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________________ एकादश अध्याय १०५ तस्मात् प्रणम्य प्रणिधाय कायं प्रसादये त्वामहमीशमीड्यम् । पितेव पुत्रस्य सखेव सख्युः । प्रियः प्रियायार्हसि देव सोढुम् ।। ४४ ॥ अन्वयः। हे देव ! तस्मात् अहं कायं ( शरीरं ) प्रणिधाय ( नीचर्धत्वा दण्डवत् निपात्य ) प्रणम्य ( प्रकर्षेण नत्वा ) ईशं ईढ्य ( स्तुत्यं ) त्वां प्रसादये; पुत्रस्य ( अपराधं ) पिता इव ( यथा क्षमते), सख्युः ( अपराधं ) सखा, प्रियायाः (अपराध) प्रियः इव ( यथा क्षमते), ( तथा ) सोढुम् ( मम अपराधं क्षन्तु) अर्हसि ॥ ४४ ॥ ____ अनुवाद। हे देव ! इसलिये मैं शरीरको दण्डवत् गिराकर प्रणाम करके सर्वनियन्ता वन्दनीय तुमको प्रसन्न करता है। पिता जेसे पुत्रका अपराध क्षमा करता है, सखा जैसे सखा का और प्रिय जैसे प्रियाका अपराध क्षमा करते हैं, उस प्रकार तुम मेरे अपराधको क्षमा करो ॥ ४४ ॥ व्याख्या काय कहते हैं शरीरका मध्यभाग अर्थात् मेरुदण्ड (पीठकी रीढ़ ) को आश्रय करके जो अंश वर्तमान है, उसको। प्रणिधाय कहते है, दण्डवत् नीचे धारण करनेको। ईश्वरका प्रसाद प्राप्त करनेके लिये प्रणाम करनेका क्रम यही है; यह साधनाका उच्चतर-क्रम है। अर्थात् कायको दण्डवत् दृढ़ करके नीचेकी ओर फेकना होता है; नीचे फेकनेका अर्थ है गुरूपदेशके क्रमसे पञ्चतत्वके ऊपर उठना होता है, ऊपर उठ जानेसे ही-मनसे देहको पृथक करके केवल चित्का अवलम्बन करनेसे ही "प्रणिधाय काय” होता है। (यह अवस्था साधनमें निजबोधगम्य है )। इस प्रकार अवस्थापन्न हो करके प्रात्ममन्त्रके सहारेसे नादज्योतिके साथ मनको विष्णुपद फेकनेसे ही "प्रणम्य प्रणिधाय कायं” यह क्रिया होती है; यह तो आज्ञाचक्रके ऊपरको क्रिया हुई-जिसे शरीराभिमान वजित मानसक्रिया कहते इससे ईश प्रसन्न होते हैं *। प्रसन्न करनेके लिये प्रार्थनाकी ये तीन * इसलिये भगवान अष्टावक्र कहते हैं- “यदि देह पृथक् कृत्वा चिति विश्राम्य तिष्ठसि । अधुनेव सुखो शान्तो बन्धमुक्तो भविष्यसि ॥"
SR No.032601
Book TitlePranav Gita Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanendranath Mukhopadhyaya
PublisherRamendranath Mukhopadhyaya
Publication Year1998
Total Pages378
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith
File Size26 MB
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