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________________ । एकादश अध्याय १०३ रहता है। इसलिये तुम अनन्त हो। अतएव तुम्हारा वीर्य और विक्रम भी अनन्त है। हे अनन्त ! तुमको नमस्कार है ॥४०॥ सखेति मत्वा प्रसभं यदुक्तं हे कृष्ण हे यादव हे सखेति ।। अजानवा महिमानं तवेदं मया प्रमादात् प्रणयेन वापि ॥४१॥ यच्चावहासार्थमसतकृतोऽसि विहारशय्यासनमोजनेषु । एकोऽथवाप्यच्युत तत्समक्षं __तत् क्षामये त्वामहमप्रमेयम् ॥ ४२ ॥ अन्धयः। हे अच्युत ! तव इदं महिमानं ( माहात्म्यं तवेदमीश्वरस्य विश्वरूप) अजानता ( अज्ञानिना ) मया प्रमादात् (विक्षिप्तचित्ततया ) प्रणयेन (स्नेहेन ) पा अपि सखेति मत्वा ( समानवया इति ज्ञात्वा ) “हे कृष्ण, हे यादव, हे सखे" इतिः यत् प्रसभं (हठात् तिरस्कारण ) उक्त, यत् च अबहासार्थ (परिहासप्रयोजनाय ) विहारशय्यासनभोजनेषु (क्रीड़ादिषु ) एकः ( केवलः पखीन् विना रहसि स्थितः) अथवा तत् समक्ष ( तेषां परिहसतां सखीनां पुरतोऽपि ) असत्कृतः (तिरस्कृतः) असि, तत् ( सर्वमपराधजातं ) अहं अप्रमेयं (अचिन्त्यभाषं) त्वां क्षामये (क्षमा. कारये) ॥४१॥४२॥ अनुवाद। हे अच्युत। तुम्हारी यह महिमा मैं न जान करके प्रमाद वशतः अथवा प्रणय वशतः मनमें तुमको सखा मान कर "हे कृष्ण, हे यादव, हे सखे" इत्यादि जो हठात् तिरस्कार भाषसे सम्बोधन किया है, और जो परिहास करनेके लिये विहार शयन, उपवेशन और भोजन समयमें अकेले अथवा सबके सामने तिरस्कृत हुए हो, इसलिये मैं अप्रमेय तुमसे क्षमा चाहता हूँ॥४१॥ ४२ ॥ व्याख्या। हे नाथ! तुम महानसे भी महान् हो; तुम्हारी महिमा न जान करके साथी ज्ञान करके मैं प्रमादके घेरमैं और प्रणयः
SR No.032601
Book TitlePranav Gita Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanendranath Mukhopadhyaya
PublisherRamendranath Mukhopadhyaya
Publication Year1998
Total Pages378
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith
File Size26 MB
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