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________________ १३४ श्रीमद्भगवद्गीता है ? जिससे इस क्षेत्र वा क्षेत्रको जाना जाता है, वह ज्ञान भी क्या है ? और मेरे जो कुछ जानने लायक वस्तु (ज्ञय ) वह भी क्या है ? हे केशव ! इस समय मुझे आप यही सब समझा दीजिये ॥१॥ श्रीभगवानुवाच । इदं शरीरं कौन्तेय क्षेत्रमित्यभिधीयते। एतद यो वेत्ति तं प्राहुः क्षेत्रज्ञ इति तद्विदः ॥२॥ अन्वयः। श्रीभगवान् उवाच । हे कौन्तेय । इदं ( भोगायतनं ) शरीरं क्षेत्र इति अभिधीयते (कथ्यते, संसारस्य प्ररोहभूमित्वात् ); यः यतत् ( शरीरं ) वेत्ति ( जानाति, अस्य शरीरस्य साक्षीस्वरूपेण वर्तते इत्यर्थः) तद्विदः ( तस्य साक्षिण: स्वरूपज्ञा ) तं ( वेदितारं साक्षिणं ) क्षेत्रज्ञः इति प्राहुः ।। २ ।। . अनुवाद। श्रीभगवान कहते हैं। हे कौन्तेय । इस शरीरको क्षेत्र कह करके अभिहित किया जाता है। जो इसे जानते हैं ( अर्थात् इसके ज्ञाता और साक्षीस्वरूपमें वत्त'मान हैं ), उन्हें क्षेत्रज्ञ कहते हैं ॥२॥ व्याख्या। इस शरीरको क्षेत्र कहते हैं। क्योंकि जिस प्रकार किसी क्षेत्रमें बीज बोनेसे जैसे हवा, गर्मीकी सहायतासे मिट्टीके गुण अनुसार तथा कृषि-कर्मके फलसे बीजका अनुरूप फल उत्पन्न होता है, उसी प्रकार इस शरीरमें भी (कर्म-फल तो उत्पन्न होता ही रहता है, परन्तु इसे छोड़ करके ) गुरुपदेशरूप बीजको बोनेसे प्राणयोगमें ऐकान्तिक इच्छा-प्रभावसे और गुणक्रियाके फलसे अभीष्ट फल उत्पन्न होता है। तत्वदर्शियोंने इस शरीरके कार्यकारण स्वरूपका निर्णय करके देखा है कि, यह त्रिगुणमय चौबीस तत्वोंसे निर्मित हुआ है, और इसका स्थूल, सूक्ष्म और कारण ये तीन प्रकारके रूप हैं, अन्नमय, प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय, और प्रानन्दमय ये पांच प्रकारके कोश हैं,-जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति ये तीन प्रकारके अवस्था हैं। और यह भी देखा है कि, इस स्थूल, सूक्ष्म और कारण शरीरको छोड़कर पञ्चकोशसे अतोत, अवस्थाओंका साक्षी, सच्चिदानन्द
SR No.032601
Book TitlePranav Gita Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanendranath Mukhopadhyaya
PublisherRamendranath Mukhopadhyaya
Publication Year1998
Total Pages378
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith
File Size26 MB
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