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________________ २०० श्रीमद्भगवद्गीता उसे देखो। यह देखो, विशुद्ध पारद राशिसे भी अधिक क्या एक अपूर्व ज्योति तुम्हारे सामने है। हरि ! हरि! वह देखो! वह ज्योति और कुछ भी नहीं है, तुमहीसे ज्योति बाहर निकलके तुम्हारे पश्चात दिशामें प्रवाहाकारसे दौड़ता है। ज्योतिकी सीमा नहों, कहाँ से निकलती है, तुम भी उसे कहने की इच्छा नहीं रखते। परन्तु तुम घोर नववन सदृश गाढ़तम, अबोधगम्य, ज्ञान और विचारके अतीत क्या एक असीम होने चले। वह असीम ही विष्णुरूप है। विष्णु कहते हैं व्यापक-चैतन्य आत्माको। और वह जो असीम होते जाना है, वही वैष्णवी मार्ग है। विष्णुमें तुम मिलकर विष्णुत्व ले लेते हो इसलिये तुम वैष्णव हो । विष्णुका जो उपासक वही वैष्णव है। अब और एक अपूर्व शोभा देखो। उस नवीन नीरदोपम चतन्यधनसे नीचे दिशामें महत् प्रकाशकी ज्योति दौड़ती है। यही प्रकृति और पुरुषका संयोग है इसके ठीक सन्धिमें अब तुम हो। अच्छी तरह देख कर (प्रत्यक्ष कर ) समझ लो। उस ज्योतिने तुम्हारी जितनी जगह आक्रम कर लिया, उतना ही उसका अधिकार है। और उस अधिकारके भीतर जितना तुम हो तुम्हारा उतना ही उसके संगीका अर्थ प्रकाश करता है। क्या अपूर्व शोभा है यह रोशनी-अन्धकारका एकत्र समावेश ! विपरीत गतिसे जो धारा प्रवाह बहता है, वह सृष्टिमुखी वृत्ति नामसे चिरन्तनी मायाका प्रसारण है। और तुम जो ससारस निवृत्तिको लेकर उठ आये, यही उस प्रवाहकी दक्षिण गति है, इसलिये इस गतिका नाम राधा है। धाराके विपरीत ही "राधा" है । और यह गति आकरके तुममें मिल करके "मैं" हो जाती है; यही कृष्ण है। इसलिये साधकगण कहते हैं-“वामे तड़ितचावंगी राधा दक्ष सुश्यामलं। कृष्ण कमलपत्राक्ष राधाकृष्ण भजाम्यहं ॥” यह जो पद है, यह जो “मैं” पद है, इस 'मैं" में आ पड़नेसे अर्यात संसारी-शरोरका शेष निःश्वास त्याग करके इस "मैं"
SR No.032601
Book TitlePranav Gita Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanendranath Mukhopadhyaya
PublisherRamendranath Mukhopadhyaya
Publication Year1998
Total Pages378
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith
File Size26 MB
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