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श्रीमद्भगवद्गीता प्रहार-साधन द्रव्योंको आयुध वा प्रहरण कहते हैं। प्रहरण-प्र= प्रकृष्ट +ह-हरण करना+अनट , जो प्रकृष्ट पूर्वक हरण करते हैं। जिसके ऊपर प्रयोग किया जाय, उसीका अस्तित्व हरण करते हैं इससे इसका नाम प्रहरण है। इस शरीरके भीतर प्रहरण स्वरूप वायु ही एक मात्र आयुध है। फिर वायुने शरीरके नाना स्थानोंमें रहकर नाना प्रकारके नाम धारण किये हैं। उन सबके भीतर वज्र ( वज्= गमन करना, रं=अग्निबीज; अग्नि स्वयंप्रकाश और पर प्रकाशक है) स्वयं भाश्वर, गतिविशिष्ट और जिसके ऊपर पड़ते हैं, उसीका अस्तित्व हरण करने की शक्ति रखते हैं, ऐसा जो हैं उसीको वज्र कहते हैं। जिस महा वायुकी क्रियासे शरीरका अस्तित्व सम्पादन होता है, वही परमाराध्य, परम पूजनीय, प्राणेश्वर प्राण ही को वज्र कहते हैं। अवसर मत उस महाशक्तिको जिस पक्षसे ही प्रयोग किया जाय उस पक्ष को ही (प्रयोग कर्ताको ) वह जय देते हैं (साधकको यह जानी हुई बात है )। जय चिरकालसे हममें ही प्रतिष्ठित है । इसलिये आयुधों के भीतर जयशील वन मैं ही हूँ। - "धेनूनामस्मि कामधुक्"। कष्टशून्य पेट भरने वाला भोग (पानीय ) जिनसे मिलता है उन्होंको धेनु कहते हैं। इस शरीरके भीतर जिस अमृतका क्षरण होता है, उस अमृतको पान करके अमर पदमें जानेके समय ऐसी एक अवस्थामें पहुंचना होता है कि वहाँ जिस चीजकी चाहना होती है वह मिल जाती है। इसलिये उस अवस्थाको “कामधुक" कहते हैं। मेरी वह अवस्था “मैं” के अति निकट और प्रायः आकर “मैं” में मिला हुआ है। इस कारण "धेनुओं के” भीतर मैं “कामधु” ( कामधेनु हूँ )। धेनु-"धे” शब्दमें पानीय, और "नु" शब्द कर्ताको समझाता है। अर्थात् जो पानीयभोग दान करते हैं उन्हींको धेनु (दुग्धवाली गाभी ) कहते हैं। जितने प्रकारके भोग हैं, उनके भीतर पानीय कष्टशन्य उदरपूरक है। यह