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________________ ३५८ श्रीमद्भगवद्गीता गीताश्रयेऽहं तिष्ठामि गीता मे परमं गृहम् । गीताज्ञानं समाश्रित्य त्रिलोकी पालयाम्यहम् ॥ ४६ ॥* गीता मे परमा विद्या ब्रह्मरूपा न संशयः। . अर्द्धमात्रा परा नित्यमनिर्वाच्यपदात्मिका ॥ ४७ ॥** गीतानामानि वक्ष्यामि गुह्यानि शृणु पाण्डव । कीर्तनात् सर्वपापानि विलयं यान्ति तत्क्षणात् ॥ ४८ ॥ गङ्गा गीता च सावित्री सीता सत्या पतिव्रता । ब्रह्मावलिब्रह्मविद्या त्रिसन्ध्या मुक्तिीहिनी ॥४६॥ अर्द्धमात्रा चिता नन्दा भकनी भ्रान्तिनाशिनी । वेदत्रयी परानन्दा तस्वार्थज्ञानमन्जरी ॥ ५० ॥*** मैं गीताके आश्रयमें रहता हूँ, गीता मेरा परम गृह है; मैं गीता ज्ञानका सम्यक् आश्रय करके त्रिलोक पालन करता हूँ ॥ ४६॥ गीता मेरी ब्रह्मरूपा परमा विद्या है इसमें संशय नहीं है। गीता मेरी अर्द्धमात्रा, परा और नित्य अनिर्वाच्यपद स्वरूपिणी है ॥ ४ ॥ हे पाण्डव ! गीताके सकल गुह्य नाम कहता हूँ श्रवण करो, जिसको कीर्तन करनेसे समुदय पाप उसी क्षण नाश हो जाते हैं ॥४८॥ ___ गङ्गा, गीता, सावित्री, सीता, सत्या पतिव्रता, ब्रह्मावलि, ब्रह्मविद्या, त्रिसन्ध्या, मुक्तिगेहिनी ॥ ४६ ॥ * गोताश्रयेऽहं तिष्ठामि गीता मे चात्तमं गृहम् । गीताज्ञानमुपाश्रित्य त्रील्लोकान् पालयाम्यहं ॥ ७ ॥ ** गीता मे परमा विद्या ब्रह्मरूपा न संशयः। अर्द्ध मात्राक्षरा नित्या सानिर्वाच्यपदात्मिका ॥ ८ ॥ *** चिदानन्देन कृष्णेन प्रोक्ता स्वमुखतोऽज्जुनम् । वेदत्रयौ परा नन्दा तत्त्वार्थज्ञानसंयुता ॥ ९ ॥
SR No.032601
Book TitlePranav Gita Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanendranath Mukhopadhyaya
PublisherRamendranath Mukhopadhyaya
Publication Year1998
Total Pages378
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith
File Size26 MB
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