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________________ २६८ श्रीमद्भगवद्गीता व्याख्या। सत्भाव-व्यन्जक शब्दको सत्स्व कहते हैं अर्थात् जो सत्य, न्याय, धर्म, दया, भक्ति, महत्व, पवित्रतादि उत्पन्न करता है। अर्थात् आत्मा। इस आत्मामें जो अभिनिविष्ट हैं, जो अपनेमें आप रह कर के अन्तःकरणमें दूसरा और किसीका ग्रहण नहीं करते, उन्हें सस्वसमाविष्ट कहते हैं । आत्मस्वरूप ही नित्य है, तदतिरिक समस्त ही अनित्य है इसे निश्चय करके जो पुरुष समस्त अनित्यको वर्जन कर चुके, उन्हींको त्यागी कहते हैं। स्मृतिशक्तिमान मेधावी है; अर्थात् मैं ब्रह्म बिना और कुछ नहीं हूँ, इस स्मृतिमें जिनको कम्पन नहीं आता उन्होंको मेधावी कहते हैं। ऐसे ऐसे अवस्थापन्न साधकको संशय मात्र भी नहीं रहता। इसलिये ये लोग अहितकर कर्मों से । द्वेष, और हितकर कर्म करनेके लिये साजसज्जा नहीं करते ॥ १० ॥ न हि देहभृता शक्यं त्यक्तू कर्माण्यशेषतः । यस्तु कर्मफलत्यागी स त्यागीत्यभिधीयते ॥ ११ ॥ अन्वयः। देहभृता ( देहाभिमानवता ) अशेषतः ( निःशेषण ) कर्माणि त्यक्त न शक्यं । ( तस्मात् ) यस्तु कर्मफलत्यागी स एव त्यागी इति अभिधीयते ॥ ११॥ अनुवाद। देहाभिमानी पुरुष निःशेष रूपसे समस्त कर्मका त्याग करनेमें समर्थ नहीं होते। ( इस कारण ) जो पुरुष कर्मफलत्यागी हैं वे ही त्यागी कह करके अभिहित होते हैं। ११॥ व्याख्या। जो सब मनुष्य शरीरको ही “मैं” निश्चय करके बैठे हैं, ब्रह्ममार्गमें वायुचालन करनेका अधिकार नहीं रखते, बाहरके विषय ले करके ही कारबार करते रहते हैं; ऐसे अज्ञानियोंको 'देहभृत्' कहते हैं। वे लोग 'मैं कर्ता” सज करके कर्मों का त्याग करने नहीं सकते और कर्म-बन्धनमें फंस जाते हैं। और जो लोग विवेकी हैं, वे लोग कर्मफल त्याग करके कर्म करनेसे त्यागी नाम प्राप्त कर लेते हैं। ( २य अः २१ श्लोक ) ॥ ११ ॥
SR No.032601
Book TitlePranav Gita Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanendranath Mukhopadhyaya
PublisherRamendranath Mukhopadhyaya
Publication Year1998
Total Pages378
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith
File Size26 MB
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