वया एकाग्रेण चेतसा एतत् श्रुतं कच्चित् ? (कच्चिदिति प्रश्नार्थे )। हे धनञ्जय ! ते अज्ञानसंमोहः ( अज्ञाननिमित्तः संमोहः वैचित्त-भावः अविवेकता ) प्रणष्टः कच्चित् ? ॥ ७२ ॥ अनुवाद। हे पार्थ ! तुमने एकाग्रचित्त होकर इसे श्रषण किया तो? हे धनंजय ! क्या तुम्हारा अज्ञानजनित मोह प्रणष्ट हुआ ? ॥७२॥ व्याख्या। अब साधक अापही आप अपनेको प्रश्न करते हैं कि --हे पार्थ! तुमने जो मायाके चक्कर में अपनेको बद्ध कह कर स्वीकार किया था, यह उपदेश विचार एकाग्र-मनसे श्रवण करके क्या तुम्हारा यह माया-पाश कट गया ? जीवका जो ६ धन (जन्म, मृत्यु, सुख, दुःख, क्षुधा, तृष्णा ) हैं, उन्हें क्या तुमने जय किया है ? अज्ञान जनित मोहजाल क्या तुम्हारा नष्ट हो गया है ? ॥ ७२ ॥ अर्जुन उवाच। नष्टोमोहः स्मृतिर्लब्धा त्वत्प्रसादान्मयाच्युत । स्थितोऽस्मि गतसन्देहः करिष्ये वचनं तव ॥ ३ ॥ अन्वयः। हे अच्युत ! मोहः ( अज्ञानज तमः ) नष्टः, मया त्वत्प्रसादात् Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४० , श्रीमद्भगवद्गीता स्मृतिः ( आत्मतत्त्व विषयाः) लब्धा; गतसंदेहः ( मुक्तसंशयः सन् ) [ स्वच्छासने] स्थितः अस्मि, तव वचनं ( तथाज्ञा ) करिष्ये ॥७३॥ __अनुवाद। हे अच्युत ! हमारा मोह नष्ट हो गया, तुम्हारे प्रसादसे मैंने स्मृति लाम किया है; गतसंदेह हो करके मैंने यह स्थित हुआ है, तुम्हारे वाक्यका पालन करूंगा॥ ५३॥ व्याख्या। कृतार्थ अर्जुन (साधक ) कहते हैं, हे अच्युत ! तुम्हारे प्रसादसे सर्व अनर्थका मूल हेतु जो संसार भ्रम है वह मेरा कट गया। मेरी आत्मस्मृति जिसे मैंने भूल जाकर जीव सजा था उसे मैंने पाया है। हमारा संशय नाश हो गया। अब मैंने सर्वभूतात्मभूतात्मा अनन्त ब्रह्मस्वरूपमें ( स्व स्वरूपमें) अपनी स्थितिको है। और कुछ भी हमारा कर्तव्य कह करके विद्यमान नहीं है। अब मैं तुम्हारे वचन अनुसार कर्म करूंगा। ___ भगवत्कृपासे कृतकृतार्थ साधक गतसंदेह होकरके साधन-समरके लिये पुनराय स्थित हुए-यथाविधान मतसे उठकर बैठ गये ॥ ७३ ॥ संजय उवाच । इत्यहं वासुदेवस्य पार्थस्य च महात्मन । संवाद मिममश्रौषमद्भुतं रोमहर्षणम् ।। ७४ ।। अन्धयः। संजयः उवाच । इति ( एवं ) अहं महात्मनः वासुदेवस्य पार्थस्य च इमं अद्भ तं ( अत्यन्तविस्मयवरं ) रोमहर्षणम् ( रोमांचकरं ) संवादं अश्रौषं (श्रुतधानस्मि ) ॥ ७४ ॥ अनुवाद। संजय कहते हैं। मैंने इस प्रकार महात्मा वासुदेव और पार्थका इस रोमांचकर अद्भ त संवाद श्रवण किया ॥ ७४ ॥ व्याख्या। दिव्य दृष्टिसे अब सकल शास्त्रका सारार्थ युगपत् उठ करके समाप्तिकी स्फुरण करती है। सब कुछ अनुभव अन्तःकरणमें ही होती है, इसलिये धृतराष्ट्रको (मनको) सम्बोधन करके कहा मा पाखोमा पार्था महालाना Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टादश अध्याय ३४१ जाता है। -इस प्रकारसे वासुदेव (विस्तार ब्रह्मभाव ) का और अर्जुनका ( मायाप्रसूत बद्ध संकीर्ण जीवभावका ) अद्भुत लोमहर्षण प्रश्नोत्तर संवाद मैंने सुना है ।। ७४ ॥ व्यासप्रसादाच्छ तवानिमं गुह्यमह परम्। योगं योगेश्वरात् कृष्णात् साक्षात् कथयतः स्वयम् ॥ ७ ॥ अन्धयः। अहं व्यासप्रसादात् इमं परं गुह्य योगं योगेश्वरात् स्वयं कृष्णात् साक्षात् कथयतः श्रु तवान् ॥ ५॥ अनुवाद। व्यासके प्रसादसे यह परम गुह्य योग योगेश्वर स्वयं श्रीकृष्णके साक्षात् कथासे मैंने श्रवण किया है । ७५ ॥ व्याख्या। व्यासके प्रसादसे अर्थात् भेदज्ञानके सहारेसे ( यदि भेदज्ञान न होता, एक विस्तार ब्रह्मभाव ही रहता, तो इस संवादका उत्थान ही न होता, इसलिये कहते हैं ) यह जो गोपनसे भी अतिशय गोपन संवाद (चित्तके ऊपरकी कथा ), यह योग अर्थात् आत्मामें आत्मा मिलानेका व्यापार (दो न होनेसे मिलन नहीं होता) योगेश्वर कृष्णके ( जो कर्षण द्वारा खींच लाकर मुक्ति देते हैं उन्हीं कूटस्थ पुरुषके ) निज मुखका प्रत्यक्ष उपदेश मैंने सुना है ॥ ७५ ॥ राजन् संस्मृत्यः संस्मृत्य संवादमिममद्भुतम् । - केशवार्जुनयोः पुण्यं हृष्यामि च मुहुमुहुः ॥ ६ ॥ अन्वयः। हे राजन् ! केशवार्जुनयोः इमं अद्भ तं पुण्यं ( साक्षात् पुण्यस्वरूपं पापहरं ) संवादं संस्मृत्य संस्मृत्य मुहुर्मुहुः च ( प्रतिक्षणं ) हृष्यामि (रोमाञ्चितो भवामि हर्ष प्राप्नोमीति वा) ॥ ७६ ॥ . अनुवाद। हे राजन् ! केशवार्जुनका यह अद्भ त पुण्य ( पापहर ) संवाद बार बार स्मरण करके मैं मुहुर्मुहुः हृष्ट ( पुलकित ) होता हूँ॥ ७६ ।। Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४२ श्रीमद्भगवद्गीता व्याख्या। हे राजन् ! बार-बार केशवार्जुनका वह पुण्यमय (पु-पुय, णक्=निर्वाण मुक्ति, यं-स्वरूप, अर्थात् क्लेदमय शरीरसे निर्वाण देके स्वस्वरूप प्राप्ति जो कराता है उसको ही पुण्य कहते हैं ) अद्भुत संवाद स्मरण करके प्रतिक्षणमें आनन्द अनुभव करता हूँ। इस आनन्दकी सीमा नहीं है। क्रियाकी-परावस्थाकी पूर्वावस्थामें उस मोहन रूप, तथा क्रियाकी-परावस्थाकी परावस्थामें वह जीव, ईश्वर और मायाका स्वरूप सम्बन्धकी उपलब्धि, उसी मोहन स्वरकी लहरी, जो कह करके व्यक्त करनेका विषय नहीं है, जबही मनमें पाता है तबही आनन्दके मारे शरीरको रोमावली कण्टकित सदृश होता है । इसे भुक्तभोगी समझ लेवेंगे ॥ ७६ ॥ तच्च संस्मृत्य संस्मृत्य रूपमत्यद्भुतं हरेः। विस्मयो मे महान राजन् हृष्यामि च पुनः पुनः॥ ७७ ॥ अन्धयः। हे राजन् ! हरेः तत् अद्भ तं रूपं (विश्वरूपं ) च संस्मृत्य संस्मृत्य मे महान् विस्मयः ( भवति ) पुनः पुनः हृष्यामि च ॥ ७ ॥ अनुवाद। हे राजन् ! और हरिका उस अति अद्भ त रूप ( विश्वरूप ) का बार बार स्मरण करके हमें महान् विस्मय होता है, और पुनः पुनः मैं हृष्ट होता . हूँ ॥ ७ ॥ व्याख्या। पुनराय हरिका उस अद्भुत रूप ( भूतमें कभी जो दिखाई नहीं पड़ा ) विश्वरूप के बार-बार स्मृतिमें हमारे अन्तःकरणमें महान् आश्चर्य्य सदृश बोध होता है; क्योंकि एक जो कभी अनेक नहीं होता उस सिद्धान्तमें अब मैं उपनीत हुआ हूँ; इसलिये हमें बारबार हर्षोंद्रेक होता है ॥ ७७ ॥ यत्र योगेश्वरः कृष्णो यत्र पार्थो धनुर्धरः । तत्र श्रीविजयो भूतिध्र वा नीतिमतिर्मम ॥ ८ ॥ , अन्वयः। यत्र ( यस्मिन् पक्षे) योगेश्वरः कृष्णः ( वर्तते ), यत्र च पार्थ: Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टादश अध्याय ३४३ धनुर्धरः ( गाण्डीवधन्वा ), तत्र ( एव ) श्रीः ( राज्यलक्ष्मीः ), तत्र एव च विजयः, तत्र एव च भूतिः ( उत्तरोत्तराभिवृद्धिः ), नीतिः (न्यायोऽपि ) तत्रैव धुवा (अव्यभिचारिणी ) इति मम मतिः (निश्चयः) ।। ७८ ॥ अनुवाद। जहां योगेश्वर श्रीकृष्ण ( वत्तमान ) और धनुर्धारो पार्थ ( अर्जुन ) हैं, वहां ही राज्यलक्ष्मी, विजय, भूति ( सम्पद् ) और अव्यभिचारिणी नौति वत्तहै, यही हमारी मति ( निश्चय धारणा ) है ॥ ७८ ।। व्याख्या। जहां सर्वयोगका नियन्ता ब्रह्मज्ञान भास्कर स्वरूप मुक्तिदाता कृष्ण मीमांसक है, जहां प्रकृति-जालोत्तीर्ण साधक गाण्डीवधारी अर्जुन ( जिस साधकका मेरुदण्ड = पीठकी रौढ़ कभी ढीली नहीं होती केवल सीधी ही रहती है ) प्रश्नकर्ता है, वहां ही श्री ( सारदा ज्ञप्ति), विजय (सर्वशक्ति दमन अधिकार ), भुति ( ऐश्वर्य्य), नीति (विचारका शेष फल ब्रह्मत्व ) हैं। यही हमारी ध्रुवा सत्यसंकल्पा मति है, यही हमारी मनकी अटूट निश्चय धारणा है। साधक ! तुम योगमार्गमें भक्तिपथके पथिक हुए हो । तुम संजय के इस शेष उक्तिको अपने पथका सम्बल कर लो तो किसीमें भी तुम अवसन्न न होगे। तुम भी धनुधर हो जाओ और कृष्णको सारथि बना लो; वह योगका ईश्वर है, तुमको ठीक रास्ते पर चलाके युक्त कर लेगा। गुरूपदिष्ट अभ्यास-अनुष्ठानसे लब्ध ज्ञानके अनुसार मेरुदण्डको संयत रखना ही धनुर्धर होना है। कृष्णको सारथि बनाना क्या है ? कृष्ण सत्त्वगुणकी मूत्ति वा मूर्तिमान सत्त्वगुण है। तुम इस सत्त्वगुणको अपना परिचालक कर लो, अपना आहार-व्यवहार, चाल-चलन, याग-यज्ञ, क्रिया-कलाप सब सात्त्विक भावका करलो, सत्त्वगुणको सखा करलो, मन-प्राणको सत्त्वमय कर लो। ऐसा होने से ही तुम्हारे कृष्ण सारथि होवेंगे। यह सत्त्व ही योगेश्वर है, इन्हें छोड़कर सिद्धिलाभका दूसरा उपाय नहीं है, यहो “भास्वता ज्ञान Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४४ श्रीमद्भगवद्गीता दीपेन" तुम्हारा “अज्ञानजं तमः” का नाश करेंगे, एकमात्र इस सत्त्वप्रसादसे ही तुम "परा शान्ति” और 'शाश्वतं स्थान' पाओगे। इस प्रकारसे योगेश्वर सत्त्वको सारथी करके धनुधर होनेसे श्री (शरीरकी योगप्रभा), विजय (योगसिद्धि), भूति (विभूति ), एवं ध्रुवा नीति (अव्यभिचारिणी ब्राह्मीस्थिति, जीवन्मुक्ति) होगी। यह सर्वथा निश्चय है। इसमें कुछ भी सन्देह नहीं है । इसीके साथ मनमें इसे भी स्मरण रक्खो-'यस्य देवे परा भक्तिर्यथा देवे तथा गुरौ। तस्येते कथितार्थाः प्रकाशन्ते महात्मनः॥' अर्थात् जिसको देवताके प्रति पराभक्ति है, और देवताके प्रति जैसी-गुरुके प्रति भी वैसी ही भक्ति है, उसी महात्मामें यह सब कथित अर्थ प्रकाश पाता है ॥ ७८॥ . इति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्र 'श्रीकृष्णार्जुनसंवादे मोक्षसंन्यासयोगो नाम अष्टादशोऽध्यायः। . Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय । ॐ इति ज्ञानमात्रेण रागाजीर्णन जीर्यतः । कालनिद्रां प्रपन्नोऽस्मि त्राहि मां मधुसूदन ॥१॥ न गतिविद्यते नाथ त्वमेव शरणं प्रभो। पापपङ्के निमग्नोऽस्मि त्राहि मां मधुसूदन ॥२॥ मो हितो मोहजालेन पुत्रदारधनादिषु । तृष्णया पीड्यमानोऽस्मि त्राहि मां मधुसूदन ॥३॥ भ क्ति होनश्च दीनं च दुःखशोकातुरं प्रभो। अनाश्रयमनाथं च त्राहि मां मधुसूदन ॥४॥ ग तागतेन श्रान्तोऽस्मि दीर्घसंसारखमसु । येन भूयो न गच्छामि त्राहि मां मधुसूदन ॥ ५॥ व हवो हि मया दृष्टा योनिद्वारः पृथक पृथक् । गर्भवासे महद्दुःखं त्राहि मां मधुसूदन ॥ ६ ॥ ते न देव प्रपन्नोऽस्मि त्राणार्थे त्वत्परायणः । देहि संसारमोक्षं त्वं त्राहि मां मधुसूदन ॥७॥ वा चा यच्च प्रतिज्ञातं कर्मणा न कृतं मया । सोऽहं कर्मदुराचारस्त्राहि मां मधुसूदन ॥ ८॥ “सु कृतं न कृतं किंचिद् दुष्कृतं च कृतं मया। घोरसंसारमग्नोऽस्मि त्राहि मां मधुसूदन ॥ ६॥ दे हान्तरसहस्रषु चान्योन्यं भ्रामितं मया। तिर्यग्योनिमनुष्येषु त्राहि मां मधुसूदन ॥ १०॥ Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४६ श्रीमद्भगवद्गीता वा चयामि यथोन्मत्तः प्रलपामि तवाप्रतः । जरामरणभीतोऽस्मि त्राहि मां मधुसूदन ॥ ११ ॥ त्र यत्र च यास्यामि स्त्रीषु वा पुरुषेषु च । तत्र तत्राचला भक्ति नाहि मां मधुसूदन ॥ १२ ॥ शुकदेवकृत्रं स्तोत्रं समक्त्या पठितं मया । पुनरावृत्तिदोषं मे हरि त्वं हरतां प्रभो ॥ १३ ॥ ॐ नमो नारायणाय। ॐ नमो हिरण्यगर्भाय ब्रह्मणे ब्रह्मरूपिणे । अविज्ञात स्वरूपाय केवल्यायामृताय च ॥ १ ॥ यन्न वेदा विजानन्ति मनो यत्रापि कुण्ठितम् । न यत्र वाक् प्रभवति नमस्तस्मै चिदात्मने ॥२॥ योगिनो यं चिदाकाशे प्रणिधानेन निष्कलम् । ज्योतिरूपं प्रपश्यन्ति तस्मै श्री ब्रह्मणे नमः ॥३॥ कालात पराय कालाय स्वेच्छया पुरुषाय च । गुणत्रयस्वरूपाय नमः प्रकृतिरूपिणे ॥४॥ विष्णवे सस्वरूपाय रजोरूपाय वेधसे । तमसे रुद्ररूपाय स्थितिसर्गान्तकारिणे ॥५॥ नमो बुद्धिस्वरूपाय त्रिधाहंकृतये नमः । पञ्चतन्मात्ररूपाय पञ्चकर्मेन्द्रियात्मने ॥ ६ ॥ नमो मनास्वरूपाय पञ्चबुद्धीन्द्रियात्मने। क्षित्यादि पच रूपाय नमस्ते विजयात्मने ॥७॥ Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - श्रीमद्भगवद्गीता नमो ब्रह्माण्डरूपाय तदन्तर्वत्तिने नमः। अर्वाचीन पराचीन विश्वरूपाय ते नमः ॥ ८॥ अनित्यनित्यरूपाय सदमत्पतये नमः । समस्तभक्तकृपया स्वेच्छया कृतविग्रह ॥ ६ ॥ तव निश्वसितं वेदास्तव स्वेदोऽखिलं जगत् । विश्वभूतानि ते पादः शीर्षों द्यौः समवर्त्तत ।। १० ।। नाभ्या आसीदन्तरीक्षं लोमानि च वनस्पतिः । चन्द्रमा मनसो जातश्चक्षोः सूर्यस्तव प्रभो ॥ ११ ॥ त्वमेव सर्वं त्वयि देव सर्व स्तोता स्तुतिः स्तव्य इह त्वमेव । ईश त्वया वास्यमिदं हि सर्व ____नमोऽस्तु भूयोऽपि नमो नमस्ते ॥ १२ ॥ ॐ नमो ब्रह्मण्यदेवाय गोब्राह्मणहिताय च। जगद्धिताय कृष्णाय गोविन्दाय नमो नमो नमः ॥ १३॥. Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीमद्भगवद्गीतामाहाळ्यम् । श्रीगोपालकृष्णाय नमः । [बाजार में वराह पुराणोक्त गीतामाहात्म्य नामसे जो २३ श्लोक की पुस्तक पाई जाती है, देखनेसे मालूम होता है कि वही स्थूलीकृत होकर वैष्णवीय तन्त्रसारोक्त गीतामाहात्म्य हुई है। दोनोंमें ही सूत वक्ता है। उक्त पुराणमें उसने केवल घराके प्रति विष्णुकी उक्तियों का वर्णन किया है और उक्त तन्त्रसारमें उसने गीतामाहात्म्य सम्बन्ध में व्यास-मुख-श्रुत अनुयायी अपना मत श्रीकृष्णके उक्तिके साथ वर्णन किया है। उक्त तन्त्रलारोक्त गीतामाहात्म्य ही यहां दिया गया है। इसमें उक्त पुराणोक्त श्लोकसे जहां जहां एकता है उन्हें पाद-टीकामें “दिखाया जायेगा।। शौनक उवाच । गीतायाश्चैव माहात्म्यं यथावत् सूत मे वद । पुरा नारायणक्षेत्रे व्यासेन मुनिनोदितम् ॥ १॥ * शौनक कहते हैं। हे सूत ! पूर्वमें नारायणक्षेत्र (नैमिषारण्य ) में महामुनि व्यासका कथित गीतामाहात्म्य मेरे पास यथावत् वर्णना करो ॥१॥ * तथा च वराह पुराणे-धरोवाच । भगवन् परमेशान भक्तिरव्यभिचारिणी। प्रारब्धं भुज्यमानस्य कथं भवति हे प्रभो ॥१॥ Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महात्म्यम् ३४६ ३४६. सूत उवाच । भद्र भगवता पृष्टं यद्धि गुप्ततमं परम् । शक्यते केन तद्वक्तुगीतामाहात्म्यमुत्तमम् ॥२॥ कृष्णो जानाति वै सम्यक् किश्चित् कुन्तीसुतःफलम् । व्यासो वा व्यासपुत्रो वा याज्ञवल्क्योऽथ मैथिलः ॥ ३॥ अन्ये श्रवणतः श्रुत्वा लेशं संकीर्तयन्ति च । तस्मात् किञ्चिद्वदाम्यत्र व्यासस्यास्यान्मया श्रुतम् ॥४॥ सर्वोपनिषदो गावो दोग्धा गोपालनन्दनः । पार्थों वत्सः सुधीर्भोक्ता दुग्धं गीतामृतं महत् ॥५॥ सूत बोले। भगवन् ! आपने उत्तम प्रश्न किया, कारण जो परम गुह्यतम है, उसी उत्तम गीता-माहात्म्यके वर्णन करनेकी किसकी मामर्थ्य है? ॥२॥ — श्रीकृष्ण ही गीताका माहात्म्य सम्यक् जानते हैं और अर्जुन, व्यास, शुकदेव, याज्ञवल्क्य एवं मिथिलाराज जनक ये लोग कुछ-कुछ जानते हैं ॥३॥ __ और सब लोग कानमें सुनके लेशमात्र कीर्तन करते हैं। अतएव मैंने व्यासजीके मुखसे जैसा सुना है उसे ही यहां किंचित कहता हुँ ॥४॥ उपनिषत् समूह गाभीवृन्द स्वरूप, गोपालनन्दन श्रीकृष्ण दोग्धा, पृथापुत्र अर्जुन वत्स, सुधीजन भोक्ता और गीतामृत ही महत् ( सुप्रचुर) दुग्धस्वरूप है ॥५॥ Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५० श्रीमद्भगवद्गीता सारध्यमर्जुनस्यादौ कुर्वन् गीतामृतं ददौ । लोकत्रयोपकाराय तस्मै कृष्णात्मने नमः ॥ ६ ॥ संसारसागरं घोरं तत् मिच्छति यो नरः। गीतानावं समासाद्य पारं याति सुखेन सः ॥७॥ गीताज्ञानं श्रुतं नैव सदैवाभ्यासयोगतः। मोक्षमिच्छन्ति मूढ़ात्मा याति बालकहास्यताम् ॥ ८॥ ये शृण्वन्ति पठन्त्येव गीताशास्त्रमहनिशम् । न ते वै मानुषा ज्ञेया देवरूपा न संशयः॥६॥ गीताज्ञानेन संबोधं कृष्णः प्राहा नाय वै। भक्तितत्त्वं परं तत्र सगुणं वाथ निर्गुणम् ॥ १०॥ जिसने अर्जुनका सारथ्य करते-करते लोकत्रयके उपकारके लिये पहले हो गीतामृत दान किया है उस कृष्णात्माको ( परमात्मस्वरूप ) श्रीकृष्णको ) नमस्कार है ॥६॥ जो नर घोर संसारसागरसे तरनेके इच्छा करते हैं वे गीतारूप नौकाका सम्यक आश्रय करके सुखसे पार उतर जाते हैं ॥ ७॥ सर्वदा अभ्यास योगानुष्ठानसे गीताज्ञान श्रवण बिना जो मोक्ष की इच्छा करता है ऐसे मूढ़ात्माको देखकर लड़के लोग भी हंसते हैं ॥८॥ __जो लोग अहर्निश गीताशास्त्र श्रवण और पाठ करते हैं उनको आदमी मत समझो, वे लोग देवस्वरूप हैं। इसमें सन्देह नहीं ॥६॥ . श्रीकृष्ण गीताज्ञान द्वारा अर्जुनको संबोध (सम्यक्ज्ञानसम्पूर्ण ज्ञान ) कहे थे; उसमें सगुण और निर्गुण परम भक्तितत्व वर्णित है ।। १०॥ Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माहात्म्यम् ३५१ सोपानाष्टादशैरेवं भक्तिमुक्तिसमुच्छ्रितः। क्रमशश्चित्तशुद्धिः स्यात् प्रेमभक्त्यादिकर्मसु ॥ ११॥ ..., साधोगीताम्भसि स्नानं संसारमलनाशनम्। श्रद्धाहीनस्य तत्कार्य हस्तिस्नानं वृथैव तत् ॥ १२ ॥ गीतायाश्च न जानाति पठनं नैव पाठनम् । स एव मानुषे लोके मोधकर्मपरो भवेत् ॥ १३ ॥ यस्माद्गीतां न जानाति नाधमस्तत्परो जनः। धिक् तस्य मानुषं देहं विज्ञानं कुळशीलताम् ॥ १४ ॥ गीतार्थं न विजानाति नाधमस्तत्परो जनः। धिक शरीरं शुभं शीलं विभवन्तत गृहाश्रमम् ॥ १५ ॥ प्रेम भक्ति आदि कर्मसमूहके द्वारा इस प्रकार भक्ति मुक्तिके क्रमसे समुन्नत ( १८ श अध्यायरूप ) अठारह सीढ़ी द्वारा क्रमशः चित्तशुद्धि होती है ॥ ११॥ गोतारूप जलमें साधुका स्नान संसारमलका नाशक है, श्रद्धाहीन व्यक्तिका वह कार्य हस्तिस्नानके न्याय वृथा है ॥ १२॥ जो गीता पढ़ना और पढ़ाना नहीं जानता है, मनुष्यलोक में वह मोधकर्म-परायण होता है ॥ १३ ॥ इसलिये जो आदमी गीताको नहीं जानता है उससे बढ़के कोई अधम नहीं है, उसके मनुष्यदेहको धिक् , विज्ञानको धिक् और कुलशीलको भी धिक् है ॥ १४॥ ___ जो आदमी गीताका अर्थ नहीं जानता है उससे बढ़के कोई अधम नहीं है; उसके शरीर, शुभ शीलता, विभव और गृहाश्रमको धिक ॥ १५ ॥ Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीमद्भगवद्गीता गीताशास्त्रं न जानाति नाधमस्तत्परो जनः । धिक प्रारब्धं प्रतिष्ठां च पूजा मानं महत्त्वमम् ।। १६ ॥ गीताशास्त्रे मतिर्नास्ति सर्व तन्निस्फलं जगुः । धिक् तस्य ज्ञानदातारं व्रतं निष्ठा तपो यशः ॥१७॥ गीतार्थपठनं नास्ति नाधमस्तत्परो जनः। गीतागीतं न यज्ञानं तद्विद्धयासुरसम्मतम् ॥ १८ ॥ तन्मोघं धर्मरहितं वेदवेदान्तगर्हितम् । तस्माद्धर्ममयी गीता सर्वज्ञानप्रयोजिका। सर्वशास्त्रसारभूता विशुद्धा सा विशिष्यते ॥ १६ ॥ योऽधीते विष्णुपर्वाहे गीतां श्रीहरिवासरे। स्वपन जाप्रन् चलंस्तिष्ठन् शत्रुभिर्न स हीयते ॥ २० ॥ जो भादमी गीताशास्त्र नहीं जानता है उससे बढ़के अधम कोई नहीं है, उसकी प्रारब्ध, प्रतिष्ठा, पूजा, मान और महत्त्वको विकार है ॥ १६॥ . गीताशास्त्रमें जिसकी मति नहीं है उसके सब कर्म निष्फल हैं, इसके ज्ञानदाता, व्रत, निष्ठा, तपस्या और यशको धिक्कार है ॥ १७ ॥ ___ जिसका गीतार्थ पठन नहीं है उससे बढ़के अधम और कोई नहीं ' है। जो ज्ञान गीतामें वर्णित नहीं हैं, उन्हें असुर सम्मत जानना; वे सब व्यर्थ, धर्मरहित और वेद वेदान्तगर्हित हैं । अतएव वह धर्ममयी, सर्वज्ञानप्रदायिनी, सर्वशास्त्रको सारभूता, विशुद्धा गीता विशिष्टा (प्रशंसाकी योग्य ) है ॥ १८ ॥ १६ ॥ जो मनुष्य विष्णु-पर्वदिन तथा हरिवासर ( एकादशी) में गीता अध्ययन करता है, वह निद्रावस्था, जानदवस्था, चलनावस्या किम्बा स्थिति अवस्थामें शत्रगणसे हीनता प्राप्त नहीं होता ॥२०॥ Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माहात्म्यम् ३५३ शालप्रामशिलायां वा देवागारे शिवान्ये । तीर्थे नद्यां पठेद्गीता सौभाग्यं लभते ध्रुवम् ॥ २१ ॥ देवकीनन्दनः कृष्णो गीतापाठेन तुष्यति । यथा न वेदनेन यज्ञतीर्थव्रतादिभिः ॥२२॥ गीताधीता च येनापि भक्तिभावेन चेतसा । वेदशास्त्रपुराणादि तेनाधीतानि सर्वशः ॥ २३ ॥ योगस्थाने सिद्धपीठे शिलाप्रे सत्सभासु च। यझे च विष्णुभक्ताप्रे पठन् सिद्धिं पर लभेत् ॥ २४।। गीतापाठं च श्रवणं यः करोति दिने दिने। क्रतवो वाजिमेधाद्याः कृतास्तेन सदक्षिणाः ॥ २५ ।। शालग्रामशिलाके पास, देवागार, शिवालय तीर्थस्थान किम्बा नदी तीर पर गीता पाठ करनेसे निश्चय सौभाग्य लाभ होता है ।। २१ ॥ देवकीनन्दन श्रीकृष्ण गीता पाठ करनेसे जिस प्रकार तुष्ट होते हैं, वेद पाठ, दान और यज्ञ तीर्थ व्रतादि करनेसे वैसे तुष्ट नहीं होते ॥२२॥ जिन्होंने चित्तको भक्तिभावापन्न करके गीता अध्ययन किया है, उनकी वेद, शास्त्र, पुराणादि समुदय अध्ययनकी क्रिया हो चुकी ॥ २३ ॥ योगस्थानमें, सिद्धपीठमें, शिलाके सामने, सत् सभामें, यज्ञस्थल में और विष्णुभक्तके सम्मुख गीता पाठ करनेसे परासिद्धि लाभ होती है ॥ २४ ॥ जो प्रतिदिन गीता पाठ तथा श्रवण करते हैं, उनकी सदक्षिणा अश्वमेधादि यज्ञ अनुष्ठानकी क्रिया होती है ॥२५॥ -२३ Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५४ श्रीमद्भगवद्गीता यः शृणोति च गीतार्थ कीर्तयत्येव यः परम् । श्रावयेच्च परार्थ वे स प्रयाति परं पदम् ॥ २६ ॥ गीतायाः पुस्तकं शुद्ध योऽपयत्येव सादरात्। विधिना भक्तिभावेन तस्य भार्या प्रिया भवेत् ॥ २७ ॥ यशः सौभाग्यमारोग्यं लभते नात्र संशयः। दयिताना प्रियो भूत्वा परमं सुखमश्नुते ।। २८ ।। भभिचारोद्भवं दुःखं वरशापागतं च यत् । नोपसर्पति तत्रैव यत्र गीताच्चनं गृहे ।। २६ ॥ .. तापत्रयोद्भवा पीड़ा नैव व्याधिर्भवेत् क्वचित । न शापो नैव पापं च दुर्गतिर्नरकं न च ॥ ३० ॥ विस्फोटकादयो देहे न बाधन्ते कदाचन । लभेत् कृष्णपदे दास्यं भक्ति चाव्यभिचारिणीम् ॥ ३१ ॥ जो गीतार्थ श्रवण करते हैं, कीर्तन करते हैं और दूसरेको गीताका परार्थ श्रवण कराते हैं, वह परमपदको प्राप्त होते हैं ॥ २६ ॥ _ विधिपूर्वक, आदरसे और भक्तिभावसे जो गीताकी विशुद्ध पुस्तक दान करते हैं, उनकी भार्या प्रिया होती है, वह यश, सौभाग्य और आरोग्य लाभ करते हैं; एवं दयिताओंके प्रिय होकरके परमसुख भोग करते हैं, इसमें संशय नहीं है ॥ २७ ॥ २८ ॥ जिस गृहमें गीताकी अर्चना होती है, वहां अभिचारसे उत्पन्न दुःख तथा वरशाप जनित दुःख पहुंच ही नहीं सकता ॥ २६ ॥ __ (वहाँ) तापत्रयोद्भवा पीड़ा और व्याधि कभी होती ही नहीं, शाप नहीं लगता, पाप भी नहीं होता है, दुर्गति और नरक भी नहीं होती है; विस्फोटकादि ( फोड़ा ) कभी देहमें बाधा ( यन्त्रणा ) प्रदान नहीं कर सकता; ( वह गृहस्थ ) श्रीकृष्णके चरणमें दास्य और अव्यभिचारिणी भक्ति लाभ करता है ॥ ३० ॥ ३१॥ . Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माहात्म्यम् ____३५५ जायते सततं सख्यं सर्वजीवगणैः सह। प्रारब्धं भुजतो वापि गीताभ्यासरतस्य च । स मुक्तः स सुखी लोके कर्मणा नोपलिप्यते ॥ ३२ ।।* महापापातिपापानि गीताध्यायी करोति चेत् । न किञ्चित् स्पृश्यते तस्य नलिनीदलमम्भसा ॥ ३३ ॥** अनाचारोद्भव पापं अवाच्यादिकृतं च यत् । अभक्ष्यभक्षजं दोषमस्पर्शस्पर्शजं तथा ॥ ३४ ॥ ज्ञानाज्ञानकृतं नित्यमिन्द्रिययैर्जनितं च यत्। तत्सर्व नाशमायाति गीतापाठेन तत्क्षणात् ॥३५॥ जो प्रारब्ध भोग करते समय में भी गीवाभ्यासमें रत रहते हैं, उनसे सर्वदा सर्व जीव गषोंका सख्य होता है; वे मुक्त और सुखी हैं तथा इस जगत्के कर्मों में लिप्त नहीं होते ॥ ३२ ॥ - गीता अध्ययनकारीको पद्मपत्रके जलके सदृश महापाप अतिपाप भी स्पर्श नहीं कर सकता ॥ ३३ ॥ . अनाचार जनित पाप, अवाच्य वाक्य कथनका पाप, अभक्ष्य भक्षण जनित पाप, अस्पृश्य स्पर्श जनित दोष, ज्ञानकृत और अज्ञान- . कृत दोष और नित्य इन्द्रिय समूहसे जो उत्पन्न होते हैं वे समस्त दोष गीता पाठ मात्रसे उसी क्षण नाश प्राप्त होते हैं ॥ ३४ ॥३५॥ तथा च बराहपुराणे श्रीविष्णुरुवाच । * प्रारब्ध भुज्यमानो हि गीताभ्यासरतः सदा। स मुक्तः स सुखी लोके कर्मणा नोपलिप्यते ॥ २ ॥ ** महापापादिपापानि गीताध्यानं करोति चेत् । क्वचित् स्पर्श न कुर्वन्ति नलिनीदलमम्वुवत् ॥ ३॥ Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५६ श्रीमद्भगवद्गीता सर्वत्र प्रतिमुक्त्वा च प्रतिगृह्य च सर्वशः। गीतापाठ प्रकुर्वाणो न लिप्येत कदाचन ॥ ३६ ॥ रत्नपूर्णा महीं सर्वा प्रतिगृह्याविधानतः । गीतापाठेन चैकेन शुद्धस्फटिकवत् सदा ॥३७ ।। यस्यान्तःकरणं नित्यं गीतायां रमते सदा। स साग्निकः सदा जापी क्रियावान् स च पण्डितः ॥ ३८ ॥ दर्शनीयः स धनवान् स योगी ज्ञानवानपि । स एव याज्ञिको याजी सर्ववेदार्थदर्शकः ॥३६ ।। गीतायाः पुस्तकं यत्र नित्यपाठश्च वर्तते । तत्र सर्वाणि तीर्थानि प्रयागादीनी भूतले ॥ ४० ॥* निवसन्ति सदा देहे देहशेषेऽपि सर्वदा। सर्वे देवाश्च ऋषयो योगिनो देहरक्षकाः ॥४१॥* सर्वत्र भोजन करके और सर्व प्रकारसे प्रतिप्रह' करके भी गीतापाठकारी कभी लिप्त नहीं होते ॥ ३६ ॥ रत्नपूर्णा समप्र पृथिवी अविधानतः प्रतिग्रह (अन्याय पूर्वक ग्रहण) करके भी एक मात्र गीता पाठसे ही शुद्ध स्फटिक सदृश निर्मल रहते है॥३७॥ . जिसका अन्तःकरण प्रत्यह सर्वदा गीतामें रत रहता है, वही साग्निक, सदा जापक, क्रियावान् और पण्डित है, वही दर्शनीय और धनवान , योगी और ज्ञानवान् है, वही यानिक, याजक और सर्व बेदार्थदर्शक है ॥ ३८ ॥ ३६॥ जिस स्थानमें गीताकी पुस्तक रहती है और नित्य पाठ होता है, भूतलके उसी स्थानमें ही प्रयागादि समुदय तीर्थ वर्तमान रहते हैं; • गीतायाः पुस्तकं यत्र यत्र पाठः प्रवर्तते । तत्र सर्वाणि तीर्थानि प्रयागादीनि तत्र व। सर्वे देवाश्च ऋषयो योगिनः पन्नगाश्च ये ॥ ४ ॥ Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माहात्म्यम् गोपालो बालकृष्णोऽपि नारदध्र वपार्श्व दे। सहायो जायते शीघ्र यत्र गीता प्रवर्तते ॥ ४२ ॥ यत्र गीता विचारश्व पठन पाठनं तथा। मोदते तत्र श्रीकृष्णो भगवान् राधिकासह ॥ ४३ ॥** श्रीभगवानुवाच । गीता मे हृदयं पार्थ गीता मे सारमुत्तमम् । गीता मे ज्ञानमत्युन गीता मे ज्ञानमव्ययम् ॥ ४४ ॥ गीता मे चोत्तमं स्थानं गीता मे परमं पदम् । गीता मे परमं गुह्य गीता मे परमो गुरुः ॥ ४५ ॥ (गीताध्यायीके ) देहमें सदासर्वदा देहरक्षक समुदय देवगण ऋषिगण योगीगण देह शेषमें भी वास करते हैं ॥४०॥४१॥ ____ जहां गीता प्रवर्तित (नियमित रूपसे पाठ ) होता है, वहाँ बालकृष्ण गोपाल नारद और ध्रुव प्रभृति पार्श्वद गणके साथ शीघ्र सहाय होते हैं ॥ ४२ ॥ . जहां गीता का विचार और पठन पाठन होता है, वहां भगवान् श्रीकृष्ण राधिकाके साथ आनन्दसे विराजते हैं ॥ ४३ ॥ ' श्रीभगवान् कहे हैं। हे पार्थ! गीता मेरा हृदय, गीता मेरा खत्तम सार, गीता मेरा अत्युम ज्ञान, और गीता मेरा अव्यय ज्ञान हैं ॥४४॥ ___ गीता मेरा उत्तम स्थान, गीता मेरा परम पद, गीता मेरा परम गुह्य, गीता मेरा परम गुरु है ॥ ४५॥ • गोपालो गोपिका वापि नारदोद्धवपार्श्वदः। सहायो जायते शीघ्र यत्र गीता प्रवर्तते ॥ ५॥ ** यत्र गीताविचारश्च पठन पाठनं श्रुतम् ।। तत्राहं निश्चितं पृथ्वि निवसामि सदैव हि ॥ ६॥ Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५८ श्रीमद्भगवद्गीता गीताश्रयेऽहं तिष्ठामि गीता मे परमं गृहम् । गीताज्ञानं समाश्रित्य त्रिलोकी पालयाम्यहम् ॥ ४६ ॥* गीता मे परमा विद्या ब्रह्मरूपा न संशयः। . अर्द्धमात्रा परा नित्यमनिर्वाच्यपदात्मिका ॥ ४७ ॥** गीतानामानि वक्ष्यामि गुह्यानि शृणु पाण्डव । कीर्तनात् सर्वपापानि विलयं यान्ति तत्क्षणात् ॥ ४८ ॥ गङ्गा गीता च सावित्री सीता सत्या पतिव्रता । ब्रह्मावलिब्रह्मविद्या त्रिसन्ध्या मुक्तिीहिनी ॥४६॥ अर्द्धमात्रा चिता नन्दा भकनी भ्रान्तिनाशिनी । वेदत्रयी परानन्दा तस्वार्थज्ञानमन्जरी ॥ ५० ॥*** मैं गीताके आश्रयमें रहता हूँ, गीता मेरा परम गृह है; मैं गीता ज्ञानका सम्यक् आश्रय करके त्रिलोक पालन करता हूँ ॥ ४६॥ गीता मेरी ब्रह्मरूपा परमा विद्या है इसमें संशय नहीं है। गीता मेरी अर्द्धमात्रा, परा और नित्य अनिर्वाच्यपद स्वरूपिणी है ॥ ४ ॥ हे पाण्डव ! गीताके सकल गुह्य नाम कहता हूँ श्रवण करो, जिसको कीर्तन करनेसे समुदय पाप उसी क्षण नाश हो जाते हैं ॥४८॥ ___ गङ्गा, गीता, सावित्री, सीता, सत्या पतिव्रता, ब्रह्मावलि, ब्रह्मविद्या, त्रिसन्ध्या, मुक्तिगेहिनी ॥ ४६ ॥ * गोताश्रयेऽहं तिष्ठामि गीता मे चात्तमं गृहम् । गीताज्ञानमुपाश्रित्य त्रील्लोकान् पालयाम्यहं ॥ ७ ॥ ** गीता मे परमा विद्या ब्रह्मरूपा न संशयः। अर्द्ध मात्राक्षरा नित्या सानिर्वाच्यपदात्मिका ॥ ८ ॥ *** चिदानन्देन कृष्णेन प्रोक्ता स्वमुखतोऽज्जुनम् । वेदत्रयौ परा नन्दा तत्त्वार्थज्ञानसंयुता ॥ ९ ॥ Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माहात्म्यम् ३५६ इत्येतानि जपेन्नित्यं नरो निश्चलमानसः। ज्ञानसिद्धिं लभेन्नित्यं तथान्ते परमं पदम् ॥ ५१ ॥ पाठेऽसमर्थः सम्पूर्णे तदद्धं पाठमाचरेत् । तदा गोदानजं पुण्यं लभते नात्र संशयः ।। ५२ ॥** त्रिभागं पठमानस्तु सोमयागफलं लभेत्। षड़शं जपमानस्तु गङ्गास्नानफलं लभेत् ॥ ५३ ।।*** तथाध्यायद्वयं नित्यं पठमानो निरन्तरम् । . .. इन्द्रलोकमवाप्नोति कल्पमेकं वसेत् ध्रुवम् ।। ५४ ॥ .. - अर्द्धमात्रा, चिता, नन्दा, भवघ्नी, भ्रान्तिनाशिनी, वेदत्रयी, परानन्दा, तत्त्वार्थज्ञानमन्जरी-जो व्यक्ति निश्चलमनसे यह सब नाम नित्य जपते हैं, वे नित्य ज्ञानसिद्धि लाभ करते हैं और अन्तमें परम पदको प्राप्त होते हैं ॥ ५० ॥ ५१ ।। ___ यदि सम्पूर्ण पाठ करनेमें असमर्थ व्यक्तिगण गीताका आधा पाठ करें तो वे निःसंशय गोदानज पुण्य लाभ करेंगे इसमें संशय नहीं है ॥ ५२ ॥ त्रिभाग पाठकारी सोमयागका फल पाते हैं और षड़श जपकारी गङ्गा लानका फल लाभ करते हैं ॥ ५३ ॥ नित्य निरन्तर दो अध्याय पाठकारी इन्द्रलोकको प्राप्त होता है और वहां निश्चित रूपसे एक कल्प वास करता है ।। ५४ ॥ * योऽष्टादशजपो नित्यं नरो निश्चलमानसः । ज्ञानसिद्धिं स लभते ततो याति परं पदम् ॥ १० ॥ ** पाठेऽसमर्थः सम्पूर्णे ततोऽद्ध पाठमाचरेत् । तदा गोदानजं पुण्यं लभते नात्र संशयः ॥ ११ ॥ *** त्रिभागं पठमानस्तु गङ्गास्नानफलं लभेत् । षडंशं जपमानस्तु सोमयागफलं लभेत् ॥ १२ ॥ Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६० श्रीमद्भगवद्गीता एकमध्यायक नित्यं पठते भक्तिसंयुतः । रुद्रलोकमवाप्नोति गणो भूत्वा वसेच्चिरम् ॥ ५५ ॥ अध्यायाद्धं च पादं वा नित्यं यः पठते जनः। प्रप्नोति रविलोकं स मन्वन्तरसमाः शतम् ॥ ५६ ॥** गीतायाः श्लोकदशकं सप्त पञ्च चतुष्टयम् । त्रिद्वयेकमेकमद्धं वा श्लोकानां यः पठेन्नरः। चन्द्रलोकमवाप्नोति वर्षाणामयुतन्तथा ॥ ५७ ॥*** गीतार्थमेकपादं च श्लोकमध्यायमेव च। स्मरंस्त्यक्ता जनो देहं प्रयाति परमं पदम् ॥ ५८ ॥**** जो भक्तियुक्त हो करके नित्य एक अध्याय पाठ करते हैं, वे रुद्रलोक प्राप्त होकर गण होके दीर्घ काल तक वहां वास करते हैं ॥ ५५ ॥ जो लोग नित्य एक अध्यायका आधा वा चतुर्थाश पाठ करते हैं वे लोग रविलोकको प्राप्त करके शत मम्वन्तर वहां रहते हैं ॥ ५६ ॥ जो नर गीताका दस, सात, पाँच, चार, तीन, दो एक अथवा आधा श्लोक भी पाठ करते हैं वे अयुत वर्ष धरके चन्द्रलोकको प्राप्त होते हैं ॥ ५७॥ जो गीतार्थका एकपाद, एक श्लोक किम्बा एक अध्यायका स्मरण करते-करते देह त्याग करते हैं वे परम पदको प्राप्त होते हैं ॥८॥ * एकाध्यायं तु यो नित्यं पठते भक्तिसंयुतः । रुद्रलोकमवाप्नोति गणो भूत्वा वसेच्चिरम् ॥ १३ ॥ ** अध्यायं श्लोकपादं वा नित्यं यः पठते नरः। स याति नरता यावन्मन्वन्तरं वसुन्धरे ॥ १४ ॥ *** गीतायाः श्लोकदशकं सप्त पञ्च चतुष्टयम् । द्वौ त्रोणेकं तदध वा श्लोकानां यः पठेन्नरः । चन्द्रलोकमवाप्नोति वर्षाणामयुतं ध्र वम् ॥ १५ ॥ **** गीतार्थ ध्यायते नित्यं कृत्वा कर्माणि भूरिशः। जोपन्मुक्तःस विज्ञेयो देहान्ते परमं पदम् ॥ १९ ॥ Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माहात्म्यम् ३६१ गीताथमपि पाठं वा शृणुयादन्तकालतः। महापातकयुक्तोऽपि मुक्तिभागी भवेज्जनः ॥ ५६ ॥ गीतापुस्तकसंयुक्तः प्राणांस्त्यक्त्वा प्रयाति यः। वैकुण्ठ समवाप्नोति विष्णुना सह मोदते ॥ ६० ॥ गीताध्यायसमायुक्तो मृतो मानुषतां व्रजेत् । गीताभ्यासं पुनः कृत्वा लभते मुक्तिमुत्तमाम् ॥ ६१ ॥** गीतेत्युच्चारसंयुक्तो म्रियमाणो गतिं लभेत् ।*** यद्यत् कर्म च सर्वत्र गीतापाठप्रकीतिमत् । तत्तत्कर्म च निर्दोष भूत्वा पूर्णत्वमाप्नुयात् ।। ६२ ॥ यदि कोई मनुष्य महापातक युक्त हो करके भी अन्तकालमें गीतार्थ पाठ वा श्रवण करे तो वह मुक्त हो जाता है ॥ ५६ ॥ जो मनुष्य गीता पुस्तक संयुक्त होकर प्राण त्याग करते हैं वे वैकुण्ठको प्राप्त होकर श्रीविष्णुके साथ प्रानन्द भोग करते हैं ॥ ६ ॥ गीताका अध्याय मात्र युक्त होनेसे मृत व्यक्ति मनुष्यत्व प्राप्त होते हैं और पुनराय गीताभ्यास करके उत्तम मुक्ति लाभ करते ___ जो मृत्युकालमें "गीता" यह शब्द उच्चारण करते हैं ; उनकी गति होती है; सर्वत्र जो-जो कर्म करते समय गीताका पाठ किया जाय, वे सब कर्म निर्दोष होके पूर्णत्वको प्राप्त होते हैं ॥ ६२॥ * गीतार्थ सवणासक्तो महापापयुतोऽपि वा । वैकुण्ठं समवाप्नोति विष्णना सह मोदते ॥ १८॥ . ** गीतापाठसमायुको मृतो मानुषतां व्रजेत् । गीताभ्यासं पुनः कृत्वा लभते मुक्तिमुत्तमाम् ॥ १६ ।। *** गीतेत्युच्चार सयुक्तो म्रियमाणो गतिं लभेत् ॥ १७ ॥ Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६२ ___ श्रीमद्भगवद्गीता पितनुहिश्य यः श्राद्धे गीतापाठ करोति हि। सन्तुष्टाः पितरस्तस्य निरयाद् यान्ति स्वर्गतिम् ॥ ६३ ॥ गीतापाठन सन्तुष्टाः पितरः श्राद्धतर्पिताः। पितृलोकं प्रयान्त्येव पुत्राशीर्वादतत्पराः ॥ ६४ ॥ गीतापुस्तकदानं च धेनुपुच्छसमन्वितम् । कृत्वा च तहिने सम्यक् कृतार्थों जायते जनः ॥६५॥ पुस्तकं हेमसंयुक्तं गीतायाः प्रकरोति यः। दत्त्वा विप्राय विदुषे जायते न पुनर्भवम् ।। ६६ ॥ शतपुस्तकदानं च गीतायाः प्रकरोति यः। स याति ब्रह्मसदनं पुनरावृत्तिदुर्लभम् ॥ ६ ॥ गीतादानप्रभावेन सप्तकल्पमिताः समाः। विष्णुलोकमवाप्यान्ते विष्णुना सह मोदते ॥ ६८ ॥ जो पितृगणके उद्देशसे श्राद्ध में गीता पाठ करते हैं, उनके सन्तुष्ट पितृगण निःसन्देह नरकसे स्वर्गको प्राप्त होते हैं ।। ६३ ।। श्राद्ध तर्पण कृत पितृगण गीता पाठसे सन्तुष्ट होके पुत्रको आशीर्वाद करते करते पितृलोकमें गमन करते हैं । ६४ ॥ __श्राद्ध दिनमें धेनु पुच्छ सहित गीता पुस्तक दान करके कृतीजन सम्यक रूपसे कृतार्थ होते हैं । ६५॥ जो मनुष्य गीताकी पुस्तक हेम संयुक्त करके विद्वान विप्रको दान करते हैं उनको पुनराय संसारमें जन्मग्रहण करना नहीं पड़ता ॥ ६६ ॥ जो गीताकी शत पुस्तक दान करते हैं वह ब्रह्मलोकमें गमन करते हैं, वहाँसे उनको पुनरावृत्ति नहीं होती ।। ६७॥ __ गीता दानके प्रभावसे अन्तकालमें सप्त कल्प परिमित वत्सर विष्णुलोक प्राप्त होकर श्रीविष्णुके साथ आनन्द उपभोग करते हैं ॥ ६८॥ Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माहात्म्यम् सम्यक श्रुत्वा च गीतार्थ पुस्तकं यः प्रदापयेत्। तस्मै प्रीतः श्रीभगवान् ददाति मानसेप्सितम् ॥ ६६ ॥ देहं मानुषमाश्रित्य चातुर्वर्णेषु भारत। न शृणोति न पठति गीताममृतरूपिणीम् ॥ हस्तात्त्यक्त्वामृतं प्राप्तं स नरो विषमश्नुते ॥ ७० ॥ जनः संसारदुःखातों गीताज्ञानं समालभेत्। पीत्वा गीतामृतं लोके लब्ध्वा भक्ति सुखी भवेत् ॥ ७१ ॥ गीतामाश्रित्य बहवो भूभुजो जनकादयः। निधूतकल्मषा लोके गतास्ते परमं पदम् ॥ ७२ ।।* गीतासु न विशेषोऽस्ति जनेषूच्चारकेषु च । ज्ञानेष्वेव समप्रेषु समा ब्रह्मस्वरूपिणी ॥ ७३ ॥ गीवार्थ सम्यक श्रवण करके जो पुस्तक दान करते हैं, श्रीभगवान् प्रसन्न होके उनको मानसेप्सित ( वांछितार्थ) फल देते हैं ॥ ६ ॥ हे भारत ! चातुर्वर्णके भीतर मनुष्य देह धारण करके जो लोग अमृतरूपिणी गीता श्रवण नहीं करते हैं पाठ भी नहीं करते हैं, वे प्राप्त अमृत हाथसे फेंकके विषभोजन करते हैं ॥ ७० ॥ संसार दुःखसे पीड़ित जनको सम्यक् रूपसे गीता ज्ञान लाम करना उचित है, इससे वह गीतामृतं पानकर भक्ति लाभ करके जगत् में सुखी होंगे ॥ ७१॥ ___ मनकादि बहु राजा लोग गीताका आश्रय करके जगत्में निष्पाप हुए थे, वे लोग परमपदको प्राप्त हुए हैं ॥ ७२ ।। गीता उच्चारण करनेमें मनुष्यके भीतर कोई भेदाभेद नहीं है; कारण कि समग्र ज्ञानमें गीता ही समा है, गीता ब्रह्मस्वरूपिणी है ॥ ३ ॥ . * गीतामाश्रित्य बहवो भूभुजो जनकादयः। निधु तकल्मषा लोके गीता याताः परं पदम् ॥ २० ॥ Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६४ श्रीमद्भगवद्गीता योऽभिमानेन गण गीतानिन्दा करोति । समेति नरकं घोरं यावदाहूतसंप्लवम् च ॥ ७४ ॥ अहंकारेण मुढ़ात्मा गीतार्थ नैव मन्यते । कुम्भीपाकेषु पच्येत यावत्, कल्पक्षयो भवेत् ॥ ५५ ॥ गीतार्थ वाच्यमानं यो न शृणोति समीपतः । स शूकरमवां योनिमनेकामधिगच्छति ॥ ७६ ।। चौय्यं कृत्वा च गीतायाः पुस्तकं यः समानयेत् । न तस्य सफल किंचित् पठनं च वृथा भवेत् ॥ ७७ ॥ यः श्रुत्वा नैव गीतार्थ मोदते परमार्थतः । नैव तस्य फलं लोके प्रमत्तस्य यथा श्रमः ॥ ७८ ॥ गीता श्रुत्वा हिरण्यं च भोज्यं पट्टाम्बरं तथा । निवेदयेत् प्रदानार्थ प्रीतये परमात्मनः ॥ ७ ॥ जो लोग अभिमानसे वा गर्वके वश गीताकी निन्दा करते हैं, वे प्रलय काल तक घोर नरकमें जाते हैं ॥ ७४ ॥ जो मूढ़ात्मा अहंकारके वश गीतार्थका मान्य नहीं करता है, वह कल्पक्षय पर्यन्त कुम्भीपाकमें पचता है ।। ७५॥ गीतार्थ कथित होनेके समय निकटमें रह करके भी जो श्रवण नहीं करता है वह अनेक वार शूकरयोनिको प्राप्त होता है ॥ ७६ ॥ जो गीताकी पुस्तक चोरी करता है उसको कुछ सफल नहीं होता और उसका पाठ भी वृथा होता है ॥ ७ ॥ ___ जो गीतार्थ श्रवण करके परमार्थतः आनन्दित नहीं होता, जगत् में प्रमत्तके परिश्रमके सदृश उसका कुछ फल नहीं मिलता ॥ ८ ॥ गीतार्थ श्रवण करके परमात्माकी प्रीतिके निमित्त सुवर्ण, भोग्य द्रव्य और पट्ट वस्त्र प्रदान के लिये निवेदन करना चाहिये ॥ ७ ॥ Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६५ माहात्म्यम वाचकं पूजयेत्या द्रव्यवसाधु पस्करैः। अनेकबहुधा प्रीत्या तुष्यतां भगवान् हरिः ।। ८०॥ सूत उवाच । माहात्म्यमेतद्गीतायाः कृष्णप्रोक्तं पुरातनम् । गीतान्ते पठते यस्तु यथोक्तफल भाग्भवेत् ॥८१ ॥* गीतायाः पठनं कृत्वा माहात्म्यं नैव यः पठेत् । वृथा पाठफलं तस्य श्रम एव उदाहृतः ॥ ८२ ॥** एतन्माहात्म्यसंयुक्तं गीतापाठं करोति यः। प्रद्धया यः शृणोत्येव परमां गतिमाप्नुयात् ॥ ८३ ॥*** वाचककी अनेक द्रव्य, वस्त्र प्रभृतिसे भक्तिपूर्वक अनेक प्रकारसे पूजा करनी चाहिये इससे भगवान हरि प्रीति सन्तुष्ट होते हैं ।। ८० ॥ सूत कहते हैं। गीताका इस श्रीकृष्ण द्वारा कथित पुरावन माहात्म्यको जो गीतान्तमें पाठ करते हैं वे यथोक्त फलभागी होते हैं॥८१॥ * सूत उवाच माहात्म्यमेतद्गीताया मया प्रोक सनातनम् । गीतान्ते च पठेत् यस्तु यदुक्त तत्फलं लभेत् ।। २३ ।। ** गीतायाः पठनं कृत्वा माहात्म्यं नैव यः पठेत् । वृथा पाठो भवेत्तस्य श्रम एव ह युदाहृतः ।। २१ ॥ *** एतन्माहात्म्यसंयुक्त गोताभ्यासं करोति यः। . स तत्फलमवाप्नोति दुर्लभां गतिमाप्नुयात् ।। २२ ॥ इति श्रीवराहपुराणे श्रीगीतामहात्म्यं सम्पूर्णम् ॥ Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६६ श्रीमद्भगवद्गीता गीतामर्थयुक्तां माहात्म्यं यः शृणोति च। पुण्यफलं लोके भवेत् सर्वसुखावहम् ॥ ८४ ॥ इति श्रीवैष्णवीयतन्त्रसारे श्रीमद्भगवद्गीतामहात्म्यं समाप्तम् । गीता पाठ करके जो माहात्म्यका पाठ नहीं करते उनका पाठफल वृथा श्रममात्र है ।। ८२॥ ___ जो इस माहात्म्य संयुक्त गीताका पाठ करते हैं और जो श्रद्धापूर्वक श्रवण करते हैं वह परमा गतिको प्राप्त होते हैं ॥ ८३ ॥ . जो अर्थयुक्त गीता श्रवण करके माहात्म्य भी श्रवण करते हैं जगत् मैं उन्हें सर्व सुखावह पुण्यफल लाभ होता है ॥ ८४ ॥ - वैष्णवीय तन्त्रसारोक्त गीतामाहात्म्य समाप्त । Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माहात्म्यम् गीताशास्त्रमिदं पुण्यं यः पठेत् प्रयतः पुमान् । विष्णोः पदमवाप्नोति भयशोकादिवर्जितः॥ गीताध्ययन शीलस्य प्राणायामपरस्य च । . नैव सन्ति हि पापानि पुनर्जन्मकृतानि च । मलनिर्मोचनं पुंसां जलस्नानं दिने दिने । सकृद्गीताम्भसि स्नानं संसारमलनाशनम् ॥ गीता सुगीता कर्त्तव्या किमन्यैः शास्त्रसंग्रहैः। या स्वयं पद्मनाभस्य मुखपद्माद्विनिःसृता। भारतामृतसर्वस्वं विष्णोर्वक्ताद्विनिःसृतम् । गीतागणोदकं पीत्वा पुनर्जन्म न विद्यते ॥ सर्वोपनिषदो गावो दोग्धा गोपालनन्दनः । पार्थों वत्सः सुधीर्भोक्ता दुग्ध गीतामृतं महत् ॥ एक शास्त्रं देवकीपुत्रगीतं एको देवो देवकीपुत्र एव । ‘एको मन्त्रस्तस्य नामानि यानि कर्माप्येकं तस्य देवस्य सेवा ॥ इति श्रीमद्भगवद्गीतामाहात्म्यं समाप्तम् । ॐ तत् सत् । श्री कृष्णायार्पणमस्तु। समाप्तेयं गीता माहात्म्यसहिता काशीस्थ प्रणवाश्रम व्याख्यायुता। Page #377 --------------------------------------------------------------------------  Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Rs. 50/