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श्रीमद्भगवद्गीता पहुँचनेसे ही आत्मज्ञानप्रभावसे देखने पाओगे कि, जितने दिन इच्छाप्रवाह प्राकृतिक विषयमें दौड़ता है, उतने दिन अज्ञानता हेतु कर्मबन्धनमें चक्कर खाना ही होता है, परन्तु उस इच्छा प्रवाहको प्रकृति के आश्रय ईश्वरमें फेंकनेसे भोगद्वारा कर्मसमूह क्षयको प्राप्त होते हैं,
और बन्धन नहीं रहता, शान्तिमय ईश्वरभाव वा मुक्तावस्थाको प्राप्ति होती है। आलोचनाके फलसे यह ज्ञान प्रत्यक्ष होते मात्र इच्छाप्रवाह उस ईश्वरमें अर्पित होता है; तब "स्वकर्मणा तमभ्यर्च्य सिद्धि विन्दति मानवः" इस वचनानुरूप इच्छा बिना दूसरे किसी प्रकारकी इच्छा करनी ही होती नहीं। प्रत्यक्ष देख करके पुनः इच्छा करके बन्धनकी प्रार्थना कौन करे! इसलिये भगवान कहते हैं "अशेष आलोचनाके बाद तुम जिस प्रकार इच्छा करोगे उसी प्रकार करना" ॥ ६३ ॥
सर्वगुह्यतमं भूयः शृणु मे परमं वचः।
इष्टोऽसि मे दृढ़मिति ततो वक्ष्यामि ते हितम् ॥ ६ ॥ अन्वयः। भूयः मे सर्व गुह्यतमं ( परमं ) वचः शृणु, ( त्वं ) मे दृढ़ ( अत्यन्तं) इष्टः ( प्रियः ) असि इति ततः ( तेन कारणेन ) ते ( तव ) हितं ( परं ज्ञानप्राप्तिसाधनं ) वक्ष्यामि ( कथयिष्यामि ) ॥ ६४ ॥
अनुवाद। पुनराय हमारा सर्वगुह्यतम परम वाक्य श्रवण करो, तुम हमारे अतिशय प्रिय हुए हो, इसलिये तुम्हारा हित कहता हूँ ।। ६४ ।।।
व्याख्या। भगवानके पास कोई प्रिय भी नहीं, अप्रिय भी नहीं। भगवान कर्मफल-विधाता है; जिसका जैसा कर्म उसको वैसा फल देता है। और उसको जिस भावसे जो ग्रहण करता है वह भो उसको उसी भावसे ही ग्रहण करता है-"ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम्" । अर्जुन भगवानको अत्यन्त प्यार कर चुके, इसलिये भगवान भी उसको अत्यन्त प्यार करते हैं। प्याररूप कर्मके फलसे