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________________ अष्टादश अध्याय २६६ . अनिष्टमिष्टं मिश्रच त्रिविध कर्मणः फलम् । भवत्यत्यागिनां प्रेत्य नतु संन्यासिनो क्वचित् ॥ १२ ॥ अन्वयः। अनिष्टं ( नारकित्वं ) इष्ट ( देवत्वं ) मिजं च ( मनुष्यत्वं ) एवं त्रिविधं कर्मणः फलं अत्यागिनां ( सकामानामेव ) प्रेत्य ( परत्र, शरीरपातादूर्व) भवति; तु ( किन्तु ) संन्यासिनो ( परमार्थसंन्यासिनो कर्मफलत्यागिना ) न क्वचित् अपि भवति ॥ १२ ॥ अनुवाद। अनिष्ट, इष्ट और मिश्र, कर्मके यह तीन प्रकारके फल अत्यागियों को शरीरपातके पश्चात् प्राप्त होते हैं, किन्तु संन्यासियोंको कहीं भी नहीं मिलते ॥ १२॥ व्याख्या। भला, बुरा और भलाबुरा मिला हुश्रा यह जो तीन प्रकारका कर्मफल है इसके भले फलले देवत्व प्राप्ति, मन्द फलसे नरक भोग और मिश्र फलसे मनुष्यत्व प्राप्ति होती है। जो लोग अत्यागी अर्थात् कामनापरायण हैं उन्हें यह सब फल परत्र अर्थात् परजीवन में भोगने पड़ते हैं। परन्तु जो लोग संन्यासी अर्थात् कर्म-फलत्यागी हैं उन सबको यह सब कर्मफल स्पर्श भी नहीं कर सकते। क्योंकि "तत् कुरुष्व मदर्पणम्” इस वचनके अनुसार उनके सर्वकर्म भगवानमें समर्पित होनेसे वे लोग कर्मबन्धनसे मुक्त हैं। उनके शरीर धारण करके चलने फिरनेसे अजानतः जो कुछ पाप होता है, जो लोग उनकी निन्दा करते हैं, वे निन्दकगण ही उस पापको ग्रहण करते हैं। और जानतः वे जो पुण्य करते हैं, जो लोग उनकी प्रशंसा करते हैं, वे लोग उस पुण्यके फलको ग्रहण करते हैं । इसलिये कर्मफलत्यागियोंकी मुक्ति ही मुक्ति निश्चय है ॥ १२ ॥ पञ्चतानि महाबाहो कारणानि निबोध मे। सांख्ये कृतान्ते प्रोक्तानि सिद्धये सर्वकर्मणाम् ॥ १३ ॥ अन्वयः। हे महाबाहो ! सर्व कर्मणा सिद्धये ( निष्पत्तये ) साख्ये कृतान्ते
SR No.032601
Book TitlePranav Gita Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanendranath Mukhopadhyaya
PublisherRamendranath Mukhopadhyaya
Publication Year1998
Total Pages378
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith
File Size26 MB
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