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________________ १३० श्रीमद्भगवद्गीता साधनका फल जिसने पा लिया है, वही मेरा भक्त है; इसलिये वही मेरा प्रिय अर्थात् “मैं” हूँ ॥ १६ ॥ यो न हृष्यति न द्वोष्टि न शोचति न काक्षति । शुभाशुभपरित्यागी भक्तिमान् यः स मे प्रियः ॥ १७॥ अन्वयः। यः (प्रियं प्राप्य ) न हृष्यति, (अप्रियं प्राप्य ) न द्वष्टिा ( इष्टार्थनाशे सति ) न शोचति, (अप्राप्त अर्थ) न कांक्षति, यः शुभाशुभपरित्यागी भक्तिमान् सः मे प्रियः ॥ १७॥ . अनुवाद। जो साधक (प्रियवस्तुके लामसे ) हृष्ट नहीं होता, ( अप्रियके मिलनेसे ) द्वेष नहीं करता, (इष्टके नाशसे ) शाक नहीं करता, (अप्राक्तवस्तुकी) आकांक्षा नहीं करता, जो शुभाशुभ परित्यागी और भक्तिमान है; वही मेरा प्रिय है ॥ १७॥ व्याख्या। जिस भक्तिमान साधकको इष्ट प्राप्तिसे आनन्द अनिष्ट प्राप्तिसे विद्वेष, प्रियजनके विरहसे शोक, अप्राप्त वस्तुको प्राप्ति की लालसा अन्तर्बाह्यमें उदय नहीं होती, धर्म अथवा अधर्म करनेकी इच्छा जिसके हृदय में उत्पन्न नहीं होती; उपयुक्त अवस्थाएं जो पाये वे ही साधक हमारे प्रिय हैं। साधक, तुम देखो, ये जो कई अवस्थाएं हमने वर्णन की हैं, उन्हें प्राप्त करना और “मैं” हो जाना बराबर है॥१७॥ समः शत्रौ च मित्रे च तथा मानापमानयोः। .. शीतोष्णसुखदुःखेषु समः संगविवर्जितः ॥ १८ ॥ तुल्यनिन्दास्तुतिमौ नी सन्तुष्टो येन केनचित् । अनिकेतः स्थिरमतिर्भक्तिमान मे प्रियो नरः ॥ १६ ॥ - अन्वयः। शत्रौ च मित्रे च तथा मानापमानयोः समः ( एकरूपः ) शीतोष्णसुखदुःखेषु समः संगविवजितः (क्वचिदप्यनासक्तः) तुल्यनिन्दास्तुतिः, मौनी
SR No.032601
Book TitlePranav Gita Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanendranath Mukhopadhyaya
PublisherRamendranath Mukhopadhyaya
Publication Year1998
Total Pages378
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith
File Size26 MB
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