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अष्टादश अध्याय
३२६ प्यारको देते हैं, "शिष्यस्तेऽहं शाधि मां त्वां प्रपन्नम्” बोल करके शिष्यत्व स्वीकार करके अकपट आत्मसमर्पण करनेके फलसे परमहित का उपदेश करते हैं। अति गभीर गीताशास्त्रका अशेष रूपसे पर्यालोचना करनेमें कदापि अर्जुन असमर्थ हो जायं, इसलिये कृपा करके भगवान आपही आप उसका सार संग्रह करके परवती दोनों श्लोक में कहते हैं। इस श्लोकका भावार्थ यह है :-सब गोपनसे भी अतिशय गोपन जो 'मैं' का रहस्य है, 'मेरे शब्दका अर्थ पोषण करे ऐसे किसीके साथ छुआछूत रहनेसे जिसका प्रकाश नहीं होता, (प्राकृतिक किसी पदार्थके साथ थोड़ासा भी संस्रव रखनेसे जो खिलता नहीं गोपन रहता है, वही गुह्यतम है ) ऐसा श्रेष्ठ संवाद पुनः मैं तुमको तुम्हारे हितके लिये कहता हूँ; क्योंकि एतावत् काल तक तुम 'मैं' की इष्ट साधनामें अटल स्थिर रहनेसे 'मैं' के अति प्रिय हुए हो। (१२ अः ५३ से २० श्लोक तक देखो)।। ६४॥
मन्मना भव मद्भक्तो मयाजी मां नमस्कुरु ।
मामेवैष्यसि सत्यं ते प्रतिजाने प्रियोऽसि मे ॥ ६५ ॥ अन्वयः। मन्मना ( मच्चित्तः ) भव, मद्भक्तः ( मद्भजनशीलः ) भव, भद्याजो ( मद्यजनशीलः ) भव, मां नमस्कुरु, मां एव एष्यसि ( प्राप्स्यसि ); ( त्वं ) मे प्रियः असि, ( अतः ) ते ( तुभ्यमहं ) सत्यं ( यथा भवत्येवं ) प्रतिजाने (प्रतिज्ञा करोमि ) ॥ ६५॥
अनुवाद। मन्मना हो जाओ, मद्भक्त हो जाओ, मयाजी हो जाओ, मुमको नमस्कार करो। ऐसा करनेसे मुझको ही प्राप्त होगे, तुम हमारे प्रिय हुए हो, ( इसलिये ) तुमको मैं सत्य प्रतिज्ञा करता हूं ॥ ६५ ॥ .
व्याख्या। भगवान अभी कुछ देर पहले कहे हैं कि "तमभ्यर्च्य सिद्धि विन्दति मानवः” अतएव “तमेव शरणं गच्छ”; अब कहते हैं "मन्मना भव” इत्यादि । इससे भगवान यह समझाते हैं कि, "वह