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चतुर्दश अध्याय पदार्थों में वर्तमान है। वही तेज एक स्थानमें जमते जमते-उष्णता बढ़ते बढ़ते क्रम अनुसार जैसे जम करके घन हो करके ज्योतिर्मयरूप धारण करके अग्निशिखा नाम लेते हैं, तैसे सर्वव्यापी अतिसूक्ष्म अदृश्य चैतन्यसत्त्वा (ब्रह्मपदार्थ) कूटमें धन होकर प्रकाश रूप धारण कर "अहं” नाम ग्रहण करते हैं। इसलिये इस "अह” वा “मैं” को घनचैतन्य कहते हैं। इस कारण करके ही अरूप ब्रह्मकी प्रतिष्ठा (प्रतिमा मूत्ति वा रूप) है "अह" -मैं। ब्रह्म अव्ययस्वरूप, अमृतस्वरूप शाश्वत धर्मस्वरूप और ऐकान्तिक सुखस्वरूप है। परन्तु "अहं" ब्रह्मकी प्रतिमा हूँ। इसलिये परमानन्दरूप यह "अहं"-कूटस्थचैतन्य उत्तम-पुरुष इन सबकी ही प्रतिष्ठा है ॥ २६ ॥ २७ ॥
इति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे __ श्रीकृष्णार्जुन संपादे गुणत्रयविभागयोगो नाम
चतुर्दशोऽध्यायः ।
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