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________________ २३४ श्रीमद्भगवद्गीता अनुवाद। उसी कारणसे कार्य तथा अकार्य व्यवस्था सम्बन्धमें शास्त्रहो तुम्हारा प्रमाण है। इस शास्त्र विद्यानोक्त कर्मको जान करके उसे ( साधन ) करनेके लियेयोग्य हो जाओ ॥ २४ ॥ व्याख्या। पूर्व श्लोककी व्याख्या में शास्त्र शब्दकी व्याख्या किया हुआ है। इस श्लोकमें कहा जाता है कि, कार्याकार्य निरूपणमें शास्त्र ही प्रमाण है। इसलिये विशेष करके शास्त्रका परिचय देना आवश्यक है। शास्त्रका परिचय पानेसे ही साधक इस श्लोकका गूढ़भाव हृदयजम कर सकेंगे। पूर्व व्याख्यामें कहा हुआ है कि, वायु शरीरको शासनमें रक्खे हैं,-पचप्राण रूपसे शारीरिक समस्त क्रिया चलाते हैं। इसलिये शरीर में वायु ही शास्त्र है। यह गीतामें है कि “वायुः सर्वत्रगो महान्" (हम अ६ष्ठ श्लोक)। इन्द्रिय वृत्तिसमूह तथा मन, बुद्धि, अहंकार और चित्तकी क्रिया भी वायुक्रियाके वशमें चालित है। इस शरीरमें वायुका शरणापन्न तथा सहचर होनेसे अर्थात् वायुके वशमें क्रिया करते हुए भक्ति-विनम्र हृदय द्वारा क्रम अनुसार वायुको सम और सूक्ष्म करके आयत्ताधीन कर लेनेसे सर्वशास्त्रवेत्ता तथा सर्वज्ञ हुआ जा सकता है, विभूतिभूषण हो करके ब्रह्मत्व लाभ भी किया जा सकता है। प्रश्नोपनिषदका ३य सूत्रमें है "प्राणाग्नय एवेतस्मिन् पुरे जापति" अर्थात् प्राणवायुरूप अग्नि ही इस शरीरमें जाप्रत गुरु है । इस वायुको क्रियाका नाम ही ब्रह्मविद्या है। कारण कि नायु ही ब्रह्म है। तैत्तिरीय उपनिषदमें है-"नमस्ते वायो त्वमेव प्रत्यक्ष ब्रह्मासि त्वामेव प्रत्यक्षं वदिष्यामि ऋतं वदिष्यामि सत्यं वदिष्यामि तन्मामवतु।" वायुका दो गुण है, शब्द और स्पर्श। गुरुगण कहते हैं कि, यदि वायु सूक्ष्म नाड़ीपथमें चालित होय तो, सप्तत्वचा शीतल बोध होती हैं, अव्यक्त स्पर्श सुखसे मनमें आनन्द सञ्चार होता है, और भीतर
SR No.032601
Book TitlePranav Gita Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanendranath Mukhopadhyaya
PublisherRamendranath Mukhopadhyaya
Publication Year1998
Total Pages378
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith
File Size26 MB
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