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________________ अष्टादश अध्याय . २८५ - अनुवाद। जो पहले विषवत् परन्तु परिणाममें अमृतसदृश तथा आत्मबुद्धिके • प्रसादसे उत्पन्न है, वही सात्त्विक सुख है ॥ ३७॥ व्याख्या। भगवान सात्त्विक सुखकी अवस्था व्यक्त करनेका कोई एक निर्दिष्ट शब्द न पाकर कहते हैं कि, जो "तत्" अर्थात् उसी प्रकार, जिसे भुक्तभोगीगण भोग करके जानना होता है, बातसे व्यक्त किया नहीं जाता। जो सुख पहिले विषवत् है, क्योंकि ज्ञान, वैराग्य, ध्यान, समाधि प्रभृतिको साधन करनेके लिये विशेष कष्ट भोग करना पड़ता है; परन्तु जो परिणाममें अमृत सदृश होता है, क्योंकि ज्ञान वैराग्यादिके परिपाकमें जो आनन्द-वैभव लाभ होता है, उसकी सीमा नहीं-शेष नहीं-और क्षय भी नहीं है, वह अनन्त-अमृत है। और जो आत्मबुद्धिके प्रसादसे उत्पन्न है, अर्थात् बुद्धि आत्मामें पड़के रजस्तमोके संस्रव विहीन होकर निर्मल स्वच्छभाव धारण करने के पश्चात् उत्पन्न होता है। उसी सुखको सात्त्विक सुख कहते हैं ॥ ३७॥ विषयेन्द्रियसंयोगाद् यत्तदप्रेऽमृतोपमम् । परिणामे विषमिव तत्सुखं राजसं स्मृतम् ॥ ३८ ॥ अन्वयः। विषयेन्द्रियसंयोगात् ( विषयानो इन्द्रियाणां च संयोगात् ) यत् तत् (प्रसिद्ध) अग्रे अमृतोपमं परिणामे विषमिव तत्सुखं राजसं स्मृतम् ॥ ३८ ॥ अनुवाद। विषय और इन्द्रियोंके संयोगसे जो सुख (प्रसिद्ध प्रकार, साधारण का परिज्ञात ) पहिले अमृत सदृश होता है, परन्तु उसका परिणाम विषवत् है, वह सुख राजस करके कथित है ॥ ३८ ॥ व्याख्या। और विषय तथा इन्द्रियोंके संयोगसे जो सुख उत्पन्न होता है, सब कोई जिसका रस भोग करके जान लेते हैं, जो पहिले अमृत सदृश (जैसे कामिनी काधन आदिका व्यवहार और भोग) परन्तु जिसका फल विषवत है, जैसे बल, वीर्य्य, रूप, प्रज्ञा, मेधा,
SR No.032601
Book TitlePranav Gita Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanendranath Mukhopadhyaya
PublisherRamendranath Mukhopadhyaya
Publication Year1998
Total Pages378
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith
File Size26 MB
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