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________________ ३६४ श्रीमद्भगवद्गीता योऽभिमानेन गण गीतानिन्दा करोति । समेति नरकं घोरं यावदाहूतसंप्लवम् च ॥ ७४ ॥ अहंकारेण मुढ़ात्मा गीतार्थ नैव मन्यते । कुम्भीपाकेषु पच्येत यावत्, कल्पक्षयो भवेत् ॥ ५५ ॥ गीतार्थ वाच्यमानं यो न शृणोति समीपतः । स शूकरमवां योनिमनेकामधिगच्छति ॥ ७६ ।। चौय्यं कृत्वा च गीतायाः पुस्तकं यः समानयेत् । न तस्य सफल किंचित् पठनं च वृथा भवेत् ॥ ७७ ॥ यः श्रुत्वा नैव गीतार्थ मोदते परमार्थतः । नैव तस्य फलं लोके प्रमत्तस्य यथा श्रमः ॥ ७८ ॥ गीता श्रुत्वा हिरण्यं च भोज्यं पट्टाम्बरं तथा । निवेदयेत् प्रदानार्थ प्रीतये परमात्मनः ॥ ७ ॥ जो लोग अभिमानसे वा गर्वके वश गीताकी निन्दा करते हैं, वे प्रलय काल तक घोर नरकमें जाते हैं ॥ ७४ ॥ जो मूढ़ात्मा अहंकारके वश गीतार्थका मान्य नहीं करता है, वह कल्पक्षय पर्यन्त कुम्भीपाकमें पचता है ।। ७५॥ गीतार्थ कथित होनेके समय निकटमें रह करके भी जो श्रवण नहीं करता है वह अनेक वार शूकरयोनिको प्राप्त होता है ॥ ७६ ॥ जो गीताकी पुस्तक चोरी करता है उसको कुछ सफल नहीं होता और उसका पाठ भी वृथा होता है ॥ ७ ॥ ___ जो गीतार्थ श्रवण करके परमार्थतः आनन्दित नहीं होता, जगत् में प्रमत्तके परिश्रमके सदृश उसका कुछ फल नहीं मिलता ॥ ८ ॥ गीतार्थ श्रवण करके परमात्माकी प्रीतिके निमित्त सुवर्ण, भोग्य द्रव्य और पट्ट वस्त्र प्रदान के लिये निवेदन करना चाहिये ॥ ७ ॥
SR No.032601
Book TitlePranav Gita Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanendranath Mukhopadhyaya
PublisherRamendranath Mukhopadhyaya
Publication Year1998
Total Pages378
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith
File Size26 MB
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