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________________ त्रयोदश अध्याय १७१ व्याख्या। यह जो भूतोंके यह-वह-इत्यादि पृथक् पृथक् भावः देखते हो, उन सबको उस प्रकृतिके ही करण और निवृत्तिरूप धर्म जानो। इस अन्तःकरणसे वह पृथक् भाव मिटा देनेसे ही भूतसमूह एक होकरके अति विस्तार होता है। और वह अति विस्तार ही ब्रह्म है। वह ब्रह्म ही "मैं” हूँ। तस्वदर्शी साधक जब चतुर्थ अध्यायका कहा हुआ ब्रह्मयज्ञका अनुष्ठान करते हैं, तब उनकी सर्वत्र आत्मदृष्टि प्रतिष्ठित होती है, और प्रत्यक्ष करते हैं कि वारिधि-वक्षमें (अकूल समुद्रके जलके ऊपर जहाँसे कोई कूल किनारा दिखाई नहीं देता ) अनन्त तरंग-फेन-बुद्बुद्वत् भूतसमूह एक आत्मामें ही अवस्थित और एक आत्मासे ही विविध आकार धरके विस्तृत तथा एक आत्मा में ही प्रलीन होता है। जब यह प्रत्यक्ष दर्शन होता है, बोध भी निस्तरंग दृढ़ होता है, तबही साधकको ब्रह्मभाव-प्राप्ति होती. है॥३१॥ । अनादित्वान्निगुणत्वात्परमात्मायमव्ययः । शरीरस्थोऽपि कौन्तेय न करोति न लिप्यते ॥ ३२ ॥ अन्वयः। हे कौन्तेय ! अनादित्वात् अथं परमात्मा अव्ययः ( अविकारी ), (अतः ) शरीरस्थोऽपि न ( किंचित् ) करोति न ( कर्मफले:) लिप्यते ॥ ३२ ॥ अनुवाद। हे कौन्तेय ! अनादित्व और निर्गुणत्व हेतु यह परमात्मा अव्यय (अविकारौ ) है, इसलिये शरीरस्थ हो करके भी कुछ नहीं करते यथा ( कभी किसोमें भी ) लिप्त नहीं होते ॥ ३२ ।। व्याख्या। ब्रह्मभाव-प्राप्ति होनेके पश्चात् देह सम्बन्धके लिये सुख दुःखादिसे और विषमता नहीं आती, समदर्शन ही रहता है। क्योंकि परमात्मतत्त्व जो है, वह अनादि और निगुण है, इसलिये अविकारी है। और प्राकृतिक तत्त्व सादि तथा सगुण है, इसलिये
SR No.032601
Book TitlePranav Gita Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanendranath Mukhopadhyaya
PublisherRamendranath Mukhopadhyaya
Publication Year1998
Total Pages378
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith
File Size26 MB
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