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________________ २६३ अष्टादश अध्याय शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्ध ये सब कामनाकी वस्तुएं हैं, इसलिये इन सबको काम्य कहते हैं। कर्म-ब्रह्ममार्गमें वायुचालन। तब ही हुआ, ब्रह्ममार्गमें वायुका चालन भी होता है, पुनः खिसककर विषयपञ्चका स्मरण भी करा देता है; ऐसी मिलित अवस्थाका नाम काम्यकर्म है। (६ष्ठ अः २६ श्लोक )। जहां एक वस्तु दो बार देखनेमें नहीं आती, प्रतिक्षणमें ही नूतन उत्पत्ति होतो है, ऐसे स्थान में जो लोग रहते हैं, उन्हें लोग कवि कहते हैं। वह कविगण ऊपर कहे हुए काम्यकमके नाशको ही संन्यास कह करके जानते हैं। उस संन्यासका आकार इस प्रकार है-ब्रह्ममार्गमें वायुका चालन होता है, वायुके साथ मिला हुआ मन भी आया जाया करता है; परन्तु मनका लक्ष्यस्थल जो विष्णुपद है, उस लक्ष्यको मन छोड़ नहीं देता; इस अवस्थाका नाम संन्यास है। (क्रियावान् साधकको यह अवस्था । अच्छी तरह मालूम है )। और सर्वकर्मफलत्याग क्या ?-न, जब मन क्रिया करते करते उदास ( गांजा पीनेके बाद जैसे मूढ़ अवस्था आती है तैसे ) हो गया, क्रिया और मनके ख्यालमें नहीं है, मन कूटस्थमें अटक पड़ा है, विष्णुपदसे विचलित नहीं होता-आया जाया भी नहीं करता; परन्तु अभ्यासके गुणसे ब्रह्ममार्गके सब स्थानों में ही वायुचालन होता है, अभी भी बन्द नहीं हुआ; अर्थात् नित्य (ब्राह्मीस्थिति ) नैमित्तिक ( परावस्था भोग ) कर्ममें (प्राणचालनका) कोई बाधा नहीं, तथापि मन किसीमें लिप्त नहीं; ऐसी अवस्थाका नाम कर्मफलत्याग अवस्था है। जो साधक इस अवस्थामें जितने अधिक काल तक रह सकते हैं वे साधक उतने अधिक त्यागी हैं। और निरन्तर वास करनेवालेकी आख्या ही त्यागी है। जिस साधकको प्रकृति-पुरुषके ऊपर अबाध हकशक्तिका प्रक्षेप स्थायी हुई है, उन्हींको विचक्षण कहते हैं। वे लोग उस ऊपर कहे हुए अवस्थापन्न साधकों को त्यागी कहते हैं ॥२॥
SR No.032601
Book TitlePranav Gita Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanendranath Mukhopadhyaya
PublisherRamendranath Mukhopadhyaya
Publication Year1998
Total Pages378
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith
File Size26 MB
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