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________________ त्रयोदश अध्याय १५५ व्याख्या। "महाभूत” के श्रादिसे लेकर "धृति” पर्यन्त क्षेत्र, . 'अमानित्व' से प्रारम्भ करके 'तत्त्वज्ञानार्थ-दर्शन' पर्य्यन्त ज्ञान अनादिमत्से शुरू करके 'हृदि सर्वस्य विष्ठितं' पर्यन्त ज्ञ य सम्बन्धमें संक्षेपसे तुमको मैं कह चुका। “मैं” के जो भक्त ( अर्थात् जो भव सागरका दगा खाकर 'मैं' में मिलकर मुक्ति लेना चाहेगा) वह इन तीनों विषयों की आलोचना करते करते 'तत्' के स्वरूप अवगत होनेसे ही “मैं” के भावमें मतवाला होकर “मैं” ( मुझ ) को पाबेगा ॥ १६ ॥ प्रकृति पुरुषचव विद्धयनादी उभावपि । विकारांश्च गुणाश्च व विद्धि प्रकृतिसम्भवान् ॥ २० ॥ अन्वयः। तत्र सप्तमे ईश्वरस्य द्वे प्रकृती उपन्यस्ते परापरे क्षेत्रक्षेत्रज्ञलक्षणे, "एतद्योनौनि भूतानि” इति वाक, क्षेत्रक्षेत्रज्ञप्रकृतिद्वययोनित्वं कथंभूतानां इत्ययमर्थोऽधुनोच्यते । प्रकृति पुरुष चंव ( ईश्वरस्य प्रकृती, तौ प्रकृतिपुरुषौ ) उभौ अपि अनादा (न विद्यते आदिर्थयोः तौ अनादी) विद्धि (नित्यत्वादोश्वरस्य तत्प्रकृत्योरपि युक्त नित्यत्वेन भवितु)! विकारांश्च ( देहेन्द्रियादीन् ) गुणांश्च ( गुणपरिणामान् सुख दुःखमोहादीन् ) प्रकृतिसम्भवान् ( प्रकृतेः सम्भूतान् ) विद्धि ( जानीहि ) ॥ २० ॥ अनुवाद। प्रकृति और पुरुष दोनों को ही अनादि जानना, सब विकार और सब गुणको प्रकृतिसे ही सम्भूत जानना ॥ २० ॥ व्याख्या। [सप्तम अध्यायमें ईश्वरका क्षेत्रक्षेत्रज्ञ लक्षण अपरा एवं परा नामसे दोनों प्रकृतिकी कथा कही गई है। वहां कहा हुआ है कि, सब भूत इन दो प्रकारकी प्रकृतियोंसे जात ( उत्पन्न ) हैं। सब भूत किस प्रकारसे इस क्षेत्रक्षेत्रज्ञ लक्षण दोनों प्रकृतिसे उत्पन्न है, इसे ही समझानेके लिये भगवान अब प्रकृति पुरुषके लक्षणादि वर्णन करते हैं। अब साधक प्रकृति-पुरुषका विचार करते हैं। प्रकृति-प्र-प्रकृष्ट पूर्वक, कृति-करते हैं जो। अब निश्चय हुआ कि, यथार्थमें जो कार्य
SR No.032601
Book TitlePranav Gita Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanendranath Mukhopadhyaya
PublisherRamendranath Mukhopadhyaya
Publication Year1998
Total Pages378
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith
File Size26 MB
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