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________________ ११६ श्रीमद्भगद्गीता : अनुवाद। हे परन्तप अर्जुन ! केवल अनन्य भक्तिसे ही इस प्रकार मुझको परमार्थत जानने, देखने, और हममें प्रवेश करने सकते हैं ॥ ५४॥ व्याख्या। जो साधक साधनके बलसे पराशक्तिको भी तापन करनेकी शक्ति रखते हैं, उन्हींको परन्तप कहते हैं । गुरु-वाक्यमें अटल विश्वास करके अबाधतः क्रियाका अनुष्ठान करते रहनेका नाम अनन्यभक्ति है। एक मात्र इसी अनन्यभक्तिसे इस विश्वरूपी अहंतत्त्व को ("मैं" को ) तत्त्वोंसे जाना जाता है-समझा जाता है, अर्थात् क्रम अनुसार पृथ्वीतत्व, रसतस्व, तेजस्तत्व, वायुतत्त्व, आकाशतत्त्व इत्यादि क्रमसे उठ करके आत्माका उस प्रकार स्वरूपका बोध होता है [ यही साधनका कर्मकाण्ड है ]; पश्चातू आत्माका साक्षात्कार लाभ होता है, अर्थात् विश्वरूपका प्रत्यक्ष दर्शन होता है [ यही उपासनाकाण्ड है ]; इसके बाद, उस विश्वरूपमें प्रवेश होता है, अर्थात् उस रूपको देखते देखते तन्मय होकर उसमें मिल जाता है-मोक्ष लाभ होता है [ यही ज्ञान-काण्ड है]। अतएव भक्ति बिना मुक्ति नहीं होती। इस श्लोकमें भक्ति-साधनका यह क्रम व्यक्त हुआ है;-प्रथम अनन्यभक्ति अर्थात् ऐकान्तिक आग्रहके साथ गुरूपदिष्ट मतामें श्रात्मक्रियाका अनुष्ठान है। तत्पश्चात् अपरोक्ष ज्ञान लाभ होता है। इसके बाद मुक्ति है। इससे समझा गया कि साधन क्रियाकी आदि अवस्था का नाम भक्ति, मध्य अवस्थाका नाम ज्ञान, और अन्त्य अवस्थाका नाम मुक्ति है। इसलिये लोग कहते हैं कि भक्ति ही मुक्ति है"भक्तिमुक्तिरेव सुनिश्चितम्" ॥ ५४॥ मत्कर्मकन्मत्परमो मतः संगवर्जितः। निव्वरः सर्वभूतेषु यः स मामेति पाण्डव ।। ५५ ॥ अन्वयः। हे पाण्डव ! यः मत्कर्मकृत् ( मदर्थ कर्मानुष्ठाता ) मत्परमः ( अहमेव परमः पुरुषार्थः यस्य सः ) मद्धतः ( ममाश्रितः ) सर्गवजितः (इन्द्रियार्थेषु
SR No.032601
Book TitlePranav Gita Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanendranath Mukhopadhyaya
PublisherRamendranath Mukhopadhyaya
Publication Year1998
Total Pages378
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith
File Size26 MB
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