SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 322
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अष्टादश अध्याय ३१३ पृथकत्व स्वीकार नहीं रहेगा। तत्त्व, प्रकृति, माया आदिका भ्रम एकबारगी उड़ जावेगा ( जैसे कपूर )। इसीको ही "तत्त्वतोज्ञात्वा" जानना। इसके बाद साधक विस्तार होनेका क्रम लेकर मिल जाने चलते हैं, जैसे दो नौका में पग दिया हूँ, एक नौकासे पगको उठा लेनेसे ही तत्क्षणात् एकही नौकाका आश्रय हो जाता है, उसी प्रकार जानना ॥ ५५ ॥ सर्वकर्माण्यपि सदा कुर्वाणो मद्वयपाश्रयः । मत्प्रसादादवाप्नोति शाश्वतं पदमव्ययं ॥ ५६ ॥ अन्वयः। [स्वकर्मभिः परमेश्वराराधनादुक्त मोक्षप्रकारं उपसंहरति सर्वकर्माण्येति । ] सदा सर्वकर्माणि कुर्वाणः अपि मद्वयपाश्रयः ( अहं वासुदेव ईश्वरो व्यपाश्रयो यस्य सः मय्यपितसर्वात्मस्वभाब इत्यर्थः ) मत्प्रसादात् शाश्वतं (अनादि) अव्ययं ( नित्यं सर्वोत्कृष्ट ) पद अवाप्नोति ।। ५६ ॥ अनुवाद। सर्वदा सकल प्रकारका कम करके भी "मद्वयपाश्रयः" साधक मेरे प्रसादसे शाश्वत अव्यय पदको प्राप्त होते हैं ॥ ५६ ।। • व्याख्या। मैं वासुदेव ब्रह्म, सबका आश्रय हूं; परन्तु आप खुद निराश्रय हूँ; ऐसे "मैं" का कार्य कर्म भी सब निराश्रय है। इसलिये कहता हूँ कि, जितना ही कर्म हो निराश्रय होकर ऐसे अटक रह जा सकने से इस “मैं” की प्रसन्नतासे शाश्वत जो अव्यय पद है, वह अभ्यास द्वारा आपही आप आ जाता है ॥ ५६ ॥ चेतसा सर्वकर्माणि मयि संन्यस्य मत्परः । - बुद्धियोगमुपाश्रित्य मच्चित्तः सततं भव ॥ ५७ ॥ अन्वयः। सर्वकर्माणि ( दृष्टादृष्टार्थानि ) चेतसा (विवेकबुद्धया ) मयि ।ई वरे ) संन्यस्य ( यत्करोषि यदश्नासि इत्युक्तन्यायेन समl) मत्परं ( अहं वासुदेवः परः प्राप्यः पुरुषार्थो यस्य सः त्वं मत्परः सन् ) बुद्धियोगं ( व्ययसायात्मिकया
SR No.032601
Book TitlePranav Gita Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanendranath Mukhopadhyaya
PublisherRamendranath Mukhopadhyaya
Publication Year1998
Total Pages378
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith
File Size26 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy