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________________ श्रीमद्भगवद्गीता प्रबल वायुको ताड़नाका बोध नहीं करता, उसी तरह तुम भी निलिप्त होकर माया और मायावियोंका भोग करते चलो। परिशेषमें कहते हैं-'हे सव्यसाची! मैंने इन सब लोगोंको पूर्व से ही निहत कर चुका है, इसमें तुम केवल निमित्त मात्र हो जाओ'। भगवानके इस वचनसे एक महान् जटिल समस्याकी मीमांसा हो गई । संसारमें मनुष्य 'मैं करता हूं मैं करता हूँ' इत्यादि कह करके वैषयिक अहंकारसे मतवाला होकर आत्महारा हो रहा है। असल में कर्ता क्या मनुष्य है ? नहीं, मनुष्य कर्त्ता कभी नहीं हो सकता; मनुष्य कम्मोका निमित्तमात्र है, कर्मके फल संयोजनके लिये अलग कोई एक अद्वितीय विधाता है। इसलिये मनुष्योंको कर्म मात्रमें अधिकार है, फलमें उनका अधिकार नहीं। मनुष्य निमित्त हो करके किसी एक कर्मका प्रारम्भ कर सकता है,-दो को अथवा उससे अधिक वस्तुओं को, (जैसे चूना हल्दी ) इकट्ठा मिला दे सकता है। यह मिला देनेकी क्रिया मनुष्योंके आधीन है, परन्तु चना और हल्दी परस्पर मिल करके रासायनिक क्रिया द्वारा उन दोनोंमें जो लाल रंग उत्पन्न होता है, उसमें मनुष्योंकी कोई शक्ति नहीं चलती। वही विधाताका ( उनका लाल रंगमें परिवर्तित होना) विधान है; उस विधानका कभी उल्लंघन नहीं होता। हल्दी और चुनेको इकट्ठे मिलानेसे सर्वदा लाल रंग ही होगा, कभी कोई काला या किसी दूसरे प्रकारके रंग नहीं कर सकता। उसी प्रकार जलजन् वाष्प ( हाईड्रोजन ) दो अंश, और अम्लजन् वाष्प ( अक्सिजेन् ) एक अंश एक साथ मिलनेसे जल उत्पन्न होवेगाही; इसका व्यतिक्रम कोई कभी भी कर नहीं सकता। ये सब विधान सृष्टिके पहले ही से बँधा हुआ है। अतएव जबही उस प्रकार कर्माका अनुष्ठान होगा, तब फल भी लसी प्रकारका फलेगा। जगत्के प्रत्येक व्यापारमें ही कर्म और कर्मफलविधानके सम्बन्धमें सर्वदा यही एक नियम अटल है, मनुष्य निमित्त
SR No.032601
Book TitlePranav Gita Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanendranath Mukhopadhyaya
PublisherRamendranath Mukhopadhyaya
Publication Year1998
Total Pages378
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith
File Size26 MB
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