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________________ अष्टादश अध्याय २७६ अनुवाद । विषयानुरागी, कर्मफलकामी, लुब्ध, हिंस्रस्वभाव, अशुचि, लाभालाभमें हर्षशोकयुक्त कर्ताको राजस कर्ता कहते हैं ।। २७॥ व्याख्या। जिनके अन्तःकरणमें अनुराग, कमफलकी आकांक्षा, परद्रव्यमें लोभ, तीर्थादि सत्कार्यमें व्ययकुण्ठता, स्वार्थोद्धारके लिये परपीड़न, अन्तर-शौच जो मनकी स्थिरता है, उसका अभाव, बाहरमें अनाचार, भोगादि काञ्चन प्राप्तिमें हर्ष, अप्राप्तिमें शोक, यह सब विद्यमान रहता है; उनको राजस कर्ता कहते हैं ॥२७॥ अयुक्तः प्राकृतः. स्तब्धः शठो नैष्कृतिकोऽलसः । विषादी दीर्घसूत्री च कर्त्ता तामस उच्यते ॥ २८॥ अन्वयः। अयुक्तः ( अनवहितः ) प्राकृतः ( विवेकशून्यः ) स्तब्धः ( अनम्रः) शठः ( शक्तिगूहनकारी ) नैष्कृतिकः ( परापमानी ) अलसः (अनुद्यमशीलः) विषादी ( शोकशीलः, सर्वदा अवसन्नस्वभावः ) दीर्घसूत्री च कता तामसः उच्यते ॥२८॥ अनुवाद। अयुक्त (असावधान ), विवेकशून्य, अनम्र, शठ, परापमानकारी, अलस, विषादयुक्त और दीर्घसूत्री का तामस कह करके उक्त होते हैं ॥ २८॥ व्याख्या। जो एक विषयमें अधिकक्षण स्थिर नहीं रह सकता, बालक सदृश चपल बुद्धिवाला, विवेकशून्य, नम्रताशून्य, पेटके भीतर कुछ और मुह पर कुछ और कहनेवाला, थोडासा अपना स्वार्थ पूरण करनेके लिये जो दूसरेकी तैयार रोटीमें धूर डालता है, आलसी, सर्वदा जैसे नमककी किरती डूब गयी ऐसे विषण्ण होके रहता है, अभी जो कर्त्तव्य करना चाहिये-दस बीस दिनमें भी सो नहीं करता, ऐसे कर्त्ताको तामस कर्ता कहते हैं ॥ २८ ॥ बुद्धर्भेदं धृतेश्चैव गुणतस्त्रिविध शृणु। प्रोच्यमानमशेषेण पृथकत्वेन धनञ्जय ॥२६॥ अन्वयः। हे धनजय। बुद्धः धृतेश्च एव गुणतः त्रिविध भेदं पृथकत्वेन (विवेकतः ) अशेषेण प्रोच्यमानं ( कथ्यमानं ) शृणु ॥ २९ ॥
SR No.032601
Book TitlePranav Gita Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanendranath Mukhopadhyaya
PublisherRamendranath Mukhopadhyaya
Publication Year1998
Total Pages378
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith
File Size26 MB
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