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________________ ३०८ श्रीमद्भगवद्गीता फलयोस्त्यागलक्षणेन ) परमा नैष्कर्म्यसिद्धि ( सर्वकर्मनिवृत्तिलक्षणां सत्त्वशुद्धि ) अधिगच्छति ( प्राप्नोति) ॥ ४९ ॥ अनुवाद। सर्व विषयमें अनासक्तचित्त, निरहंकार तथा स्पृहाशून्य मनुष्य ( कर्मासकि और कर्मफलका त्यागरूप ) संन्यास द्वारा परम नष्कर्म्यसिद्धिको प्राप्त होते हैं ॥ ४९ ॥ व्याख्या। श्रीभगवान पहले ही कहे हैं कि स्वकर्म द्वारा ईश्वराचना करनेसे मानव सिद्धिलाभ करता है। किस प्रकारसे स्वकर्म साधन करेगा और किस प्रकारकी सिद्धि लाभ भी करेगा, वही बात समझानेके लिये कहते हैं कि सर्वत्र अनासक्त होकर कर्मका अनुष्ठान करो, जितात्मा और स्पृहाशून्य हो करके अर्चना करो, ऐसा होनेसे ही परमा नैष्कर्म्यसिद्धि अर्थात् सर्वकर्म-निवृत्तिरूप सत्वशुद्धिको प्राप्त होंगे; अर्थात् जिसकी बुद्धि पुत्र दारा गृहादिको सार कह करके निश्चय नहीं करती, क्रिया विशेष द्वारा मन-बुद्धि-अहंकार-चित्त जिसके अपने आयत्त हो चुके, जिसको किसी प्रकार भोगरागमें इच्छा मात्रका उद्रेक नहीं होता; वही पुरुष ( सर्वनाशका) द्वारा उत्कृष्ट नैष्कर्म्यसिद्धि (ब्राह्मी स्थिति ) को पाता है (३ य अः ४ श्लोक देखो)॥४६॥ सिद्धि प्राप्तो यथा ब्रह्म तथाप्नोति निबोध मे। समासेनैव कौन्तेय निष्ठा ज्ञानस्य या परा ॥५०॥ अन्वयः। हे कौन्तेय ! सिद्धि ( नंष्कर्म्यसिद्धि ) प्राप्तः सन् यथा (येन प्रकारेण) ब्रह्म आप्नोति तथा (तत्प्रकारं ) समासेन एव ( संक्षेपेणवं ) मे ( मम वचनात् ) निबोध, या (या प्रतिष्ठा ब्रह्मप्राप्तिः) ज्ञानस्य परानिष्ठा ( पर्यवसानं परिसमाप्तिरित्यर्थः) ॥५०॥ अनुवाद। हे कौन्तेय ! सिद्धि प्राप्त होकर फिर जिस प्रकारसे ब्रह्म प्राप्त होता है, उसे संक्षेपमें हमसे सुन लो, जो (जो ब्रह्मप्ताप्ति ) ज्ञान की परानिष्ठा ( चरम परिसमाति) है॥५०॥
SR No.032601
Book TitlePranav Gita Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanendranath Mukhopadhyaya
PublisherRamendranath Mukhopadhyaya
Publication Year1998
Total Pages378
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith
File Size26 MB
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