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________________ १८१ चतुर्दश अध्याय अनुवाद। हे भारत ! तमोगुण अज्ञानता से उत्पन्न है, इसलिये इसे सर्व. देहियें का भ्रान्तिजनक जानना। यह प्रमाद आलस्य और निद्रा द्वारा निबद्ध करता है ॥ ८॥ व्याख्या। आवरण शक्ति प्रधान अज्ञान नाम करके प्रकृतिका एक अंश है। उस अज्ञानतासे ही तमोगुणकी उत्पत्ति है। यह अज्ञानज तमः सब प्राणियोंको भ्रान्त करता है-आत्महारा करता है तथा प्रमाद, आलस्य और निद्रा द्वारा श्राबद्ध करता है। [ यह हुई प्रकृतिजात तमोगुणकी बात। परन्तु शुद्धतमः जो है, वह प्रकृतिकी विश्राम भूमिका है, जिसे कैवल्य स्थिवि कहते हैं। वह केवल, मुक्ति वा ब्राह्मीस्थिति है। प्राकृतिक क्रिया वहाँ नहीं पहुँचती ] ॥ ८॥ सवं सुखे साजयति रजः कर्मणि भारत । ज्ञानमावृत्य तु तमः प्रमादे सब्जयत्युत ॥६॥ अन्वयः। हे भारत ? सत्त्वं सुखे सञ्जयति (संश्लेषयति ), रजः कर्मणि सञ्जय ति, तमः तु ज्ञानं आवृत्य ( आच्छाद्य ) प्रमादे उत (अपि ) सञ्जयति ॥ ९॥ अनुवाद। हे भारत! सत्त्वगुण सुखमें तथा रजोगुण कर्ममें संयोजित करता है; और तमोगुण ज्ञानको आवृत करके प्रमाद में ही संयोजित करता है ।। ९ ॥ व्याख्या। सत्वगुण प्रकाशशील है और एक जगह बैठकर सबको प्रकाशित करता है। जिन सबको प्रकाश करता है वे सब बाध्य हो करके प्रकाशकके वशीभूत होते हैं, इसलिये प्रभुता आपही आप आती है। इस प्रकारकी अवस्था भोगको ही प्राकृतिक सुख कहते हैं। इस सुखके साथ सत्त्वगुण मिलन करा देता है। रजोगुण क्रियाशील है, कार्य करनेके लिये प्रेरणा करता है; वह एक जगह पर स्थायी नहीं है । इस गुणकी क्रिया केवल चञ्चलता है। यह गुण कर्म के साथ मिलन करता है। और तमोगुण ( अज्ञानता ), कर्म और
SR No.032601
Book TitlePranav Gita Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanendranath Mukhopadhyaya
PublisherRamendranath Mukhopadhyaya
Publication Year1998
Total Pages378
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith
File Size26 MB
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