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श्रीमद्भगवद्गीता जगत्के प्रजा सदृश अद्भुत जीवन्त चित्रोंकी क्रिया देखी, यह सब मेरी प्रसन्नतासे है (प्र+ सदगमन करना + त, अर्थात् ममत्व शब्दके अर्थसे जो समझा जाता है, प्रकृष्ट पूर्वक उसके विश्रामके पश्चात् जिस भावका उदय होता है, उसीको प्रसन्नता कहते हैं ); क्योंकि जबतक तुम्हारे अन्तःकरणमें "मेरे" कह करके किसी वृत्तिकी उपस्थिति थी, तबतक तुमने उस अद्भुत सखीवनी शक्तिकी क्रीड़ा (खेल) देखनेके लिये अवकाश नहीं पाया। जब तुम अपना "अहं ममत्व" को छोड़ करके सच्चे “मैं” में मिलने गये, तबही तुम्हारी वह अदृष्टपूर्व घटना उपस्थित हुई थी। इसीको आत्मयोग कहते हैं, जिससे तुमने उस आदि, अनन्त परं रूप अर्थात् अरूपके रूपका दर्शन कर लिया। जिसकी छाया पड़ सके ऐसे पृथिवीके अणु उसके भीतर कहीं भी नहीं थे। केवल ज्योतिर्मय तेजसे बना हुआ चर-जगत्का चरम खेल था। ब्रह्म नाड़ीका ठीक मध्यमागसे सहस्रारमें उठकर ज्योति भेद करके, मनोलय होनेके पश्चात् इस अवस्थाका परिज्ञान होता है। इसको तुम जिस रीतिसे देखते हो, उसीके अनुसार तद्भाव युक्त होनेसे ही वह दिखाई पड़ता है। और इसीलिये इसे कोई दूसरा देख नहीं सकता॥४७॥
न वेदयज्ञाध्ययनैर्न दान
न च क्रियाभिर्न तपोमिरुतः। एवं रूपः शक्य अहं नृलोके
द्रष्टु त्वदन्येन कुरुप्रवीर ॥४८॥
अन्वयः। हे कुरुप्रवीर । न वेदयज्ञाध्ययनैः न दानैः न क्रियाभिः ( अग्निहोत्रादिभिः ) न च उग्रः तपोभिः ( चान्द्रायणादिभिः ) नृलोके ( मनुष्यलोके ) त्वदन्येन (त्क्तोऽन्येन केनचित् ) एवं रूपः अहं द्रष्टुं शक्यः ॥ ४८ ॥