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________________ माहात्म्यम् ____३५५ जायते सततं सख्यं सर्वजीवगणैः सह। प्रारब्धं भुजतो वापि गीताभ्यासरतस्य च । स मुक्तः स सुखी लोके कर्मणा नोपलिप्यते ॥ ३२ ।।* महापापातिपापानि गीताध्यायी करोति चेत् । न किञ्चित् स्पृश्यते तस्य नलिनीदलमम्भसा ॥ ३३ ॥** अनाचारोद्भव पापं अवाच्यादिकृतं च यत् । अभक्ष्यभक्षजं दोषमस्पर्शस्पर्शजं तथा ॥ ३४ ॥ ज्ञानाज्ञानकृतं नित्यमिन्द्रिययैर्जनितं च यत्। तत्सर्व नाशमायाति गीतापाठेन तत्क्षणात् ॥३५॥ जो प्रारब्ध भोग करते समय में भी गीवाभ्यासमें रत रहते हैं, उनसे सर्वदा सर्व जीव गषोंका सख्य होता है; वे मुक्त और सुखी हैं तथा इस जगत्के कर्मों में लिप्त नहीं होते ॥ ३२ ॥ - गीता अध्ययनकारीको पद्मपत्रके जलके सदृश महापाप अतिपाप भी स्पर्श नहीं कर सकता ॥ ३३ ॥ . अनाचार जनित पाप, अवाच्य वाक्य कथनका पाप, अभक्ष्य भक्षण जनित पाप, अस्पृश्य स्पर्श जनित दोष, ज्ञानकृत और अज्ञान- . कृत दोष और नित्य इन्द्रिय समूहसे जो उत्पन्न होते हैं वे समस्त दोष गीता पाठ मात्रसे उसी क्षण नाश प्राप्त होते हैं ॥ ३४ ॥३५॥ तथा च बराहपुराणे श्रीविष्णुरुवाच । * प्रारब्ध भुज्यमानो हि गीताभ्यासरतः सदा। स मुक्तः स सुखी लोके कर्मणा नोपलिप्यते ॥ २ ॥ ** महापापादिपापानि गीताध्यानं करोति चेत् । क्वचित् स्पर्श न कुर्वन्ति नलिनीदलमम्वुवत् ॥ ३॥
SR No.032601
Book TitlePranav Gita Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanendranath Mukhopadhyaya
PublisherRamendranath Mukhopadhyaya
Publication Year1998
Total Pages378
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith
File Size26 MB
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