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________________ ३२२ श्रीमद्भगवद्गीता मायाका स्वरूप समझा नहीं जा सकता, क्योंकि वह अव्यक्त है। तथापि कार्य देख कर जिस प्रकार अनुमान किया जा सकता है, ऋषिगण तद्र प मायाके स्वरूपबोधक थोड़ा-सा कार्यात्मक नाम दिये हैं; जैसे-“सा माया पालिनी शक्तिः सृष्टिसंहारकारिणी", "अघटनघटनपटीयसी", "सा माहेश्वरी शक्तिः ज्ञानरूपातिलालसा, व्योमसंज्ञा पराकाष्ठा" इत्यादि । जैसे तेज वा उष्णत्व पदार्थ अब्यक्त है, उसके स्वरूपका किसी प्रकार वर्णन की नहीं जा सकती तथापि देखनेमें आता है कि अव्यक्त तेज वा उष्णत्व घनीभूत होनेसे ही व्यक्त हो करके अग्नि होती है, दाहशक्ति-सम्पन्न होती है, और उष्णत्वके संयोगसे पदार्थमें वेग उत्पन्न होता है, तरल पदार्थके आणविक आकर्षणके दूर होनेसे मूल उपादान समूह परस्पर पृथक् हो जाते हैं, और सकल पदार्थ हो उत्तप्त होता है इत्यादि, इस प्रकारकी क्रिया द्वारा ही तेजका स्वरूप जितना हो सके उतना समझा जाता है, माया सम्बन्धमें भी उसी तरह है, कार्य द्वारा कारणका स्वरूप निरूपण किया जाता है । इसीसे समझा जाता है कि, माया त्रिगुणमयी है अर्थात् उत्पत्ति, स्थिति, और लय इन तोन क्रियाशक्ति स्वरूपा है। मायाकी क्रियाशील अवस्था ही प्रकृति है। __ यह माया जब ब्रह्ममें मिलकर निष्क्रिय अवस्थामें रहती है, तब माया ब्राह्मीशक्ति है। अन्नशब्दमें ब्रह्म, परिपूर्ण है; उस परिपूर्णकी आश्रयीभूता शक्ति भी परिपूर्णा वह करके 'अन्नपूर्णा' नामक है। निष्क्रियावस्थामें शक्तिका प्रकाश नहीं है, इसलिये माया भी तब विभू ( सर्वमूर्त संयोगिनी) होती है। ज्योंही माया सृष्टिमुखी वृत्ति लेती है तत्क्षणात् उसकी शक्ति (प्रसूति ) नाम पड़ता है। शक्ति जहां है कार्य भी वहीं है। ज्योंही कार्यका प्रारम्भ हुआ तत्क्षणात् उसका नाम प्रकृति हुआ। प्रकृतिने १, २, ३, ४, ५, ६, ७, ८, ६ को प्रसव किया। यह समस्त ही पृथक् खण्ड, नानाभाव है। इस नानात्वका
SR No.032601
Book TitlePranav Gita Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanendranath Mukhopadhyaya
PublisherRamendranath Mukhopadhyaya
Publication Year1998
Total Pages378
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith
File Size26 MB
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