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________________ द्वादश अध्याय १३१ ( संयतवाक ), येन केन चित् ( यथालब्धेन ) सन्तुष्टः, अनिकेतः ( नियतवासशून्यः), स्थिरमतिः ( व्यवस्थितचित्तः ), भक्तिमान् नरः मे प्रियः ।। १८ ॥ १९॥ ___ अनुवाद। शत्र, मित्र, मान और अपमानमें समदृष्टि सम्पन्न; शीत-उष्ण-सुख· दुःखमें समान ज्ञान विशिष्ट; आसक्तिरहित; निन्दा और स्तुतिमें समभावापन्न मौनी; जो कुछ हो उसीमें सन्तुष्ट; अनिकेत ( आश्रयशून्य ); स्थिरमति ऐसे जो भक्तिमान नर हैं वे ही हमारे प्रिय हैं ।। १८ ॥ १९॥ व्याख्या। संग कहते हैं इच्छाको; यदि इस इच्छाको अन्तःकरण से हटा दिया जाय तो, शत्रु ( विरोधी), मित्र (अनुकूल वा एकक्रिय ), मान ( पूजा ), अपमान (तिरस्कार), शीत (शीतलता बोध), उष्ण ( लत्ताप बोध ), सुख (जिससे अन्तःकरण तृप्त होता है), दुःख ( तद्विपरीत ), निन्दा ( अपवाद ), स्तुति (प्रशंसा), इत्यादि इन सब परस्परविरोधी वृत्तियोंकी विषमता नष्ट हो जाती है। उस समय मौनी ( संयतवाक् ), जो कुछ है उसीसे सन्तुष्ट, अनिकेत (ब्रह्मवत् आश्रय विहीन ), स्थिरमति (जिसका चित्त ब्रह्ममुखी होकर स्थिर हो चुका है ), इत्यादि भाव साधकमें आता है। मनुष्योंमें जो नर इस अवस्थापन्न है वही मेरा प्रिय है अर्थात् वही आत्मस्वरूप लाभ कर चुका है ॥ १८ ॥ १६ ॥ ये तु धर्मामृतमिदं यथोक्तं पय्युपासते। श्रद्दधाना मत्परमा भक्तास्तेऽतीव मे प्रियाः ॥२०॥ अन्वयः। ये तु इदं धर्मामृतं यथा उक्त ( अद्वेष्टासर्वभूतानामित्यादिवा ) पर्युपासते ( अनुतिष्ठन्ति ); श्रद्दधानाः ( श्रद्धा कुर्वन्तः ) मत्परमा ( मत्परायणाः ) ते भकाः मे अतीव प्रियाः ॥२०॥ अनुवाद। जो साधक इस अमृत रूपी धर्मका, जैसा वर्णन किया गया है, ठीक उसी प्रकार अनुष्ठान करते हैं, श्रद्धाशोल और मत्परायण वे भकगण ही मेरे अतीय प्रिय है ॥२०॥
SR No.032601
Book TitlePranav Gita Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanendranath Mukhopadhyaya
PublisherRamendranath Mukhopadhyaya
Publication Year1998
Total Pages378
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith
File Size26 MB
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