SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 323
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३१४ श्रीमद्भगवद्गीता बुद्धया योगं ) उपाश्रित्य सततं ( सर्वदा कर्मानुष्ठान कालेऽपि ब्रह्मार्पणं ब्रह्म हविः इति : न्यायेन ) मच्चित्तः भव ॥ ५ ॥ अनुवाद। तुम विवेकबुद्धि द्वारा सव कर्मको “मैं" में अर्पण करके मत्परायण हो कर बुद्धियोगके आश्रय पूर्वक मच्चित्त हो जाओ ॥ ५ ॥ व्याख्या। पहिले १४ श्लोकमें जो बारह करणकी कथा कही हुई है उन करण समूहसे जो कुछ किया जाय, उन सबका ही नाम सर्व कर्म है। उस कर्म समूहको चित्तमें फेंक देनेसे ही नीचेवाला करण और कर्मों के अभावका नाम ही बुद्धियोग है। बुद्धियोगके पश्चात् चित्तक्षेत्रमें केवल कर्म समष्टिका संस्कार रहता है। चित्तके द्वारा उस कर्मसंस्कारको "मैं' में फेंकनेसे ही कर्मसंस्कार दग्ध हो जाता है। कर्मसंस्कारके दग्ध होनेके बाद चित्त "चित्” में अर्थात् “मैं” में पड़ करके "चित्” हो जाता है। इसलिये कहता हूँ कि, तुम ऐसी बुद्धियोगका आश्रय करके, सर्व कर्मको चित्तके सहारेसे “मैं” में फेंक. के नाश करके अविच्छेद रूपसे मच्चित्त हो जाओ ।। ५७ । मञ्चित्तः सर्वदुर्गाणि मत्प्रसादात् तरिष्यसि । अथचेत्स्वमहंकारान्न श्रोष्यसि विनंक्ष्यसि ॥ ८ ॥ अन्वयः। मच्चित्तः सन् मत्प्रसादात् सर्वदुर्गाणि ( सर्वाण्यपि दुर्गाणि दुस्तराणि सांसारिकदुःखानि ) तरिष्यसि; अथचेत् ( यदि ) त्वं अहंकारात् ( पण्डितोऽहमिति ज्ञातृत्वाभिमानात् ) न श्रोष्यसि ( मदुक्तं न अहिष्यसि ) तहिं विनंक्ष्यसि (पुरुषार्थात् भ्रष्टो भविष्यसि ) ॥ ५८॥ अनुवाद। मच्चित्त होनेसे मेरे प्रसादसे समुच्चय दुर्गसमूह ( दुस्तर सांसारिक दुःख समूह ) से तर जाओगे; और यदि तुम अहंकारके वश ( हमारी कथा ) न सुनोगे, तो बिनष्ट होगे ॥ ५८॥ व्याख्या। चित्त 'मैं" में आकर पड़नेसे ही मेरे प्रसादको पाता है; मेरा प्रसादभुक्त चित्त ही मच्चित्त है। इस अवस्थामें "सर्वदुर्ग"
SR No.032601
Book TitlePranav Gita Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanendranath Mukhopadhyaya
PublisherRamendranath Mukhopadhyaya
Publication Year1998
Total Pages378
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith
File Size26 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy