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श्रीगणेशाय नमः।
भीमद्भगवद्रीता
योगशास्त्रीय आध्यात्मिक व्याख्या ।
दशमोऽध्यायः
श्रीभगवानुवाच । भूय एव महाबाहो शृणु मे परमं वचः।
यत्तेऽहं प्रीयमाणाय वक्ष्यामि हितकाम्यया ॥१॥ अन्वयः। श्रीभगवान् उवाच । हे महाबाहो! प्रीयमाणाय ( मद्वचनामृतेनैव प्रोति प्राप्नुवते) ते (तुभ्यं ) अहं हितकाम्यया ( हितेच्छया ) भूयः एव (पुनरपि ) यत् परमं ( परमात्मनिष्ठं ) वचः वक्ष्यामि, मे ( तत् बचः ) शृणु ॥१॥
अनुवाद। श्रीमगवान् कहते हैं। हे महाबाहो। तुम हमारी कथामें प्रीति अनुभव करते हो, अतएष मैं हित कामना के लिये तुमको फिर जो परमात्मनिष्ठ वाक्य कहुँगा, हमारा उस वाक्यको श्रवण करो ॥१॥
व्याख्या। भगवान सप्तम अध्यानके प्रथम लोकमें अर्जुन को"जिस प्रकारसे असंशय होकर समप्र भावसे मुझको जान सकोगे. उसे सुनो"-यह बात कह करके अपना विभूति-बल-शक्ति-ऐश्वर्यादि गुण कहना प्रारम्भ किया। सप्तममें "रसोऽहमप्सु कौन्तेय" इत्यादित ८ममें "अधियज्ञोऽहमेवात्र” इत्यादि, और नवममें "अहूं ऋतुरह यज्ञः” इत्यादि वचन समूहसे अति संक्षेप करके प्रात्मस्वरूप वर्णन किये, और नवमके शेष श्लोकमें, उस आत्मस्वरूप लाभ करनेके लिये प्रकरण भी दिखाय दिये। शिष्य अर्जुन उसीमें प्रीति लाभ किया।