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________________ त्रयोदश अध्याय १४३ सब भूत अपनी अपनी अवस्थामें अविकृत हैं, जो इन्द्रियोंसे ग्रहणीय नहीं, उन्हें ही महाभूत कहते हैं। इन भूतोंके एकत्रित सात्त्विक अंश से अन्तःकरणकी उत्पत्ति होती है। वृत्तिभेदसे इस एक अन्तःकरणको चार रूपसे समझा जाता है। सङ्कल्प विकल्पके समय मन, निश्चय करनेके समय बुद्धि, अहंप्रत्यय लक्षणमें अर्थात् "मैं", मैं ऐसा हूं, मैं वैसा हूं, इस प्रकारकी वृत्ति लेने के समय अहवार, और कृत कमके शोचन ( चिन्ता ) करनेके समय उसे चित्त कहते हैं। अन्यक्त कहते हैं सत्व रजः तमोगुणात्मिका मायाको; जिसे वाणी द्वारा प्रकाश नहीं किया जा सकता, वही अव्यक्त है। दशों इन्द्रियोंमें पांच कर्मेन्द्रिय और पाँच ज्ञानेन्द्रिय हैं, और एक मन है, जिसे एकादश इन्द्रिय कहते . हैं। इन्द्रियगोचर पाँच विषय हैं-शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्ध । श्रोत्रके गोचर शब्द, त्वचाके स्पर्श, चक्षुके रूप, रसनाके स्वाद और घ्राणेन्द्रियके गोचर गन्ध है। ___ "इच्छा" = प्रति आसक्ति। मेरे बिना और एकका नाम संग; जिस प्रकार मरुभूमिके गीसे झुलसा हुआ मनुष्यको बड़के पेड़के नीचे बैठकर चीनीके शर्बतमें निबूका रस डालकर पीनेके पश्चात् जो तृप्ति होती है। कालान्तरमें ऐसी अवस्था प्राप्त करने पर ऐसे समयमें उसकी जो स्मृति अथवा प्राप्ति की लालसा होती है, उसे ही इच्छा कहते हैं। 'द्वष' = कदापि कोई घोर अंधियारी रात्रिमें कण्टकमय जंगलमें पड़कर बहु यन्त्रणा भोगनेके पश्चात् ईश्वरकी कृपासे मुक्त हुए मनुष्यके हृदयमें उस अवस्थाको फिर कभी प्राप्त करनेका स्मरण होते ही जिस वृत्ति का उदय होता है, उसे ही द्वष कहते हैं। "सुख"अनुकूल प्राप्ति । "दुःख" = प्रतिकूल प्राप्ति ( सुखका परवत्ती मनोधर्म का नाम दुःख")। “संघात" = निविड़ संयोग; अर्थात् अणु परमाणुओंके परस्पर मिलनेसे इस प्रकारका एक भावापन्न होता है, जिससे उनमें भिन्नता बोध करानेके लिये किसी प्रकार छिद्र दिखाई
SR No.032601
Book TitlePranav Gita Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanendranath Mukhopadhyaya
PublisherRamendranath Mukhopadhyaya
Publication Year1998
Total Pages378
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith
File Size26 MB
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