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________________ ३४० , श्रीमद्भगवद्गीता स्मृतिः ( आत्मतत्त्व विषयाः) लब्धा; गतसंदेहः ( मुक्तसंशयः सन् ) [ स्वच्छासने] स्थितः अस्मि, तव वचनं ( तथाज्ञा ) करिष्ये ॥७३॥ __अनुवाद। हे अच्युत ! हमारा मोह नष्ट हो गया, तुम्हारे प्रसादसे मैंने स्मृति लाम किया है; गतसंदेह हो करके मैंने यह स्थित हुआ है, तुम्हारे वाक्यका पालन करूंगा॥ ५३॥ व्याख्या। कृतार्थ अर्जुन (साधक ) कहते हैं, हे अच्युत ! तुम्हारे प्रसादसे सर्व अनर्थका मूल हेतु जो संसार भ्रम है वह मेरा कट गया। मेरी आत्मस्मृति जिसे मैंने भूल जाकर जीव सजा था उसे मैंने पाया है। हमारा संशय नाश हो गया। अब मैंने सर्वभूतात्मभूतात्मा अनन्त ब्रह्मस्वरूपमें ( स्व स्वरूपमें) अपनी स्थितिको है। और कुछ भी हमारा कर्तव्य कह करके विद्यमान नहीं है। अब मैं तुम्हारे वचन अनुसार कर्म करूंगा। ___ भगवत्कृपासे कृतकृतार्थ साधक गतसंदेह होकरके साधन-समरके लिये पुनराय स्थित हुए-यथाविधान मतसे उठकर बैठ गये ॥ ७३ ॥ संजय उवाच । इत्यहं वासुदेवस्य पार्थस्य च महात्मन । संवाद मिममश्रौषमद्भुतं रोमहर्षणम् ।। ७४ ।। अन्धयः। संजयः उवाच । इति ( एवं ) अहं महात्मनः वासुदेवस्य पार्थस्य च इमं अद्भ तं ( अत्यन्तविस्मयवरं ) रोमहर्षणम् ( रोमांचकरं ) संवादं अश्रौषं (श्रुतधानस्मि ) ॥ ७४ ॥ अनुवाद। संजय कहते हैं। मैंने इस प्रकार महात्मा वासुदेव और पार्थका इस रोमांचकर अद्भ त संवाद श्रवण किया ॥ ७४ ॥ व्याख्या। दिव्य दृष्टिसे अब सकल शास्त्रका सारार्थ युगपत् उठ करके समाप्तिकी स्फुरण करती है। सब कुछ अनुभव अन्तःकरणमें ही होती है, इसलिये धृतराष्ट्रको (मनको) सम्बोधन करके कहा मा पाखोमा पार्था महालाना
SR No.032601
Book TitlePranav Gita Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanendranath Mukhopadhyaya
PublisherRamendranath Mukhopadhyaya
Publication Year1998
Total Pages378
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith
File Size26 MB
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