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________________ षोड़श अन्याय २१७ "अहिंसा"-जाग्रतावस्था, स्वप्नावस्था प्रारै सुषुप्तिमें अन्तःकरण के भीतर प्राणी-पीड़न वृत्तिका अभाव (१० अः ५म श्लोक )। "सत्य"-अनृतवर्जन । परकृत अनिष्टसे उसका अनिष्ट करनेकी इच्छा अन्तःकरणमें न उठनेको “अक्रोध” कहते हैं। "त्याग'वैराग्य। प्राकृतिक क्रियाकी अत्यन्त निवृत्तिमें जो विश्राम, वही "शान्ति" है। "अपंशुनं"-पराई निन्दा-वर्जन। जीवका कल्याण करनेका नाम “दया" है। "अलोलुपता"-लालसा राहित्य । "मार्दव”-कुटिलता-शुन्य अवस्था। बुरे काम काजकी वृत्ति मनमें उदय होते मात्र आप ही आप उसकी प्रतिषेधक वृत्ति मनमें उठ करके जो अवगुण्ठन भाव आता है, उसीको "ही" वा लज्जा कहते हैं। प्रयोजनसे अधिक चञ्चलता न दिखलानेका नाम "अचपलता" है। "तेजः".-प्रताप; प्राण जाय सो भी कबूल, परन्तु अधिक्षेपादि को (निन्दादि की ) असहन, अर्थात् निन्दा सहन करना होगा, ऐसा कोई काम काज प्राणान्त होनेसे भी न करना ( ऐसा दृढ़ता)। "आमा"-प्रतिफल देनेकी शक्ति रहनेसे भी परकृत अनिष्टमें उपेक्षा करना। "धृति"-धारणावती शक्ति। "शौच" - मनकी स्थिरता ( १३ अः ७म श्लोक)। "अद्रोह"-परजियांसाभाववर्जन । "नातिमानिता”—मैं जैसा अधिकारी हूँ, दूसरेके पास उससे अधिक बड़ाई के लिये आकांक्षा न रखना। ___ यह सब वृत्ति जिस भाग्यवानके अन्तःकरणमें सदा विद्यमान हैं, हे भारत ! उन्होंको देवीसम्पद अभिमुखमें जात कहते हैं ॥१॥२॥३॥ दम्भो दर्पोऽभिमानश्च क्रोधः पारुष्यमेव च । अज्ञानं चाभिजातस्य पार्थ सम्पदमासुरीम् ।। ४ ॥ अन्वयः। दम्भः (धर्मध्वजित्वं), दर्पः (धनजनविद्यादिनिमित्त चित्तस्यौत्सुक्य), - अभिमानश्च ( आत्मन्यतिपूज्यत्वं ), क्रोधः, पारुष्यं ( निष्ठुरत्वं ) अज्ञानं (अवि
SR No.032601
Book TitlePranav Gita Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanendranath Mukhopadhyaya
PublisherRamendranath Mukhopadhyaya
Publication Year1998
Total Pages378
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith
File Size26 MB
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