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________________ “१५८ ., श्रीमद्भगवद्गीता अनुवाद। कार्य और कारणके कत्तृत्व सम्बन्धमें प्रकृति हेतु कह करके उक्त होते हैं, और सुख दुःख समूहके भोक्त त्व सम्बन्धमै पुरुष हेतु कह करके उक्त होते हैं ॥२१॥ व्याख्या। यह जो मूल प्रकृति कही हुई है, वही विकृत होकरके सातों मूत्तिमें खड़ी हो गई, अर्थात् पञ्च तन्मात्रा ( शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्ध ), बुद्धि और अहंकार। इन सातोंको प्रकृति-विकृति कहते हैं। यह सब कारण हुए। फिर और सोलह रूपमें परिणत हो करके विकार नाम लिये, - यया पञ्च महाभूत (पृथिवी, जल, अग्नि, वायु, आकाश ), पञ्च ज्ञानेन्द्रिय (चक्षु, कर्ण, जिह्वा, नासिका, त्वचा ), पञ्च कर्मेन्द्रिय ( वाक् , पाणि, पाद, पायु उपस्थ ), यह पन्द्रह और एक मन है। इन सबके समष्टिसे जो स्थूल शरीर बना उसीको कार्य कहते हैं । इसलिये प्रकृतिको कार्य और कारणकी उत्पत्तिका हेतु कहा हुआ है। और पुरुष ? उनका कोई कारण नहीं है। असीमताके लिये उपायान्तरहीन होकरके प्रकृतिकृत सीमागर्भ में प्रकृतिगुणजात सुख दुःख भोग करते रह गये। यह भोग इस प्रकारके;-पाँच कोण वाले घरके गर्भ में पांच कोणका आकाश, सात कोणमें सात कोणा, गोलाकार घरके भीतर गोलाकार आकाश, ऐसे सुगन्धमें सुगन्धित, दुर्गन्धमें दुर्गन्धित, धूआसे धूममय; अर्थात् आकाशमें अपनेसे कोई भोगकी बोधन प्रकाश न होनेसे भी उस आकाशके भीतर निवास करने वाले लोग जिस जिस सुख दुःखका बोध करने लगे, वे ही सुख दुःखके प्रलेप उस निर्लिप्त आकाश बेचारेमें लगा देने लगे यथा, वह घरका गर्भस्थ आकाश दुर्गन्धमय, धुंधला, अन्धकारावृत इत्यादि । परन्तु आकाश बेचारेमें कोई भी दोष नहीं है। साधक ! यही पुरुष के भोक्तृत्व है। हरि! हरि !! अपूर्व लीलामयी प्रकृतिकी अपूर्व “अध्यारोपापवाद ऐसा है जैसे सरग वेलकी जड़ ॥ २१ ॥
SR No.032601
Book TitlePranav Gita Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanendranath Mukhopadhyaya
PublisherRamendranath Mukhopadhyaya
Publication Year1998
Total Pages378
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith
File Size26 MB
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