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________________ १०६ श्रीमतगवद्गीता उपमा साधारण और स्वाभाविक है; यथा-समप्राणतासे सखाके पास सखाका, प्रियके पास प्रियाका, और पिताके पास पुत्रका अपराध जैसे ग्रहणयोग्य नहीं होता, क्षमा ही क्षमा प्रकाश रहती है, उसी तरह तुम हमारे समस्त अपराधको क्षमा करो ॥४४॥ . अहष्टपूर्व हृषितोऽस्मि दृष्ट्रा . भयेन च प्रव्यथितं. मनो मे। तदेव मे दर्शय देव रूपं प्रसीद देवेश जगन्निवास ॥४५॥ अन्वयः। हे देव ! अदृष्टपूर्व ( इदं विश्वरूपं ) दृष्ट वा हृषितः (हृष्टः ) . अस्मि मे मनः च भयेन प्रव्यथितं (प्रचलितं ), ( अतः ) तत् रूपं एव मे दर्शय; हे देवेश ! हे जगन्निवास प्रसीद ॥ ४५ ॥ अनुवाद। हे देव ! मैं अदृष्टपूर्व ( इस विश्वरूप ) का दर्शन करके हृष्ट हुआ हूँ, परन्तु अब मेरा मन भयभीत हुआ है; अतएव मुझको अपना वही रूप दिखाइये; हे देवेश ! हे जगन्निवास ! प्रसन्न होइये ॥ ४५ ॥ . व्याख्या। जिसे और कभी पूर्वकाल में नहीं देखा गया, तुम्हारे उसी विश्वरूपका दर्शन करके मैं उल्लसित हुआ हूं, परन्तु अपरम्पार रूप-तरंगमें पड़कर मेरा मन भयविह्वल हुआ है। हे जगन्निवास ! आप मेरे ऊपर प्रसन्न हो करके अपना पहला वाला वही छायाविहीन तेजस देवेश रूप मुझको दिखाइये ॥ ४५ ॥ किरीटिनं गदिनं चक्रहस्त मिच्छामि त्वां द्रष्टुमहं तथैव । तेनैव रूपेण चतुर्भुजेन सहस्रबाहो भव विश्वमूचें ॥ ४६॥ अन्धयः। अहं त्वां तथा एव ( यथा पूर्व दृष्टोऽसि ) किरीटिनं गदिनं चक्रहस्तं
SR No.032601
Book TitlePranav Gita Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanendranath Mukhopadhyaya
PublisherRamendranath Mukhopadhyaya
Publication Year1998
Total Pages378
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith
File Size26 MB
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