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________________ अष्टादश अध्याय २६५ केवल सरल मनका दृढ़ विश्वास चाहिये। सुतरां सब कोई स्व स्व वर्णाश्रमके कर्ममें रत रह करके भक्ति साधन कर सकते हैं । इस भक्ति बल करके "त्रियो वैश्यास्तथा शूद्रास्तेऽपि यान्ति परी गतिम्”। स्व स्व कर्ममें अर्थात् अपने अपने वर्णाश्रमके कर्ममें निर्विकार भावसे रत रह, करके ही भक्तिकी साधना करनी होती है, अन्यथा नहीं होती;"लज्जा घृणा भय माहीं, एक रहते होना नाहीं"। अगाध जलमें पड़नेसे जैसे जल ही का आश्रय लेकर तीर लक्ष्य करके तैरते हुए तीर पर आना होता है, तब जल त्याग होता है, जलके आश्रय बिना जल त्यागका जैसे दूसरा उपाय नहीं है, उसी तरह स्वकर्मका आश्रय और ईश्वरको लक्ष्य करके तदर्चनामें रत होना होता है, तब कर्मत्याग होता है। ___ असली बात यह है कि मानवको सिद्धिलाभ करना हो तो उन्हें दो कार्य करने होंगे:-एक मान और अपमान बोध न करके "असक्तबुद्धिः सर्वत्र" होकर स्वकर्ममें निरत रहना है; और दूसरा उस प्रकारसे सर्वान्तर्यामी सर्वव्यापी भगवानकी अर्चना करना। यह अर्चना अति उदार भावकी अर्चना है। यहां श्रीभगवानने आराध्य देवताके किसी नाम, रूपका उल्लेख नहीं किया; केवल वर्णना करके कह दिया कि “यतः प्रवृत्तिभूतानां येन सर्वमिदं ततम्”। इसमें विन्दुमात्र भी साम्प्रदायिक भाव नहीं है। प्रवृत्ति शब्द व्यवहारसे समझा जाता है कि, योगानुष्ठानसे निवृत्तिमार्गका अनुसरण करना ही इस अर्चनाका उपाय है। इसलिये कार्यतः चेष्टा करनी चाहिये। सचेष्ट क्रियानुष्ठान द्वारा उसी सर्वव्यापी सर्वशक्तिकारण सर्वान्तर्यामीकी अर्चना करनेसे ही सिद्धि प्राप्ति होती है ॥ ४६ ॥ श्रेयान स्वधर्मो विगुणः परधर्मात् स्वनुष्ठितात् । स्वभावनियतं कर्म कुर्वन्नाप्नोति किल्बिषम् ॥ ४७ ॥ अन्वयः। स्वनुष्ठितात् ( सम्यगनुष्ठितात् ) परधर्मात् विगुणः स्वधर्मः श्रेयान ; स्वभावनियतं स्वभावजं ) कर्म कुर्वन् किल्बिषम् न आप्नोति ॥ ४७ ॥
SR No.032601
Book TitlePranav Gita Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanendranath Mukhopadhyaya
PublisherRamendranath Mukhopadhyaya
Publication Year1998
Total Pages378
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith
File Size26 MB
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