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अष्टादश अध्याय
३४१ जाता है। -इस प्रकारसे वासुदेव (विस्तार ब्रह्मभाव ) का और अर्जुनका ( मायाप्रसूत बद्ध संकीर्ण जीवभावका ) अद्भुत लोमहर्षण प्रश्नोत्तर संवाद मैंने सुना है ।। ७४ ॥
व्यासप्रसादाच्छ तवानिमं
गुह्यमह परम्। योगं योगेश्वरात् कृष्णात्
साक्षात् कथयतः स्वयम् ॥ ७ ॥ अन्धयः। अहं व्यासप्रसादात् इमं परं गुह्य योगं योगेश्वरात् स्वयं कृष्णात् साक्षात् कथयतः श्रु तवान् ॥ ५॥
अनुवाद। व्यासके प्रसादसे यह परम गुह्य योग योगेश्वर स्वयं श्रीकृष्णके साक्षात् कथासे मैंने श्रवण किया है । ७५ ॥
व्याख्या। व्यासके प्रसादसे अर्थात् भेदज्ञानके सहारेसे ( यदि भेदज्ञान न होता, एक विस्तार ब्रह्मभाव ही रहता, तो इस संवादका उत्थान ही न होता, इसलिये कहते हैं ) यह जो गोपनसे भी अतिशय गोपन संवाद (चित्तके ऊपरकी कथा ), यह योग अर्थात् आत्मामें
आत्मा मिलानेका व्यापार (दो न होनेसे मिलन नहीं होता) योगेश्वर कृष्णके ( जो कर्षण द्वारा खींच लाकर मुक्ति देते हैं उन्हीं कूटस्थ पुरुषके ) निज मुखका प्रत्यक्ष उपदेश मैंने सुना है ॥ ७५ ॥
राजन् संस्मृत्यः संस्मृत्य संवादमिममद्भुतम् । - केशवार्जुनयोः पुण्यं हृष्यामि च मुहुमुहुः ॥ ६ ॥
अन्वयः। हे राजन् ! केशवार्जुनयोः इमं अद्भ तं पुण्यं ( साक्षात् पुण्यस्वरूपं पापहरं ) संवादं संस्मृत्य संस्मृत्य मुहुर्मुहुः च ( प्रतिक्षणं ) हृष्यामि (रोमाञ्चितो भवामि हर्ष प्राप्नोमीति वा) ॥ ७६ ॥ . अनुवाद। हे राजन् ! केशवार्जुनका यह अद्भ त पुण्य ( पापहर ) संवाद बार बार स्मरण करके मैं मुहुर्मुहुः हृष्ट ( पुलकित ) होता हूँ॥ ७६ ।।